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बुधवार, 15 अप्रैल 2020
शोध आलेख - भूमण्डलीकरण के दौर में भोजपुरी सिनेमा का सामाजिक सन्दर्भ
भोजपुरी सिनेमा भूमण्डलीकरण से अपना आरंभिक परिचय मनोज तिवारी और रानी चटर्जी अभिनित "ससुरा बड़ा पइसा वाला" 2004 से करता है । वर्चस्व की भूमण्डलीय भाषा के रूप में अंग्रेजी इस फ़िल्म के माध्यम से भोजपुरी समाज में अपनी स्वीकृति पाना चाहती है जबकि नायक नायिका के जींस के मार्फत वैश्विक संस्कृति । अभाव वाले गाँव में रचे बसे मूल्य "धन के वैभव" के शहरी स्वार्थ से प्रतिरोध करते दिखतें हैं । नायक एक जगह कहता है कि "हमार ससुर के इज्जत इज्जत, काहें की हमार ससुर बड़ा पइसा वाला हवें । और हमार इज्जत कोठा के रण्डी की जेकर मन आवे नंगा कर के चल जावे ।" इस फ़िल्म में अपने आयामों की भिन्नता के साथ परम्परा और आधुनिकता तथा अभाव और वैभव आपस में संवाद करते दिखतें हैं । भोजपुरी सिनेमा का यह दौर इस समाज के मन और देह के सन्दर्भो के पुनर्परिभाषित होने और नया आख्यान गढ़ने का है ।
प्रक्रिया और परियोजना के तौर पर भोजपुरी सिनेमा में एक तरफ तो पहचाने और उम्मीदें अपनी अस्मिता के लिए जूझ रहीं हैं तो दूसरी तरफ इनकी सांस्कृतिक सीमाएं टूट रही हैं । समुदाय, वर्ग, जाति, परिवार, जेण्डर, नागरिक सरोकार और रूचि की विविधता नए परिभाषाओं के अंतर्गत खुद को पुनर्स्थापित कर रही हैं ।
भूमण्डलीकरण के दौर में भोजपुरी फिल्म उद्योग के शानदार पुनरुत्थान को समझने की कोशिश करना आसान काम नहीं है । इसके कारण बहुस्तरीय और जटिल दोनों हैं । तेजी से बदलते राष्ट्र की परिस्थितियों को सामाजिक-आर्थिक परिघटना के कारणों और प्रभावों की एक श्रृंखला के रूप में समझना भी अपर्याप्त होगा । इसके बजाय इसे विभिन्न अंतरसंबंधों के साथ एक प्रक्रिया के रूप में देखना चाहिए, जो कुछ बिंदुओं पर पूरक हैं तो अन्य अवसरों पर, एक दूसरे के साथ विपरीत हैं ।
भोजपुरी फिल्मों के पुनरुत्थान को 1991 में उपग्रही टेलीविजन के आगमन के बाद बॉलीवुड ने अपनी सिनेमाई भाषा और परिदृश्य को जिस तरह से परिवर्तित किया, उसकी प्रतिक्रिया के रूप में माना जा सकता है । डॉलर से समृद्ध एनआरआई बाजार और मल्टीप्लेक्स के विकास के साथ जहाँ शहरी भारत में नए मनोरंजन के मंदिर तैयार हुये, वहीं हॉलीवुड की संवेदना वाले युवा निर्माताओं ने अपने को "लीक" से अलग किया । इससे जल्द ही, मध्य भारत के विशाल क्षेत्रों से हिंदी वाणिज्यिक सिनेमा का अलगाव हो गया । इस घटना ने इस क्षेत्र में सिनेमाई खालीपन पैदा किया । इन फिल्मों को जिस संवेदना और पटकथा शैली के साथ लाया गया था उससे सिंगल-स्क्रीन सिनेमाघरों में फिल्मों को देखने वाला निम्नवर्ग अपने को जोड़ पाने में असमर्थ था । यह अजनबी सौंदर्यशास्त्र उससे अलग था जिससे भोजपुरी सिनेमा भरा हुआ था । हिंदी सिनेमा की अमिताभ बच्चन मॉडल जन संवेदनशीलता का दौर जिसमें शहरी, कस्बाई और ग्रामीण दर्शकों तक समान रूप से पहुंच की क्षमता थी, कम हो रहा था । करण जौहर रूपी बदलाव ने फील-गुड, अपर क्लास, शहर-केंद्रित सिनेमा को अपने हाथ में ले लिया जिससे ग्रामीण, बूढ़े और वंचितों को फ्रेम से बाहर करने में आसानी हुई ।
2004 और 2006 के बीच के वर्षों में मुख्य धारा की शीर्ष फिल्मों में गैर-शहरी विषयों के लिए उदासीनता देखी गई, यहां तक कि गीतों और नृत्यों से सजी पटकथा की पारंपरिक बॉलीवुड शैली में भी कई बदलाव हुए । अब हॉलीवुड से प्रेरित, कई मुख्यधारा की फिल्में या तो बिना गीत की थीं या केवल दो या तीन गाने थे इसके झण्डाबरदार निर्माता-निर्देशक राम गोपाल वर्मा की 'स्कूल' से उभरने वाली कई फिल्में, जैसे कि 'कंपनी' (2002), 'एक हसीना थी' (2004) और 'अब तक छप्पन' (2004), के साथ ही साथ अन्य वैकल्पिक फिल्में जैसे 'भेजा फ्राई' (2007) थीं । ऐसा प्रतीत होता था कि सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के आर्थिक रूप से कमजोर दर्शकों को लुभाने की कोई जरूरत नहीं समझी गई है, जिसे ये बालकनी टिकट 15 रुपये में खरीद कर देख सकें । ध्यान देने कि जरूरत है कि पूरे उत्तर भारत में लाखों प्रवासी मज़दूर, जिनकी फिल्मी संवेदनाएँ गीत, नाटक और एक्शन से बुनी जाती हैं का हिंदी सिनेमा ने नजरअंदाज किया । भोजपुरी सिनेमा के पुनरुद्धार का एक हिस्सा इन्हीं कारकों की प्रतिक्रिया थी । भोजपुरी का दर्शक, जहाँ कहीं भी है, वह फिल्मों में लोकेशन के रूप में गावँ जवार और अपनी भोजपुरी आवाज़ चाहता है । इन दर्शकों को टोन्ड बॉडी और जीरो फिगर वाली हीरोइनें नहीं चाहिए बल्कि हीरोइन के रूप में उन्हें ''अपनी औरते'' चाहिए जो मांसल हो तथा जिनके उभार रंगीन चोलियों द्वारा उकेरे गए हों । भोजपुरी सिनेमा इस क्षेत्रीय संवेदनशीलता को पूरा करने के लिए वैकल्पिक सौंदर्यशास्त्र प्रदान करता है ।
