बुधवार, 12 जनवरी 2022

शोध आलेख - भूमण्डलीकृत भारत का आर्थिक इतिहास और उसका सामाजिक प्रभाव

प्लेगरिज्म से बचने के लिए सन्दर्भ दें - Pandey, Rajiv Kumar, and Siddharth Shankar Rai. “भूमण्डलीकृत भारत का आर्थिक इतिहास और उसका सामाजिक प्रभाव.” राधाकमल मुकर्जी : चिंतन परंपरा जुलाई-दिसंबर .वर्ष 23 अंक 2 (2021): 133–139. Print.

सार

वर्ष 1991 भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रस्थान बिंदु है क्योंकि यहीं से भारत में आर्थिक सुधारों का नया दौर आरम्भ हुआ जिसे आर्थिक क्रांति कहा गया जो कुछ समीक्षकों की राय में जवाहरलाल नेहरू द्वारा की गई 1947 की राजनीतिक क्रांति की अपेक्षा ज्यादा महत्त्व रखती है। यह आर्थिक संकट का दौर था जब अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी द्वारा निर्देशित ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम अपनाने का निर्णय लिया गया, जिसका मतलब था लोकहितकारी राज्य की संरचना को बदलकर आयात प्रतिस्थापक की जगह निर्यातोन्मुख विकास-नीति पर आधारित बाज़ारोन्मुख नीतियाँ अपनाना, बड़े पैमाने पर निजीकरण का कार्यक्रम चलाना, विदेशी पूँजी को प्रोत्साहन देने वाली नीतियाँ बनाना, लाइसेंस-परमिट राज को ख़त्म कर वाणिज्य और उद्योगनीति में भारी बदलाव करना। इन परिणामी सुधारों से अर्थव्यवस्था के विविध संकट टल गए। सम्प्रति भारत विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का गर्व देता है हालाँकि असमानता जनित गरीबी अभी भी भारी चिंता का विषय बना हुआ है तथा भुस्थानिक संकटों के भिन्न प्रारूप संरक्षणवाद को प्रेरित कर रहे हैं

बीज शब्द

भूमण्डलीकरण, अर्थव्यवस्था, उदारीकरण, भारत, आर्थिक इतिहास, असमानता

पृष्ठभूमि : राज्य के लौह सिकंजे में खुलेपन का मिमियाना

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में, जिसे कभी वैश्वीकरण का पहला चरण कहा गया था, भारतीय अर्थव्यवस्था महज़ एक से डेढ़ प्रतिशत के दर से ही आगे बढ़ी थी। इसमें मुख्य योगदान चाय, जूट और सूती कपडे के निर्यात का था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के दौर में जब दुनिया भयानक वैश्विक मंदी से जूझ रही थी आबादी में बेतहाशा वृद्धि हुई, प्रति व्यक्ति आय में भारी गिरावट आई और भारत को भयानक गरीबी वाले देश के रूप में कुख्याति मिली। इस बदतर हालात को देखकर नेहरू जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने इसके लिए उस व्याख्या को जोर शोर से स्वीकार किया तथा प्रचारित किया जिसकी सबसे पहले कांग्रेस के पितृपुरुषों में से एक दादा भाई नौरोजी ने स्थापना की थी।[1] आज़ादी के बाद भी राष्ट्रीय नेतृत्व पर स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान औपनिवेशिक अर्थतंत्र की मीमांसा से उपजे इस धन की निकासी के सिद्धांत का प्रभाव जारी रहा नेहरू का मानना था की अंतर्राष्ट्रीय व्यापार आर्थिक साम्राज्यवाद का भंवर है।[2] नियंत्रणों में जकड़े, अंतर्मुखी और ठहराव में फंसते भारतीय अर्थतंत्र को सुधारों की जरूरत काफी समय से थी साठ के दशक की शुरुआत में ही मनमोहन सिंह ने तर्क पेश किया था कि निर्यात बढ़ाने के बारे में भारत की आशंका सही नहीं है, उन्होंने कम नियंत्रण और ज्यादा खुलेपन की वकालत की।[3] इसके पहले 1954 में बम्बई के एक अर्थशास्त्री ए. डी. श्राफ ने अपने ‘फ्री इंटर प्राइजेज’ नामक मंच के माध्यम से तीव्र औद्योगीकरण के लक्ष्य के लिए अव्यवहारिक विचारधाराओं से मुक्ति का आह्वाहन किया।[4] बैंगलोर में ‘माई इंडिया’ का संपादक फिलिप स्प्रैट ने महलनोबिस के अर्थव्यवस्था पर राज्य के लौह सिकंजे की मुखालफ़त की और कहा कि यह मुक्त उद्यमशीलता का गला घोंट रहा है, परन्तु यह आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बन कर रह गई और भारी उद्योगों के समर्थन में उठने वाले शोर ने इसे दबाये रखा।[5] फिर भी इस दौर में कुछ सुधार लागू  किए गये जिन्हें ‘चोरी छुपे सुधार’ कहा गया।

21 जून 1991 को नरसिम्हा राव सरकार ने शपथ ली और अगले ही दिन राष्ट्र को बताया की आर्थिक संकट सर पर है। इस समय भुगतान संकट चरम पर पहुँच गया था। रिजर्व बैंक के गवर्नर एस वेंकटरमण की रपट के अनुसार भारत के पास केवल दो हफ्ते के आयात का बिल चुकाने लायक क्षमता रह गई थी।[6] इस वक्त तक विचारधारात्मक तथा निहित स्वार्थों द्वारा विरोध काफी कमजोर हो चुका था, इसलिए नरसिम्हा राव सरकार ने पुरानी मानसिकता पर चोट करते हुए असाधारण और व्यापक सुधार आरम्भ किये।[7] इस प्रकार चीन द्वारा रास्ता बदलने के करीब 13 वर्ष बाद भारत में 1991 में कुछ देर से ही सही भारत ने आर्थिक राष्ट्रवाद को छोड़कर आर्थिक सुधारों का काम शुरू किया तथा वैश्वीकरण के युग में प्रवेश किया, जिससे प्रभावित होकर विश्वबैंक ने इसे “निःशब्द आर्थिक क्रांति” कहा।[8] भगवती ने आश्वस्त किया कि बार बार फिसल जाने वाला वह नीतिगत विन्यास अब आख़िरकार हमारी पकड़ में आ गया है जो आर्थिक जादू करेगा जिसकी कामना जवाहर लाल नेहरू अपने देशवासियों के लिए करते थे।[9] मनमोहन सिंह ने अपने दुसरे बजट भाषण में कहा की भारत अब अपनी सही राह पर आ गया है।

शोधपत्र का उद्देश्य : इतिहास में सामान्यीकरण की तलास

चर्चित इतिहासकार युवाल नोआ हरारी चेतावनी देते हैं कि हम इतिहास के एक ऐसे दौर में रह रहे हैं, जहाँ हम ‘विकास’ और ‘अन्याय’ को स्पष्टतः अलग नहीं कर सकते हैं हम उस स्पष्ट सीमा को भी नहीं पहचान सकते जो ‘वास्तविकता’ को ‘कहानी’ से अलग करती है[10] भूमण्डलीकृत भारत का आर्थिक इतिहास अपने कारणों, विशेषताओं तथा परिणामों के विपरीत ध्रुवी तीव्र बहसों का नेतृत्व करता है। इस शोध पत्र का उद्देश्य इस काल के आर्थिक तथा सामाजिक इतिहास में सामान्यीकरण के विविध तत्वों की तथ्यपरक तलास और उसके लेखाजोखा से जुड़ा है

शोध परिणाम

नई आर्थिक नीति : उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण

26 जुलाई 1991 को पेश किया गया बजट सुधारों का प्रस्ताव था। शुरुआत में मुद्रा का अवमूल्यन कर दिया गया, आयात पर से कोटा हटा लिया गया, शुल्को में कटौती की गई, निर्यात को बढावा दिया गया, घरेलु बाज़ार को भी मुक्त किया गया, लाइसेंस परमिट कोटाराज को बहुत हद तक ख़त्म कर दिया गया और सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार को हतोत्साहित किया गया। कुल मिलकर आर्थिक सुधारों ने सरकारी भीमकाय आकार को सीमित करने का प्रयास किया। वित्तीय घाटे को कम करने के उपाय किये गए जो उस समय सकल घरेलु उत्पाद के 8 फीसदी तक पहुँच गया था।[11]

नई औद्योगिक नीति : लालफीताशाही का मंद पड़ना

जुलाई 1991 में नई औद्योगिक नीति तैयार की गई जिसमें कहा गया कि कुछ खास तरह के वर्गीकृत उद्योगों को छोड़कर सभी तरह के उद्योगों को उनके निवेश के स्तर पर बिना भेदभाव के धीरे-धीरे औद्योगिक लाइसेंस की प्रक्रिया से मुक्त कर दिया जाएगा। सिर्फ इस नीति में वही उद्योग अपवाद होने थे जो देश की सुरक्षा, पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य से जुड़े हुए थे। यह नीति लंबे समय से चली आ रही मौजूदा औद्योगिक नीति के विपरीत थी जिसमें कुछ उद्योगों को राज्य के लिए और कुछ उद्योगों को लघु उद्योग क्षेत्र के लिए आरक्षित कर रखा था। सेवा क्षेत्र में भी उदारीकरण की नीति को लागू किया गया और निजी खिलाड़ियों को बीमा, बैंकिंग, दूरसंचार और हवाई यात्रा में निवेश के लिए प्रोत्साहित किया गया परंतु अभी भी श्रम कानूनों तथा विनिवेश पर प्रतिबंधों को नहीं छेड़ा गया।[12] संक्षेप में कहें तो यह कदम दमघोंटू आंतरिक नियंत्रणों से अर्थव्यवस्था को छुटकारा दिलाए जाने की कोशिश थी ताकि वह अपने हित में विश्वव्यापी भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में भाग ले सकें

इस आर्थिक आजादी के मायने : कमजोर होता राष्ट्र राज्य

जो लोग मिश्रित अर्थव्यवस्था की लगातार वादाखिलाफी से आजिज आ चुके थे उन्होंने इस अर्थनीति के पुराने विरोधियों के साथ मिलकर ऐलान किया कि अगर 15 अगस्त राजनीतिक आजादी का दिन माना जाएगा तो 24 जुलाई को आर्थिक आजादी का प्रतीक समझा जाना चाहिए। परंतु विवाद की शुरुआत भी यहीं से हुई क्योंकि यह आर्थिक आजादी परमिट कोटा राज को खत्म करके एक ऐसा निज़ाम बनाने की कोशिश भर नहीं थी जिसमें राष्ट्र राज्य और उसके नागरिकों के लाभ का आग्रह सर्वोपरि होता। इस आर्थिक आजादी का मतलब यह था कि न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व बाजार से जुड़ते चले जाना है, वरना भारतीय वित्त मंत्री को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन के दफ्तर में जाकर अपने कामों का हिसाब भी देना है। इसे अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी के  द्वारा दी गई सनद का मोहताज रहना है। इसका मतलब यही भी था कि भारतीय अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के रहमो करम पर निर्भर होते चले जाना है। इसका मतलब यह भी था कि भारतीय विदेश मंत्री को अमेरिकी विदेश मंत्रालय और यूरोपीय कारकुनों से अच्छे चाल चलन का प्रमाण पत्र भी हासिल करते रहना है।[13]

