सोमवार, 22 जनवरी 2024

अलाउद्दीन के आर्थिक सुधार

लेनपूल – महान राजनीतिक अर्थशास्त्री

भू-राजस्व सुधार

अल्लाउद्दीन खिलजी के समय से पूर्व भू-राजस्व व्यवस्था में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ वह अपने पुराने रूप में पुराने लोगों द्वारा ही चलता रहा। अलाउद्दीन पहला सुल्तान था जिसने सल्तनत के वित्तीय ढांचे में मौलिक परिवर्तन लाया तथा गाँवों में केन्द्र की सरकार का हस्तक्षेप बढ़ाया। मुहम्मद हबीब इसे ग्रामीण क्रांति के तौर पर देखते हैं।

भू-राजस्व सुधारों के पीछे उसके  उद्देश्य थे –

1.       राज्य की आमदनी में वृद्धि करना

2.       आर्थिक रूप से लोगों को पंगु बनाकर उनकी विद्रोह करने की शक्ति को तोड़ना

3.       सेना का खर्च चलाने के लिए राजस्व बढ़ाना था

4.       ऐसी व्यवस्था करना कि धनी लोगों का बोझ गरीबों पर न पड़े

इसके लिए उसने कुछ कानून बनाए –

1.       जो व्यक्ति खेती करे, नाप और प्रति बिस्वा उपज के आधार पर आधी उपज कर के रूप में दे

2.       गाँव के सभी लोग समान दर से लगान दें

3.       खूत, मुकद्दम या चौधरी भी साधारण कृषक (बलाहार) की तरह अपना पूरा लगान दें

अपनी योजना को अल्लाउद्दीन ने चार चरणों में पूरा किया

·      प्रथम चरण

सबसे पहले उसने भूमि अनुदानों अर्थात मिल्क, इनाम, वक्फ को रद्द करके सभी भूमियों को खालिस भूमि में बदल दिया तथा अधिकारियों को नगद वेतन देना शुरू कर दिया। हालाँकि सीमित मात्रा में अनुदान चलते रहे।

·      द्वितीय चरण

इसके बाद उसने भूमि की माप कराई तथा भूमि की वास्तविक आय पर राजस्व निश्चित किया। मध्यस्थों अर्थात खुत, मुकद्दम और चौधरी के राजस्व विशेषाधिकारों हूकुके खोती(राज्य से प्राप्त) तथा किस्मते खोती( किसानों से प्राप्त) को समाप्त कर दिया।

·      तृतीय चरण

कर को औसत उत्पादन के आधार पर लगाया गया तथा उसको बढ़ा कर पच्चास प्रतिशत कर दिया गया। कर को कठोरता पूर्वक वसूल किया गया

·      चतुर्थ चरण

कठोरता के बावजूद  भू-राजस्व का कुछ हिस्सा बकाया पड़ा रहता था। सुल्तान ने इस समस्या को हल करने के लिए एक विशेष अधिकारी दीवान-ए-मुस्तखराज की स्थापना की।

कर संग्रह अधिकारी

इन कानूनों से सरकार का किसानों से पहली बार सीधा सम्बन्ध स्थापित हुआ। सरकारी कर्मचारी अब गाँव-गाँव पहुँचे। ये थे मुहस्सिल (खिराज वसूल करने वाले), आमिल (कर संग्रह करने वाले) गुमाश्ता (प्रतिनिधि), मुतसर्रिफ ( हिसाब की जाँच करने वाले), ओहदा दाराने दफातिर (कार्यालय के अध्यक्ष), नवीसिन्दा (लिपिक)। ये जिला स्तर पर कार्य करते थे लेकिन इनकी पहुँच गाँवों तक थी।

सकारात्मक परिणाम

1.       गाँव और शहर के बीच घनिष्ट और पूरक संबंधों की स्थापना

2.       सल्तनत का आतंरिक पुनर्गठन

3.       आगे चलकर शेरशाह और अकबर के लिए मॉडल  

नकारात्मक परिणाम

1.       कृषकों के लिए अब कृषि लाभदायक नहीं रह गई। यह लगान व्यवस्था बहुत कृषक - विरोधी थी।

2.       पचास प्रतिशत भू-राजस्व तथा चराई, घरी, जजिया का भार कृषक की कमर तोड़ने वाला था।

 

 

 

 

 

 

