सोमवार, 22 जनवरी 2024

अलाउद्दीन खलजी की मंगोल नीति

मंगोलों का पहला हमला : मंगोलों की भयंकर पराजय

सन् 1297-98 में मिला जब दवा खाने द्वारा प्रेषित 1,00,000 सैनिकों वाली मंगोल सेना ब्यास नदी को ही नहीं बल्कि सतलज नदी को भी पार कर गई और लगा कि दिल्ली की ओर जाने का मार्ग उनके सामने खुला पड़ा है। अलाउद्दीन खिलजी ने उलुग खान के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी जिसने जालंधर के निकट मंगोलों के साथ टक्कर ली और उन्हें पूरी तरह पराजित कर दिया। नदी पार कर भागते हुए करीब 20,000 मंगोल मारे गए । अलाउद्दीन के एक अन्य विश्वस्त सेनानायक जफर खान ने मंगोल सेनानायक साल्दी को जंजीरों में बांधकर दिल्ली लाया।

मंगोलों का दूसरा हमला : मंगोलों का हमला और खलजी सेनापति  जफ़र खान की शहादत

इन विजयों के कारण अलाउद्दीन खिलजी मंगोलों की ओर से सुरक्षित हो जाने की गलतफहमी में पड़ गया। इसलिए जब सन् 1299 ई. के अंत में कतलुग खान के नेतृत्व में 2,00,000 मंगोलों की सेना ने भारत पर आक्रमण किया तो सुल्तान इसका सामना करने की स्थिति में नहीं था। ऐसी स्थिति में दिल्ली के कोतवाल अला-उल-मुल्क ने अलाउद्दीन को हिकमत-ए-अमली यानि कटनीति का मार्ग अपनाने एवं, यदि संभव हो तो, मंगोलों को चुपचाप लौट जाने का प्रलोभन देने की सलाह दी । अलाउद्दीन ने कोतवाल की सलाह को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि ऐसा करना नामर्दगी होगा । साथ ही वह यह भी नही चाहता था कि युद्ध के द्वारा ही हर बात का निर्धारण हो। किन्तु युद्ध के लिए आतुर जफर खान ने अपने सामने की मंगोल सैनिक टुकड़ी पर हमला कर दिया और अपनी जान गँवा बैठा।

हमलों से निपटने के सल्तनत के रक्षात्मक उपाय

दिल्ली पर होनेवाले इस भारी मंगोल आक्रमण ने न केवल दिल्ली के नागरिकों को बल्कि स्वयं अलाउद्दीन को भी एक करारा झटका दिया। वह अब मंगोलों के प्रति उपेक्षा की तंद्रा से जागा एवं रक्षा के लिये स्थायी उपाय अपनाये। पहली बार दिल्ली के चारों ओर एक रक्षात्मक चहारदीवारी बनाई गई एवं मंगोलों के आने के मार्ग पर स्थित सभी पुराने किलों की मरम्मत कराई गई। समाना और दीपालपुर में मज़बूत सैनिक टुकड़ियां तैनात की गई। साथ ही, उसने आंतरिक प्रशासन को पुनर्गठित करने एवं एक विशाल सेना तैनात करने के लिए उपाय किए।