समूहों की प्रतिक्रिया तथा रणनीति : हाथी और अंधे

यही वजह थी कि इस परिघटना पर भारत के सभी दबाव समूहों ने अपनी रणनीति का ऐलान किया मार्क्सवादियो ने इसे पूँजीवादी सर्वव्यापीकरण के रूप में पेश करते हुए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के दायरे में इसके खिलाफ युद्ध का ऐलान किया। गांधीवादियो को नाखुश होना ही था क्योंकि भूमण्डलीकरण गांव की जगह शहर और नागरिक की जगह उपभोक्ता को अंतिम तौर पर स्थापित करने के आग्रह के साथ सामने आया। भूमण्डलीकरण से सबसे ज्यादा चिंतित राष्ट्रवादी हुए उनमें से ज्यादातर को लगा कि यह परियोजना तो राष्ट्र की आधारभूत संरचना को ही सत्ता और प्राधिकार से वंचित कर देगी इसलिए उन्होंने मार्क्सवादियों के सुर में सुर मिला कर अपना भूमण्डलीकरण विरोधी घोषणा पत्र तैयार किया। वैसे कुल मिलाकर राष्ट्रवादियों का रवैया दोहरे चरित्र का साबित हुआ, विरोध करने के साथ-साथ उन्होंने होशियारी यह दिखाई कि भूमण्डलीकरण के साथ सौदेबाजी भी शुरू कर दी। सूचना क्रांति की प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर वे जनता को नए तरीकों से नियंत्रित करने के प्रयोजन में लग गए। राष्ट्रवादियों के इस हिस्से का ख्याल था कि वह अपनी संप्रभुता का एक हिस्सा त्याग कर उसके बदले में भूमण्डलीकरण से कहीं ज्यादा हासिल कर सकते हैं। आधुनिकता के आलोचकों ने कुछ खुशी तथा कुछ संदेह के स्वर में इसका स्वागत किया। वे खुश इसलिए थे क्योंकि राष्ट्रीय सरहदों की अलंघनियता से बेपरवाह भूमण्डलीकरण के जरिए उन्हें ‘राष्ट्रवाद के कारागार’ के खिलाफ बगावत की उम्मीद थी जबकि उन्हें परेशानी यह थी कि कहीं भूमण्डलीकरण अपनी पश्चिम केंद्रीयता और चरम बाजारवाद के कारण किसी भी तरह के विकल्पों की संभावना को ही नष्ट न कर दे।[14]

सुधारों के नतीजे और समृद्धि का दौर : आंकड़ों की दुनिया

सुधारों के आरंभिक वर्षों के नतीजे प्रशंसनीय रहे। गहरे व्यापक संकट से भारत के निकलने की प्रक्रिया सबसे तेज गिनी जाएगी इसके अलावा ढांचागत सुधार, खासकर आरंभ में उठाए गए कदम बहुत कम हानि के साथ उठाए गए। ऐसी आशंका थी कि इन कदमों से लंबी मंदी आएगी जिससे बड़े पैमाने पर बेकारी पैदा होगी और गरीबों की स्थिति और भी खराब होगी जैसा कि दूसरे देशों की मिलती जुलती परिस्थिति में हुआ था, लेकिन भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ, अलबत्ता सकारात्मक बदलाव देखा जा सकता है[15]

भारत के कुल घरेलू उत्पाद की दर 1991–92 के संकट के वर्ष में गिरकर मात्र 0.8 फीसदी रह गई थी। लेकिन यह जल्द ही बढ़ कर 1992-93 में 5.3 फीसदी हो गई और 1993-94 में बावजूद अयोध्या संकट, 6.2 फीसदी हो गई जो अगले तीन वर्षों में 7.5 फीसदी रही। संकट और आवश्यक ढाँचागत सुधारों के बावजूद आठवीं योजना(1992-97) में विकास दर का औसत लगभग 7 फीसदी रहा। यह सातवीं योजना के 6 फीसदी से उच्चतर और अधिक स्थाई था।[16] यहाँ तक की वर्ष 1993-94 के अनुसार मार्च 1995 में मुद्रास्फीति 16.6 प्रतिशत थी जो 9 दिसंबर 2006 तक घटकर केवल 5.32 प्रतिशत  हो गई। वर्ष 1991 में भारत में विदेशी मुद्रा का भण्डार 5.8 बिलियन डालर था, जबकि 2007 में विदेशी मुद्रा का भण्डार 195 बिलियन डॉलर हो चुका था। वर्ष 1991 में प्रतिव्यक्ति आय जहाँ 9993 वहीँ रुपया थी वहीँ 2005-06 में यह उल्लेखनीय रूप से बढ़ कर 15357 रुपया हो गई।[17]

वित्तीय अनुशासन के बेहत्तर होने के साथ साथ भारत में औद्योगिक माहौल में तेजी से सुधार हुआ1991-92 में औद्योगिक उत्पादन दर बहुत ही कम एक फ़ीसदी से भी कम थी। उत्पादन क्षेत्र में यह नकारात्मक थी। 1992-93 में यह बढ़ कर 2.3 फ़ीसदी और 1993-94 में 6 फ़ीसदी और फिर 1993-94 में अभूतपूर्व 12.8 फीसदी हो गई। इससे भी ज्यादा 1994-95 में यह 25 फ़ीसदी हो गयी।[18] केन्द्रीय सरकार का वित्तीय घाटा 1990-91 में कुल राष्ट्रीय उत्पाद का 8.3 फीसदी था जो 1997 तक 6 फीसदी पर आ गया। देश के अर्थतंत्र के विदेशी क्षेत्र को देखें तो निर्यात के मामले में, 1999-92 में डॉलर के हिसाब से 1.5 फ़ीसदी की गिरावट आयी। लेकिन  इसमें जल्द ही सुधार हुआ और 1993-96 में औसत विकास दर 20 फ़ीसदी तक पहुँच गई। महत्व की बात यह रही की भारत की आत्मनिर्भरता इस हद तक बढ़ रही थी कि आयात के काफी बड़े भाग का भुगतान अब निर्यात के जरिये किया जा रहा था। कर्जे का संकट भी समाप्त होने लगा। भारत का विदेशी कर्ज, सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात 1991-92 में 41 फ़ीसदी था जो 1995-96 में यह गिर कर 28.7 फ़ीसदी हो गया। कर्ज वापसी अनुपात भी 1991 के 35.3 फ़ीसदी से गिरकर 1997-98 में 19.5 फ़ीसदी हो गया।

भारत में विदेशी पूँजी निवेश के नतीजे सकारात्मक निकले। 1991 से 1996 के बीच प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लगभग सौ फ़ीसदी बढ़ गया 1991-92 में यह 12 करोड़ 90 लाख डॉलर था जो 1995-96 में बढ़ कर 2.1 अरब डॉलर हो गया। पोर्टफ़ोलियो निवेश सहित कुल विदेशी निवेश 1990-91 के 10 करोड़ 20 लाख डॉलर से बढ़ कर 1995-96 में 4.9 अरब डॉलर का हो गया । 1992-93 तथा 1994-95 के बीच प्रतिवर्ष औसतन 63 लाख नौकरियां पैदा की गईं। ये अस्सी के दशक में प्रतिवर्ष औसतन 48 लाख नौकरियों के निर्माण से कहीं ज्यादा थी। मुद्रा स्फीति जिसका असर गरीबों पर सबसे ज्यादा होता है, नियंत्रण में रखा गया। 1991 में वार्षिक मुद्रा स्फीति 17 प्रतिशत  तक जा पहुँचीं थी वह 1996 की फ़रवरी में 5 फ़ीसदी से भी नीचे उतर आई थी।

कुछ अच्छी कहानियाँ : भूमण्डलीकरण के पक्ष में तर्क

इस प्रकार नई अर्थनीति की प्रशंसा में पुस्तक लिखने वाले गुरुचरण दास के अनुसार आर्थिक सुधारों से देश में ‘सपनों को पुनर्जीवित करने वाली’ एक नई क्रांति आई जिसने ‘लाखो सुधारक’ पैदा किये।[19] जिसको अंबानी से लेकर दिल्ली के कनाट प्लेस के चौराहे पर फूल बेचने वाली लड़की ने भी हाथो-हाथ लिया जिसकी वजह से मध्यवर्ग की उठान ने भी जन्म लिया। बदलाव की नई कहानियों ने भूमण्डलीय आग्रहों को तर्क प्रदान किया[20]

“जास्मीन का गज़रा चुनते हुए उसने बेचने वाली लड़की से पूछा कि उसके गज़रे इतने ठंडे और ताज़े कैसे हैं?...........लड़की ने एक छोटे से रेफ्रीजरेटर की तरफ इशारा किया ...जिसकी मदद से वह जनपथ के चौराहे वाली लड़की से धंधे में बाज़ी मार लेती है।”

“आजकल सभी का दिमाग पैसा कमाने की तरफ़ भाग रहा है” यह बात सरकारी स्कूल के मास्टर ने कही जो बच्चों के उसका स्कूल छोड़ने का रोना रो रहा था । मैंने पूछा वे तुम्हारा स्कूल क्यों छोड़ रहे हैं? “क्योंकि उन्हें मोंटेसरी शब्द आकर्षित कर रहा है वे टीवी देखते हैं और अंग्रेजी सीख कर अमीर बनना चाहते हैं।”

आर्थिक विकास की तेज़ रफ़्तार ने भारतीय मध्यम वर्ग के आकार और इसके प्रभाव में काफी बढ़ोत्तरी की है। राजनीति शास्त्री ई. श्रीधरन लिखते हैं कि “इस वर्ग के उदय ने भारत के वर्गीय चरित्र को बदल कर रख दिया जो कि पहले एक छोटे से संभ्रांत और एक विशालकाय वंचित तबके के बीच साफ़ तौर पर बटा हुआ था। अब एक बीच का वर्ग भी पनप आया था[21] बड़ी बात अब यह भी थी कि यह आजादी के समय के मध्यवर्ग से इस अर्थ में भिन्न था कि इस पर गांधीवादी सादगी का प्रभाव नहीं था तथा यह उपभोक्तावाद के प्रति मन की असहजता से मुक्त था।[22] इसने बड़ी बारीकी से अपने विकल्पों का इस्तेमाल किया। वे अपनी ज़ेब का भी ख़याल रखते हैं और अपने पड़ोसियों से सामाजिक प्रतिस्पर्धा का भी। ब्राण्डो ने स्टाइल और मिज़ाज़ को बदल दिया। टीवी ओनिडा अब जहाँ सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाता था वहीं यह पड़ोसियों में ईर्ष्या जगाता था। स्वदेशी अब पुराने ख्याल को प्रदर्शित करता था

आर्थिक सुधार का चेहरा : साफ्टवेअर उद्योग

भारत में और विदेश में भी साफ्टवेयर उद्योग को आर्थिक सुधारों का पोस्टर ब्वाय कहा जाता है[23] बंगलौर ने भारत के सिलिकान वैली के रूप में अपना नाम स्थापित कर लिया है। विप्रो और इन्फोसिस दोनों का मुख्यालय बंगलौर में ही है, साथ ही सॉफ्टवेयर क्षेत्र में कई अन्य खिलाडियों का भी मुख्यालय यहीं हैं। बंगलौर को आर्थिक सुधारों के चहरे के तौर पर देखना सहज लगता है यहाँ विदेशी बाज़ार के खुलने से भारी मात्र में कुशल श्रम के लिए रोजगार पैदा हुआ और काफी पैसा आया है जिसका आम लोगों में करीब ठीक ठाक वितरण भी हुआ है। 2004 में ‘टाइम’ मैगजीन द्वारा विप्रो के अध्यक्ष अजीम प्रेमजी को दुनिया के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में शामिल किया जाता है। उनकी कंपनी, जो आई.बी.एम. के भारत से चले जाने से उपजे गैप के बाद अपनी लय में आई, ने देश में सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति की अगुवाई की तथा सूचना प्रौद्योगिकी सेवाप्रदाता और सॉफ्टवेयर विकसित करनेवाली सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है। 2004 में ही भारतीय स्टील किंग लक्ष्मी नारायण मित्तल अमेरिका की इंटरनेशनल स्टील ग्रुप (आई.एस.जी.) खरीदकर दुनिया की सबसे बड़ी स्टील कंपनी के मालिक बन जाते हैं। 2006 में दुनिया का सबसे बड़ा रिटेलर ‘वॉलमार्ट’ अरबपति सुनील मित्तल के साथ एक सौदे पर हस्ताक्षर करता है। 2007 ‘फॉर्चून’ पत्रिका द्वारा तैयार की गई दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिला व्यवसायियों की सूची में तीन भारतीय महिलाओं, चंदा कोचर, उप-प्रबंध निदेशक, आई.सी.आई.सी. बैंक, नैना लाल किदवई, मुख्य कार्यकारी अधिकारी, एच.एस.बी.सी. इंडिया और किरण मजूमदार शॉ, बायोकॉन, प्रमुख को शामिल किया जाता है। अमेरिका की सबसे शक्तिशाली महिला व्यवसायी के रूप में भारतीय-अमेरिकी इंद्रा नूयी  नामित होती है।

