सोमवार, 3 अप्रैल 2023

गौरवपूर्ण क्रान्ति का महत्व एवं प्रभाव


1688 ई. की वैभवपूर्ण क्रान्ति का इंग्लैण्ड के इतिहास में अत्यन्त महत्व है। इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप 1603 ई. अथवा उससे भी पूर्व से चले आ रहे संसद एवं राजा के मध्य संघर्ष समाप्त हो गया। इस क्रांति का महत्त्व इस प्रकार है -

1.    राजनीति के प्रमुख सिद्धांतों का स्पष्ट होना

इस क्रान्ति ने उन समस्त सिद्धान्तों को स्पष्ट कर दिया जिनके कारण यह संघर्ष चल रहा था जैसे राजा तथा संसद में किसके अधिकार सर्वोपरि हैं; इंग्लैण्ड के चर्च का स्वरूप क्या है; राज्यमन्त्री राजा के प्रति उत्तरदायी हैं अथवा संसद के; नागरिक स्वाधीनता की रक्षा, अधिनियम बनाना तथा कर लगाने का अधिकार किसकी है; देश की वैदेशिक तथा गृह-नीति किसकी इच्छानुसार होनी चाहिए।

2.  राजा के दैवी अधिकारों की अस्वीकृति

राजा के दैवी अधिकारों (Divine Rights) को स्वीकार नहीं किया जा सकता। वह ईश्वर के प्रति नहीं वरन् जनता की प्रतिनिधि संसद के प्रति उत्तरदायी है। जनता की शक्ति सर्वोपरि है, अतः राजा को प्रचलित नियमों में परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है। राजा की वास्तविक शक्ति संसद के सहयोग पर ही निर्भर है। राजमन्त्रियों के उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में भी यह स्पष्ट हो गया कि वे संसद के प्रति ही उत्तरदायी हैं।

3.  राजा का संसदीय अधिकारों के अधीन होना

इस क्रान्ति ने यह भी स्पष्ट किया कि नागरिक स्वतन्त्रता की रक्षा करना, कानून बनाना तथा कर लगाना संसद के अधिकारों के अन्तर्गत हैं, राजा इसमें किसी प्रकार हस्तक्षेप नहीं कर सकता। राज्य की गृह एवं वैदेशिक नीति का निर्धारण भी राजा स्वेच्छा से नहीं अपितु संसद के परामर्श से करेगा।

4.  इंग्लैण्ड में प्रोटेस्टेंट धर्म का वर्चश्व

धार्मिक क्षेत्र में भी स्पष्ट हो गया कि इंग्लैण्ड का वास्तविक धर्म एंग्लिकन अथवा प्रोटेस्टेण्ट है। चर्च पर से राजा के अधिकार को समाप्त किया गया तथा संसद को चर्च का उत्तरदायित्व सौंपा गया। यह भी निश्चित किया गया कि कोई कैथोलिक व्यक्ति अथवा जिसका विवाह कैथोलिक से हुआ हो, इंग्लैण्ड की राजगद्दी पर आसीन नहीं हो सकता था। इस प्रकार कैथोलिक के खतरे को सदैव के लिए इंग्लैण्ड से समाप्त कर दिया गया तथा प्रोटेस्टेण्ट धर्म इंग्लैण्ड में सदैव के लिए स्थापित हो गया।

5.  बिल ऑफ राइट्स

1688 ई. में हुई वैभवपूर्ण क्रान्ति का महत्वपूर्ण परिणाम संसद का प्रशासकीय मामलों में सर्वोपरि शक्ति के रूप में उभर कर सामने आना था। संसद की शक्ति में वृद्धि करने वाला प्रमुख स्रोत बिल ऑफ राइट्स था। विलियम ने राजगद्दी पर आसीन होने से पूर्व बिल ऑफ राइट्स को स्वीकार किया था।

इस  बिल ऑफ राइट्स की प्रमुख धाराएं निम्नलिखित थीं :

·      शान्तिकाल में राजा स्थायी सेना नहीं रखेगा।

·      कोर्ट ऑफ हाई कमीशन की स्थापना अथवा प्रचलित नियमों को भंग करने का राजा को अधिकार नहीं होगा।

·      संसद का निर्वाचन स्वतन्त्र रूप से होगा तथा संसद-सदस्यों को भाषण की पूर्ण स्वतन्त्रता होगी

·      राजा संसद की अनुमति के बिना कर नहीं लगाएगा।

·      भविष्य में इंग्लैण्ड के राजसिंहासन पर कैथोलिक व्यक्ति नहीं बैठ सकेगा।

 