मंगोलों का तीसरा हमला : परिणाम हीन धावा

सन् 1303 ई० में तार्गी के नेतृत्व में मंगोलों ने दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। बरनी के अनुसार उनकी संख्या 30-40 हजार निकट मालूम पड़ती है। उन्हें सूचना थी कि अलाउद्दीन कहीं युद्ध करने गया हुआ है और अपनी राजधानी में नहीं है। किन्तु अलाउद्दीन अपने चित्तौड़ अभियान से एक माह पूर्व ही लौटा था व उसकी पूरी सेना को युद्ध के लिये पुनः मुस्तैद किये जाने की आवश्यकता थी। राजधानी में सैनिकों की संख्या भी बहुत कम थी क्योंकि सेना की एक टूकड़ी बंगाल होते हुए वारंगल भेजी गई थी जो बुरी तरह क्षत-विक्षत अवस्था में दोआब लौटी थी। इसके सिवाय मंगोलों ने यमुना पर बने सभी पुलों पर कब्ज़ा कर लिया था जिसके कारण शाही बुलावे के बावजूद दोआब से सेना दिल्ली नहीं पहुंच पाई। इस स्थिति में अलाउद्दीन अपने सभी उपलब्ध सैनिकों को साथ लेकर सीरी से बाहर निकल आया और एक अत्यंत सुरक्षित स्थान पर सेना को तैनात किया। एक ओर यमुना नदी थी और दूसरी ओर दिल्ली का पुराना नगर था। अपनी स्थिति को और भी सुरक्षित बनाने के लिये उसने अपने सैनिक शिविर के चारों ओर खाई खुदवाई और उसके आसपास लकड़ी के पटरे इस प्रकार लगवा दिये कि बरनी के अनुसार उसकी छावनी लकड़ी द्वारा निर्मित क़िले की तरह दिखाई देने लगी। मंगोलों ने इस सुदृढ़ मोर्चे पर आक्रमण करने का दुस्साहस नहीं किया, बल्कि वे दिल्ली के चारों ओर मंडराते रहे जिसके कारण नागरिकों के मन में बहुत अधिक डर समा गया था। दो महीने बाद मंगोल सेना बिना कोई युद्ध किए एक बार फिर लौट गई।

अंतिम बड़ा हमला तथा पराजय

सन् 1305 ई० में मंगोलों ने हिन्दुस्तान को जीतने का हताश प्रयास किया। सिंधु नदी को पारकर 30-40 हज़ार सवारों वाली मंगोल सेना पंजाब से गुजरते हुए तीर की भाति तेज रफ्तार से आगे बढ़ी और शिवालिक की तराई में स्थित नगरों को जलाने के बाद दिल्ली की बगल से गुजरती हुई दोआब में जा धमकी। किन्तु अलाउद्दीन ने, जिसकी सेना पहले की अपेक्षा अब काफी अधिक मजबूत हो चुकी थी, तीस हजार सैनिकों की एक सेना अपने एक हिन्दू अमीर मलिक नायक के नेतृत्व में भेजी। अमीर खुसरो के अनुसार, मलिक नायक पूर्व में समाना और सुनाम का हाकिम रह चुका था व अनेक मुस्लिम अधिकारियों को उसकी कमान में रखा गया था। इससे पता चलता है कि तुर्की सल्तनत का सामाजिक आधार बलबन के समय से कितना अधिक विस्तृत हो चुका था। मलिक नायक ने अमरोहा आधुनिक उत्तर प्रदेश का उत्तर-पश्चिमी भाग के निकट मंगोलों से लोहा लिया एवं उन्हें बुरी तरह पराजित किया। मंगोल सेना के नेता अली बेग और तारताक ने आत्म-समर्पण कर दिया और उन्हें दिल्ली लाया गया। लगभग 20,000 मंगोलों का संहार कर दिया गया।

इस विजय ने भारत में मंगोलों की अजेयता के गौरव को नष्ट कर दिया बरनी के अनुसार, मंगोलों ने दिल्ली अथवा उसके आसपास के क्षेत्रों पर जब कभी भी आक्रमण किया तब वे पराजित हुए। मंगोलों के विरुद्ध इस्लामी सेनाओं का आत्म-विश्वास इतना अधिक बढ़ गया था कि दु-अस्पा दो घोड़े दर्जे का एक अकेला सैनिक दस मंगोलों की उनकी गर्दनों में रस्सियां बांधकर कैदी रूप में ले आता था। इस प्रकार अलाउद्दीन ने न केवल दिल्ली और दोआब की मंगोल ख़तरे से रक्षा की बल्कि ऐसी स्थितियां भी पैदा कर दीं कि भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा व्यास नदी और लाहौर से बढ़कर सिंधु नदी तक जा पहुंची।

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