सोमवार, 22 जनवरी 2024

दिल्ली सल्तनत के विघटन में फिरोज तुगलक की भूमिका

दिल्ली सल्तनत के विघटन के लिये फिरोजशाह तुगलक के उत्तरदायित्व निर्धारित करने से पूर्व इस बात का अवलोकन करना महत्वपूर्ण है कि वह एक ऐसे साम्राज्य को स्थायित्व देने के लिये गद्दी पर आया था, जिसकी चूल पहले ही हिल गयी थी।

सल्तनत के मूल ढांचे में विरोधाभास था। दिल्ली के सुल्तानों ने इन विरोधाभासों को दूर करके या कम करके अपने शासन को स्थायित्व देने का प्रयास किया। लेकिन जब फ़िरोज तुग़लक का समय आया तो वह इन विरोधाभासों को दूर करने का जो तरीका अपनाया वह साम्राज्य के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ।

1.       सुल्तान और उमरा वर्ग के बीच परस्पर सम्बन्ध

कुलीन वर्ग और सुल्तान के बीच आंतरिक द्वंद्र प्रारंभ से ही चला आ रहा था, किन्तु विभिन्न शासकों ने इसका निराकरण अपने ढंग से ढूंढने का प्रयास किया। इल्तुतमिश ने कुलीन वर्ग को संगठित करने के लिये चहलगनी का निर्माण किया। बलबन ने चहलगनी की शक्ति तोड़ दी और उसने राजत्व का एक नया सिद्धांत प्रस्तुत किया। अलाउद्दीन ने कुलीन वर्ग के आधार को और विस्तृत किया। मुहम्मद बिन तुगलक ने अलाउद्दीन खिलजी के साम्राज्यवादी नीति को आगे बढ़ाया। उसने कुलीन वर्ग का आधार और भी व्यापक बनाया। फिर फिरोज तुगलक का आगमन हुआ, जिसे कुलीन और सुल्तान के बीच संघर्ष की समस्या विरासत में प्राप्त हुई। फिरोज तुगलक ने, मुहम्मद बिन तुगलक की दोषपूर्ण नीतियों को उलटने की कोशिश की। उसने कुलीन वर्ग को संतुष्ट करने की कोशिश की और इसी क्रम में उसने कुलीनों के वेतन बढ़ा दिये और सैनिक सेवा में उनके पद को वंशानुगत बना दिया। इक्तादारों पर से बहुत सारे नियंत्रण हटा लिये और उनके पद को भी वंशानुगत बना दिया गया। लेकिन आगे हम देखेंगे कि औषधि रोग से भी ज्यादा घातक साबित हुई तथा फिरोज तुगलक की तुष्टीकरण की नीति, अंत में दिल्ली सल्तनत के विघटन के लिये उत्तरदायी हुई।

2.        सुल्तान और उलेमा वर्ग के बीच परस्पर सम्बन्ध

दिल्ली-सुल्तानों ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को सफल बनाने के लिये धर्म को राजनीति से धीरे धीरे पृथक किया। अलाउद्दीन खिलजी ने उलेमा वर्ग को नियंत्रित किया और प्रशासन में उनके हस्तक्षेप को नकार दिया। मुहम्मद बिन तुगलक एक कदम और आगे बढ़ा और उसने उलेमा वर्ग को सामान्य प्रजा की धरातल पर ला खड़ा किया। स्वभाविक रूप में कुलीन और उलेमा-वर्ग का संगठन मुहम्मद बिन तुगलक के विरुद्ध खड़ा हो गया। अब फिरोज तुगलक ने उलेमा-वर्ग को अपने विश्वास में लेना चाहा। उसने उलेमा-वर्ग के पुराने अधिकार बहाल कर दिये और प्रशासन में इस वर्ग के हस्तक्षेप कासंभव बनाया। किंतु यहाँ भी हम देखगें कि फिरोजशाह तुगलक की तुष्टीकरण की नीति, सल्तनत के लिये घातक साबित हुई।

3.        सल्तनत और आतंरिक विद्रोह तथा बाहरी आक्रमण : सैन्य तंत्र

आतंरिक विद्रोह, बाहरी आक्रमणों तथा साम्राज्य के स्थायित्व के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने एक मजबूत सैनिक तंत्र की स्थापना की स्थापना की। आगे के शासक गयासुद्दीन तुगलक ने भी सैन्य-संगठन के महत्व को समझा। मुहम्मद बिन तुगलक ने भी सैन्य-शक्ति पर भरपूर ध्यान दिया। किंतु उससे कुछ सैनिक भूलें हुई जैसे खुरासान अभियान के समय सैनिकों की नियुक्ति एवम् उन्हें पदच्युत किया जाना। अतः सैनिक तत्व मुहम्मद बिन तुगलक से असंतुष्ट हो गये। फिरोजशाह तुगलक को सैनिक, असंतोष भी एक कड़वी विरासत के रूप में प्राप्त हुआ। फिरोजशाह तुगलक ने इस समस्या का निराकरण अपने ढंग से करना चाहा। उसने सैनिकों के पद को वंशानुगत बना दिया। किन्तु यह एक स्थायी समाधान नहीं था, अपितु इसने सैनिक ढाँचा को ढ़ीला एवम् कमजोर बना दिया और आगे चलकर दिल्ली सल्तनत के विघटन में इस भूल ने अपनी भूमिका अदा की। फिरोजशाह तुगलक एक कुशल सेनापति भी नहीं था। उसने कुछ अभियान किये जिनमें उसके बंगाल के दोनों अभियान और सिंध का अभियान असफल रहे।

इस प्रकार संघर्ष एवं तनाव, सल्तनत के मूल ढाँचे में ही निहित था, जिसको विभिन्न प्रशासकों द्वारा ऊपरी स्तर पर पाट दिया गया था। फिरोजशाह तुगलक के शासन काल में वे मूलभूत विसंगतियाँ उजागर हो गई।

इस तरह दिल्ली सल्तनत के विघटन के लिए बहुत से कारक उत्तरदायी थे और विघटन की भी एक लम्बी प्रक्रिया थी किन्तु फिरोजशाह तुगलक ने अपनी दुर्बलताओं से उसे तीव्र कर दिया।

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