सोमवार, 22 जनवरी 2024

मुहम्मद बिन तुगलक़ की योजनायें तथा उनकी असफलता के कारण


राजधानी-परिवर्तन (1326-27 ई.)

सुल्तान कुतबुद्दीन मुबारक खलजी ने देवगिरि का नाम कुतबाबाद रख दिया था और सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने उसका नाम दौलताबाद रखा,  देवगिरि को 'कुबतुल इस्लाम' भी कहा गया । मुहम्मद तुगलक द्वारा दिल्ली के स्थान पर देवगिरि को राजधानी बनाने का प्रयास किया

कारण

1.       बरनी के अनुसार साम्राज्य के केन्द्र में होने के कारण देवगिरि को राजधानी बनाना गया ।

2.       इब्नबतूता के अनुसार सुल्तान को दिल्ली के नागरिक असम्मानपूर्ण पत्र लिखते थे, अतएव उन्हें दण्ड देने के लिए उसने देवगिरि को राजधानी बनाने का निर्णय किया।

3.       इसामी ने लिखा है कि वह दिल्ली के नागरिकों की शक्ति को तोड़ने के लिए उन्हें दक्षिण-भारत ले जाना चाहता था।

4.       प्रो. हबीबुल्ला ने लिखा है कि वह दक्षिण-भारत में मुस्लिम संस्कृति के विकास तथा दक्षिण की सम्पन्नता एवं शासन की सुविधा की दृष्टि से देवगिरि को राजधानी बनाना चाहता था।

5.       डॉ. मेंहदी हुसैन का कहना है कि वह दौलताबाद को मुस्लिम संस्कृति का केन्द्र बनाने के लिए उसे राजधानी बनाना चाहता था।

6.       डॉ. मेंहदी हुसैन और डॉ. के. ए. निजामी के अनुसार मुहम्मद तुगलक का लक्ष्य दो राजधानियाँ दिल्ली और दौलताबाद बनाने का था परन्तु अधिकांश इतिहासकार इस विचार से सहमत नहीं हैं।

7.       डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव के अनुसार मंगोल-आक्रमणों से सुरक्षा, दक्षिण-भारत में सुदृढ़ व्यवस्था की आवश्यकता और दक्षिण-भारत का सम्पन्न होना इस राजधानी परिवर्तन के कारण थे।

तत्कालीन इतिहासकारों के अनुसार दिल्ली की समस्त जनता को दौलताबाद जाने के आदेश दिये गये और दिल्ली उजाड़ हो गयी।

परिणाम

1.       बरनी ने लिखा है कि "सभी कुछ बर्बाद कर दिया गया। तबाही इतनी भयानक थी कि शहर की इमारतों, उसके महलों और उसके आसपास के क्षेत्रों में एक बिल्ली अथवा कुत्ता भी दिखायी नहीं देता था।"

2.       इब्नबतूता ने लिखा है : "सुल्तान के आदेश पर खोज करने पर उसके गुलामों को एक लंगड़ा और एक अंधा व्यक्ति प्राप्त हुए। लंगड़े को मार दिया गया और अंधे को घसीटकर दौलताबाद ले जाया गया जहाँ उसकी केवल एक टाँग ही पहुँच सकी।"

3.       इसामी ने लिखा है : "उसने (मुहम्मद तुगलक ने) शहर (दिल्ली) को जला देने और सभी जनता को उससे बाहर निकाल देने की आज्ञा दी।"

4.       डॉ. मेंहदी हुसैन का कहना है : "दिल्ली राजधानी न रही हो, ऐसा कभी नहीं हुआ और इस कारण वह न कभी आबादी-रहित हुई और न निर्जन।"

5.       डॉ. के. ए. निजामी का भी कहना है कि "समस्त जनता को जाने के आदेश नहीं दिये गये थे बल्कि केवल सरदार, शेख, उलेमा और उच्च-वर्ग के व्यक्तियों को ही दौलताबाद जाने के आदेश दिये गये थे।"

आधुनिक समय के अधिकांश इतिहासकारों का कहना है कि तत्कालीन इतिहासकारों ने इस बात को चाहे बहुत बढ़ा-चढ़ाकर ही कहा हो परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि दिल्ली की जनता को दौलताबाद जाने के आदेश दिये गये थे। मार्ग में सुल्तान ने जनता की सुविधा के लिए प्रत्येक सम्भव कार्य किये। दिल्ली से दौलताबाद तक की 700 मील  लम्बी सड़क पर छायादार वृक्ष लगाये गये, प्रत्येक दो मील के पश्चात् जनता के रुकने और खाने-पीने की व्यवस्था की गयी, सभी को यातायात सुलभ किया गया, सभी को अपनी छोड़ी हुई सम्पत्ति का मुआवजा दिया गया तथा सभी के लिए दौलताबाद में रहने और खाने की मुफ्त व्यवस्था की गयी परन्तु  सभी सुविधाओं के होते हुए भी दिल्ली से दौलताबाद की चालीस दिन की यात्रा दिल्ली के नागरिकों के लिए अत्यन्त कष्टदायक रही होगी, इसमें सन्देह नहीं हो सकता। मुहम्मद तुगलक की यह योजना असफल रही। इसामी के अनुसार दिल्ली 14 वर्ष के पश्चात् बसी परन्तु सम्भवतया 1335 ई. में ही सुल्तान ने व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार दिल्ली वापस जाने की आज्ञा दे दी थी।