6.  कैबिनेट प्रणाली का प्रारम्भ

विलियम के शासनकाल से राजा मन्त्रियों की नियुक्ति करता था तथा ये राजा के प्रति उत्तरदायी होते थे। चार्ल्स के समय में संसद में दो दल हो गए थे ढिग एवं टोरी ये दोनों परस्पर विरोधी विचारधारा के थे। विलियम विवश होकर दोनों ही दलों में से अपने मन्त्रियों को नियुक्त करता था। मन्त्रियों के परस्पर विरोधी दलों के होने के कारण उनमें मतभेद रहता था, अतः राज-कार्य करने में परेशानी होती थी। अर्ल ऑफ सेण्डरलैण्ड ने यह प्रस्ताव रखा कि विलियम केवल एक ही दल के व्यक्तियों को मन्त्री नियुक्त करे क्योंकि वे सरलता से एकमत होकर कार्य करेंगे तथा उन्हें संसद का भी विश्वास एवं समर्थन प्राप्त हो सकेगा। विलियम ने इस परामर्श को स्वीकार किया तथा संसद में बहुमत वाले दल से मन्त्रियों को नियुक्त करना प्रारम्भ किया। विलियम का यह प्रशिक्षण सफल रहा तथा भविष्य में यह प्रथा स्थायी हो गयी। विलियम ने ह्निग दल के बहुमत में होने के कारण इसी दल से अपने मन्त्रियों को नियुक्त करना प्रारम्भ किया था। मन्त्रियों की बैठक 'कैबिनेट' पड़ा तथा दलबन्दी शासन (party government) की स्थापना भी इसी समय से जिस छोटे से कमरे में होती थी उसका नाम कैबिनेट था उसी के नाम पर मन्त्रिमण्डल का नाम प्रारम्भ हुई।

इस प्रकार इंग्लैण्ड के इतिहास में वैभवपूर्ण क्रान्ति का अत्यन्त महत्व है क्योंकि इनमें राजाओं की निरंकुशता व स्वेच्छाचारिता के स्थान पर वास्तविक संसदीय प्रणाली की स्थापना की। इस प्रकार सांविधानिक दृष्टिकोण से न केवल इंग्लैण्ड पर अपितु सम्पूर्ण विश्व पर इसका प्रभाव पड़ा। इस क्रान्ति के कारण ही इंग्लैण्ड में सहिष्णुता की भावना अधिक दृढ़ हुई तथा प्रेस पर से प्रतिबन्ध हटा लिया गया। न्याय विभाग तथा कार्यकारिणी पृथक्-पृथक् किए तथा एक लोकप्रिय सरकार की स्थापना हुई जैसा कि रैम्जे म्योर ने लिखा है, "इस स्मरणीय तथा नवीन युग-निर्मातृ घटना से इंग्लैण्ड में लोकप्रिय सरकार का युग प्रारम्भ हुआ तथा सत्ता निरंकुश राजाओं के हाथ से निकलकर संसद के हाथ में आ गयी।”

वैभवपूर्ण क्रान्ति के कारण

जेम्स द्वितीय ने तीन वर्षों तक शासन किया, तत्पश्चात् उसे इंग्लैण्ड छोड़कर भागने पर विवश होना पड़ा। अपने तीन-वर्षीय अल्प शासनकाल में गृह-नीति के अन्तर्गत उसने जितने भी कार्य किए उनके परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड में वैभवपूर्ण क्रान्ति का जन्म हुआ। इस कान्ति में एक बूंद भी रक्त धरती पर नहीं गिरा, इसी कारण इसे वैभवपूर्ण/गौरवपूर्ण क्रान्ति अथवा रक्तहीन कान्ति  कहा जाता है। वैभवपूर्ण क्रान्ति के निम्नलिखित कारण थे :

1.   राजा एवं संसद के मध्य संघर्ष

हेनरी सप्तम द्वारा सामन्तों की शक्ति नष्ट किए जाने के पश्चात् से ट्यूडर शासक निरंकुश हो गए थे। ट्यूडर शासकों द्वारा मध्यवर्ग को प्रोत्साहन दिया गया था। तथा इस वर्ग ने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। इसी काल में हुए पुनर्जागरण तथा धर्म-सुधार आन्दोलनों के कारण मध्यवर्ग अपने अधिकारों के प्रति अत्यन्त जाग्रत हो चुका। 1603 ई. में स्टुअर्ट वंश की इंग्लैण्ड में स्थापना हुई। जेम्स प्रथम ने जनता पर अपने दैविक अधिकारों को थोपने का प्रयत्न किया, किन्तु जनता ने इसका विरोध किया, परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड में राजा एवं संसद के मध्य संघर्ष प्रारम्भ हुआ जेम्स द्वितीय के समय में राजा और संसद का संघर्ष तीव्र हो गया तथा वैभवपूर्ण क्रान्ति के रूप में इसका अन्त हुआ।