कुछ बुरी कहानियाँ : गुमराह प्राथमिकताएं तथा हताश नागरिक

भूमण्डलीकरण की खूबसूरत कहानियां क्या जमीनी हकीकत का प्रतिनिधित्व करती थीं? मिशेल चोसुदोब्सकी जैसे प्रेक्षकों के लिए 24 जुलाई की तारीख के मायने कुछ और ही थे। उन्होंने दिखाया कि किस प्रकार इस तारीख के बाद गावँ और शहर के गरीबों की जिंदगी और तकलीफ़ देह हो गई। उन्होंने राष्ट्रीय स्वायत्तता और प्रभुसत्ता से जुड़े सवालों को भी उठाया। उन्होंने आरोप लगाया कि इस तारिख के बाद भारत का वित्तमंत्री संसद और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को धता बताकर सीधे विश्वबैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के वाशिंगटन डी सी स्थित दफ्तर की हिदायतों का पालन करने लगा-

"तभी 24 जुलाई 1991 को नया केंद्रीय बजट आया जिससे सूत का भाव उछल गया जिसका बोझ बुनकरों को उठाना पड़ा...4 सितम्बर 1991 को गुंटूर जिले के गोला पल्ली गांव में राधाकृष्ण मूर्ति ने भूख के मारे दम तोड़ दिया।"[24]

चोसुदोब्सकी का यह वर्णन स्थानीय स्तर पर भूमण्डलीकरण के लाभ कमज़ोरों को न मिल पाने और उनके हिस्से में केवल नुकसान आने की प्रवृत्ति की तरफ इशारा करता है। उल्लेखनीय है कि भारत के संदर्भ में विश्व अर्थव्यवस्था का विश्लेषण करते हुये कुमार मंगलम बिड़ला जैसे उद्योगपति भी तकरीबन इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं -

"हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि सभी देशों को उदारीकरण के लाभ समान रूप से नहीं मिलते हैं। फायदा उन्हें मिलता है जो पहले से ही साधन संपन्न हैं और जिनके पास प्रस्तुत अवसरों का लाभ उठाने के लिए समुचित शिक्षा और प्रशिक्षण होता है।

स्टिगलिट्ज़ अपनी पुस्तक ग्लोबलाइजेशन मेकिंग वर्क्स (2005) में यह स्वीकार करते हैं कि यह 'किसी के लिए' तथा 'किसी के विरुद्ध' है। अगली पुस्तक द ग्रेट डिवाइड : अनइक्वल सोसाइटी एंड व्हाट वी कैन डू अबाउट देम (2015)में यह दावा करते हैं कि 

"असमानता स्थिति नहीं चयन है। यह अन्यायपूर्ण नीतियों और गुमराह प्राथमिकताओं का संचयी परिणाम है।" 

जिसका समर्थन थॉमस पिकेटी अपनी पुस्तक पूँजी में करते दिखते हैं। मौलिक सुविधाओं मसलन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने में सरकारों का बहुत ही खराब रिकार्ड रहा। सन 1990 में स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का 1.3 फ़ीसदी खर्च किया जाता था। वहीं 1991 तक यह घट कर 0.3 फ़ीसदी रह गया अध्ययनों ने इस तथ्य को साबित किया कि सुधारों के प्रतिकूल प्रभावों से ग्रसित होने की प्रवृति, पारंपरिक रूप से उपेक्षित और सामाजिक रूप से मुख्य धारा से बहिष्कृत समूहों में दूसरों की तुलना में अधिक है।[25]  किसानों के बारे में पत्रकार पी. साईं नाथ की सच्चाइयाँ, उनकी आत्महत्या से ज्यादा चिंता जगाने वाली रही, वहीं अरुंधती राय ने अपनी किताब ‘न्याय का बीज गणित’ में आदिवासियों की वीभत्स सामाजिक अपवर्जन तथा उनके प्रति अन्याय को समाज के सामने रखा अमर्त्य सेन की पुस्तक ‘भारत और उसके विरोधाभास’ तथा शिरीष खरे की पुस्तक ‘एक देश बारह दुनिया’ का बयान भी कुछ ऐसा ही है।

असमानता: कुछ खराब आंकड़े

अर्थशास्त्री जगदीश भगवती अपनी पुस्तक इन डिफेंस ऑफ ग्लोबलाइजेशन 2004 में तर्क देते हैं कि भूमण्डलीकरण एक खेल की तरह है अगर आप की तैयारी अच्छी है तो आप जीतते हैं अन्यथा आप हार जाते हैं। भारत की असमानता इस दावे को तसदीक करती है। सन 1991 से पहले भी जब उदारीकरण की शुरुआत नहीं हुई थी, भारत में भयानक सामाजिक- आर्थिक असमानता थी। देश के कुछ इलाके और कुछ सामाजिक समूह साफतौर पर अन्यों की तुलना में कम गरीब थे। लेकिन बाज़ार आधारित सुधारों ने इन असमानताओं को और बढ़ाने का काम ही किया। इन दशकों में जो राज्य जितने गरीब थे उनकी उतनी कम तरक़्क़ी हुई। पूरे नब्बे के दशक में, बिहार की विकास दर महज़ 2.69 फ़ीसदी, यूपी की विकास दर 3.58 फीसदी और उड़ीसा की 3.25 फ़ीसदी बनी रही। दूसरी तरफ गुजरात 9.57 फ़ीसदी, महाराष्ट्र 8.01 फ़ीसदी और तमिलनाडु 6.22 फ़ीसदी की डेट से तरक्की करता रहा। कुल मिलाकर कहा जाए तो जो राज्य देश के दक्षिण और पश्चिम हिस्से में थे उनकी तरक़्क़ी ज्यादा हुई जबकि जो राज्य उत्तर और पूर्व इलाके में थे उनकी विकास दर कम रही। इस प्रक्रिया में विशाल आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार सबसे नीचे रहे। सन 1993 में इन दोनों राज्यों में देश के 41.7 फ़ीसदी गरीब रहते थे जबकि सन 2000 में, यह आंकड़ा बढ़कर 42.5 फ़ीसदी हो गया।

कर्नाटक और आंध्रप्रदेश की राजधानी बंगलौर और हैदराबाद क्रमशः साफ्टवेयर उफान के युग में, निवेश हासिल करने में सबसे ऊपर रहे लेकिन इन्हीं राज्यों के सुदूरवर्ती इलाके इसमें बहुत पीछे छूट गये। सन 1994 से 2000 तक ग्रामीण कर्नाटक में प्रति व्यक्ति उपभोग की दर 9.5 फ़ीसदी सलाना के हिसाब से बढ़ी जबकि कर्नाटक के ही शहरी क्षेत्र में यह दर 26.5 फ़ीसदी सालाना के दर से बढ़ रही थी। आंध्रप्रदेश के लिये यही उपभोग वृद्धि दर ग्रामीण इलाकों के लिए महज़ 2.8 फ़ीसदी सालाना थी तो शहरी इलाकों के लिये 18.5 फ़ीसदी। अगर पूरे देश की बात करें तो देश के सुदूरवर्ती इलाकों में सालाना उपभोग की वृद्धि दर 8.7 फ़ीसदी थी जबकि शहरों में यह डर 16.6 फ़ीसदी थी।

उड़िसा का चक्रव्यूह : आर्थिक सुधार का बर्बर चेहरा

जो उदारीकरण की प्रक्रिया से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं उनमें शायद उड़ीसा के आदिवासी सबसे प्रमुख हैं। यहां खनन कार्यों से जो राजस्व पैदा हुआ वह सीधे खदान मालिकों और राजनेताओं की जेब में गया जो साथ मिलकर काम कर रहे थे। जिनको सबसे ज्यादा क्षति हुई वे आम गांव वाले थे या आदिवासी थे जिनकी जमीन के नीचे बॉक्साइट का अथाह भंडार छुपा हुआ था। वे बेघरबार हो गए और उनकी संपत्ति छिन गई तथा उन्हें पर्यावरणीय असंतुलन का भी सामना करना पड़ा। जो खुलेआम खनन कार्यों से पैदा होने वाला एक अनिवार्य नतीज़ा था।[26] इसने ऐसे सामाजिक आर्थिक भंवर को निर्मित किया जिसका बयान प्रकाश झा अपनी फ़िल्म 'चक्रव्यूह' में करते दिखते हैं। वैश्विक अर्थतंत्र की उत्तेजक लहरों ने न सिर्फ विकास के ऐसे चुम्बकीय टापुओं का निर्माण किया है जहाँ  रोजगार और कमाई का आकर्षण था बल्कि इसने कुछ खाइयों का भी निर्माण किया जहाँ रहने लायक कुछ नहीं बच रहा था  जिसने देश के भीतर और बाहर पलायन को जन्म देकर चिंतनीय समाजशास्त्रीय प्रभाव पैदा करता है

भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में ख़लल : आशंका और राज्य की भूमिका

इस प्रकार भारत के विकास की इस कहानी में, विकास में वृद्धि होने के साथ ध्रुवीकरण हुआ तथा वास्तविक मानव कल्याण में अत्यल्प वृद्धि हुई और गरीबी में मामूली सी कमी हुई।[27] अलबत्ता एडम स्मिथ के बेलगाम अदृश्य हाथ का करामात साफ दिखने लगा। राव सरकार ने अपना आखिरी दौर विभिन्न तबकों का मुहँ बंद करते हुए गुज़ारा जबकि एच डी देवगौड़ा ने दयार्द्र निवेदन किया कि मेहरबानी करके मेरी मदद कीजिए, मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूँ, मुझे ठोस समाधान चाहिए। 1996-97 में अर्थतंत्र का धीमापन पूर्वी एशियाई संकट का नतीजा माना गया। न्यूक्लियर परीक्षणों के फलस्वरूप भारत पर लगाये गए आर्थिक प्रतिबन्धों ने अर्थतन्त्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाला।[28] वाजपेई सरकार की इंडिया शाइनिंग का नारा न केवल जनता ने नकार दिया बल्कि द वर्ल्ड इज फ्लैट के लेखक थामस फ्रीडमैन ने लिखा कि इंडिया शाइनिंग का नारा हम जैसे लोगों को क्षुब्ध करता है...भारत केवल चमकीली पत्रिकाओं में चमक रहा है। मानवीय चेहरे के साथ विकास का नारा देकर मनमोहन सिंह की सरकार बनी जिसमें मनरेगा जैसी योजनाओं से ग्रामीण और पिछड़े भारत में जान फूंकने की कोशिश की गई वैश्विक मंदी की आहट पाते ही मनमोहन सिंह ने सन 2008-09 में कीनीसियन सिद्धांतों के अनुरूप सरकारी खर्चों में बढोतरी करनी शुरू कर दी ताकि अर्थव्यवस्था में गिरावट न आने पाये।[29] सन 2009 के अंत तक अपनी सम्पत्तियों को विविधिकृत करने के लिए रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने 200 मीट्रिक टन सोना ख़रीदा यह पिछले 30 साल में सोने की सबसे बड़ी ज्ञात खरीद थी जो किसी केंद्रीय बैंक द्वारा की गई थी।[30] लेकिन मनमोहन सिंह के कार्यकाल के अंतिम दिनों में पूँजी ने अपना मूल चरित्र लाभ और लालच को समाज में प्रक्षेपित किया तथा भारत भ्रष्टाचार के अविश्वसनीय और अचम्भित करने वाले प्रभावशाली आंकड़ों में घिर गया। सरकार की नीतिगत अपंगता ने विकास को ठहराव की अवस्था में ला दिया।[31] संदेहास्पद उत्प्रेरणा वाले नागरिक असंतोष को अवसर बनाकर 2014 में सत्ता में आई नई सरकार ने ऐसी आर्थिक हरकतें की जो जनता को एक तमाशे की तरह दिखे और वो ताली बजाए। इसमें किसी योजना या दूरदृष्टि का पक्ष साफ तौर पर खाली दिखता है। यही कारण है कि संपोष्य आर्थिक विकास तथा सबका साथ सबका विकास का नारा आर्थिक आंकड़ो में अपनी अपर्याप्तता के कारण न केवल गुम हो गया बल्कि उसकी अनुपयोगिता के तर्क भी तलासे जाने लगे। सरकार की सबसे बड़ी आर्थिक पहल विमुद्रिकरण को जेम्स कैबट्री आर्थिक इतिहास का सबसे खराब अनुभव करार देतें हैं।[32] हालांकि कुछ स्तरों पर असमानता को अब पाटा जा रहा था तथा पिछ्ड़े क्षेत्र तेज़ी से सामने आ रहे थे।