वैश्वीकरण के इस समय में, समाज का हर भाग आकांक्षात्मक है । भले ही यह पुराने मूल्यों और मानदंडों को बनाए रखने की कोशिश कर रहा है परन्तु साथ ही यह इसके वैभव के आकर्षण से खुद को नहीं बचा पा रहा है । परिणामस्वरूप भोजपुरी सिनेमा ने बॉलीवुड की शैली का अपना संस्करण बना लिया है हालाँकि इन चीजों का वह आरम्भ में विरोध करता था । इसकी वजह से भोजपुरी सिनेमा ने ग्रामीण पारिवारिक नाटकों से परे जाने की इच्छा को खोल दिया है । जिससे क्षेत्रीय फिल्म की विशिष्ट पहचान धुंधली हो गई है । फिल्म 'जनम जनम के साथ' (2007) के शुरूआती शॉट में, नायक मनोज तिवारी को गिटार बजाते हुए दिखाया गया और पीछे की तरफ मुड़कर चोटी के साथ एक स्मार्ट टोपी पहने हुए दिखाया गया । यह एक क्षेत्रीय फिल्म में एक फैशन स्टेटमेंट के रूप में आकर्षक लग सकता है, लेकिन यह एक सामाजिक आकांक्षा की पुष्टि करता है । उपग्रह टेलीविजन और इंटरनेट ने मनोरंजन के हर पहलू को प्रभावित किया है और यह आशा करना अवास्तविक होगा कि भोजपुरी सिनेमा इसका एक 'अजनबी द्वीप' बना रहेगा।
भोजपुरी सिनेमा की लोकप्रियता एक जटिल सवाल है क्योंकि भोजपुरी फिल्मों के दर्शकों में काफी बदलाव आया है । 1960 और 1970 के दशक में, दर्शक काफी हद तक पूर्वी उत्तर प्रदेश और मध्य और पश्चिमी बिहार के लोगों तक ही सीमित थे । अब, पुरे बिहार और आधे यूपी में फिल्में देखी जाती हैं यही कारण है कि हिंदी फिल्में जो कि एक समय पश्चिमी और मध्य बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिनेमा हॉलों पर राज करती थीं, अब उन्हें भोजपुरी फिल्मों के साथ प्रतियोगिता करना पड़ता है । 'बंटी और बबली' (2005) जो महानगरीय दिल्ली में एक बड़ी हिट थी, वहीं यह बिहार में दर्शकों के बीच जोश नहीं पैदा कर पाई जो कि मसाला फ़िल्म 'पंडितजी बटाईन ना बियाह कब होई', ने पैदा किया । स्टार और निर्माता आमिर खान की 'तारे ज़मीन पर' (2007), जो एक बच्चे की सीखने की विकलांगता पर बनी फिल्म थी, को लेकर बिहार में थिएटर मालिकों को दिलचस्पी नहीं दिखाई इसकी बजाय प्रदर्शक भोजपुरी सितारों मनोज तिवारी और रवि किशन की फिल्मों की स्क्रीनिंग करना पसंद करते थे क्योंकि वे बॉक्स-ऑफिस पर बेहतर कमाई सुनिश्चित करती थीं ।
बिहार और उत्तर प्रदेश के प्रवासियों ने महाराष्ट्र और पंजाब में, और कुछ हद तक बंगाल, गुजरात और राजस्थान में भोजपुरी सिनेमा के लिये 'जगह' बनाया है । देश के भीतर का यह डायस्पोरा एक महत्वपूर्ण बाजार बन गया है । वितरकों और प्रदर्शकों का अनुमान है कि भोजपुरी फिल्म बाजार का लगभग तीस प्रतिशत बिहार और उत्तर प्रदेश के बाहर स्थित है । यह बाजार काफी हद तक प्रवासी पैसे से संचालित होता है । एक स्तर पर, प्रवासी दर्शकों के लिए, भोजपुरी फिल्में घर के बने भोजन के स्वाद के समकक्ष हैं । उनके लिए ये फ़िल्में याद, तड़प, साहचर्य और एकजुटता लाती हैं । कुछ घंटों के लिए ही सही सिनेमा हॉल घर से दूर उनका घर बन जाता है । गर्वीले नायक, धूर्त जमींदार या बाहुबली, अहंकारी पिता और कुटिल तथा कड़क ससुरजी ये सभी दर्शकों को आश्वस्त करते हैं कि उनकी दुनिया नहीं बदली है । लेकिन प्रवासी मजदूर भी बदलती दूसरी दुनिया के संपर्क में है । वह इस विस्तृत और अमीर दुनिया का भी एक टुकड़ा चाहतें है, वह इसे फिल्मों में भी देखना चाहतें है जैसे 'निरहुवा चलल लंदन' परन्तु बॉलीवुड शैली में नहीं, जिसे वह पूरी तरह से अलग-थलग पातें है, बल्कि कुछ ऐसा जो उसे उसकी शर्तों पर दिया जाय । दूसरे शब्दों में, उसकी ज़रूरतें घर और दुनिया का मिश्रण हैं, और कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह नाजुक मिश्रण का सही होना आसान नहीं है । शीर्ष भोजपुरी स्टार रवि किशन दर्शकों की बदलती जरूरतों के बारे में सजग हैं, और उसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ''देहात अब देहात ना रहा ।'' किसान अभी भी खेतों के मालिक हैं लेकिन उनके पास मोबाइल फोन, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और डीवीडी भी हैं । काफी लोग समाचार पत्र पढ़ रहे हैं और उपग्रही टीवी देख रहे हैं । जागरूकता का स्तर बहुत अधिक है । पहले लोकप्रिय संगीत लंबे समय के बाद छोटे शहरों और गांवों तक पहुंचता था । आज के गांव के लड़के मुंबई के किशोर के समान संगीत पर नृत्य करते हैं।