2.  जेम्स द्वितीय की निरंकुशता

जेम्स द्वितीय ने प्रारम्भ से ही निरंकुशतापूर्वक शासन करने का प्रयत्न किया। वह अपनी अत्याचारी एवं निरंकुश नीति से जनता में भय एवं आतंक उत्पन्न करना चाहता था, ताकि वह स्वेच्छाचारिता से शासन कर सके। जेम्स द्वितीय कैथोलिक था तथा इंग्लैण्ड की अधिकांश जनता प्रोटेस्टेण्ट थी। जेम्स कैथोलिक धर्म का इंग्लैण्ड में प्रचार करना चाहता था, इसी उद्देश्य से जेम्स ने लन्दन में एक नवीन गिरजाघर बनवाया जिसका जनता ने घोर विरोध किया। जेम्स ने अवसर पाकर अपनी सेना में वृद्धि की, ताकि जनता को आतंकित कर सके। जनता इंग्लैण्ड में पुनः सैनिक शासन की स्थापना नहीं चाहती थी अतः जेम्स की निरंकुश नीति का जनता द्वारा विरोध होना स्वाभाविक था।

3.  खूनी न्यायालय

ह्निग दल इंग्लैण्ड में जेम्स द्वितीय के राजगद्दी पर आसीन होने का विरोधी था। ह्निग नेताओं ने चार्ल्स के अवैध पुत्र मन्मथ (Monmouth) को विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। मन्मथ ने सेना एकत्र करके स्वयं को इंग्लैण्ड का उत्तराधिकारी घोषित किया। जेम्स द्वितीय ने सेजमूर नामक स्थान पर मन्मथ को परास्त करके बन्दी बनाया। विद्रोहियों के साथ अमानुषिक व्यवहार किया गया तथा मन्मथको मृत्यु-दण्ड दिया गया। इस न्यायालय को खूनी न्यायालय (Bloody Assizes) कहा गया तथा जनता का जेम्स द्वितीय की अत्याचारी एवं कठोर नीति से घृणा हो गयी।

4.   टेस्ट नियम की अवहेलना

इंग्लैण्ड में चार्ल्स द्वितीय के समय संसद ने टेस्ट अधिनियम पारित किया था। इस अधिनियम के द्वारा केवल एंग्लिकन चर्च के अनुयायी ही सरकारी कर्मचारी हो सकते थे। अतः कैथोलिकों को सरकारी सेवा से वंचित कर दिया गया था। जेम्स द्वितीय स्वयं कैथोलिक था। अतः कैथोलिकों को सुविधा प्रदान करना चाहता था किन्तु टेस्ट अधिनियम के कारण वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर सकता था। इंग्लैण्ड की संसद ने जेम्स के इन कार्यों का विरोध किया। जेम्स ने संसद के विरोध की परवाह न की, अतः जनता में विद्रोह की भावना जाग्रत होने लगी।

5.  विश्वविद्यालयों में हस्तक्षेप

जेम्स ने विश्वविद्यालयों में भी कैथोलिकों को नियुक्त करना प्रारम्भ किया। क्राइस्ट चर्च कॉलेज में अधिष्ठाता (Dean) के पद पर एक कैथोलिक व्यक्ति की नियुक्ति की गयी तथा मेक्डालेन विद्यालय के सभी शिक्षाधिकारियों को हटा दिया गया क्योंकि उन्होंने जेम्स की इच्छा होते हुए भी एक कैथोलिक व्यक्ति को अपना सभापति बनाने से इन्कार कर दिया था। इस प्रकार शिक्षा पर कैथोलिकों का आधिपत्य स्थापित करने का जेम्स द्वितीय ने प्रयत्न किया जिससे प्रोटेस्टेण्ट सम्प्रदाय को खतरा उत्पन्न हो गया अतः प्रोटेस्टेण्ट सम्प्रदाय के लिए आवश्यक हो गया कि वे जेम्स का विरोध करें।