बाज़ार नियंत्रण व्यवस्था

अलाउद्दीन के बाजार सुधार प्रशासनिक और सैनिक आवश्यकताओं के अनुरूप किये गये थे अलाउद्दीन के बाजार सुधार एवं उनकी प्रभावनीयता उसके समकालीनों के लिए आश्चर्य की बात थी। मध्यकालीन शासकों से इस बात का ध्यान रखने की अपेक्षा की जाती थी कि जीवन की आवश्यक वस्तुएं, विशेषकर खाद्यान्न, नगरों में निवास करने वाले लोगों को उचित मूल्यों पर उपलब्ध होती रहें। ऐसा इसलिए था कि संपूर्ण इस्लामी जगत में नगरों को शक्ति और सत्ता की संचालक शक्ति माना जाता था ।

उद्देश्य

1.       बरनी का कथन है कि अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार सुधार इसलिए किए कि मंगोलों द्वारा दिल्ली की घेराबंदी की जाने के बाद वह एक विशाल सेना तैयार करना चाहता था, किन्तु अपने सैनिकों को सामान्य वेतन देने की स्थिति में उसके सारे खजाने खाली हो जाते।

2.       बरनी के अनुसार बाजार सुधार एक अन्य कारण अलाउद्दीन की हिन्दुओं को साधनहीन बनाने की नीति के तहत किये गये थे ताकि वे विद्रोह करने का विचार भी अपने मन में न ला सकें।

3.       डॉ बी. पी. सक्सेना - अलाउद्दीन ने जनकल्याण की भावना से प्रेरित होकर बाज़ार नियंत्रण व्यवस्था को लागू किया। यह विचार शेख हमीदुद्दीन की पुस्तक खैरात उल मजलिस पर आधारित है।

4.       डॉ पी सरन तथा के एस लाल वस्तुतः बाजार नियंत्रण व्यवस्था एक प्रकार की राजनीतिक बाध्यता से प्रेरित थी।

                आर्थिक विनियमन: बाज़ार सुधार

अ.  मण्डी या खाद्यान्न बाजार

मण्डी की व्यवस्था के बारे में बरनी सुल्तान के सात आदेशों का उल्लेख करता है जिनसे मण्डी के संगठन के बारे में ज्ञात होता है। सबसे पहले विभिन्न प्रकार के अनाजों का मूल्य निश्चित किया गया। ये मूल्य इस प्रकार थे— सुल्तान ने आदेश दिया कि भूमि कर को अनाज के रूप में लिया जाए। इस अनाज को सरकारी गोदामों में रखा गया। प्रान्तों से अनाज दिल्ली लाने का कार्य व्यापारियों का था। उन्हें निश्चित मात्रा में अनाज लाना आवश्यक था। अगर वे कम लाते थे तो शहना उन्हें कठोर यातनाएँ देता था। जमानत के रूप में उन्हें अपने परिवारों को दिल्ली के निकट रखना पड़ता था। उनकी गलतियों के लिए उनके परिवारों को दण्ड दिया जाता था। सुल्तान ने अनाज में सट्टेबाजी और दलाली पूर्ण रूप से समाप्त कर दी थी। सट्टेबाजी का अनाज जब्त कर लिया जाता था और उन्हें कठोर दण्ड दिया जाता था। प्रान्तों के गवर्नरों को लिखकर देना पड़ता था कि वे अपने प्रान्तों में सट्टेबाजी नहीं होने देंगे। सुल्तान ने राजस्व अधिकारियों को आदेश दिया कि वे ग्रामीण क्षेत्रों से निश्चित दामों पर व्यापारियों को अनाज दिलवाएँ। किसानों से कहा गया कि शेष अनाज को वे खुले बाजार में ऐच्छिक मूल्य पर बेच सकेंगे।

ब. सराय-ए-अदल

यह निर्मित वस्तुओं का बाजार था। इस बाजार के बारे में सुल्तान ने चार आदेश जारी किये। इस बाजार में पक्की दुकानें बनायी गयीं। व्यापारियों को आदेश दिया गया कि वे निर्मित वस्तुओं को केवल यहीं बेचें। प्रत्येक छोटी वस्तु के मूल्य निश्चित किए गए। कुछ वस्तुओं के मूल्य इस प्रकार थे— प्रत्येक व्यापारी को दीवान-ए-रियासत में पंजीयन कराना अनिवार्य था। मुल्तानी व्यापारियों को राजकोष से 20 लाख टके दिए गए जिससे वे विभिन क्षेत्रों से बहुमूल्य वस्तुएँ बाजार में ला सकें। वे केवल उपभोक्ता को माल बेच सकते थे। बहुमूल्य वस्तुएँ, जैसे—सोना, चाँदी, जवाहरात, बहुमूल्य वस्त्र आदि खरीदने के लिए परवाना नवीस नामक अधिकारी से परमिट लेना पड़ता था।