वैश्विक महामारी के दौर में भारत : भूमण्डलीकरण का विचार एवं व्यवहार

कोविड-19 महामारी ने भूमण्डलीकरण के कार्यकारी स्वरुप जैसे सामाजिक तथा आर्थिक संचरण में गंभीर व्यवधान उत्पन्न किया तथा अपने वैचारिक आदर्शों का सरेआम खिल्ली उड़ाया। अंकटाड ने यह अनुमान लगाया है कि उड़ान प्रतिबंधों के कारण अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन उद्योग में आये व्यवधान के कारण 2020-2021 में 4 ट्रिलियन वैश्विक जीडीपी का नुकसान हुआ जबकि डब्ल्यूटीओ ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में 5.3 प्रतिशत का ह्रास दर्ज किया है। इन सब का परिणाम यह रहा है कि पर्यटन उद्योग में 197 मिलियन लोग बेरोजगार हो गए भारत में भी महामारी से बचाव के लिए कोविड लाकडाउन उपाय की कीमत जीडीपी की नकारात्मक वृद्धि दर रही रुझान बताते हैं कि उदार अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तेजी से बदल रही है, तथा वैश्वीकरण के वादे से मुहँ फेर कर, राष्ट्रीय हित के लिए संरक्षणवाद तथा राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता का आसरा चाहती है।[33] भारत में भी मेड इन इंडिया तथा आत्मनिर्भर भारत का नारा संकट काल में अपने हितो की तरजीह को दिखाता है कोई संदेह नहीं है कि भूमण्डलीकरण पर कोरोनावायरस का अपेक्षित प्रभाव नकारात्मक है, क्योंकि यह मूल रूप से भूमण्डलीकरण  के पीछे के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों को कमजोर करता है परन्तु यह नहीं माना जा सकता कि यह संकट भूमण्डलीकरण को नष्ट कर देगा।

निष्कर्ष

भारत में भूमण्डलीकरण के दौर के आर्थिक इतिहास का मूल्यांकन एक जटिल एवं कठिन कार्य है। इस जटिलता के कई कारण हैं। सर्वप्रथम, इस आकलन को लेकर अपेक्षाकृत शोध कम हुए हैं। भारत में इस सम्बंध में गंभीर मतांतर भी हैं। भूमण्डलीकरण के पश्चात भारत में जिन आर्थिक सफलताओं की दुहाई दी जाती है, समाज विज्ञानी अतुल कोहली का इसके बारे में यह मानना है कि ये आर्थिक सफलतायें 1980 के दशक में किये गए आर्थिक सुधारों के कार्यक्रमों का परिणाम है, न कि भारत में किये गये आर्थिक सुधारों का। भारत में भूमण्डलीकरण के आकलन की दूसरी समस्या अतिवादिता से सम्बंधित है। भारत में भूमण्डलीकरण के समर्थक इसकी नकारात्मक विफलताओं की ओर वैसे ही आंखे मूंद लेते हैं जैसे भूमण्डलीकरण का विरोधी वर्ग इसकी सफ़लताओं से। बहरहाल इस तथ्य से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है कि भूमण्डलीकरण ने आर्थिक मोर्चे पर भारत का काया पलट किया है। वहीं इसने असमानता को बढ़ाया है। परन्तु भूमण्डलीकरण के विकृत विरोध की बजाय इसके सुधारवादी संशोधन की आवश्यकता हमेशा जारी रहेगी।

 

सन्दर्भ



[1] फ्रैंच पैट्रिक. भारत एक तस्वीर , पेंगुइन बुक्स , गुड़गांव, 2013, पृ 210

[2]  Srinivasan, T.N, and Suresh D. Tendulkar. Reintegrating India with the World Economy, Institute for International Economics, Washington, DC, 2003, p. 13.

[3]  Singh, Manmohan. India's Export Trends and Prospects for Self-Sustained Growth, Clarendon Press, Oxford, 1964,

[4]  गुहा रामचन्द्र. भारत नेहरू के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, दिल्ली, 2012, पृ. 376.

[5]  वही पृ. 377

[6]  दुबे अभय कुमार. भारत का भूमण्डलीकरण, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. 44.

[7]  चन्द्र विपिन. आजादी के बाद भारत, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली, 2015, पृ. 484.

[8]  Nair, Janaki. Miners and Millhands: Work, Culture and Politics in Princely Mysore, Sage Publications, New Delhi, 1998, p. 355.

[9]  Bhagwati, Jagdish N. India in Transition: Jagdish Bhagwati, Clarendon Press., Oxford, 1993, p. 98.

[10]  हरारी  युवाल  नोआ. 21 वीं सदी के लिए 21 सबक़, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2020. पृ 215-245

[11]  गुहा रामचन्द्र. भारत नेहरू के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, दिल्ली, 2012, पृ. 379.

[12]  वही पृ 379-380

[13]  दुबे अभय कुमार. भारत का भूमण्डलीकरण, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. 24.

[14]  वही पृ. 22

[15]  चन्द्र विपिन. आजादी के बाद भारत, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली, 2015, पृ. 485.

[16]  वही. पृ 487

[17]  सिंह अमित कुमार. भूमण्डलीकरण और भारत परिदृश्य और विकल्प, सामायिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 43-44

[18]  चन्द्र विपिन. आजादी के बाद भारत, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली, 2015, पृ. 485.

[19]  दास गुरुचरण. उन्मुक्त भारत, हिन्द पॉकेट बुक्स, गुड़गांव, हरियाणा, 2018, पृ. 332

[20]  वही पृ. 300-311

[21] गुहा रामचन्द्र. भारत नेहरू के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, दिल्ली, 2012, पृ. 386.

[22]  दास गुरुचरण. उन्मुक्त भारत, हिन्द पॉकेट बुक्स, गुड़गांव, हरियाणा, 2018, पृ. 302

[23]  गुहा रामचन्द्र. भारत नेहरू के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, दिल्ली, 2012, पृ. 382.

[24]  चोसडुवस्की मिशेल. ग़रीबी का वैश्वीकरण, संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2009, पृ. 189-190

[25]  चलम के एस. आर्थिक सुधार और सामाजिक अपवर्जन, सेज भाषा, नई दिल्ली, 2017

[26]  गुहा रामचन्द्र. भारत नेहरू के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, दिल्ली, 2012, पृ. 396-397.

[27]   Nagaraj, R. “India's Economic Development.” Routledge Handbook of Indian Politics, 2013, pp. 196–197., https://doi.org/10.4324/9780203075906.ch16.

[28]  चन्द्र विपिन. आजादी के बाद भारत, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली, 2015, पृ. 491.

[29]  फ्रैंच पैट्रिक. भारत एक तस्वीर , पेंगुइन बुक्स , गुड़गांव, 2013, पृ 220-221

[30]  वही पृ 221

[31]  “Losing Its Magic.” The Economist, The Economist Newspaper, 24 May 2012, https://www.economist.com/leaders/2012/03/24/losing-its-magic.

[32]  Crabtree, James. “Modi's Money Madness.” Foreign Affairs, 19 Aug. 2019, https://www.foreignaffairs.com/articles/india/2017-06-16/modis-money-madness.

[33] covid-19 a liberal democratic curse? Risks for liberal international order, Carla Norrlöf (2020), Cambridge Review of International Affairs, 33:5, 799-813, DOI: 10.1080/09557571.2020.1812529

रविवार, 13 सितंबर 2020

पुनर्जागरण

सीमित अर्थ में पुनर्जागरण यूनान और रोम की प्राचीन सभ्यता के ज्ञान विज्ञान के प्रति फिर से पैदा हुई रूचि थी। चौदहवीं से सोलहवीं सदी के कालखण्ड में दिखने वाली जैकब बर्कहार्ड की इस 'इटालियन सच्चाई' ने उस व्यापक अर्थ वाली मनोवृत्ति का प्रसार पूरे विश्व में किया जिसे जूल्स मिशलेट 'विश्व एवं मानव की खोज' के रूप में पहचानते हैं, जो मध्ययुग में धर्म के वर्चश्व में कहीं दब सी गई थी।

यह मनोवृति जिस सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की उत्पाद थी, वह दावतों के बाद अकालों को धारण कर रही थी। लगातार युद्धों तथा कृषि पर मौसम की मार को अभी जनसंख्या झेल ही रही थी कि ब्लैक डेथ जैसी महामारी ने दस्तक दी तथा यूरोपीय समाज और अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से बाधित कर दिया। परिणामों ने जिस संतुलन का निर्माण किया वह सिर्फ अर्थव्यवस्था के नए रूप और उसकी तकनीकी पर ही नहीं बल्कि समाज और उसकी मनोवृति के विस्थापन पर भी निर्भर था। इसने उन साहसिकों को भौगोलिक खोजों और यात्राओं के लिये उत्साहित किया जिन्हें राजसत्ता सहयोग कर रही थी और 'गॉड गोल्ड और ग्लोरी' प्रेरित कर रहे थे।

इस पूर्वी संपर्क ने यूरोप में न केवल व्यापार, उद्योग, बैंकिंग तथा शहरों के  विकास को प्रेरित किया बल्कि अरबों के माध्यम से यूरोप को कागज, कुतुबनुमा, पुस्तकालय तथा बारूद से परिचय कराया। लेकिन पोप का निवास स्थान इटली इन सबसे अलग था। भूमध्यसागरीय देशों में इटली की अनुकूल व्यापारिक स्थिति ने वहां मिलान, नेपल्स, फ्लोरेंस तथा वेनिस जैसे शहरों का निर्माण किया। जिसका प्रभाव सिर्फ नवोदित व्यापारिक वर्ग के उदय के रूप में ही नहीं हुआ बल्कि इसने इटली में एक ऐसे मध्यवर्ग का निर्माण किया जिसे न तो सामंतो की परवाह थी न पोप की,जो मध्यकालीन मान्यताओं को ताख पर रखता था तथा उसकी व्यावसायिक जरूरते शिक्षा में लौकिकता पर बल देती थीं । फ्लोरेंस का यही समाज दांते, पेट्रार्क, बुकासियो, एंजेलो तथा मैकियावेली जैसों का प्रश्रयदाता बना ।

1453 ईसवी में तुर्कों द्वारा कुस्तुन्तुनिया के पतन से नए व्यापारिक मार्गों की खोज एक जरूरत बन गई वहीं कुस्तुन्तुनिया से विद्वानों का पलायन इटली की तरफ होने लगा। अकेले कार्डिनल बेसारियोन 800 पांडुलिपियों के साथ इटली पहुंचा। परिणाम यह हुआ कि यूनानी तर्क और विद्या ने अपने पतन को दरकिनार कर इटली में प्रव्रजन कर लिया। कागज़ पर छपाई की शुरुआत ने ज्ञान पर विशेषाधिकार को खत्म कर दिया तथा अब यह कहने का घमण्ड टूटने लगा कि किताबों में यह लिखा है। छापेखाने ने बौद्धिक अपवादों को विस्तार दे कर अब उसे जनसामान्य का व्यवहार बना दिया।

