सोमवार, 22 जनवरी 2024

अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिणी-नीति

 

अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिणी-नीति एक व्यापक सम्प्रभुता की वैचारिक प्रेरणा एवं भौतिक तथा आर्थिक कारकों से प्रभावित थी। अलाउद्दीन खिलजी प्रथम मुस्लिम शासक था, जिसने दक्षिण भारत की ओर रूख किया।

उद्देश्य

1.       दिल्ली के महत्वाकांक्षी सैनिक अधिकारियों को दिल्ली से बाहर रखना था। 1305 तक उत्तर भारत की विजय हो चुकी थी। अब महत्वपूर्ण सैनिक अधिकारी दिल्ली एवं आसपास हो मौजदू थे।

2.       बरनी इस अभियान के पीछे उसके असंतुष्ट पारिवारिक जीवन को उत्तरदायी मानता है। उसके विचार में अलाउद्दीन खिलजी अपने पारिवारिक जीवन से असंतुष्ट था, इसलिए उसने दक्षिण में अपना एक अलग और स्वतंत्र राज्य कायम करना चाहा, जहाँ वह स्वतंत्र रूप से शासन कर सकता

3.       अमीर खुसरो का मानना है कि सुदूर क्षेत्रों में इस्लाम धर्म का प्रसार करने के लिये अलाउद्दीन खिलजी ने यह अभियान किया।

4.       दक्षिण अभियान के पीछे एक सशक्त कारण धन की प्राप्ति को माना जाता है और इस कारण पर लगभग सभी महत्वपूर्ण समकालीन इतिहासकार सहमत हैं। अमीर खुसरो, बरनी और फरिश्ता सबों का मानना है कि अलाउद्दीन खिलजी के दक्षिणी अभियान का महत्वपूर्ण उद्देश्य दक्षिण के राज्यों से धन प्राप्त करना था।

5.       दक्षिण में राजनीतिक अस्थिरता थी और दक्षिण के राज्यों में परस्पर द्वेष की स्थिति थी। दक्षिण के राज्य आपस में ही संघर्षरत थे। अलाउद्दीन खिलजी ने इस स्थिति से लाभ उठाया।

6.       अलाउद्दीन खिलजी का व्यक्तिगत रूझान भी दक्षिण की ओर था। अलाउद्दीन खिलजी शासक होने से पूर्व ही दक्षिण की स्थिति से वह पूरी तरह वाकिफ था। अलाउद्दीन खिलजी का व्यक्तिगत झुकाव अन्य प्रकार के आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक कारणों से जुड़ गया।

7.       दक्षिण, हमेशा उत्तर भारत के महत्वाकांक्षी शासकों को आकर्षित करता रहा। उत्तर भारत की राजनीतिक एकता स्थापित करने वाले शासक एक बार दक्षिण की ओर जरूर देखते थे। समुद्रगुप्त ने भी अश्वमेध पराक्रम उपाधि लेने से पूर्व दक्षिण की ओर देखा था दिल्ली सुल्तानों में अलाउद्दीन खिलजी प्रथम शासक था, जिसमें यह योग्यता थी।

1305 तक उसने उत्तर भारत को विजय अभियान को पूरा कर लिया। फिर उसने दक्षिण की ओर देखा। अलाउद्दीन का दक्षिण का प्रथम अभियान तब हुआ था, जब वह कड़ा का गर्वनर था। उसने दक्षिण के राज्य देवगिरि पर हमला किया। दक्षिण से प्राप्त धन के द्वारा ही वह शासक बनने में सफल हुआ। एक तरफ देवगिरि के अभियान से उसकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बढ़ी, तो दूसरी तरफ बहुत सारे खिलजी अमीर जलालुद्दीन खिलजी की कमजोर नीतियों से क्षुब्ध थे। अलाउद्दीन खिलजी ने इस स्थिति से लाभ उठाया और देवगिरी से प्राप्त धन के माध्यम से उसने बहुत सारे अमीरों को अपने पक्ष में कर लिया। किन्तु 1305 या 1306 ई. में देवगिरि ने वार्षिक राजस्व देना बन्द कर दिया था, क्योंकि सुल्तान उत्तर में उलझा हुआ था। वह राजपूतों एवं मंगोलों से संघर्ष में व्यस्त था। देवगिरि ने इस स्थिति से लाभ उठाया। अत: 1306-7 में मलिक काफूर के अंतर्गत अलाउद्दीन ने देवगिरि और वारंगल के विरुद्ध एक सैनिक अभियान भेजा। देवगिरि का शासक रामचंद्र देव पराजित हुआ, किन्तु उसे सत्ता से वंचित नहीं किया गया। अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरि के प्रति एक बहुत ही सोची-समझी नीति क्रियान्वित की। अर्थात् देवगिरि को एक अधीनस्थ राज्य मान लिया गया और उससे प्राप्त होने वाले वार्षिक राजस्व निश्चित कर दिया गया। रामचंद्रदेव को दिल्ली बुलाकर सम्मानित किया गया और उन्हें राय-रायान की उपाधि दी गई। अलाउद्दीन खिलजी देवगिरि के महत्व को समझता था । अतः देवगिरि के शासक को पराजित करके उन्हें विजय के एक स्तंभ के रूप में सेवा करने के लिये छोड़ दिया गया। उसका मानना था कि दक्षिण के अन्य राज्यों के विरुद्ध अभियान में देवगिरि से अपेक्षित सहायता प्राप्त हो सकती थी।