6.   फ्रांस से मित्रता

फ्रांस के शासक लुई का प्रभाव इस समय यूरोप में छाया हुआ था। चार्ल्स द्वितीय के समान जेम्स द्वितीय पर भी लुई चौदहवें का अत्यधिक प्रभाव था। वह फ्रांस से आर्थिक एवं सैनिक सहायता प्राप्त कर अपने निरंकुश शासन को इंग्लैण्ड में स्थापित करना चाहता था। लुई चौदहवां कट्टर कैथोलिक था तथा फ्रांस में प्रोटेस्टेण्ट वर्ग पर अत्यधिक अत्याचार करता था, अतः इंग्लैण्ड की जनता लुई चौदहवें को पसन्द नहीं करती थी तथा जेम्स से अपेक्षा करती थी कि वह फ्रांस से मित्रता न रखे।

7.  धार्मिक अनुग्रह की घोषणाएं

जेम्स द्वितीय पूर्णतः कैथोलिक तथा इंग्लैण्ड को एक कैथोलिक देश बनाना चाहता था। इसी उद्देश्य की पूर्ति उसने टेस्ट अधिनियम की अवहेलना करके समस्त उच्च राजकीय पदों पर कैथोलिकों को नियुक्त किया। जेम्स ने तदोपरान्त 1687 ई. में धर्म अनुग्रह की प्रथम घोषणा की जिसके द्वारा कैथोलिकों तथा अन्य सम्प्रदायों पर लगे प्रतिबन्ध समाप्त कर दिए। धार्मिक अनुग्रह की प्रथम घोषणा को अधिक समय नहीं हुआ था कि 1688 ई. में अपने धार्मिक अनुग्रह की द्वितीय घोषणा की। इस घोषणा के द्वारा समस्त धर्मों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की गई तथा जेम्स द्वितीय ने वर्ग तथा धर्म का पक्षपात किए बिना प्रत्येक को राजकीय पद को प्रदान करने की सुविधा दी। जेम्स के इस कार्य से प्रोटेस्टेण्ट अत्यधिक क्रोधित हुए तथा क्रान्ति की भावना उनमें प्रबल होने लगी

8.   जेम्स द्वारा जनता की शक्ति को न समझ पाना

जेम्स का यह भ्रम था कि वह जनता को शक्ति के द्वारा भयभीत करके स्वेच्छाचारिता से शासन कर सकता है। जेम्स द्वितीय को इतिहास से सबक लेना चाहिए था और उसे नहीं भूलना था कि जनता ने चार्ल्स प्रथम के विरुद्ध किस प्रकार अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया था और चार्ल्स प्रथम को मृत्यु-दण्ड प्राप्त हुआ था। जेम्स के लिए यह आवश्यक था कि वह जनता की भावना को परखता और चार्ल्स द्वितीय के समान शासन करना, किन्तु उसने जनता की इच्छा के विरुद्ध कार्य किया तथा जनता की शक्ति को समझने में वह असफल रहा।

9.  जेम्स द्वितीय के पुत्र का जन्म

जेम्स की प्रथम पत्नी से दो पुत्रियां थीं—मेरी तथा ऐन। ये दोनों ही प्रोटेस्टेण्ट थीं। अतः जनता का विचार था कि जेम्स द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् मेरी ही रानी बनेगी, अतः प्रोटेस्टेण्ट सम्प्रदाय को सुविधाएं प्राप्त हो सकेंगी, किन्तु 10 जून, 1588 को जेम्स द्वितीय की द्वितीय पत्नी मोडेना ने पुत्र को जन्म दिया। जेम्स की पुत्र की प्राप्ति उसके लिए अत्यन्त भयंकर प्रमाणित हुई क्योंकि जनता को विश्वास हो गया कि जेम्स अपने पुत्र को कैथोलिक शिक्षा प्रदान करेगा, अतः उन्हें कैथोलिक राजाओं के अत्याचार से कभी मुक्ति नहीं मिलेगी। जनता ने अब जेम्स द्वितीय के विरुद्ध क्रान्ति करना आवश्यक समझा।

फ़्रांस के राजा लुई चौदहवें का योगदान : विदेश नीति

लुई चौदहवें ने अपने पूर्ववर्ती शासकों की ही भांति फ्रांस को यूरोप का सर्वोत्कृष्ट देश बनाने का स्वप्न देखा। अतः वह यूरोप में फ्रांस की सीमाओं में परिवर्तन का पक्षपाती था। वह यूरोपीय देशों की 'प्राकृतिक सीमाओं के सिद्धान्त' (Doctrine of natural boundaries) का हिमायती था। संक्षेप में, वह फ्रांस की सीमा को दक्षिण में आल्पस एवं पिरैनीज, पश्चिम में समुद्र एवं उत्तर-पूर्व में राइन नदी तक विस्तृत करना चाहता था। इसका सीधा अर्थ था कि उसे विदेशी शक्तियों से युद्ध करना पड़ता। इसके लिए सर्वप्रथम उसने दो विभागों को संगठित किया -