भोजपुरी सिनेमा के नए लक्षित दर्शक कमउम्र युवा हैं । वे गाँव के खेतों को देखना चाहते हैं, गंगा माँ को और अपने पिता के पैर छूने वाले नायक को, लेकिन वे भरपूर मनोरंजन भी चाहते हैं । आज हीरो जींस पहन सकता है । लेकिन भोजपुरी का स्वाद प्रदान करने के लिए, कुर्ता पर एक गमछा रखता है और तिलक लगता है । नए दर्शक, विशेष रूप से प्रवासी हिस्सा, अब ऐसी फिल्में चाहते हैं जो न केवल उसके सौंदर्यशास्त्र और मनोरंजन के विचार के अनुकूल हों, बल्कि उनकी क्षेत्रीय पहचान को भी पुष्ट करें । मुंबई में भोजपुरी फिल्मों को वितरित करने वाले राजेश कुमार सिंह कहते हैं, "जनता अपनी भाषा में तमाशा चाहती है और अब वे इसे प्राप्त कर रही हैं ।" भोजपुरी सिनेमा का विकास यह भी दर्शाता है कि कैसे यह क्षेत्र सामाजिक रूप से विकसित हुआ है । मिसाल के तौर पर, रवि किशन से लेकर मनोज तिवारी तक की सबसे टॉप भोजपुरी फिल्म हीरो-सवर्ण हिंदू हैं। लेकिन ऐसे समय में जब लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव बिहार और उत्तर प्रदेश के दो महत्वपूर्ण नेता हैं, जातिगत प्रभाव में परिवर्तन हुआ है, एक स्पष्ट मामला, निश्चित रूप से, दिनेश लाल यादव 'निरहुआ', का उदय है । धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और दलित उपस्थिति को अब महसूस किया जा रहा है । बीरेंद्र पासवान, जिन्होंने एगो चुम्मा दे दा राजाजी के संवाद लिखे हैं, ऐसे ही लोगों में से एक हैं । दशकों में, यहां तक कि सामग्री और प्रस्तुति में नाटकीय रूप से बदलाव आया है । कई शुरुआती भोजपुरी फिल्मों में, शहर को एक खतरनाक जगह के रूप में प्रस्तुत किया गया था, जहाँ गाँव के आदर्श, नैतिकता और मूल्य खो गए हैं । गांव अब भी आदर्श बना हुआ है, लेकिन नायक के लिए अब बड़े शहर दुनिया में बुरी जगह नहीं है । बल्कि, वह इसे जीतने के लिए उत्सुक है । समय के साथ, खलनायक का रूप और शैली बदल गई हैं । जमींदार और साहूकार अब पसंदीदा बुरे लोग नहीं हैं इनका स्थान अब स्थानीय विधायक या राजनीतिक संरक्षण से युक्त बाहुबली ने ले लिया है।
हाल के वर्षों के सुपरहिट्स- 'ससुरा बड़ा पइसा वाला', 'पंडितजी बताई न बियाह कब होई' और 'निरहुआ रिक्शावाला' अपने शुरुआती ब्लॉकबस्टर से काफी अलग हैं । 'ससुरा बड़ा पइसावाला' पारिवारिक नाटक के साथ कॉमेडी का मिश्रण है । फिल्म में पारिवारिक मूल्यों की बात करते हुए यह सुनिश्चित किया गया है कि पाश्चात्य संस्कारों की नायिका को अंग्रेजी बोलने वाले नायक से टकराव हो जिसकी आत्मा भोजपुरी है । 'पंडितजी बताई ना बियाह कब होई' में शोले के तत्व और एक ग्राफिक बलात्कार का दृश्य है । निरहुआ रिक्शावाला में, नायक उस लड़की को चूमता है जिसे वह प्यार करता है, जो भोजपुरी फिल्म के लिए क्रांतिकारी है । भोजपुरी फिल्मी गाने भी नाटकीय रूप से बदल गए हैं । 1960 का दशक माधुर्य लिए हुये था, लेकिन 1980 के दशक तक, ताल ने अपनी उपस्थिति महसूस कराई । 'ससुरा बड़ा पइसावाला' (2004) की मेगा सफलता के बाद, ताल ने पूरी तरह से माधुर्य पर वर्चस्व कायम कर लिया है और हर फिल्म में कम से कम चार या पांच आइटम सोंग्स हैं । निर्माता और निर्देशक व्यापक दर्शकों को आकर्षित करने के लिए लगातार प्रयोग कर रहे हैं । उदाहरण के लिए, निर्देशक जावेद सैय्यद का कहना है कि 'एगो चुम्मा दे दा राजाजी' में, उन्होंने एक गैर-भोजपुरी गीत शामिल किया है जिसका शीर्षक झाडूवाली बाई तुझे हिरोइन बना दूंगा है । भोजपुरी फिल्मों में द्विअर्थी और अस्पष्ट गीतों की एक महामारी फैल चुकी है जहां गीतकार अपनी कल्पनाशीलता को अक्सर महिला शरीर रचना के कुछ हिस्सों तक ही सीमित रखतें हैं । अभिनेत्रियों को कपड़े और आइटम लड़कियों द्वारा पहने जाने वाले ब्लाउज अक्सर रूमाल से छोटे होते हैं । निस्संदेह, उत्तेजक दृश्यों और अश्लील गीतों के साथ नृत्य भंगिमावों ने भोजपुरी फिल्मों की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, हालांकि, दिलचस्प बात यह है कि, भोजपुरी फिल्मों में बहुत कम सेक्स है । लव-मेकिंग दृश्य लगभग अनुपस्थित हैं क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि दर्शक विज़ुअल सेक्स देखने के बारे में असहज महसूस करते हैं । वे स्पष्ट रूप से ऑडियो ट्रैक्स को स्वीकार कर रहे हैं क्योंकि होली जैसे त्योहारों और शादियों के दौरान इस तरह के लोक गीत पारंपरिक रूप से इन भागों में गाये जाते हैं । भोजपुरी फिल्मों की नायिकाएँ इस युग में कहीं अधिक शहरी हो गई हैं । अक्सर, उन्हें शहर में रहने वाली लड़कियों के रूप में चित्रित किया जाता है जो पश्चिमी कपड़े पहनती हैं । 'ससुरा बड़ा पैसावाला', 'दरोगा बाबू आई लव यू' और 'निरहुआ रिक्शावाला' जैसी हिट की नायिकाएं इस स्टीरियोटाइप का प्रतिनिधित्व करती हैं । दरोगा बाबू में नायिका रिंकू घोष एक तंग टी-शर्ट और तंग पतलून में शुरुआती शॉट में दिखाई देती है । नायिका आंगन और गन्ने के खेतों तक ही सीमित नहीं है - 'पंडित' में, नायिका नगमा एक पत्रकार की भूमिका निभाती है । जैसा कि शीर्षक से पता चलता है, 'सास रानी बहू नौकरानी' (2007), घर की राजनीति के बारे में है जिसमें एक सास और बहू शामिल हैं, लेकिन अतीत के विपरीत, नायिका कमजोर होने से इनकार करती है । 1960 की दशक की नायिका अब नियम के बजाय स्पष्ट रूप से अपवाद है ।
