जहाँगीर ने अपने पिता अकबर द्वारा प्रतिपादित राजत्व के दैवी सिद्धांत को न केवल अपनाया, बल्कि इसे और अधिक विस्तार दिया। उसकी यह अवधारणा थी कि राजा का चयन ईश्वर करता है और उसे वही व्यक्ति बनाया जाता है जो इस पद के लिए योग्य होता है। तुज़क-ए-जहाँगीरी में उसने स्पष्ट रूप से कहा है कि राजत्व और शासन विद्रोहियों या किसी अन्य शक्ति के द्वारा नहीं दिए जा सकते। यह विचारधारा उसके शासन के प्रमुख निर्णयों और उसकी नीतियों में परिलक्षित होती है।
प्रकाश का प्रतीकात्मक महत्व
जहाँगीर ने 'नूरुद्दीन' नाम धारण करके और अपनी प्रिय वस्तुओं को 'नूर' से सम्बंधित नाम देकर राजत्व के दैवी स्वरूप को और अधिक गहराई प्रदान की। जैसे:
- अपनी पटरानी को 'नूरमहल' और 'नूरजहाँ' का नाम दिया।
- अपने प्रिय घोड़े का नाम 'नूर-ए-अस्प' और हाथी का नाम 'नूर-ए-फिल' रखा। यह प्रतीकात्मकता जहाँगीर के शासन के आध्यात्मिक एवं प्रतीकात्मक पहलुओं को उजागर करती है।
विद्रोहों का सामना और राजत्व की रक्षा
जहाँगीर के शासनकाल में दो प्रमुख विद्रोह हुए: खुसरो का विद्रोह और शाहजहाँ का विद्रोह। इन विद्रोहों का सामना करते हुए उसने अपने राजत्व के दैवी स्वरूप को बनाए रखा।
- खुसरो का विद्रोह: जहाँगीर ने इसे निर्ममता से दबा दिया और इसे अपनी दैवी शक्ति की परीक्षा के रूप में देखा।
- शाहजहाँ का विद्रोह: इस विद्रोह का अंत सशर्त क्षमा और राजकीय आदेश के पालन के रूप में हुआ। यह मुगल राजत्व के प्रति वफादारी और दैवी सिद्धांत की स्वीकार्यता को दर्शाता है।
सहिष्णुता और रूढ़िवाद का संतुलन
जहाँगीर ने अकबर की सुलहकुल नीति की प्रशंसा करते हुए सहिष्णुता की नीति अपनाई, लेकिन प्रारंभिक काल में रूढ़िवादी उलेमाओं को प्रसन्न करने का प्रयास भी किया।
- सहिष्णुता: जहाँगीर को समकालीन ग्रंथों में अकबर की परंपरा का अनुयायी माना गया है।
- उलेमाओं का नियंत्रण: उसने रूढ़िवादी विचारधाराओं को बढ़ावा देने के बजाय उन पर नियंत्रण बनाए रखा।
न्यायप्रियता: जनता में लोकप्रियता का आधार
जहाँगीर को एक न्यायप्रिय शासक के रूप में देखा गया। उसने अपने महल के बाहर न्याय की जंजीर लटकाई, जो न्याय की उपलब्धता का प्रतीक बनी। हालांकि, यह विवादास्पद है कि क्या यह आम जनता के लिए सुलभ थी, लेकिन इसने कानून और न्याय के प्रति विश्वास को बढ़ावा दिया।
विद्रोही गुटों के प्रति दृष्टिकोण
जहाँगीर ने सिख गुरु अर्जुन को विद्रोही खुसरो का समर्थन देने के कारण मृत्युदंड दिया। उसने इसे राज्य के दैवी सिद्धांत और न्याय के तहत उचित ठहराया। इसी प्रकार, अन्य विद्रोही गुटों जैसे श्वेताम्बर जैन गुरु मानसिंह के अनुयायियों को भी दंडित किया गया।
प्रशासनिक निर्णय और दैवी सिद्धांत
जहाँगीर ने दक्षिण के अभियान के लिए राजकुमार खुर्रम (शाहजहाँ) को शाह की उपाधि देकर यह स्पष्ट किया कि मुगल साम्राज्य के पद और अधिकार दक्षिणी राज्यों से श्रेष्ठ हैं। यह निर्णय उसके दैवी सिद्धांत के अनुरूप था, जिसमें बादशाह का पद ईश्वर प्रदत्त और सर्वोच्च माना गया।
निष्कर्ष
जहाँगीर ने अकबर की परंपराओं को बनाए रखते हुए अपने शासनकाल को दैवी सिद्धांतों और प्रतीकवाद से जोड़ा। उसने न्यायप्रियता, धार्मिक सहिष्णुता, और प्रशासनिक कुशलता के माध्यम से अपनी स्थिति को मजबूत किया। उसके शासनकाल का मूल्यांकन, तात्कालिक संदर्भों और उसके सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए। आधुनिक दृष्टिकोण से, जहाँगीर का शासन दैवी अधिकार और व्यावहारिक राजनीति का मिश्रण था, जिसने मुगल साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान किया।
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