असफलता के कारण

1.       सुल्तान को केवल अपने दरबारियों को दौलताबाद ले जाना चाहिए था, न कि जनता को ।

2.        साधारण नागरिक अपने घरों को छोड़कर अनजान और दूरस्थ दौलताबाद को जाने के लिए तैयार न थे और न उन्हें वहाँ ले जाने की कोई आवश्यकता थी।

3.       सुल्तान का यह सोचना भी भूल थी कि दौलताबाद एक उपयुक्त राजधानी होगी।

4.       मंगोलों के आक्रमणों से सुरक्षा के लिए और उत्तर-भारत के पूर्ण संगठित राज्य की सुरक्षा तथा व्यवस्था के लिए दिल्ली अधिक उपयुक्त स्थान था।

5.       अव्यवस्थित दक्षिण-भारत की तुलना में संगठित उत्तर-भारत दिल्ली- सल्तनत के लिए अधिक महत्वपूर्ण था।

सांकेतिक मुद्रा  का चलाना (1329-30 ई.)

मुहम्मद तुगलक  के समय सांकेतिक मुद्रा का चलाना उसकी एक विशिष्टता रही।

कारण

1.       बरनी के कथनानुसार खजाने में धन की कमी और साम्राज्य विस्तार की नीति को कार्य-रूप में परिणत करने की वजह से मुहम्मद तुगलक को सांकेतिक मुद्रा चलानी पड़ी।

2.       ईरान में कैरवात् खाँ के समय में सांकेतिक मुद्रा चलायी गयी थी यद्यपि वहाँ यह प्रयोग असफल हुआ था। परन्तु चीन में कुबलाई खाँ के समय में सांकेतिक मुद्रा का प्रयोग सफलतापूर्वक किया गया था। सम्भवतया नवीन अन्वेषणों का प्रयोग करने वाले मुहम्मद तुगलक ने उन देशों से प्रेरणा प्राप्त की।

3.       आधुनिक इतिहासकारों का यह भी कहना है कि उसके समय में सम्पूर्ण विश्व में चाँदी की कमी हो गयी थी और भारत में तो बहुत ही कमी थी। इस कारण उसने सांकेतिक मुद्रा चलायी।

बरनी के मतानुसार सुल्तान ने ताँबे के सिक्के चलाये और फरिश्ता के अनुसार ये सिक्के पीतल के थे। सम्भवतया, दोनों ही धातुओं के सिक्के चलाये गये थे। सुल्तान ने उनका मूल्य चाँदी के 'टंका' के बराबर कर दिया। पहले ताँबे के सिक्के को 'जीतल' (पैसा) पुकारते थे, अब 'टंका' (रुपया) भी ताँबे अथवा पीतल का होने लगा।

ये सिक्के अधिक से अधिक तीन या चार वर्ष चले । सुल्तान ने इस योजना की असफलता को देखकर सरकारी टकसाल द्वारा जारी की गयी सभी सांकेतिक मुद्रा को वापस ले लिया और व्यक्तियों को उनके बदले में चाँदी और सोने के सिक्के दे दिये। यह सुल्तान की बहुत बड़ी उदारता थी। सरकारी टकसालों के सम्मुख ताँबे और पीतल के सिक्कों के ढेर लग गये । सुल्तान ने जाली सिक्कों के अतिरिक्त सभी सिक्के बदलवा दिये। इससे राज्य की आर्थिक स्थिति दुर्बल हुई ।

असफलता के कारण

1.       डॉ. मेंहदी हुसैन के अनुसार, "यह योजना पूर्णतया उपयुक्त और कूटनीतिक थी। परन्तु व्यावहारिक रूप में उसने वे सब सावधानियाँ नहीं बरतीं जो ऐसे प्रयोग के लिए आवश्यक थीं।"

2.       प्रो. मुहम्मद हबीब के अनुसार इस योजना की असफलता का दोष नागरिकों पर था जो असली और नकली सिक्कों में अन्तर न कर सके।

3.       परन्तु अन्य इतिहासकार इसका मूल दोष मुहम्मद तुगलक को देते हैं। उनके अनुसार सुल्तान की यह भूल थी कि उसने ये सिक्के ऐसे नहीं बनवाये जिनकी नकल करना सम्भव न होता ।