पुनर्जागरण की आरंभिक अभिव्यक्ति इटली के जीनियस लियोनार्डो द विंची की 'द लास्ट सपर' तथा 'मोनालिसा', माइकल एंजेलो की 'द लास्ट जजमेंट' तथा 'फाल ऑफ मैन', और राफेल की सर्वश्रेष्ठ कृति 'मां मेडोना' के चित्रों में दिखती है। स्थापत्य में मध्यकालीन गोथिक शैली का अवसान हो गया तथा उसकी जगह विशुद्ध गैर धार्मिक भावों की प्रधानता वाला सेंट पीटर का गिरजाघर नई शैली का सर्वोत्तम नमूना बन गया। जिसके वास्तुकारों में ब्रुनलेस्की, एंजेलो तथा राफेल का नाम आता है। हालांकि रैनेसाँ मूर्तिकला का पथप्रदर्शक दोनातेला था किंतु सर्वश्रेष्ठ कृति एंजेलो की 'पेता', जिसका निर्माण रोम में सेंट पीटर गिरजाघर के मुख्य द्वार पर हुआ है तथा 'डेविड' की मूर्ति है जिसे फ्लोरेंस के नागरिकों ने बनवाया था।

इस काल में जनता की देसी भाषा में साहित्य लेखन होने लगा था। यूरोप की आधुनिक भाषा में लिखी गई पहली महत्वपूर्ण कृति इतावली कविता के पिता दांते की 'डिवाइन कॉमेडी' है जो स्वर्ग नरक की कल्पना है जबकि उसका 'वितानोआ' प्रेम गीत है तथा 'मोनार्कीया' पोप विरोधी रचना जिसे जलाया गया। दांते के बाद पुनर्जागरण की भावना को प्रश्रय देने वाला दूसरा व्यक्ति पेट्रार्क था जिसे मानवता वाद का संस्थापक तथा पुनर्जागरण साहित्य का पिता कहा जाता है यह अपने 'सॉनेट' के कारण प्रसिद्ध है। हॉलैंड के इरास्मस को मानवतावादीयों का राजकुमार कहा जाता है जिसने 'मूर्खता की प्रशंसा में' लिखी है, यह 2500 प्रतियों के साथ अपने समय की बेस्ट सेलर बनी। स्पेन के सर्वांतेस ने 'डॉन क्विजोट' में नाइटों का माखौल उड़ाते हुए कहा कि हर कुत्ते का एक दिन होता है। फ्लोरेन्स के मैकियावेली ने आधुनिक राजनीति पर अपनी 'द प्रिंस' लिखी।

आधुनिक विज्ञान के पिता बेकन ने अपनी पुस्तक 'द एडवांसमेन्ट ऑफ लर्निंग' में बताया कि ज्ञान सिर्फ चिंतन से नहीं बल्कि प्रकृति के अन्वेषण से प्राप्त किया जा सकता है। पोलैंड निवासी कॉपरनिकस ने टॉलमी के जियो सेंट्रिक धारणा का खंडन किया जिसके लिए एक समय ब्रूनो को जिंदा जला दिया गया था। जान कैप्लर ने अपने गणितीय प्रमाणों से कोपरनिकस के विचारों का समर्थन किया। जिसका प्रत्यक्ष अनुभव गैलीलियो की दूरबीन ने किया। इसी दौर में न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण तथा हार्वे ने रक्तपरिसंचरण तंत्र की खोज की। इन वैज्ञानिक उपलब्धियों ने ज्ञान के प्रत्यक्षवादी अभिगम को सराहा।

वैज्ञानिकता का व्यावहारिक पक्ष दैवी मामलों से मानव के मामलों में स्पष्ट झुकाव के रूप में दिखा। यह झुकाव पुनर्जागरण की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति मानवतावाद है। तकनीकी अर्थ में मानववाद अध्ययन का कार्यक्रम है जिसके द्वारा मध्ययुग की रूढ़िवादी तर्क शास्त्र और अध्यात्म के अध्ययन के स्थान पर भाषा, साहित्य और नीति शास्त्र के अध्ययन पर जोर दिया गया। साहित्य और इतिहास को अब मानविकी कहा जाने लगा। साधारण अर्थ में यह एक ऐसी विचारधारा है जिसके द्वारा मानव का गुणगान, उसके सारभूत मान मर्यादा पर बल, उसकी अपार सृजनशक्ति में अटूट आस्था और व्यक्ति के अहरणीय अधिकारों की घोषणा ही मानववाद का सार है। 'इस बेमतलब दुनिया का कोई अर्थ नहीं है अगर मनुष्य इसे अर्थ न दे' यह विचार रखने वाले ग्रीक दार्शनिक प्रोटागोरस की अनुगूँज हमें इतावली मानवतावादी पिकाडेल्ला की कृति 'ऑन द डिग्निटी ऑफ मैन' में दिखती है जब वह कहता है कि 'आदमी से अद्भुत कोई नहीं है, मानव एक चमत्कार है।' इसके विचारों को 'मैनिफेस्टो ऑफ रिनेसाँ' कहा जाता है। शेक्सपियर इसे दुहराता है, 'कितनी अनुपम कृति है मानव,....ईश्वर के समतुल्य है मानव।'

इस प्रकार पुनर्जागरण, काण्ट की उस प्रबोधन की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है जो जानने का साहस करती है, स्वआरोपित अपरिपक्वता से मुक्ति का आवाह्न करती है तथा आधुनिक राजनीति का उद्गम बनती है। दीर्घकाल में यह जो असर छोड़ती है उसे हम भौतिक और बुद्धिवादी दृष्टिकोण के विकास, अभिव्यक्ति की प्रतिष्ठा, राज्य का धर्म से पृथक्करण, राष्ट्रीयता की भावना का विकास में देख सकते हैं। हालांकि साथ ही पी स्मिथ जिस पुनर्जागरण के रूप को प्रतिगामी कहतें है वह आगे चल कर अपने परिपक्व रूप में रूसो के पुरातन के प्रति मोह में दिखता है ।

शनिवार, 5 सितंबर 2020

सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन

सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन


अर्थ : असंतोष की अभिव्यक्ति

राजनीतिक भागीदारी के संस्थागत दायरों के बाहर परिवर्तनकामी राजनीति करने वाले आंदोलनों को सामाजिक आंदोलन की संज्ञा दी जाती है। सामाजिक प्रक्रियाओं के रूप में सामाजिक आंदोलन स्थापित सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध सामूहिक असंतोष की अभिव्यक्ति के रूप में उभरतें हैं जो सामाजिक परिवर्तन के कारक बन जाते हैं। यह परिवर्तन कभी कभी अपनी व्यापकता, प्रभाविता और तीव्रता में क्रांति बन जाता है।



संदर्भ : देश काल की अपनी विशिष्ट अनुभूति

यह सामाजिक विकास क्रम की अहम कड़ी होते हैं। यह किसी विशेष ऐतिहासिक तथा सामाजिक संदर्भ को धारण करते हैं जिनके अनुरूप आंदोलन की अपनी समझ तथा अनुभूति होती है उदाहरण के लिए देखें तो पश्चिमी देशों में जहां सामाजिक आंदोलन श्रमिक सुधार आंदोलन जैसे चार्टिस्ट आंदोलन के रूप में सामने आता है वही भारत में उपनिवेश विरोधी आंदोलन के साथ ही जाति विभेद के विरुद्ध सामाजिक आंदोलन अस्तित्व में आते हैं। जो परिवर्तन के रूप में पश्चिम में श्रम सुधार तथा भारत में स्वाधीनता के साथ समतावादी समाज की आकांक्षा वाली बंधुता को लेकर आता है।



उत्पत्ति और प्रभाव : भिन्न अनुभव की विचारपद्धतियाँ

सामाजिक आंदोलन की उत्पत्ति की विचार पद्धतियां इसके कारणों के विभिन्न प्रकारों की खोज करती हैं।

1- जब जन समुदाय को विशिष्ट जन प्रजातांत्रिक व्यवस्था से बेदखल कर सोद्देश्य  विस्थापित तथा विघटित कर देते हैं तो यह परायापन सामाजिक आंदोलन की अपील को बढ़ा देता है।

2- व्यक्तियों के श्रेणीकरण की विषयनिष्ठ असंगतियां तनावों को उत्पन्न कर असंतोष तथा विरोध को प्रकट करती हैं।

3- कोई भी गंभीर संरचनात्मक तनाव जैसे विघटन, व्याकुलता तथा शत्रुता सामाजिक आंदोलन को अभिव्यक्त करने में सहायक हो सकता है।

4- मार्क्सवादी विश्लेषण में संपन्न विपन्न का संघर्ष आंदोलन है जिसका कारण आर्थिक अभाव है।

5- सांस्कृतिक पुनर्जीवन आंदोलन अपने लिए अधिक संतोषजनक संस्कृति निर्मित करने के लिए होते हैं।



घटक : आन्दोलन के आधार

पारंपरिक रूप से सिद्धांतवाद, सामूहिक लामबंदी, संगठन तथा नेतृत्व की पहचान सामाजिक आंदोलनों के प्रमुख घटकों के रूप में की गई है। जबकि नए सामाजिक आंदोलनों के उभरने से मूल्यों, संस्कृति, वैयक्तिकता, आदर्शवाद, नैतिकता ,पहचान, सामर्थ्य आदि के मुद्दों से इन प्रयासों में नई पहचान तथा अतिरिक्त प्रभाविता मिलती है।



प्रकार : संघर्षों की भिन्न अभिव्यक्तियाँ

अलग-अलग सामाजिक संरचनाओं की भिन्न स्थितियों के तनाव से उत्पन्न संघर्ष सामाजिक आंदोलनों को भिन्न प्रकारों में बांटते हैं।

1- औद्योगिक असंतोष, श्रमिक हड़ताल, कर्मचारियों का आंदोलन तथा कृषक आंदोलन अपने सामूहिक हितों के प्रतिस्पर्धात्मक प्रयास होते हैं।

2- झारखंड, उत्तराखंड तथा तेलंगाना के आंदोलन सांस्कृतिक तथा राजनीतिक पहचानो के पुनर्निर्माण से जुड़े थे।

3- जाट आंदोलन, छात्र आंदोलन तथा राजनीतिक दलों के आंदोलनों में जाम, हड़ताल तथा बंदी जैसी कार्यवाईयां, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्ति प्रदर्शन द्वारा दबाव उत्पन्न करने के उद्देश्य से होते हैं।

4- कई बार समाज के अभिजन समूह के आंदोलन अपने विशेष अधिकारों की प्रतिरक्षा से जुड़े होते हैं।

5- खास सांस्कृतिक पैटर्न की निर्माण, प्रसार या जुड़ाव के द्वारा समाज पर नियंत्रण या उसे नए सांचे में ढालने की कोशिश की जाती है जैसे स्त्री आंदोलन या जाति आंदोलन के द्वारा।

6- ऐतिहासिक संघर्ष अपने चरम रूप में राष्ट्रीय संघर्ष आंदोलन होते हैं जैसे भारत का स्वतंत्रता संघर्ष का आंदोलन।



निष्कर्ष : लोकतांत्रिक समाज के लिए

सामाजिक आंदोलनों ने हाशिया ग्रस्त समूहों और अधिकार वंचित तबकों की राजनीति को बढ़ावा दिया है तथा सामाजिक परिवर्तन का कारण बना है इसी वजह से यह माना जाता है कि समकालीन लोकतंत्र अपने विस्तार और गहराई के लिए सामाजिक आंदोलनों का ऋणी है।


                      

       सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त 


समाज में सामाजिक परिवर्तन किन कारणों से तथा किन नियमों के अन्तर्गत होता है, उनकी गति एवं दिशा क्या होती है, इन प्रश्नों को लेकर प्राचीन समय से आज तक विद्वान अपने-अपने मत व्यक्त करते रहे हैं ।