लेकिन यह सिक्के का एक पहलू है । 1960 के दशक में, कुमकुम जैसी नायिकाएं बॉक्स-ऑफिस की स्टार थीं । उनके चरित्र के इर्द-गिर्द कहानियां लिखी गईं । 1980 के दशक में भी, पद्मा खन्ना और गौरी खुराना जैसी नायिकाएँ अपने आप में स्टार थीं । लेकिन समय बीतने के साथ, स्टारडम ने भोजपुरी फिल्मों में एक जेंडर कोण हासिल कर लिया है । अब यहाँ पुरुष सितारे हैं - निरहुआ, किशन, तिवारी- जो स्क्रिप्ट के साथ-साथ कीमत के मामले में भी कमान संभालते हैं । पटकथा उनके व्यक्तित्व के अनुरूप लिखी जाती है । लेन देन के इस सांस्कृतिक परिदृश्य में, परंपरावादी विलाप करते हैं कि नई शैली ने अपनी आत्मा खो दी है और इस तथ्य पर शोक व्यक्त करतें हैं कि क्षेत्रीय स्वाद मर रहा है । 'दगाबाज़ बलमा' (1988) के साथ भोजपुरी फिल्मों की पहली महिला निर्देशक बनी आरती भट्टाचार्य का कहना है कि निर्माता उनकी फिल्मों में दो या तीन उत्तेजक आइटम नंबर मांगते हैं । वे कहती हैं, लोग कहते कि ''जब हम एक हिंदी फिल्म देखते हैं, तो वह एक हॉलीवुड फिल्म की तरह लगती है । जब हम किसी भोजपुरी फिल्म के लिए जाते हैं, तो यह हिंदी फिल्म देखने जैसा है । हमारी फिल्म कहाँ है? भट्टाचार्य कहती हैं, ''पूर्वी उत्तर प्रदेश की यात्रा के दौरान, गाँव के युवा लड़कों ने हमें बताया कि पारिवारिक शादियों में वे डीवीडी पर पुरानी भोजपुरी फ़िल्में ही दिखाते हैं क्योंकि वे एकमात्र ऐसी फ़िल्में हैं जिन्हें पूरी तरह से देखा जा सकता है । 1980 के दशक के पारिवारिक सुपरहिट अब भी दुबारा रिलीज़ के दौरान अच्छा कारोबार करते हैं । नैहर की चुनरी नवंबर 2002 में फिर से रिलीज़ हुई थी । पूरा हॉल महिलाओं से भरा था । आलोचकों ने कई नई फिल्मों में 'भोजपुरियत' की अनुपस्थिति का भी उल्लेख किया है । जानेमाने बॉलीवुड निर्माता इंदर कुमार और अशोक ठाकेरिया द्वारा बनाई गई फिल्म 'सब गोलमाल हा' (2007) की समीक्षा करते हुए, फिल्म समीक्षक डॉ शंकर प्रसाद ने हिंदुस्तान में लिखा कि इन फिल्मों में भोजपुरी धरती की एक भी झलक नहीं है । भीड़, सीटी और झगड़े थे लेकिन कहीं भी भोजपुरी नहीं थी । '
यह भी एक दृढ़ता से आयोजित विचार है कि भोजपुरी बोलने वाले भी भोजपुरी फिल्में नहीं देखते हैं । उन्हें लगता है कि भोजपुरी फिल्में देखना पिछड़ेपन की निशानी है । हीरो कुणाल सिंह ने 25 नवंबर, 1993 को हिंदूस्तान में प्रकाशित एक साक्षात्कार में कहा था, भोजपुरी फिल्मों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि भोजपुरी का अभिजात वर्ग और आधुनिक परिवार अपने घरों में भोजपुरी में बातचीत करते हैं, मगर उनका मानना है कि सिनेमा घरों में जाकर भोजपुरी फिल्म देखना उनके गौरव के विपरीत है जबकि सच यह है कि 70 और 80 के दशक में भी अभिजात वर्ग भोजपुरी सिनेमा को बड़े पैमाने पर देखता रहा ।
लोग अपने अंदर की ओर झांकने और कठिन सवाल पूछने के लिए तैयार नहीं हैं, क्या भोजपुरी भाषी निर्माताओं द्वारा बनाई जा रही फिल्में इससे बेहतर नहीं हो सकतीं ? भोजपुरी फिल्में लोरिकायन जैसे लोकप्रिय क्षेत्रीय लोक कथाओं पर क्यों नहीं बनाई जा सकती हैं । और विजय मल, शोभनायक बंजारा, सोरठी ब्रिजभार, सती बिहुला, राजा भरथरी और गोपीचंद पर भी । यहां तक कि जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुंवर सिंह का जीवन भी, जिन्होंने 1857 के विद्रोह के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, एक भोजपुरी फिल्म के लिए एक दिलचस्प विषय होगा । मांग में यह भी बताया गाया है कि विभिन्न प्रकार के लोक गीतों जैसे कि सोहर, खलवना, बारहमासा, चैती, कजरी, फगुआ और विवाह के दौरान गाए जाने वाले गीतों का इस्तेमाल फिल्मों में कैसे किया जा सकता । बिहार और उत्तर प्रदेश साहित्य के भंडार हैं । फणीश्वर नाथ ’रेणु’, भिखारी ठाकुर और नागार्जुन जैसे कवियों और लेखकों ने महान साहित्य का निर्माण किया है । हम उनके कार्यों को क्यों नहीं अपना सकते हैं और बेहतर भोजपुरी फिल्में क्यूँ नहीं बना सकते हैं? एक नव-यथार्थवादी फिल्म के बारे में