(अ) सैन्य विभाग-लुई चतुर्दश एक केन्द्रीयकृत सशक्त सेना की स्थापना करना चाहता था। अतः उसने योग्य एवं कुशल व्यक्ति 'लुवय' को अपना युद्ध मन्त्री नियुक्त किया। उसके निर्देशानुसार लुवय ने फ्रांसीसी सेना में कठोर अनुशासन, अभ्यास एवं कुशल रणशिक्षा की समुचित व्यवस्था की। सेना में पदोन्नति का अधिकार योग्यता रखा गया। उसकी सेना में कोंदे एवं ट्यूरैन जैसे योग्य सेनापति थे। युद्ध मन्त्री प्रत्येक स्थिति में लुई चौदहवें के प्रति उत्तरदायी था।

(ब) विदेश विभाग–लुई चौदहवें ने कुशल परराष्ट्र नीति की सार्थकता के लिए दक्ष, कुशल एवं कूटनीतिज्ञ 'लियोन' को विदेश विभाग का मन्त्री नियुक्त किया। फ्रांस की पूर्वी एवं उत्तरी सीमाओं पर दुर्ग बनवाकर किलेबन्दी की गई। विदेश मन्त्री प्रत्येक स्थिति में शासक के प्रति उत्तरदायी था। युद्ध एवं सन्धि के निर्णय शासक स्वयं लेता था।

1.    स्पेन से डेवोल्यूशन का युद्ध

कारण :

·       युद्ध का सर्वप्रधान कारण लुई चतुर्दश की महत्वाकांक्षा एवं साम्राज्यवादी नीति थी। लुई अपनी इस नीति के सफल सम्पादन हेतु स्पेनी नीदरलैण्ड्स (बेल्जियम) एवं फ्रैंच काम्टे को अपने साम्राज्य का अंग बनाना चाहता था। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए लुई चतुर्दश ने स्पेनी नीदरलैण्ड्स में प्रचलित सामन्ती अथवा स्थानीय डेवोल्यूशन नामक उत्तराधिकार के नियम का आधार लिया। इस नियम के अनुसार पैतृक सम्पत्ति पर पहली स्त्री की सन्तान का ही सर्वाधिक अधिकार मान्य था।

·       1659 ई. की 'पिरैनीज की सन्धि' के अनुसार स्पेनी नरेश फिलिप चतुर्थ की पुत्री मेरिया थिरिजा से लुई चतुर्दश ने विवाह किया था। मेरिया थिरिजा नरेश फिलिप की प्रथम पत्नी की पुत्री थी। अतः उक्त उत्तराधिकार के नियम के अनुसार स्पेनी नीदरलैण्ड्स पर मेरिया थिरिजा का अधिकार सिद्ध होता था।

·       डेवोल्यूशन के उत्तराधिकार के नियम को आधार बनाकर यह युद्ध फ्रांस ने छेड़ा था। अतः इसे डेवोल्यूशन के युद्ध' के नाम से जाना जाता है।

युद्ध की घटनाएं

·       1667 ई. में स्पेन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते ही लुई चतुर्दश की सेना ने स्पेन की दुर्बलता एवं पतनावस्था का लाभ उठाते हुए फ्रैंच काम्टे पर अधिकार कर लिया। इसके पश्चात् फ्रांसीसी सेना स्पेनी नीदरलैण्ड्स में घुस गई।

·       इस समय इतनी आसानी से फ्रांस की सफलता ने इंग्लैण्ड, हालैण्ड एवं स्वीडन के कान खड़े कर दिए। इंग्लैण्ड व हालैण्ड ने अपनी पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता का अन्त कर स्वीडन के साथ मिलकर 1668 ई. में त्रिगुट का निर्माण कर लिया। इस कदम ने निःसन्देह लुई चतुर्दश को 'एला शैपल की सन्धि' के लिए विवश कर दिया।

एला शैपल की सन्धि

·       इस सन्धि के अनुसार फ्रांस की सीमा पर लगे टुर्नय (Tournai), चालेशय (Charlesai) एवं लीले (Lille) जैसे नगर स्पेन को फ्रांस को सौंपने पड़े। फ्रांस ने युद्ध में जीता स्पेनी नीदरलैण्ड्स का अधिकांश भाग लौटा दिया। हेज के अनुसार, 'इस सन्धि ने लुई चतुर्दश की पिपासा को अतृप्त ही रखा।'