4.       बरनी के अनुसार, "प्रत्येक हिन्दू का घर टकसाल बन गया।" परन्तु हिन्दू ही क्यों, मुसलमान भी इस लोभ से वंचित नहीं रहे होंगे और जो भी नकली सिक्के बना सकता था, उसने उन्हें बनाया।

5.       प्रजा ने पीतल और ताँबे के सिक्कों में कर और लगान दिया तथा अपने घरों में चाँदी व सोने के सिक्के एकत्र करना आरम्भ कर दिया। ग्रेशम का नियम

6.       व्यापार में भी व्यक्ति चाँदी और सोने के सिक्के लेना चाहते थे तथा ताँबे और पीतल के सिक्के देना चाहते थे। इससे व्यापार और मुख्यतया विदेशी व्यापार नष्ट होने लगा।

खुरासान विजय-योजना

मंगोलों के वापस चले जाने के पश्चात् सुल्तान ने खुरासान तथा इराक को जीतने की योजना बनायी और इसके लिए उसने प्राय: 3,70,000 सैनिकों की एक बड़ी सेना एकत्र की तथा उसे एक वर्ष का अग्रिम वेतन भी दे दिया। मध्य-एशिया और ईरान (पर्शिया) की अव्यवस्थित परिस्थितियाँ और सुल्तान के दरबार में इराक तथा खुरासान से भागकर आये हुए अमीरों का प्रोत्साहन इस योजना के निर्माण का कारण बना था। परन्तु यह योजना कार्य-रूप में परिणित न की जा सकी और सुल्तान ने सेना को भंग कर दिया। इससे सुल्तान की आर्थिक स्थिति दुर्बल हुई और सेना से निकाले गये सैनिकों ने असन्तोष का वातावरण उत्पन्न किया ।

असफलता का कारण

1.       मध्य-एशिया की परिस्थितियों में परिवर्तन हो गया और सुल्तान बहुत लम्बे समय तक इतनी बड़ी सेना का व्यय भी नहीं उठा सकता था। इस कारण इस योजना से हानि हुई।

2.       योजना मूल आधार पर भी दोषपूर्ण थी । इतने दूरस्थ प्रदेश को जीतना सम्भव न था और यदि जीत भी लिया जाय तो उसे अपने अधिकार में रखना कठिन था।

कराचिल पर आक्रमण (1337-38 ई.)

'कुराचिल', राज्य हिमाचल की तराई में स्थित आधुनिक कुमायूँ जिले में था। इसे जितने का प्रयास किया गया ।

कारण

1.       फरिश्ता के अनुसार सुल्तान का लक्ष्य कराजल की विजय न होकर चीन को जीतना था ।

2.       बरनी के अनुसार यह इराक और खुरासान को जीतने का प्रथम चरण था ।

3.       परन्तु आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार मुहम्मद तुगलक का उद्देश्य उन पहाड़ी राज्यों को अपनी अधीनता में लाना था जहाँ अधिकांश विद्रोहियों को शरण प्राप्त होती थी। इससे उसकी उत्तरी सीमाएँ भी सुरक्षित हो जाती थीं।

इब्नबतूता के अनुसार वहाँ आक्रमण के लिए एक लाख घुड़सवारों और बड़ी संख्या में पैदलों की एक विशाल सेना को भेजा गया। खुसरो मलिक को इस सेना का नेतृत्व सौंपा गया । इस सेना ने जिदया शहर को जीत लिया। डॉ. के. ए. निजामी के अनुसार सुल्तान की आज्ञा को न मानकर जब खुसरो मलिक तिब्बत की ओर बढ़ा तब उसे भी बख्तियार खलजी की भाँति निराश होना पड़ा। उसकी सेना नष्ट हो गयी । इब्नबतूता के अनुसार सेना के केवल तीन अफसर जीवित वापस आ सके । परन्तु तराई के भाग में पहाड़ के नागरिक कृषि करते थे । इस कारण उन्होंने सुल्तान से सन्धि कर ली और उसे कर देना स्वीकार कर लिया । परन्तु इस आक्रमण से सुल्तान की सैनिक शक्ति दुर्बल हुई ।

दोआब में कर-वृद्धि

अपने शासनकाल के आरम्भ में सुल्तान ने दोआब में कर-वृद्धि की । बरनी के कथनानुसार इसे दस या बीस गुना अधिक कर दिया गया । फरिश्ता के अनुसार यह कर तीन या चार गुना अधिक किया गया । गार्डनर ब्राउन के अनुसार यह कर-वृद्धि बहुत साधारण थी। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव के अनुसार सुल्तान अपनी आय में 5% से 10% तक वृद्धि करना चाहता था और उसने भूमि-कर में वृद्धि नहीं की बल्कि मकानों एवं चरागाहों आदि पर कर लगाया । वास्तविकता कुछ भी हो परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि कर में वृद्धि की गयी थी। इसलिए लोगों ने विद्रोह कर दिया ।