हम क्यूँ नहीं सोच सकते जो इक्कीसवीं सदी के प्रवासी अनुभव को कैप्चर करता है? या बिहार के कई भोजपुरी भाषी जिलों को प्रभावित करने वाली नक्सल समस्या? परन्तु निर्माता और फाइनेंसर मसाला फिल्में चाहते हैं क्योंकि सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के मुख्य दर्शक यही चाहते हैं । व्यापक दर्शकों को आकर्षित करने के लिए एक अलग सिनेमा बनाने के लिए, पहले बेहतर बुनियादी ढांचे की आवश्यकता होती है । यह इसमें यह साबित कर दिया की जिम्मेदारी के साथ समाज के सन्दर्भों के अनुकूल सिनेमा की शैली और सामग्री को मौलिक रूप से बदल सकता है । ऐसा फिलहाल नहीं लग रहा है, लेकिन उम्मीद तो रहती ही है । जिसको पूरा करने का प्रयास जारी है, अभय सिन्हा और टी पी अग्रवाल निर्मित 'रणभूमि' जैसे सोद्देश्य फ़िल्म को रखा जा सकता है, उन्होंने भोजपुरी में नक्सलवाद जैसी गंभीर सामाजिक समस्या पर पहली बार भोजपुरी में फ़िल्म बनाने का साहस किया । निरहुवा ने यह साबित कर दिया कि वह बहुरंगी आयाम वाला समर्थ अभिनेता है । इसी प्रकार सन 1996 में किरण कान्त वर्मा निर्देशित 'हक के लड़ाई' फ़िल्म बनी जिसका यह टाइटल पटकथा-संवाद लेखक आलोक रंजन ने सन 1990 के बाद उभरी ग्रामीण और शहरी छात्र राजनीति को केंद्र में रख कर रखा था ।
भूमण्डलीय तालमेल ने आज यह माहौल जरुर बनाया है कि भोजपुरी सिनेमा की चर्चा राष्ट्रीय -अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर भी होने लगी है । कई भारतीय भाषाओं में प्रकाशित मान्य पत्रिका 'संडे इंडियन' द्वारा भोजपुरी पर भी प्रकाशन शुरू हुआ । किशन खदरिया द्वारा प्रकाशित भोजपुरी सिनेमा की पहली ट्रेड पत्रिका 'भोजपुरी सिटी' कुछ वर्षो से लगातार सक्रिय है । पी के तिवारी के संचालन में चल रहा पहला भोजपुरी चैनल महुवा भी सफल है । मुंबई यूनिवर्सिटी की छात्रा सुभद्रा ने भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री के विकास पर रिसर्च पेपर तैयार किया है और यह असाइंमेंट उन्हें न्यूयार्क विश्वविद्यालय के मीडिया एंड कल्चर स्टडीज डिपार्टमेंट की तरफ से मिला है । अमेरिका की श्रीमती कैथरीन सी हार्डी ने फिलाडेल्फिया यूनिवर्सिटी द्वारा डाक्टरेट की उपाधि के लिए भोजपुरी सिनेमा पर अपना शोध संपादन पूरा किया है । भोजपुरी सिनेमा की इन जगमगाती रोशनियों ने अपनी उपयोगिता को बनाये रखा है । इसने भोजपुरी की आत्मा को विकसित किया है, सपनों को आकार दिया है, और राष्ट्रनिर्माण के लिए कर्तव्य का बोध कराया है ।
सन्दर्भ
ग्रन्थ सूची
गुरुचरण दास - उन्मुक्त भारत
सुनील खिलनानी
-भारत नामा
अभय कुमार दुबे - भारत का भूमण्डलीकरण
अभिजीत घोष - भोजपुरी सिनेमा
रविराज पटेल - भोजपुरी फिल्मों का सफरनामा
अंशु त्रिपाठी - भोजपुरी सिनेमा का सफ़र
मनोज भावुक -
भोजपुरी सिनेमा की विकास यात्रा
सोमवार, 27 जनवरी 2020
पुस्तक समीक्षा : 'इस बार तेरे शहर में(2018)' और 'अक्टूबर उस साल(2019)
वर्तमान कविता जटिल जगत की यथार्थता तथा मानव की अनुभूतिजन्य आवश्यकता के मध्य संघर्ष कर रही है। त्रासदीपूर्ण विडंबना के दौर में अपने पक्ष में खड़ा व्यक्ति सामाजिक संबंधों, अपने जीवन और साहित्य को लहूलुहान कर रहा है। ऐसे में कुछ कविताएं मूल्यों की रक्षा के लिए संजीवनी दे रही है तथा संबंधों को सहज बनाने का प्रयास कर रही है। वर्तमान युग के भाव बोध को समझने और रंजीत करने की क्षमता जिन कवियों में नजर आती है उनमें से एक युवा कवि मनीष हैं।
हाल ही में उनकी दो रचनाएं 'इस बार तेरे शहर में(2018)' और 'अक्टूबर उस साल(2019)' प्रकाशित हुई हैं। दोनों रचना संग्रह भाव प्रवणता, विषय वैविध्य तथा प्रस्तुति योजना और शब्द शक्ति की दृष्टि से प्रशंसनीय हैं। इनमें जटिल यथार्थ को समेटने की शक्ति भी दिखाई पड़ती है।
'कविताओं के शब्द' कविता में कविता की भाषा के संवर्धन के महत्व व कवि की इस संदर्भ में दृष्टि स्पष्ट है। कवि काव्य की भाषा की उपयोगिता तथा संवेदनशीलता से भलीभांति परिचित है। स्त्री-पुरूष के यांत्रिक समानता के स्थान पर यथोचित समता व व्यक्तिनिष्ठता को महत्त्व दे कर स्त्रीत्व को पढ़ा गया है। 'दुबली-पतली और उजली-सी लड़की' 'उसका मन' 'उसके संकल्पों का संगीत' 'तुम जो सुलझाती हो' यह निर्मला पुतुल के पठन के आग्रह को पूरा करने का प्रयास नज़र आता है कि (तन के भूगोल से परे, स्त्री के मन की गाँठे खोल कर, पढ़ा है कभी तुमने उसके भीतर का खौलता इतिहास..)।