2.  डचों से युद्ध (1672-1678)

युद्ध के कारण:   

·       डेवोल्यूशन के युद्ध में विवश होकर लुई चतुर्दश को एला-शैपल की सन्धि करनी पड़ी। लुई चतुर्दश ने इसका कारण हालैण्ड को माना। अतः वह हालैण्ड से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था।

·       लुई इस बात को भी भली-भांति समझता था कि फ्रांस के साम्राज्य विस्तार एवं व्यापारिक उन्नति के लिए हालैण्ड सबसे बड़ी बाधा है। वास्तव में, फ्रांस उत्तर-पूर्व की ओर फ्रांस के साम्राज्य विस्तार से हालैण्ड की सुरक्षा को खतरा पहुंचता था। अतः हालैण्ड भी फ्रांस से संशकित था।

·       लुई के लिए हालैण्ड के काल्विनवादी उसके कट्टर कैथोलिक होने के कारण असह्य थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि हालैण्ड ने ही फ्रांस से भागे ह्यूगनोटों को शरण दी थी।

युद्ध पूर्व कूटनीति :

·       लुई ने हालैण्ड के युद्ध में परास्त करने के लिए सर्वप्रथम इंग्लैण्ड के शासक चार्ल्स द्वितीय को धन देकर 1670 में डोवर की सन्धि कर ली। इस सन्धि से उसने इंग्लैण्ड की तटस्थता प्राप्त कर ली।

·       स्वीडन को भी धन देकर अपनी ओर मिला लिया। इस प्रकार त्रिगुट को भंग कर लुई ने अपने लिए अनुकूल स्थिति उत्पन्न कर दी।

·       इसके विपरीत हालैण्ड में इस समय राजतन्त्रवादियों एवं गणतन्त्रवादियों में गृह-युद्ध चल रहा था। हालैण्ड की इस आन्तरिक समस्या से लाभ उठाकर उसने 1672 ई. में हालैण्ड के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

युद्ध की घटनाएं :

·       फ्रांस का हालैण्ड के साथ यह युद्ध 1672 ई. से 1678 ई. तक जारी रहा। फ्रांसीसी सेना का प्रतिनिधित्व कोदे एवं ट्यूसे नामक सेनापतियों ने किया। फ्रांसीसी सेना ने शीघ्र ही लारेन पर अधिकार कर लिया, फ्रांसीसी सेना के एम्सटरडम में प्रवेश करते ही डचों का नेतृत्व करने वाले डी विट ने लुई चौदहवें से सन्धि  वार्ता आरम्भ कर दी।

·       डचों ने इस पर डी विट की हत्या कर दी और अब डचों का नेतृत्व - लारेन के राजकुमार विलियम ने किया। विलियम ने तुरन्त समुद्री बांध के द्वार खुलवा दिए। इसका परिणाम यह हुआ कि फ्रांसीसी सेना एम्सटरडम पर अधिकार न कर सकी। विलियम ने तुरन्त लुई के विरुद्ध एक गुट के निर्माण में पहल आरम्भ कर दी।

·       इधर यूरोपीय देश फ्रांस की सफलता से आशंकित हो चुके थे। आस्ट्रिया, डेनमार्क, ब्रेन्डेनबर्ग, इंग्लैण्ड एवं स्पेन को अपने पक्ष में कर विलियम ने लुई के विरुद्ध गुट बना ही लिया। स्वीडन ने लुई का साथ न छोड़ा। 1678 ई. में दोनों पक्षों में 'निमवेजिन की सन्धि' हो गई।

निमवेजिन की सन्धि :

निमवेजिन की सन्धि से फ्रांस को स्पेन के फ्रेंच काम्टे तथा बेल्जियम के कई नगर प्राप्त हो गए। लारेन पर फ्रांसीसी प्रभुत्व स्थापित हो गया। लुई का यह राइन नदी की ओर सीमा विस्तार का महत्वपूर्ण प्रयास था।

परिणाम :

इस सन्धि ने यूरोप में फ्रांस की प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया, किन्तु इसका प्रतिकूल प्रभाव फ्रांस की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। फ्रांस दिन-प्रतिदिन आर्थिक दृष्टि से दिवालिया होता चला गया।

3.  आग्सबर्ग की लीग का युद्ध (1688-1697)

युद्ध के कारण :