1. चक्रीय सिद्धान्त : ओस्वाल्ड स्पेंगलर

सामाजिक परिवर्तन के बारे में अपना चक्रीय सिद्धान्त जर्मन विद्वान ओस्वाल्ड स्पेंगलर ने अपनी पुस्तक ‘The Decline of the West’ में प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि परिवर्तन कभी भी एक सीधी रेखा में नहीं होता है । सामाजिक परिवर्तन का एक चक्र चलता है, हम जहाँ से प्रारम्भ होते हैं, घूम-फिर कर पुन: वहीं पहुँच जाते हैं । अपनी बात को सिद्ध करने के लिए स्पेंगलर ने विश्व की आठ सभ्यताओं यथा अरब, मिश्र, मेजियन, माया, रूसी एवं पश्चिमी संस्कृतियों आदि का उल्लेख किया और उनके उत्थान एवं पतन को दर्शाया । पश्चिमी सभ्यता के बारे में स्पेंगलर ने कहा कि यह अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गयी है । उनके अनुसार पश्चिमी समाजों का आज जो दबदबा है, वह भविष्य में समाप्त हो जायेगा और उनकी सभ्यता एवं शक्ति नष्ट हो जायेगी । दूसरी ओर एशिया के देश जो अब तक पिछड़े हुए कमजोर एवं सुस्त हैं वे अपनी आर्थिक एवं सैन्य शक्ति के कारण प्रगति एवं निर्माण के पथ पर बढेंगे तथा पश्चिमी समाजों के लिए एक चुनौती बन जायेंगे ।

अंग्रेज इतिहासकार अर्नाल्ड जे. टॉयनबी ने विश्व की 21 सभ्यताओं का अध्ययन किया तथा अपनी पुस्तक ‘A Study of History’ में सामाजिक परिवर्तन का अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया । टॉयनबी के सिद्धान्त को ‘चुनौती एवं प्रत्युतर का सिद्धान्त’ भी कहते है । उनके अनुसार प्रत्येक सभ्यता को प्रारम्भ में प्रकृति एवं मानव द्वारा चुनौती दी जाती है । इस चुनौती का सामना करने के लिए व्यक्ति को अनुकूलन की आवश्यकता होती है इस चुनौती के प्रत्युत्तर में व्यक्ति सभ्यता व संस्कृति का निर्माण करता है ।


2. रेखीय सिद्धान्त : कॉम्टे

रेखीय सिद्धान्तकारों, में कॉम्टे ने सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध मानव के बौद्धिक विकास से जोड़ा है तथा इसके तीन स्तरों की पहचान की है।

(a) धार्मिक स्तर:
यह समाज की प्राथमिक अवस्था थी । इसमें मानव प्रत्येक घटना को ईश्वर एवं धर्म के सन्दर्भ में समझने का प्रयत्न करता था विश्व की सभी क्रियाओं का आधार धर्म और ईश्वर को ही माना जाता था उस समय अलग- अलग स्थानों पर धर्म के विभिन्न रूप जैसे बहुदेतवाद, एकदेववाद अथवा प्रकृति पूजा प्रचलित थे ।

(b) तात्विक स्तर:
इसमें घटनाओं की व्याख्या उनके गुणों के आधार पर की जाती थी । इस अवस्था में अलौकिक शक्ति में विश्वास कम हुआ और प्राणियों में विद्यमान अमूर्त शक्ति को ही समस्त घटनाओं के लिए उत्तरदायी माना गया ।

(c) वैज्ञानिक स्तर:
यह वर्तमान में विद्यमान है । इसमें मानव सांसारिक घटनाओं की व्याख्या धर्म ईश्वर एवं अलौकिक शक्ति के आधार पर नहीं करता वरन् वैज्ञानिक नियमों एवं तर्क के आधार पर करता है । वह कार्य और कारण के सह-सम्बन्धों को ज्ञात कर नियमों एवं सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है ।


3. आर्थिक सिद्धान्त : कार्ल मार्क्स

कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन को आर्थिक कारकों से जनित माना है । अतः उनके सिद्धान्त को आर्थिक निर्धारणवाद अथवा सामाजिक परिवर्तन का आर्थिक सिद्धान्त कहा जाता है । उन्होंने इतिहास की भौतिक व्याख्या की और कहा कि मानव इतिहास में अब तक जो परिवर्तन हुए है वे उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के कारण ही हुए हैं जनसंख्या भौगोलिक परिस्थितियों एवं अन्य कारकों का मानव के जीवन पर प्रभाव तो पड़ता है किन्तु वे परिवर्तन के निर्णायक कारक नहीं हैं । निर्णायक कारक तो आर्थिक कारक अर्थात् उत्पादन-प्रणाली ही है ।

उत्पादन-प्रणाली में परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है जब उत्पादन के उपकरणों (प्रौद्योगिकी) उत्पादन के कौशल, ज्ञान उत्पादन के सम्बन्ध आदि में परिवर्तन आता है तो सम्पूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक अधि-संरचना में भी परिवर्तन आता है जो सामाजिक परिवर्तन कहलाता है ।

मार्क्स के अनुसार इतिहास के प्रत्येक युग में दो वर्ग रहे है । मानव समाज का इतिहास इन दो वर्गों के संघर्ष का ही इतिहास है । उन्होंने समाज के विकास को पाँच युगों में बाँटा और प्रत्येक युग में पाये जाने वाले दो वर्गों का उल्लेख किया एक वह वर्ग जिसका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रहा है और दूसरा वह जो श्रम के द्वारा जीवनयापन करता है । इन दोनों वर्गों में अपने-अपने हितों को लेकर संघर्ष होता रहा है । प्रत्येक वर्ग-संघर्ष का अन्त नये समाज एवं नये वर्गों के उदय के रूप में हुआ है । वर्तमान में भी पूँजीपति और श्रमिक दो वर्ग हैं जो अपने अपने हितों को लेकर संघर्षरत है ।



4. प्रौद्योगिक सिद्धान्त : वेबलिन

वेबलिन सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रौद्योगिक दशाओं को उत्तरदायी मानते हैं । प्रौद्योगिक दशाएं प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है । इसलिए उनके सिद्धान्त को ‘प्रौद्योगिक निर्णयवाद’ भी कहा जाता है ।

वेबलिन ने मानवीय विशेषताओं को दो भागों में विभाजित किया है:

(i) स्थिर विशेषताएँ- जिनका सम्बन्ध मानव की मूल प्रवृत्तियों और प्रेरणाओं से है जिनमें बहुत कम परिवर्तन होता है ।

(ii) परिवर्तनशील विशेषताएँ- जैसे आदतें, विचार एवं मनोवृत्तियाँ आदि । सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध मानव की इन दूसरी विशेषताओं विशेष रूप से मानव की विचार करने की आदतों से है ।

मनुष्य अपनी आदतों द्वारा नियन्त्रित होता है और उनका दास है । ये आदतें किस प्रकार की होंगी यह मानव के भौतिक पर्यावरण विशेषकर प्रौद्योगिकी पर निर्भर है जब भौतिक पर्यावरण अर्थात् प्रौद्योगिकी में परिवर्तन आता है तो मानव की आदतें भी बदलती है मानव जिस प्रकार के कार्य तथा प्रविधि द्वारा जीवनयापन करता है, उसी प्रकार की उसकी आदतें एवं मनोवृतियाँ होती हैं जीवनयापन के लिए मनुष्य जिस प्रकार की प्रविधि को अपनाता है, अपनी आदतों को भी वह उनके अनुकूल ढालता है ।

कृषि कार्य के आधार पर ही मानव की आदत एवं मनोवृत्तियाँ बनी हुई थीं । किन्तु जब मशीनों का आविष्कार हुआ तो मानव का भौतिक पर्यावरण बदला प्रौद्योगिकी बदली, काम की प्रकृति बदली और उसके साथ-साथ मानव की आदतों एवं मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन आया ।

आदतें ही धीरे-धीरे स्थापित एवं सुदृढ़ होकर संस्थाओं का रूप ग्रहण करती हैं संस्थाएँ ही सामाजिक ढाँचे का निर्माण करती हैं । अतः आदतों में परिवर्तन होता है तो सामाजिक संस्थाओं एवं ढाँचे में परिवर्तन आता है जिसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं ।

सामाजिक संरचना में परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन है । इस प्रकार वेबलिन सामाजिक परिवर्तन को नवीन प्रविधियों एवं प्रौद्योगिक कारकों से उत्पन्न मानते हैं । इसलिए उन्हें प्रौद्योगिक निश्चयवादी कहा जाता है ।



5 - सांस्कृतिक सिद्धान्त : वेबर

वेबर में सामाजिक परिवर्तन के लिए सांस्कृतिक कारक विशेषतया धर्म को उत्तरदायी माना है । विश्व के प्रमुख धर्मों का विशद् अध्ययन करके वेबर ने यह दिखाने का प्रयत्न किया कि धर्म व आर्थिक-सामाजिक घटनाओं में क्या सम्बन्ध है। 

उन्होंन अध्ययन के आधार पर यह दर्शाने का प्रयत्न किया कि आधुनिक पूंजीवाद केवल पश्चिमी देशों में सबसे पहले क्यों आया, अन्य देशों में क्यों नहीं ? धर्म एवं आर्थिक जीवन के सम्बन्धों के अध्ययन को आपने ‘दी प्रोटेस्टेण्ट स्प्रिट एण्ड इथिक दि ऑफ कैपिटलिज्म’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया है।

अपनी पद्धतिशास्त्रीय अन्तर्दृष्टि के द्वारा वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट धर्म के उन आचारों को ढूँढा जिन्होंने आधुनिक पूंजीवाद की आत्मा को विकसित किया । उन्होंने धर्म को एक परिवर्तनीय तत्व माना और यह दर्शाया कि धर्म किस प्रकार मानव के सामाजिक और आर्थिक जीवन को प्रभावित करता है ।

धार्मिक और आर्थिक कारकों के सम्बन्धों को जानने के लिए वेबर ने विश्व के छ: प्रमुख धर्मों (हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कन्फ्युशियस, इस्लाम तथा यहूदी धर्म) का अध्ययन किया और प्रत्येक धर्म में पाये जाने वाले उन आर्थिक विचारों को ज्ञात किया जो उस धर्म से सम्बन्धित लोगों के आर्थिक व सामाजिक जीवन को प्रभावित करते हैं अपने अध्ययन के आधार पर वेबर ने यह प्रकट किया कि केवल प्रोटेस्टेण्ट धर्म में ही कुछ ऐसे आर्थिक विचार पाये जाते है जिन्होंने आधुनिक पूँजीवाद को जन्म दिया, यद्यपि इसके लिए अन्य कारक भी उत्तरदायी रहे है ।

वेबर कहते है कि यूरोप में जब रोमन कैथोलिक धर्म प्रचलित था तो पूँजीवाद नहीं पनपा किन्तु धार्मिक सुधार आन्दोलन के कारण जब प्रोटेस्टैण्ट धर्म का उदय हुआ तो आधुनिक पूँजीवाद का भी उदय हुआ ।

प्रोटेस्टेण्टवाद वह धार्मिक विचारधारा है जो पोप के अधिकार को स्वीकार नहीं करता और जिसमें विवेक का तत्व विशेष रूप से पाया जाता है । नैतिकतावादी दृष्टिकोण, संग्रह की प्रवृत्ति, ईमानदारी, श्रम के प्रति निष्ठा, ये सभी प्रोटेस्टेट धर्म के प्रमुख तत्व हैं जिनके कारण यूरोप के विभिन्न देशों में आर्थिक विकास, विशेषत: पूँजीवाद का विकास हुआ ।

प्रोटेस्टेण्ट धर्म की नीति के रूप में सेण्ट पॉल के इस आदेश को व्यापक रूप से ग्रहण किया गया- “जो व्यक्ति काम नहीं करेगा, वह रोटी नहीं खायेगा तथा निर्धन की तरह धनवान भी ईश्वर के गौरव को बढ़ाने के लिए किसी न किसी व्यवसाय में अवश्य जुटे ।”


वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट धर्म में पाये जाने वाले उन आचारों का भी उल्लेख किया है जिन्होंने आधुनिक पूँजीवाद को जन्म दिया बेंजामिन फ्रेंकलिन ने आधुनिक पूँजीवाद की उन शिक्षाओं एवं उपदेशों का उल्लेख किया है जो सफल व्यवसायी एवं पूँजीपति बनने के लिए आवश्यक हैं । वे हैं- “समय ही धन है” “धन से धन कमाया जाता है”, “एक पैसा बचाना एक पैसा कमाना है”, “ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है”, “जल्दी सोना और जल्दी उठना व्यक्ति को स्वस्थ, धनी और बुद्धिमान बनाता है”, “कार्य ही पूजा है ।” प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों की तुलना दुनियाँ के दूसरे धर्मों से करके वेबर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि केवल प्रोटेस्टेण्ट धर्म ही ऐसा हे कि जिसके, आर्थिक परिणाम अधिक स्पष्ट एवं दूरगामी हैं ।

यह धर्म लोगों को ईमानदार एवं उत्साही होने, परिश्रम करने, मितव्ययिता बरतने एवं पैसा बचाने पर जोर देता है जो पूँजीवाद लाने के लिए आवश्यक है । यदि ये सिद्धान्त एवं उपदेश न होते तो आधुनिक पूँजीवाद भी सम्भव नहीं होता ।

अपनी बात की पुष्टि करने के लिए वेबर ने यूरोप के विभिन्न देशों से ऐतिहासिक प्रमाण जुटाये । इटली व स्पेन में जहाँ पर कैथोलिक धर्म के अनुयायी अधिक हैं, पूँजीवाद का विकास इंग्लैण्ड, अमेरीका व हालैण्ड की अपेक्षा कम हुआ ।

हिन्दू धर्म भौतिकवाद के स्थान पर आध्यात्मवाद पर अधिक जोर देता है । कर्मवाद के सिद्धान्त के आधार पर पिछले जन्म के कर्म के आधार पर ही इस जन्म में फल मिलता है । इसी प्रकार से, जाति के कठोर नियम व्यक्ति को अपनी जाति के व्यवसाय को त्यागने की इजाजत नहीं देते और प्रत्येक जाति के लिए एक व्यवसाय भी निश्चित है । हिन्दू धर्म एक ऐसी समाज-व्यवस्था को जन्म देता है जिसमें सामाजिक गतिशीलता सम्भव नहीं है । 

इस प्रकार वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट आचार और आधुनिक पूँजीवाद के विकास को कार्य-कारण के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयत्न किया और प्रोटेस्टेण्ट आचारों को पूँजीवाद के विकास के लिए एक प्रभावशाली कारक माना यद्यपि अन्य कारक भी इसके विकास के उत्तरदायी रहे है ।


                                  
 
सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में:- सामाजिक विचार




सामाजिक विचार, विचार की वह शाखा है जो मुख्य रूप से मानव के सामान्य सामाजिक जीवन और उसकी समस्याओं के साथ संबंधित है, जो मानव अंतर्संबंधों और अंतःक्रियाओं द्वारा निर्मित और व्यक्त है। ई.एस. बोगार्डस ने सामाजिक विचारों को यह कहकर परिभाषित किया है कि, "सामाजिक विचार सामाजिक समस्याओं के बारे में एक या कुछ व्यक्तियों की मानव इतिहास में या वर्तमान में उनकी सोच रहा है।"



सामाजिक प्रश्नों के बारे में विचार करने वाले समूह के अर्थ में अधिकांश सामाजिक विचारों ने ज्ञान में भले ही बहुत कम योगदान दिया हो लेकिन इनके आन्दोलनकारी तथा परिवर्तनकामी प्रभाव व्यापक रहे हैं। चर्चा-समूह की सोच अपने उच्च स्तरों पर सामाजिक सोच को दर्शाती रही है, लेकिन चर्चा-समूह की सोच अभी तक व्यापक नहीं है। हालांकि, हालफिलहाल के वर्षों में सोशल मीडिया ने जिस तरह चर्चा समूह जैसे फेसबुक ग्रुप और वाट्सएप्प ग्रुप के रूप में न केवल चर्चा समूहों का आसान निर्माण संभव किया है बल्कि प्रभावी  कार्यवाहियों के लिए प्रेरित किया है, को देखते हुए जो परिदृश्य उभर रहे हैं, भविष्य में इससे काफी हद तक उम्मीद की जा सकती है। वास्तव में यह "मुखरता" सामाजिक आन्दोलन बन चुकी है जो समाज के मुख्य प्रकार का परिवर्तनकामी विचार बन जाने का वायदा करता है।



सामाजिक जीवन के बारे में व्यक्तियों की सोच तीन श्रेणियों में आती है:

1. पहली श्रेणी उन समूहों के रूप में सामने आती है जो मानव समुदायों की उन्नति को अपना उद्देश्य बनाते हैं। जैसे सरोकारी बुद्धिजीवी यथा फुले, अम्बेडकर तथा गांधी।

2. दूसरी श्रेणी किसी विशेष समूह या समूह के लाभ के लिए मानव के जोड़तोड़ का जिक्र करता है। जैसे सत्ता या पद की आकांक्षा वाला राजनीतिक समूह या राजनीतिक नेता या कार्यकर्ता।

3. तीसरी श्रेणी का उद्देश्य अंतर्निहित सामाजिक प्रक्रियाओं और कानूनों का विश्लेषण करना है, बिना किसी उपयोग या प्रभाव की आकांक्षा किये । निरपेक्ष बुद्धिजीवी यथा सामाजिक विश्लेषक, विचारक, शिक्षक।



सामाजिक विचारों की विशेषताएं: 

सामाजिक विचार मुख्य रूप से सामाजिक समस्याओं से उत्पन्न होते हैं।

बोगार्डस के अनुसार, सामाजिक विचारों की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:

1. सामाजिक विचार सामाजिक समस्याओं से उत्पन्न होते हैं। जैसे जाति विभेद से समतावादी समाज का विचार।

2. सामाजिक विचार मानव के सामाजिक जीवन से संबंधित हैं। जाति उच्छेद का विचार, जातीय दमन से जुड़ा है।

3. यह सामाजिक संबंधों और अंतर्संबंधों का परिणाम है। जैसे जाति व्यवस्था, वर्णव्यवस्था ।

4. सामाजिक विचार समय और स्थान से प्रभावित होते हैं। जैसे महाराष्ट्र की विशेष पृष्टभूमि और फुले अम्बेडकर।

5. विचारक अपने सामाजिक जीवन और व्यक्तिगत अनुभवों से बहुत प्रभावित होते हैं। माली और महार जीवन की त्रासदी फुले, अम्बेडकर।

6. यह सभ्यता और संस्कृति के विकास को प्रेरित करता है। जैसे आधुनिकता और लोकतंत्र के मूल्य स्वतंत्रता समता और बंधुता।

7. सामाजिक विचार अमूर्त सोच पर आधारित होते हैं। सामाजिक धारा के प्रतिकूल सोच। तिलक के दौर में फुले, राष्ट्रवादी समय में "जाति" की मुखरता

8. यह सामाजिक उपयोगिता का एक अभिन्न अंग है। जैसे भारत को एक योग्य संविधान निर्माता मिला, समतावादी लोकतांत्रिक मजबूत समाज और राष्ट्र का निर्माण।

9. यह सामाजिक रिश्तों को बढ़ावा देने में मदद करता है। बंधुता।

10. यह न तो निरपेक्ष है और न ही स्थिर है। यह विकासवादी है।



सामाजिक विचारों के स्तर:

प्रत्येक समाज में सामाजिक चिंतन के तीन चरण या स्तर होते हैं:


1. सामाजिक रूप से लाभकारी चिंतन:

यह आमतौर पर प्रगतिशील या रचनात्मक सामाजिक प्रस्तावों से युक्त होती है, जिन्हें स्पष्ट रूप से समाज में प्रगतिशील बदलाव लाने के लिए डिज़ाइन किया जाता है। इससे समाज का कल्याण होता है। विचारक मानवता के कानून से प्रेरित होते हैं।


2. नकारात्मक सामाजिक चिंतन:

इसमें स्वार्थ, सामान्य कल्याण की अवहेलना आदि की विशेषता होती है। यह प्रकृति में पारलौकिक और प्रतिगामी है। इस नकारात्मक प्रकार की सामाजिक सोच में बहुसंख्यकों के कल्याण पर ध्यान नहीं दिया जाता है। सत्ता या विशेष अधिकार प्राप्त लोग अपने हित को साधते हैं तथा परिस्थिति को अपने पक्ष में हेरफेर कर स्थिति का लाभ उठाते हैं।


3. वैज्ञानिक सामाजिक चिंतन:

यह वर्तमान का प्रगतिवादी लोकतांत्रिक तर्कवाद है। यह वर्तमान समाज की चाहत है। यह सोच निष्पक्ष और उदार होने का दावा करती है। यह एक प्रकार की ऐसी सोच है जो सामूहिक कल्याण को बढ़ावा देती है। इस प्रकार की सोच का वैज्ञानिक रूप से विचार या विश्लेषण किया जा सकता है।



सामाजिक चिंतन का इतिहास

परिवर्तन की शाश्वतता को धारण करने वाले मानव समाज के आरंभिक दौर से ही सामाजिक चिंतन अपने आदिम स्वरूप में एक शक्ति के रूप में रहा है। समाज में उभर आई समस्याओं के हर निदानों में सामाजिक चिंतन व्याप्त रहा है। कवियों, शिक्षकों, संतों, सुधारकों तथा उपदेशकों की बातों में तथा धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों की प्रत्येक कार्यवाईयों में इसे साफ तौर पर अपने समय के मुहावरों में देखा जा सकता है।

प्लेटो के समय से ही दिखने वाला सामाजिक चिंतन , इब्न खल्दून की मुक़द्दीमा में सामाजिक एकता और सामाजिक संघर्ष के सामाजिक-वैज्ञानिक विचारों को आगे  लाता है। जबकि रुसो और वाल्तेयर के आंदोलन से प्रेरित फ्रांसीसी क्रांति की व्याकुलता के शीघ्र बाद ही लिखते हुए, ऑगस्ट काम्टे ने प्रस्थापित किया कि सामाजिक निश्चयात्मकता के माध्यम से सामाजिक बुराइयों को दूर किया जा सकता है। 19वी सदी में उभरती आधुनिकता की चुनौतियों, जैसे औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और वैज्ञानिक पुनर्गठन की शैक्षणिक अनुक्रिया, आरंभिक समाजवादियों के चिंतन में दिखती है। परिवर्तन की तीव्रता और बदलती सामाजिक संरचना की भिन्न समझ सामाजिक विचारों की असंख्य लहर निर्मित करती है।

आधुनिक भारत में जाति विभेद की सामाजिक संरचना के अनुभव ने फुले, अम्बेडकर को जन्म दिया जिन्होंने इससे निज़ात के लिए आंदोलन किया तथा इससे  और लोगों को जोड़ कर इसे और मजबूत किया बल्कि इनके चिंतन ने इसे और धार प्रदान किया तथा सामाजिक परिवर्तन को जन्म दिया। इस प्रकार भारत एक समतावादी समाज की तरफ अग्रसर हुआ।

                                  
                                       


    सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में:-सामाजिक वर्ग

सामाजिक वर्ग, सामाजिक स्तरीकरण से जुड़ी अवधारणा है। क्लासिक सामाजिक आंदोलनों को सामान्यतः उनके वर्ग घटकों के आधार पर समझा जा सकता है क्योंकि ये अधिकत्तर 'वर्ग बद्ध' आंदोलन होते हैं। सरलतम शब्दों में यहां सामाजिक वर्ग का अर्थ है:-

1-  जनसंख्या का असमान समूह में विभाजित होना।

2-  संसाधनों में विभेदी वितरण के कारण समूहों के बीच आर्थिक असमानता का होना।

3- अभिजन समूहों को आर्थिक संसाधनों के स्वामित्व तथा नियंत्रण में उनकी आवश्यकता से अधिक भाग का मिलना तथा इसके परिणाम स्वरूप बहुजनों को कम भाग का मिलना।