युवाकवि मनीष की दोनों रचनाओं में स्त्री-पुरूष संबंधों की जटिलता तथा उसके उलझे सूत्रों को स्पर्श किया गया है। प्रेम और आकर्षण के कार्यव्यापार में उद्दीपन व प्रतिकर्षण के पहलू प्रकाशित होते हैं। 'तुम्हारे ही पास' 'तृषिता' 'कही अनकही' 'चाँदनी पीते हुए' 'गांठो की गठरी' 'बचाना चाहता हूँ' इत्यादि में प्रेम के प्रति जैविक व सामाजिक अंतर को उद्दात्ततापूर्वक परोसा गया है। संबंधो के प्रति 'दूरी की छटपटाहट' तथा 'निकटता के अनछुएपन' को आत्मीयतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है। 'मैं नहीं चाहता था' में प्रेम के कलंकित विजय व गौरवपूर्ण पराजय को व्यंजित किया गया है। कई स्थानों पर प्रेम श्रद्धा के स्तर को छूता प्रतीत होता है। अस्तित्व की क्षणिकता व जीवन की नश्वरता में भावों व अनुभूति की शाश्वतता को कवि..'कि तुम जरूर रहना' में उकेरने का सार्थक प्रयास करता है। 'अनगिनत मेरी प्रार्थनाएं' 'चाय का कप' में कवि संबंधों की बुनियाद व उसके कोमलता व कांतता को प्रतिष्ठित करता है। 'कही-अनकही' में व्यक्तित्व की भिन्नता के बावजूद स्नेहशक्ति से दृढ़बंधित मनुष्य की विनम्र अपेक्षा झलकती है।
आधुनिक जीवन की जटिलताओं में प्रमुख है एक साथ कई भूमिकाओं को निभाना या उसमें अनुकूलतम उपलब्धि प्राप्त कर लेना, कवि मनीष में 'मौन प्रार्थना के साथ' निष्पक्षतापूर्वक इसे समेटने और पाठकों में सहृदयता भर देने की प्रखर क्षमता है। सामाजिक अलोचनापरकता तथा व्यक्ति का इसमें उलझाव चिन्तनीय है जो रचना संग्रह में कई बार उभर कर सामने आता है। आधुनिक जीवन का अजनबीपन, विसंगति बोध व रिक्त हृदय के त्रास में कवि ने 'रिक्त स्थानों की पूर्ति' जैसी रचनाएं भी हैं।
मनीष जी की कई रचनाओं में स्त्री सौंदर्यबोध व प्रेमदृष्टि छायावादी प्रतीत होती है विशेषकर पंत जी काव्य जैसी - (सरल भौहों में था आकाश, हास में शैशव का संसार..)। स्निग्ध कोमल गात वर्णन व भावप्रवणता का स्तर मात्रात्मक दृष्टि से निःसन्देह कम होते हुए भी समान है परंतु ध्यातव्य है कि 'जीवनराग' जैसी कुछेक कविताओं को छोड़ दे तो आभिजात्यता की जगह मानक भाषा ही मिलती है। यह श्रद्धामूलक झुकाव 'सवालों में बंधी' 'प्यार के किस्सों में' तथा 'जीवन यात्रा' में भावनात्मक पदचिह्न छोड़ता चला जाता है।
अच्छा बिस्तर नींद की गारंटी नहीं है न ही धन सुख का है। कवि कई दैनिक जीवन की वस्तुओं जैसे 'कैमरा' से याद 'पेन' द्वारा नवीनता तथा 'विजिटिंग कार्ड' द्वारा मतलबी संबंधों पर व्यंग्य करते हैं।
आधुनिक साहित्य पर्यावरण चिंताओं व सतर्कतावों से भरा चिंतन बन गया है परन्तु 'हे देवभूमि' व 'वह गीली चिड़िया' में पर्यावरण भावभूमि पर समांगीकरण का प्रयास करता है। 'अक्टूबर उस साल में' कई कविताएं जैसे 'मतवाला करुणामय पावस' 'बसंत का ख़ाब क़बीला' में प्रकृति वर्णन व आयामगत विविधता की दृष्टि से श्रेष्ठ है। 'भूली-भूली जनश्रुतियों ने' में भी प्रकृति के प्रतीक बंद प्रतीत नहीं होते हैं।
अधिकांश कवियों के आरंभिक संग्रहों में स्वच्छंद भाववमन अधिक प्रदर्शित होता है परन्तु मनीष जी के संग्रह इससे भिन्न हैं जहाँ सहज भावनाओं का उच्छलन है। बावजूद इसके इसमें भाषाई साफगोई, तार्किकता व अनुभूति की विशिष्टता साहित्यिक संस्कारों से युक्त बना देती है जैसे 'जब कोई किसी को याद करता है' 'जीवन के तीस बसंत', 'तुम मिलती तो बताता', 'यह पीला स्वेटर', 'कच्चे से इश्क' आदि। प्रेम में अस्तित्व की अंतर्निर्भरता जो विलय तक पहुंचती है कहीं-कहीं अचानक प्रखर हो उठती है जैसे 'हे मेरी तुम' रचना में हुई है।
इन काव्य संग्रहों में अन्तर्जगत की सिक्तता, मरुता और ग्रंथियाँ लंबे प्रवास पर निकल चुकी प्रतीत होती है। 'आज मेरे अंदर की रुकी हुई नदी' 'विकलता के स्वप्न' 'कृतघ्न यातना' में कवि के उद्वेलन व संघर्ष के ताने-बाने बनते बिगड़ते गतिमान है।
मानवीय संबंधों की अनुभूत चेतना कई कविताओं में सहजता पूर्वक प्रवाहित होती गई है जो पाठकों के लिए कथ्य व कथन के अंतराल की नगण्यता के कारण अतिग्राह्य है, 'मुझे आदत थी' व 'उस साल अक्टूबर' जैसी कविताएं इस दिशा में आगे ले जाती है।
कवि कलाकार होता है यह रंगरेज़ पाठकों के हृदय पृष्ठ पर शब्द तूलिका से मर्मस्पर्शी चित्र बनाता है। मनीष जी जैसा कवि हो और विषय बनारस जैसा शहर हो तो बस कहना ही क्या ? लगता है जैसे 'इस बार तेरे शहर में' 'बनारस के घाट' देख ही आएं क्या' ? 'लंकेटिंग' फीलिंग भला कविताओं में कहाँ तक समाए ? बहरहाल 'अयोध्या' और 'मणिकर्णिका' जैसी कविताएं पाठकों में जीवनमूल्यों के प्रति यह गहरी समझ विकसित करती है की जीवन नश्वर है और परंपरा का प्रवाह शाश्वत है।