देवगिरि की सफलता के बाद अलाउद्दीन की सेना वारंगल के विरुद्ध बढ़ी। वारंगल का अधीनता स्वीकार कर ली। इस पराजित हुआ और उसने भी अलाउद्दीन खिलजी की देवगिरि से अपेक्षित सहायता प्राप्त हुई। 1310-1311 में द्वार समुद्र और मावार के विरुद्ध दो अभियान भेजे गये। द्वार समुद्र का होयसल शासक वीर वल्लाल द्वितीय पराजित हुआ। उसे भी दिल्ली भेज दिया गया। पांडय राज्य, पराजित हुआ। उसे भी दिल्ली भेज दिया गया। पांडय राज्य, जिसे मुस्लिम शासक माबार कहते हैं, दो भाइयों, यथा वीर पांडय एवं सुन्दर पांडय, के बीच उत्तराधिकार युद्ध के कारण अशांत था। मलिक काफूर की सेना कासामना किए बिना दोनों भाई राजधानी छोड़कर भाग गए। मलिक काफूर ने मदुरा को जी भर लूटा। इन दोनों अभियानों में भी अलाउद्दीन को सफलता मिली और मुस्लिम सेना दक्षिण से बहुत सारा धन लेकर वापस आयी।

अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिण विजय के स्वरूप के सम्बन्ध में व्यापक चर्चा हुई है। यू.एन.डे. का मानना है कि अलाउद्दीन दक्षिण में एक बहुत ही सतर्क और सोची-समझी हुई नीति लागू कर रहा था। वह दक्षिण के स्वतंत्र राज्यों को सहायक राज्यों में तब्दील कर देना चाहता था जो उसका अधिराजत्व स्वीकार करे, अधीनस्थ के तौर पर कार्य करता रहे और वार्षिक उपहार देता रहे। अलाउद्दीन खिलजी इस बात को अच्छी तरह जानता था कि इन दूरस्थ प्रदेशों पर प्रत्यक्ष शासन स्थापित करना संभव नहीं है, वह यह भी जानता था कि इस प्रकार के प्रशासन में क्षेत्रीय प्रतिरोध की संभावना है। अतः दक्कन के राज्यों के क्रम में उसकी सम्प्रभुता की अवधारणा नाममात्र की है किन्तु व्यावहारिक है और इसकी व्यावहारिकता की सबसे बड़ी कसौटी यह है कि अलाउद्दीन की दक्कन नीति सफल रही।

निम्नलिखित कारणों से अलाउद्दीन खिलजी को सफलता प्राप्त हुई

1.       दक्कन के राज्य आपस में ही झगड़ते रहे और अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध कोई संयुक्त मोर्चा कायम करने में असफल रहे।

2.       अलाउद्दीन की सेना दक्कन की सेनाओं की तुलना में अधिक अनुशासित, अधिक सशक्त और दक्ष थी।

अलाउद्दीन के दक्कन-अभियान और महमूद गजनी के उतरी भारत अभियानों के बीच प्रायः तुलना की जाती है। दोनों अभियानों का उद्देश्य अधिकतम धन की प्राप्ति था। दोनों अभियानों में क्षेत्रीय विस्तार को तिलांजलि दी गई। महमूद गजनी ने इन अभियानों को जेहाद का नाम दिया था, किन्तु वास्तव में उसने जमाराशि को प्राप्त करने के लिये मंदिरों को तोड़ा था। उसी तरह अलाउद्दीन खिलजी के दक्षिण अभियान में भी मस्जिदों का निर्माण हुआ, किन्तु ये मस्जिदें धार्मिक भावना से प्रेरित होकर नहीं बनाई गई थी, वरन् विजय की भावना से प्रेरित होकर बनाई गई थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि अलाउद्दीन खिलजी की दक्कन नीति सोची-समझी हुई और व्यावहारिक थी।

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