4- संपत्ति तथा संसाधनों के इस असमान वितरण की दोषपूर्ण प्रणाली के कारण अमीर गरीब तथा मध्यवर्गी तथा श्रमजीवी वर्गों का जन्म होना।

5-  गरीबों में 'एक ही नाव में सवार होने' यानी एक सी स्थिति के कारण वर्ग एकता का बोध विकसित कर लेना तथा अपने से उच्च वर्ग के साथ एक विरोधी संबंध बना लेना।

6- भारत में जाति व्यवस्था अपनी विशिष्टताओं में एक वर्ग भी है। जाति व्यवस्था एक "बंद वर्ग" है जो इसे और जटिल, कठोर, परिवर्तनहीन तथा सुधार से परे बनाता है। इसलिए इससे जुड़े सामाजिक आन्दोलन परिवर्तन के रूप में संरचनाओं को उलट देना चाहतें हैं।


सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में:- सामाजिक संरचना

सामाजिक आंदोलन सामाजिक संरचनाओं में उभर आए दोषों, उनके तनाव या उनकी ईकाईयों के बीच प्रतिस्पर्धा के परिणाम होते हैं सामाजिक संरचना की विशेषताएं इनकी कारक बन जाती हैं। सामाजिक संरचना शारीरिक अंगों तथा उनकी पारस्परिक निर्भरता की तरह होती है सामाजिक संरचना का अभिप्राय समाज की इकाइयों के क्रमबद्धता तथा उनके आपसी संबंधों से होता है। समूह समिति, संस्थान परिवार तथा सामाजिक प्रतिमान और उनके संबंधों को सामाजिक संरचना कहते हैं।

1- सामाजिक संरचना अमूर्त होती है तथा अनेक उप संरचनाओं से मिलकर बनती है।

2 - संरचना की इकाइयां परस्पर संबंधित होकर एक ढांचे का निर्माण करती है जिससे उनके स्वरूप का बोध होता है।

3- संरचना की इकाइयों के आपसी संबंधों तथा क्रमबद्धता में आई किसी कमी से संरचना कायम नहीं रह पाती है।

4-  इकाइयों का पद और स्थान पूर्व निर्धारित होता है जिन्हें प्रतिस्थापित करने की कोशिश  परिवर्तन को जन्म देती है।

5- प्रत्येक समाज की संस्कृति भिन्न-भिन्न होती है अतः संस्कृति द्वारा निर्धारित प्रतिमान में भिन्नता के कारण संरचना भी भिन्न-भिन्न होती है।

6- सामाजिक संरचना स्थानीय विशेषताओं से प्रभावित होती है प्रत्येक समाज की संस्कृति स्थानीय परिवेश के अनुकूलन के परिणाम स्वरूप विकसित होती है।

7- सामाजिक प्रक्रिया सामाजिक संरचना का महत्वपूर्ण पक्ष है। समाज में सहयोग व्यवस्थापक्ष, अनुकूलन, प्रतिस्पर्धा जैसी प्रक्रिया चलती रहती है।

8-  सामाजिक संरचना में अनुकूलन की क्षमता होती है।


इस प्रकार अगर हम उदाहरण के तौर पर फ्रांस, रूस, ब्रिटेन तथा भारत की सामाजिक संरचना को गौर से देखें तो  यहां के आंदोलनों पर न केवल असर डालती हैं बल्कि परिवर्तन के स्वरूप को भी प्रभावित करती हैं ।

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

सत्ता और युवा

युवा हित राजनीतिक चिंता का विषय नहीं रहा।

राजनीति का केंद्र सत्ता है। सत्ता का अपना एक स्थायी चरित्र होता है, वो "रहना" चाहती है। अपने रहने के "औचित्य" को वह "जुड़ावों" में खोजती है। 

इन जुड़ावों में सबसे ताकतवर ऊर्जा "युवा" की चाहत भी उसे सबसे ज्यादा रहती है। परन्तु अब सत्ता ने अपने होने के औचित्य को बिखरावों में ढूढ़ लिया है। 

युवा भी अब एक समरस "ताकत" नहीं रह गया है। सत्ता के दावेदारों ने एक तरफ जहां उसे बांट रखा है वहीं दूसरी तरफ सत्ता ने उसकी ऊर्जा को डेटा खर्च करने के नशे की तरफ मोड़ रखा है । जहां मनोरंजन की कमान "सत्ता के शीर्ष" ने स्वयं थाम रखी है।  

कभी कभार उभर आई युवा व्याकुलता को सत्ता अपनी ऊपरी शराफत तथा इंतज़ार कराने की अद्भुत क्षमता से मात देने में सफल हो रही है। सत्ता के चंद अभिजन अपने हितों के पहाड़ की सुरक्षा दुरुस्त करते जा रहें हैं।

लोकतंत्र में नागरिक को हमेशा सावधान रहना चाहिए और सरकार को संवेदन शील ...लोकतंत्र की यही ताकत है ..यही सफलता की शर्त है ...

आखिर कब तक साहब भोंपू पर मुहँ और फरियादी कान लगाए रहेंगे।

अगर अभी भी अपने भविष्य की चिंता के दायित्व को लेकर सजग नहीं हुए और सिर्फ बातों और भंगिमाओं में उम्मीद और आनंद तलासते रहे तो दोषी  स्वयं होंगे।

अपने भविष्य के प्रति असंवेदनशीलता को देखते हुए अब नौजवानों को शक्तिशाली, चालाक और धूर्त शत्रु से लड़ने के लिए अपने समर्पण के साथ - साथ नई तकनीकी और बुद्धि को जोड़ते हुए असाधारण क्षमता वाली शक्ति बनना चाहिए जिसे कोई उपेक्षित न कर सके।

वो अपना हित बख़ूबी सोच रहे हैं इसमें कोई बुराई भी नहीं है लेकिन देश के युवा विशेषकर बेरोजगार युवा अपना हित कब सोचेंगे ? कब तक  सुनियोजित बर्बादी को त्याग, धैर्य और संघर्ष की कहानियों के तौर पर उन्हें परोसा जाता रहेगा ?

रविवार, 9 अगस्त 2020

इतिहास पर कहीं कही कुछ बातें..

जब मेरे दोस्त का उसकी पत्नी से तनाव होता है तो वह याद करता है कि ससुराल में उसकी पर्याप्त इज्ज़त नहीं होती है जबकि प्रेम के क्षणों में उसे मार्च अप्रैल का वह महीना याद आता है जब वह फूलों से लदे पार्क में पहली बार उससे मिला था और वह पीले रंग के सूट में किसी तितली सी दिखी थी हाँ उसकी नेलपॉलिश भी तो सुग्गा पंखिया थी।

गुस्से में याद आया कि यही नामुराद दोस्त था जो मेरी बाइक को तोड़ आया था लेकिन साथ में चाय की चुस्की लेते हुए मैंने याद किया कि कैसे उसने मेरी अनुपस्थिति में मेरी माँ को यह हॉस्पिटल ले गया था।

किसानों की बढ़ती आत्महत्याएं इतिहास के शोध की दिशा को उस तरफ मोड़तीं हैं जहाँ कृषि संरचना तथा वैश्वीकरण के प्रभावी शर्तों और उसके कारणों को उजागर करना जरुरी हो जाता है।

आध्यात्मिक डूबन की उपयोगितावादी प्रदत्त छवि से आच्छादित समाज से उबरने के लिए केपी जायसवाल इन्डियन पॉलिटी लिख कर स्व शासन के औचित्य को जोरदार तर्क प्रदान किया।

सामाजिक बुराइयों से दुःखी लोगों ने न सिर्फ इसके ख़िलाफ़ वैज्ञानिक तर्क दिए बल्कि बुराइयों के विपक्ष में पौराणिक तर्कों को भी ढूंढ निकाला।

कोरोना का दौर इतिहासकारों को महामारियों के इतिहास की तरफ मोड़ चुका है जहाँ ब्लैक डेथ से स्पेनिश फ्लू के दौर के सामाजिक राजनीतिक तथा चिकित्सकीय उपायों को ढूढ़ा जा रहा है।

चूँकि कोई भी इतिहास अपने समकालीन समय में ही लिखा जाता है क्योंकि इतिहासकार लिखते समय जीवित होता है और वह अपने समाज, समय, और परिस्थितियों का दास होता है जाने अनजाने वह समकालीन समय में घट रही घटनाओं से प्रभावित होता है अतः उसके लिखत पर समकालीनता का प्रभाव होता है। कार के शब्दों में इतिहास अतीत और वर्तमान तथा इतिहासकार और उसके तथ्यों के बीच संवाद है।

अतः क्रोचे का यह कथन कि सारा इतिहास समकालीन होता है सत्य प्रतीत होता है।


यह स्वीकार्यता इस कथन की सीमा से बंधा है, जिसके अनुसार "अतीत के विस्तार की कठिनाई को देखते हुए हमारा वह अतीत जिसका वर्तमान में महत्व है, इतिहास है।" अन्यथा इंसानी ज्ञान और समझ की सीमा के कारण कोई भी "सर्वव्यापी कथन" (यहाँ all शब्द का प्रयोग है) ज्ञान मिमांसीय तर्कशास्त्र में दोषपूर्ण ही माना जाता है। 

अतः उपेक्षित अतीत, सेंसर अतीत, और भविष्य में महत्वपूर्ण बन जाने वाला अतीत, आउट डेटेड अतीत इत्यादि कभी भी इतिहास की मुख्यधारा में आ सकते हैं। 

दरअसल इतिहास का "दस्तावेज़ी स्वरुप" इसका मुख्य अवयव और विशेषता है इसके अभाव में इतिहास शब्द की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

दरअसल क्रोचे उस दौर का इतिहासकार है जब "व्याख्या" और "विचार" ऐतिहासिक "तथ्यों" पर हावी थे। तथ्यों को स्वतंत्र नहीं माना जा रहा था और कहा जा रहा था कि तथ्य हमेशा दिमाग से छन
कर आतें हैं। लेकिन इतिहासकारों के आत्मविश्वास को बढ़ाने वाले इस विचार का खुमार चिरस्थाई नहीं माना जा सकता।

अतः "सारा" इतिहास प्राथमिक रूप से "दस्तावेज़" है जो समकालीन होने के इंतज़ार में रहता है।

चूँकि संघर्षों, तनावों, टकरावों और युद्धों के परिणामों के उदाहरण और अनुभव यह दर्शातें हैं कि आधुनिक युद्धों के विभिन्न स्वरूपों में कोई विजेता नहीं होता बल्कि उत्तरजीवी होते हैं। 

 "अंतिम तक" के लक्ष्य से नियोजित समतावादी लोकतांत्रिक समाज की तरफ सकारात्मक विचलन के दौर  में, "विजेता" होना अब पहले जैसा गर्व की पूँजी सृजित नहीं करता बल्कि पराजितों और शिकारों की आवाजें जहाँ सहानुभूति पा रहीं हैं वहीँ उनके आख्यान सोशल और नई मिडिया के प्रसार प्रचार तंत्र के द्वारा तेज़ बयार का रूप धर हर जगह अपनी उपस्थिति से अनुभूति की उत्तेजना ही नहीं बल्कि इसकी मांग भी पैदा कर रहा है। जिसकी उपेक्षा करना या ख़ारिज करना किसी भी पेशेवर इतिहासकार के लिए एक गुमनामी का भय रच सकता है।

अतः बदलती परिस्थिति में ज्ञान की ख़ोज का उद्देश्य अपने लोकतान्त्रिक स्वरुप को प्राप्त कर चुका है। लाइक, शेयर और वायरल के एल्गोरिदम के दौर में दमन के तमाम आरोपण के बावजूद पराजितों के आख्यानों को बरबस विजेताओं के आख्यानों पर बढ़त हासिल होने वाली है।

दिल्ली सल्तनत में फारसी साहित्य

  दिल्ली सल्तनत के दौरान फारसी साहित्य के विकास के कारण मंगोल आक्रमणों के कारण मध्य एशिया से विद्वानों का भारत की ओर प्रवासन। भारत में...