हिन्दी प्रदेश में भाषाई क्षेत्रवाद की स्थिति विचित्र है यह एक साथ जोड़ती व बाँटती है। 'मैंने कुछ गालियाँ सीखी है' में रचनाकार ने पाठकों को इस स्थिति में डाल दिया है जहाँ वह यथेष्ट की तलाश में बेचैन हो उठता है। भाषाई गालियाँ तेजी से प्रतिनिधि वाक्य बनती जा रही हैं तथा भाषाई तमीज़ हाशिए पर लटक रही है।
वर्तमान काव्य प्रवृत्तियों में प्रमुख है उत्तर छायावाद जहाँ मानव जीवन में असंगति बढ़ी है तथा गुंथे हुए यथार्थ को पकड़ने की सतर्कता काव्य में भी विद्यमान है। 'आत्मीयता' में स्थिर मान्यताओं से जुड़ा धोखा उद्घाटित होता है। कवि मनीष ने स्थितप्रज्ञ हो इस चुनौती को स्वीकार किया है। भावना व संवेदना भी बाज़ारवाद से बच नहीं सकी है तथा यह भी समय व वज़न के घेरे में आ गया है- 'स्थगित संवेदनाएं' में कवि ने त्रासद मानवीय स्थिति को व्यंजित किया है। कवि हृदय की आत्मीयता व प्रेम रिश्तों की गरमाहट 'वो संतरा' जैसी कविताओं में दिखाई देती हैं जहाँ आत्मपरकता तथा अभिव्यंजनात्मकता दोनों ही प्रखर हैं।
वाह्य व आंतरिक स्थिति लगातर सुसंगत होने तथा एकात्मकता का आनंद उठाने के बारे में कविताओं विशेषकर 'अक्टूबर उस साल' संग्रह तथा कविता 'वह साल वह अक्टूबर' में उत्कृष्ट स्तर को प्राप्त करती है। जो शब्द चयन में सटीकता, संगीतात्मकता तथा वातावरण की गतिशीलता पाठकों को आकर्षित करती है। ऋतु सौंदर्य व मौसमी बहार साहित्य के लिए लम्बे समय से कच्चा माल रहा है परन्तु यहां यह भावों के साथ आंदोलित होता है।
स्त्री-पुरुष प्रेम व्यापार इन रचना संग्रहों में पाठकों को अधिक संस्कारित करता है तथा प्रतिशोध आधारित त्रुटि की संभावना को कम करता है। 'बहुत कठिन होता है' में कवि प्रेम के यथार्थ बिम्ब को प्रस्तुत करता है जहाँ एकान्तिक ठहराव मिलता है।
परिवर्तन ही शाश्वत है, हर पीढ़ी अपने संक्रमण तथा उसकी पीड़ा को लेकर सजग, उत्सुक पर शिकायती रही है। 'कुछ उदास परम्पराएं' में परम्पराओं से विचलन तथा नई व्यवस्था के साथ सामंजस्य की कमी दिखाई पड़ती है।
भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक मान्य माध्यम है लेकिन इसमें भाषाई आवरण में अपने मंतव्य छिपा लेना तथा कलात्मकता का दुरूपयोग भी नया नहीं है,। भाषा कई बार विनम्रतापूर्वक अन्याय को पोषित करती है तथा उस पर प्रश्न नहीं खड़ा करती परंतु कवि भाषा के लिबास में अभिव्यक्ति की सुगमता तथा खतरे से भिज्ञ है जैसे (दरख्तों को, कुल्हाड़ी के नाखूनों पर भरोसा है)।
सभ्यता के इतिहास में अन्याय आधारित प्रथाओं को उद्दात प्रभाव प्रदान किया गया है, इसके परतों को उधेड़ना साहित्य का कर्तव्य है। कवि मनीष कई कविताओं में इस दिशा में प्रगतिशील प्रतीत होते हैं। वर्जनाओं व सीमाओं की लकीर पर गुणा-गणित करने के बजाए इसके औचित्य पर तार्किक विचार करते हैं। साहित्य में सत्य की पड़ताल की दीर्घ परंपरा रही है, कवि मनीष ने दर्शन के वैचारिक वाद -विवाद की जगह अनुभूतिजन्य सत्य को अधिक समीचीन माना है। 'इतिहास मेरे साथ' कविता में सत्य के प्रति समझौता हो जाने की संभावना को उदघाटित किया गया है। 'गंभीर चिंताओं की परिधि में' कवि ने वैयक्तिक चेतना को साध्य माना है। वे मनुष्य और समाज को प्रयोग शाला बना देने के पक्षधर नही हैं।
'अक्टूबर उस साल' की कुछ रचनाएं भविष्य में नारा बन जाने की संभावनाओं से युक्त हैं। समाज की लंबी कुलबुलाहट के बाद दबी चेतना को जैसे ही अभिव्यक्ति मिलती है वह समाज द्वारा हाथों-हाथ ली जाती है। ऐसा दुष्यंत कुमार की रचनाओं में सिद्ध भी हो चुका है। कवि मनीष जी की रचनाओं में 'यूं तो संकीर्णताओं को'(वहन कर रहा हूं), 'दौर-ए-निजाम' जैसी कविताएंं वर्तमान विडम्बनापूर्ण सामाजिक स्थिति पर सटीकता से जनता का पक्ष रखती हैं तथा बाजार व सत्ता के कुचक्र में निस्सहाय व्यक्ति के सामग्री या दर्शक बन जाने की अभिशप्तता को उचित रूप में रखती हैं।
सिद्ध बहुरूपिये भूमण्डलीय बाज़ार ने व्यक्ति की इच्छाओं,वासनाओं व सुगमताओं को अधिक कठोरतापूर्वक परिभाषित कर लिया है, तंत्र द्वारा अव्यवस्था के प्रति व्यक्ति की सहनशीलता की सीमा को बढ़ा दिया गया है। तंत्र की जटिलता व अन्यायपरकता को समझते हुए भी व्यक्ति अभिशप्त है। इन संग्रहों में न्यूनतम शब्दों में अनुभव व चिंतन सहजतापूर्वक व्यक्त हुआ है। उर्दू,फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग लोक प्रचलन के अनुपात में ही प्रयोग किया गया है। अर्थों के स्तर पर पर लय व तुकों का सृजनात्मक रूप उभर कर सामने आया है। बहुअर्थी प्रतीक और उपमानों की ताज़गी रचना संग्रह की आकर्षक विशेषता है। अलक्षित, संश्लिष्ट व गतिशील बिम्बों का प्रयोग हुआ है जो सामग्री की ताज़गी बरकरार रखती है।
राजीव कुमार पाण्डेय
शनिवार, 29 दिसंबर 2018
शिक्षा : परिवर्तन शाश्वत है..