·       लुई को एलाशैपल एवं निमवेजिन की सन्धियों से जो प्रदेश प्राप्त हो गए थे, उनको अपने नियन्त्रण में बनाए रखने के लिए लुई चतुर्दश ने वहां पर विशेष अदालतें निर्मित कीं। इन अदालतों को 'चैम्बर्स ऑफ रियूनियन' कहा जाता था। अदालतों के निर्देशानुसार लुई ने स्ट्रासबर्ग, आल्सेस एवं जर्मनी के अन्य 20 नगरों में फ्रांसीसी अधिकार को स्पष्ट किया।

·       लुई चतुर्दश के इन भयंकर कार्यों आतंकित होकर  1786 ई. में स्पेन, आस्ट्रिया, कुछ जर्मन राज्य, हालैण्ड एवं स्वीडन आदि ने संयुक्त रूप से 'आग्सबर्ग की लीग' (League of Augsburg) की स्थापना की। लुई के लिए यह सब असह्य था।

युद्ध की घटनाएं :

यह युद्ध 1688 ई. से 1697 ई. तक चला। इस युद्ध के क्षेत्र पैलाटाइन, भारत, अमरीका एवं कोलोन थे। अमरीका एवं भारत में बसे अंग्रेज एवं फ्रांसीसियों के मध्य भयंकर संघर्ष आरम्भ हो गया। 1697 ई. तक दोनों पक्ष युद्ध करते-करते थक चुके थे। अतः दोनों पक्षों के मध्य 1697 में 'रिसविक की सन्धि' हो गई।

रिसविक की सन्धि

20 सितम्बर, 1697 ई. को हुई रिसविक की सन्धि की धाराएं इस प्रकार थीं :

·       डचों को स्पेनी नीदरलैण्ड्स की सीमा की किलेबन्दी का अधिकार प्राप्त हो गया।

·       लुई ने स्ट्रासबर्ग को छोड़कर उन सभी प्रदेशों पर अपना दावा छोड़ दिया जो कि 'चैम्बर्स ऑफ रियूनियन' के द्वारा उसे प्राप्त हो गए थे।

·       लुई चतुर्दश ने डचों के साथ एक व्यापारिक सन्धि की।  

·       लुई ने पैराटिनेट के राज्य में अपने दावे त्याग दिए।

·       फ्रांस ने विलियम तृतीय को इंग्लैण्ड के शासक के रूप में मान्यता दे दी।

·       फ्रांस ने लारेन के प्रान्त पर अपना दावा त्याग दिया।

इस प्रकार सन्धि की धाराओं से स्पष्ट होता है कि इस सन्धि से फ्रांस को कोई विशेष हानि नहीं हुई। उसकी सैन्य शक्ति अब भी सुसंगठित एवं विशाल थी। आल्सेस पर फ्रांस का अधिकार यथावत् बना रहा, किन्तु यह तो मानना ही होगा कि "लीग के युद्ध एवं रिसबिककी सन्धि से यूरोप के राज्य प्रथम बार लुई की महत्वाकांक्षा एवं साम्राज्यवादी नीति को नियन्त्रित करने में सफल हुए।

4.  स्पेनी उत्तराधिकार का युद्ध (1702-1713)

कारण

·       स्पेन के विशाल साम्राज्य पर बूर्बां वंश का अधिकार होगा या आस्ट्रिया के हैप्सबर्ग वंश का? इसी समस्या के कारण स्पेनी उत्तराधिकार का युद्ध (1702-1713) हुआ ।

·       शक्ति सन्तुलन एवं औपनिवेशिक व्यापार दो ऐसे प्रश्न थे जो कि स्पेन के उत्तराधिकार के प्रश्न के यूरोपीय महत्व से सम्बन्धित थे। यदि स्पेन पर आस्ट्रिया के सम्राट लियोपोल्ड प्रथम का दावा स्वीकार कर लिया जाता तो चार्ल्स पंचम के साम्राज्य की ही भांति लियोपोल्ड प्रथम का साम्राज्य हो जाता। इससे हैप्सबर्ग वंश की शक्ति असीमित हो जाती। इधर यदि फ्रांस का प्रभुत्व स्पेनी साम्राज्य में मान लिया जाता तो यूरोप में फ्रांस की शक्ति प्रचण्ड रूप धारण कर लेती।

कूटनीति

·       लुई चतुर्दश ने बिना युद्ध किए कूटनीति से उत्तराधिकार के प्रश्न को हल करने का प्रयास किया। उसने तथा विलियम तृतीय ने 1698 ई. में बंटवारे की एक सन्धि की।