असफलता का कारण

1.       जिस समय दोआब में कर-वृद्धि की गयी उस समय वहाँ सूखा और अकाल पड़ रहा था। अतएव किसानों ने कृषि छोड़कर चोरी-डकैती का पेशा अपना लिया।

2.       लगान-अधिकारियों ने बहुत कठोरता से कर वसूल किया जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न स्थानों पर विद्रोह हो गये। सुल्तान ने बड़ी कठोरता से विद्रोहों को दबाया और बरनी के शब्दों में, "हजारों व्यक्ति मारे गये और जब उन्होंने बचने का प्रयत्न किया तब सुल्तान ने विभिन्न स्थानों पर आक्रमण किये तथा जंगली जानवरों की भाँति उन्हें अपना शिकार बनाया।"

3.       गार्डनर ब्राउन बरनी के इस कथन से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार नागरिकों के कष्ट का कारण कर-वृद्धि न होकर वर्षा की कमी से उत्पन्न अकाल था।

4.       डॉ. मेंहदी हुसैन ने एक नवीन विचार प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार सुल्तान की सेना से निकाले गये सैनिकों ने कृषि करना बन्द कर दिया तथा लगान-अधिकारियों को मार डाला। इस कारण सुल्तान ने उनके विद्रोह को कठोरतापूर्वक दबाया।

कारण कुछ भी रहा हो, परन्तु यह स्पष्ट है कि करों में वृद्धि और अकाल की स्थिति में कठोरता से लगान का वसूल किया जाना विद्रोह का प्रमुख कारण था और सुल्तान ने उस विद्रोह को अत्यधिक कठोरता से दबाया। हालाँकि जब उसे अपनी गलती का एहसास हुआ उसने कुछ राहत और सुधार उपाय भी किये ।

फौरी राहत उपाय

1.       किसानों को छः महीने का राशन प्रदान किया गया

2.       किसानों को सोंधर नामक अग्रिम कर्ज दिया गया

कृषि की उन्नति के लिए प्रयास

1.       मुहम्मद तुगलक ने कृषि की उन्नति के लिए एक नवीन विभाग खोला और एक नया मंत्री 'अमीर-ए-कोही' नियुक्त किया। राज्य की ओर से सीधी आर्थिक सहायता देकर कृषि के योग्य भूमि का विस्तार करना इस विभाग का मुख्य उद्देश्य था।

2.       साठ वर्ग मील का एक भू-क्षेत्र चुना गया जहाँ सरकारी कर्मचारियों की देखरेख में किसानों से खेती करने के लिए कहा गया। वहाँ क्रमशः विभिन्न फसलें बोई गयीं और प्रायः तीन वर्ष में 70 लाख टंका (रुपया) व्यय किये गये। यह एक प्रकार से राजकीय कृषि फार्म की भाँति था। हालाँकि यह भी असफल रहा ।

इस प्रकार मुहम्मद तुगलक अपनी सभी योजनाओं में असफल रहा। यह कहा जा सकता है कि उसके सुधार समय से आगे थे, उसकी प्रजा और उसके अधिकारी उन योजनाओं को न तो समझ सके और न ही उन्होंने उसके साथ सहयोग किया। सुल्तान की योजनाओं की असफलता बहुत-कुछ स्वयं उसके कारण थी।

1.       सुल्तान में कल्पना-बुद्धि तो थी परन्तु व्यावहारिकता की कमी थी। वह नवीन योजनाएँ तो बना सकता था और वे सम्भवतया सिद्धान्त के आधार पर ठीक भी होती थीं परन्तु उन्हें कार्य-रूप में परिणत करने की जो आवश्यकताएँ थीं उनकी पूर्ति सुल्तान नहीं कर पाता था।

2.       वह बहुत उग्र और असंयमी था। तनिक-सी असफलता उसे क्रुद्ध कर देती थी और शीघ्र सफलता न मिलने पर वह अपनी योजनाओं को त्याग देता था।

3.       उसे अपने नागरिकों और अधिकारियों की योग्यता एवं क्षमता से लाभ उठाना तथा उनका सहयोग प्राप्त करना नहीं आता था। उसमें एक सुल्तान की दृष्टि. से परिस्थितियों और व्यक्तियों के चरित्र को परखने की योग्यता का अभाव था। इस प्रकार उसमें एक व्यक्ति-समूह का नेता होने के गुण का अभाव था।

मुहम्मद तुगलक की असफलताओं के मुख्य कारण यही थे। इस कारण स्वयं सुल्तान और उसके चरित्र के अभाव ही उसकी और उसकी योजनाओं की असफलता का कारण बने।

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