मानव अभूतपूर्व क्रांति का सामना कर रहा है, हमारी सभी पुरानी रचनायें टूट रही हैं, और उन्हें बदलने के लिए अब तक कोई नई रचना उभरी नहीं है। सवाल है कि हम खुद को और हमारे बच्चों को ऐसे अभूतपूर्व परिवर्तनों और कट्टरपंथी अनिश्चितताओं की दुनिया के लिए कैसे तैयार कर सकते हैं ? उस बच्चे को क्या सिखाया जाना चाहिए जो अब के बाद की दुनिया में उसे जीवित रहने और विकसित करने में मदद करेगा ? कुछ पाने के लिए उसे किस तरह के कौशल की आवश्यकता होगी, वह दृष्टि उसे कैसे प्राप्त होगी जिससे वह यह देख सके कि उसके चारों ओर क्या हो रहा है, और जो जीवन की भूलभुलैया पर मार्गदर्शन करे ?
इक्कीसवीं शताब्दी में हमें बड़ी मात्रा में जानकारी मिली है, जो सेंसर तो नहीं है अलबत्ता गलत जानकारी फैलाने या अपरिवर्तनीयताओं के साथ हमें विचलित करने में व्यस्त है । स्मार्टफ़ोन है तो आप हर सूचना से बस एक क्लिक दूर हैं, जो इतने विरोधाभासी हैं कि यह जानना मुश्किल है कि किस पर विश्वास करना है। इसके अलावा, अनगिनत अन्य चीजें भी सिर्फ एक क्लिक दूर हैं, जिसे ध्यान में रखा जा सकता है, जब राजनीति या विज्ञान बहुत जटिल लगते हैं तो यह हमें कुछ मजेदार कुत्ते बिल्लियों की वीडियो, मनोरंजन, सेलिब्रिटी गपशप या पोर्न की तरफ मोह लेता हैं।
ऐसी दुनिया में, एक चीज जिसे एक शिक्षक को अपने विद्यार्थियों को देने की ज़रूरत होगी, वह अधिक सूचना नहीं है। वे पहले से ही बहुत अधिक है। इसके बजाए जरूरत है सूचनाओं के प्रति एक समग्र दृष्टिकोण बनाने की क्षमता विकसित करने की जो अन्तर करना सिखाये और यह समझाए कि दुनिया के व्यापक फलक पर महत्वपूर्ण क्या है और महत्वहीन क्या है। अगर आपको तेज़ चलना है तो आपको हल्का होना होगा।
अगले कुछ दशकों में हम जो निर्णय लेंगे वह जीवन के भविष्य को आकार देगा। यदि हम में बदलाव के प्रति व्यापक दृष्टिकोण की कमी रही तो जीवन का भविष्य जूए से तय किया जाएगा।
रविवार, 18 फ़रवरी 2018
कोलाहल में "हम" और "राज्य"
सोमवार, 14 मार्च 2016
जीवन
हर नई कहानी,
क्यों बदल देना चाहती,
आने वाली जीवन कहानी।
हर नई कविता,
क्यों बेताब कर देती,
अपने सुर में गानें को।
हर नई नसीहत,
क्यों परिवर्तित कर देती,
हर पुरानी सिख।
विचारों का ये परिवर्तन,
बोझिल करता मेरा मन,
किस राह चलू मैं।
हर राहें राहों से भरी पड़ी,
हर राहों से गुजरते लोग,
जीवन के हर रंग को जीते लोग।
मैं जब किसी राह पर कदम बढ़ाऊं,
सकुचाते शरमाते,
नई राह मुझको ललचाती।
सिद्धान्तों का ये अस्थिरतापन,
पन्नों में दबी टेढ़ी मेढ़ी स्याह लकीरों का आदर्श,
इनको बदल देना चाहता जीवन का अनुभव।
मंगलवार, 1 मार्च 2016
राष्ट्र, राष्ट्रवाद और भारत
राष्ट्र, राष्ट्रवाद और भारत
राष्ट्र कहीं होता नहीं है, अतः इसे पाया भी नहीं जाता। हाँ इसे बनाया जाता है, और सिर्फ बनाया जाता है यह इसलिए कि यह वास्तव में पूर्ण रूप से कभी बनता नहीं है। इसे बनाने में मुख्य रूप से तीन चीजें लगतीं हैं।
पहली चीज है इच्छा। अगर हम भारत नामक राष्ट्र बनाते रहना चाहतें हैं तो हमें यह कोशिश करते रहना होगा कि भारत की सवा अरब आबादी के हर नागरिक की यही इच्छा हो। मतलब हर रूठे को मनाने की कोशिश करते रहनी होगी अन्यथा एक रूठा मतलब हमारा राष्ट्र एक कम का होगा।
दूसरी चीज है संस्कृति। सबको पता है भारत संस्कृतियों का अजायबघर है। यह एकता की अजीब कोशिश है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि यह एकता इस रूप में नहीं है कि हम पिस कर संस्कृतियों कि चटनी बना दें और फिर इसे मुहँ में डाल कर स्वाद लें और अनुमान लगाएं कि इसमे क्या क्या था। बेहतर है कि जीभ के स्वाद की बजाय हम आँख से ही इसका सौंदर्य बोध प्राप्त करें जैसे फूल की टोकरी या फुलवारी। हमें सभी को आदर देते रहना होगा।
तीसरी चीज है विचारधारा। जाहिर सी बात है कि राष्ट्र बनाने के लिए राष्ट्रवादी विचार चाहिए। यह उस सोई हुई राजकुमारी(राष्ट्र) की तरह है जिसे जगने के लिए एक राजकुमार(राष्ट्रवाद) का इंतजार रहता है। एक चीज यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्रवाद से किसी भी विचार या वाद से कोई भी विरोध नहीं है सिवाय अलगाववाद के। दिल पर पत्थर रख कर हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अलगाववाद भी एक तरह का राष्ट्रवाद ही होता है जिसकी निष्पति एक और बनते राष्ट्र में होती है यह पहले वाले राष्ट्रवाद कि असफलता होती है। राष्ट्रवाद से भिन्न अलगाववादी विचार तब पनपते हैं जब ऊपर की दोनों कोशिशो में हम असफल रहतें हैं।
और रही भारत राष्ट्र की बात तो भारत स्वरूपतः एक विकासशील लोकतंत्र है। चूँकि यह विकासशील है अतः विकास के सीमित संसाधनों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए यहाँ छोटे मोटे टकराव होते रहेंगें। लेकिन चूँकि यहाँ लोकतंत्र भी है अतः इन टकरावों को मिल बैठ कर सुलझा भी लिया जायेगा।
दिल्ली सल्तनत में फारसी साहित्य
दिल्ली सल्तनत के दौरान फारसी साहित्य के विकास के कारण मंगोल आक्रमणों के कारण मध्य एशिया से विद्वानों का भारत की ओर प्रवासन। भारत में...

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