स. दासों, पशूओं तथा घोड़ों का बाजार

ये तीनों बाजार पृथक्‌-पृथक् थे। इनकी कीमतें गुणवत्ता के आधार पर निश्चित की गयीं। इन बाजारों में भी निरीक्षक नियुक्त किए गए थे। इसका भी ध्यान रखा गया कि वहाँ से उपभोक्ता ही खरीद करें। घोड़ों के व्यापारियों पर खासतौर से निगाह रखी गई जिससे सैनिकों को उचित मूल्य पर घोड़ा मिले। सुल्तान को घोड़ों की जाँच के लिए मध्यस्थ व्यापारियों को अनुमति देनी पड़ी। बरनी लिखता है कि, “उन दिनों दलाल और मध्यस्थ अत्यन्त उद्दण्ड और विद्रोही प्रकृति के लोग थे।” पूरी कठोरता करने के बाद भी सुल्तान उन पर नियन्त्रण नहीं कर सका। सामान्य बाजार—यह विशिष्ट वस्तुओं का बाजार नहीं था, बल्कि ये सामान्य वस्तुओं की दुकानें थीं जो कि राजधानी के अन्दर या निकट थीं। इन दुकानों पर गन्ना, तरकारी, रेवड़ी, हलवा, टोपियाँ, कंघे आदि बेचे जाते थे। इन वस्तुओं की कीमतें भी निश्चित कर दी गईं थीं। बाजार का नियन्त्रण दीवान-ए-रियासत से किया जाता था।

सकारात्मक प्रभाव

1.       पहला इसके द्वारा बाजार की शक्तियों में सीधा हस्तक्षेप किया गया।

2.       इसके माध्यम से अलाउद्दीन अपेक्षाकृत कम संसाधनों में एक स्थायी सेना का निर्माण कर सका।

3.       इस बाजार नियन्त्रण का लाभ सामान्य लोगों को भी प्राप्त हुआ तथा नगरीय जनसंख्या सस्ती दरों में अनाजों के अतिरिक्त अन्य वस्तुये प्राप्त कर सकती थी

4.       इसने एक प्रेरित व्यापार को जन्म दिया क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अनाजों की बिकी को प्रोत्साहन मिला।

5.       नगरीय जनसख्या के अनाजो की आवश्यकता बेहतर रूप से पूरी हुई अतः नगरीकरण की प्रक्रिया को भी प्रोत्साहन मिला।

नकारात्मक

1.       इस व्यवस्था ने कृषि एवं वाणिज्य व्यापार इन दोनों को मूल उत्प्रेरणा मुनाफा को ही छीन लिया।

2.       इस व्यवस्था के तहत नगरीय जनसंख्या के लाभ हेतु ग्रामीण जनसंख्या का शोषण किया गया।

3.       नगरीय जनसंख्या में भी बड़े व्यापारियों को मुनाफा और लाभ प्राप्त होता रहा वस्तुतः मूल्य नियंत्रण का नकारात्मक प्रभाव शिल्पियों तथा छोटे व्यापारियों पर पड़ा।

4.       सभी प्रकार की वस्तुओं के मूल्य निश्चित कर देने से अधिकारी तंत्र को प्रोत्साहन मिला।

5.       इस समय मजदूरों की मजदूरी तथा सैनिको के वेतन घटा दिये गये। इससे इनकी क्रय शक्ति घट गई। अतः वस्तुओं के मूल्य में कमी से इन्हे फापदा नहीं हुआ बल्कि फायदा राज्य तथा सामंतों को मिला।

अलाउद्दीन के बाजार सुधारक तात्कालिक रूप से बहुत ही सफल रहे परंतु यह अस्थाई प्रकृति के थे। डा० पी० सरन के शब्दों में यह सम्पूर्ण नीति ही पूर्णतया तर्कहीन और बनावटी थी तथा समस्त आर्थिक नियमों का उल्लघंन था। यह केवल सरकार के फायदे के लिए बनाई गई थी और साधारण जनता के लिये, जो इसके पंजे में आ गई, गरीबी, दुःख व अपमान का कारण बनी।

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