·       इस सन्धि के अनुसार स्पेन के अमरीकी उपनिवेश एवं स्पेनी नीदरलैण्ड्स वबेंरिया के शासक जोसेफ को मिलने निश्चित हुए शेष साम्राज्य लुई के पुत्र डौफिन एवं लियोपोल्ड पुत्र आर्च ड्यूक चार्ल्स के बीच विभक्त होना था। चार्ल्स द्वितीय को इस सन्धि से अलग- रखा गया।

·       1700 ई. में लुई चौदहवें, विलियम तृतीय व लियोपोल्ड प्रथम ने एक सन्धि की। इस सन्धि में यह व्यवस्था की गई कि स्पेनी बेल्जियम एवं अमरीकी उपनिवेश आर्च ड्यूक चार्ल्स के होंगे। नेपल्स, मिलान एवं सिसली पर डौफिन का अधिकार होगा।

·       चार्ल्स को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने क्रुद्ध होकर लुई के पौत्र अर्थात् डौफिन के द्वितीय पुत्र फिलिप ऑफ आञ्जो को सम्पूर्ण स्पेनी साम्राज्य का अधिकारी घोषित किया। यह घोषणा लुई चौदहवें के लिए तो वरदान थी, अतः उसने पूर्व सन्धि को ताक में रखकर अपने पुत्र को स्पेनिश साम्राज्य का उत्तराधिकारी कहना आरम्भ कर दिया।

इस प्रकार यूरोप के दो खेमों में बंटते ही स्पेनी उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर दोनों पक्षों में 1702 ई. में भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया।

घटनाएं

·       स्पेन के उत्तराधिकार के युद्ध में प्रमुख क्षेत्र इटली, स्पेन, नीदरलैण्ड्स एवं मध्य यूरोप थे। उत्तराधिकार के इस युद्ध का श्रीगणेश इटली से हुआ।

·       1704 ई. के पश्चात् युद्ध ने भयानक रूप ले लिया। अब यह इटली, आस्ट्रिया, नीदरलैण्ड्स, स्पेन, भारत एवं अमरीकी उपनिवेशों तक फैल गया।

·       1713 में आस्ट्रिया ने जब यूट्रेक्ट की सन्धि को स्वीकार किया तब कहीं स्पेनी उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हुआ।

यूट्रेक्ट की सन्धि:

·   लुई चतुर्दश के पौत्र फिलिप पंचम (फिलिप ऑफ आञ्जो) को स्पेन एवं पश्चिमी द्वीपसमूहों का शासक मान लिया गया।

·   यह शर्त स्वीकार की गई कि फ्रांस व स्पेन का संयोजन किसी भी दृष्टि में न हो ।

·    नेपल्स, सार्डीनिया, मिलान एवं बेल्जियम को क्षतिपूर्ति के रूप में आस्ट्रिया को दे दिया गया।

·  इंग्लैण्ड को न्यूफाउण्डलैण्ड, नोवास्कोशिया, हडसन की खाड़ी के भूमध्यसागर में स्थित जिब्राल्टर एवं मिनरका प्राप्त हुए। उसे स्पेनी उपनिवेशों के साथ दास व्यापार का एकाधिकार मिला।

यूट्रेक्ट की सन्धि का यूरोप के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। यह ठीक है कि इस असुविधा के अनुसार बेल्जियम को आस्ट्रिया, नीस को सेवाय और स्पेन व फ्रांस के कई अमरीकी उपनिवेश इंग्लैण्ड को प्रदान कर राष्ट्रीयता एवं जन-आकांक्षाओं का गला घोंट दिया गया, किन्तु यह तो मानना ही होगा कि इस सन्धि में शक्ति सन्तुलन बनाने का पूर्ण प्रयास किया गया। सेवाय का राज्य विस्तार कालान्तर में इटली के एकीकरण एवं प्रशा के स्वतन्त्र राज्य के स्थापन से जर्मनी का एकीकरण होने में आसानी रही। आस्ट्रिया का साम्राज्य विस्तार सम्भव हो सका। फ्रांस का प्रभुत्व यूरोप में समाप्त होना आरम्भ हो गया। निःसन्देह यह सन्धि राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता के स्थान पर व्यापारिक एवं औपनिवेशिक प्रतिद्वन्द्विता के युग का संकेत थी।

दिल्ली सल्तनत में फारसी साहित्य

  दिल्ली सल्तनत के दौरान फारसी साहित्य के विकास के कारण मंगोल आक्रमणों के कारण मध्य एशिया से विद्वानों का भारत की ओर प्रवासन। भारत में...