सोमवार, 22 जनवरी 2024

अल्लाउद्दीन के सैनिक सुधार

अलाउद्दीन के साम्राज्य का आधार सैनिक शक्ति थी। सैनिक शक्ति के द्वारा ही उसने राज्य सिंहासन प्राप्त किया था और सैनिक शक्ति के द्वारा ही वह राजपद को सुरक्षित रख सका था। अतः उसने सेना को सुसंगठित और शक्तिशाली बनाने के लिए कई सुधार किए।

कारण

1.        मंगोलों के लगातार आक्रमण हो रहे थे जिनसे दिल्ली की सुरक्षा संकट में पड़ गई थी। अतः सीमा सुरक्षा के लिए सेना की आवश्यकता थी।

2.       सुल्तान साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था, विशेष रूप से वह दक्षिण को विजित करना चाहता था।

3.       साम्राज्य की आन्तरिक सुरक्षा के लिए भी शक्तिशाली सेना आवश्यक थी।

4.       सुल्तान की अनियन्त्रित शक्ति का आधार सैनिक शक्ति थी जिसके कारण वह विभिन्न वर्गों को नियन्त्रण में रख सका था।

बरनी ने भी शक्तिशाली सेना के महत्व को स्वीकार करते हुए फतवा-ए-जहाँदारी में लिखा है कि, “राजत्व दो स्तम्भों पर आधारित रहता है—पहला स्तम्भ है प्रशासन और दूसरा स्तम्भ है विजय। दोनों स्तम्भों का आधार सेना है—यदि शासक सेना के प्रति उदासीन है तो वह अपने ही हाथों से राज्य का विनाश करता है।”

1.       स्थायी सेना

अलाउद्दीन ने स्थायी सेना का निर्माण किया जो सुल्तान के प्रत्यक्ष नियन्त्रण में थी। उसके पूर्ववर्ती सुल्तान प्रान्तों के अमीरों की सेनाओं पर निर्भर रहते थे। वे अधीनस्थ सामन्तों से भी सेनाएँ प्राप्त करते थे। अलाउद्दीन ने इस प्रकार की निर्भरता को समाप्त कर दिया। वह एक योग्य सेनापति था और सेना को सीधे अपने नियन्त्रण में रखना चाहता था। इसके लिए सैनिकों की भर्ती सेना मन्त्री (आरिज-ए-मुमालिक) करता था और उन्हें नकद वेतन दिया जाता था।

2.       हुलिया

प्रत्येक सैनिक को उसकी योग्यता के अनुसार भर्ती किया जाता था और उसे पद दिया जाता था। सुल्तान भी सैनिकों की भर्ती का निरीक्षण करता था। भर्ती का आधार वंश या प्रजाति नहीं थी बल्कि सैनिक की अपनी योग्यता थी। भर्ती किए गए सैनिकों के हुलिया का रिकॉर्ड रखा जाता था। यह रिकॉर्ड आरिज के दफ्तर में रखा जाता था। इस सुधार से प्रत्येक सैनिक को स्वयं उपस्थित होना अनिवार्य हो गया और वह अपने स्थान पर किसी दूसरे को नहीं भेज सकता था।

3.       दाग प्रणाली

सेना में घुड़सवार सेना का विशेष महत्व था और सेना की कुशलता उसी पर निर्भर रहती थी। सुल्तान ने घुड़सवार सेना को कुशल बनाने के लिए उत्तम घोड़े मँगवाए, साथ ही राज्य में घोड़ों की नस्ल सुधारने का प्रयास भी किया गया। सैनिक अच्छे घोड़े रखें, इसके लिए घोड़ों को दागने की प्रथा प्रचलित की गई।

4.       नकद वेतन

अलाउद्दीन ने प्रत्येक घुड़सवार सैनिक का वेतन 234 टंका प्रतिवर्ष निश्चित कर दिया। अगर वह एक अतिरिक्त घोड़ा रखता था तो उसे 78 टंका प्रतिवर्ष अतिरिक्त मिलते थे। सैनिकों को वेतन कोषालय से दिया जाता था। अलाउद्दीन ने वेतन के बदले भू-राजस्व या भूमि देने की प्रणाली को समाप्त कर दिया। सम्भवतः पैदल सैनिकों को 156 टंका प्रतिवर्ष दिया जाता था। उन्हें भी नकद वेतन दिया जाता था।

5.       बाजार नियन्त्रण

बाजार में मुद्रा-स्फीति हो जाने के कारण वस्तुओं के दाम बढ़ रहे थे। लेकिन अलाउद्दीन सैनिकों का वेतन बढ़ाने के लिए तैयार नहीं था। वह इसी वेतन पर सैनिकों को रखने के लिए कृतसंकल्प था। अतः मूल्यों में वृद्धि रोकने के लिए उसने बाजार नियन्त्रण लागू किया।

6.       दुर्गों का निर्माण व मरम्मत

मंगोलों का आक्रमण रोकने के लिए अलाउद्दीन ने सीमा पर नए दुर्गों का निर्माण कराया तथा पुराने दुर्गों की मरम्मत कराई। इनमें योग्य सैनिकों को नियुक्त किया गया। उनके लिए पर्याप्त शस्त्र, खाद्यान्न आदि भी रखा जाता था।

7.       सेना का संगठन

सेना का संगठन दशमलव प्रणाली पर था। सबसे छोटी इकाई दस सैनिकों की थी। इसके बाद सौ, हजार की इकाइयाँ थीं। दस हजार सैनिकों की इकाई को ‘तुमन’ कहते थे। अमीर खुसरो ने ‘तुमन’ का उल्लेख किया है।

8.       योग्य सैन्य अधिकारियों की भर्ती

नसरत खां. अलप खां, उलुग खां, मलिक काफूर    

फरिश्ता के अनुसार अलाउद्दीन की सेना में 4,75,000 सुसज्जित घुड़सवार थे। इनके अतिरिक्त, पैदल सेना और हाथी सेना थी। अलाउद्दीन के सुधारों से सेना की शक्ति तथा कुशलता में वृद्धि हुई और न केवल उत्तर-पश्चिम सीमा की रक्षा हो सकी बल्कि साम्राज्य का विस्तार हो सका।

अलाउद्दीन के आर्थिक सुधार

लेनपूल – महान राजनीतिक अर्थशास्त्री

भू-राजस्व सुधार

अल्लाउद्दीन खिलजी के समय से पूर्व भू-राजस्व व्यवस्था में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ वह अपने पुराने रूप में पुराने लोगों द्वारा ही चलता रहा। अलाउद्दीन पहला सुल्तान था जिसने सल्तनत के वित्तीय ढांचे में मौलिक परिवर्तन लाया तथा गाँवों में केन्द्र की सरकार का हस्तक्षेप बढ़ाया। मुहम्मद हबीब इसे ग्रामीण क्रांति के तौर पर देखते हैं।

भू-राजस्व सुधारों के पीछे उसके  उद्देश्य थे –

1.       राज्य की आमदनी में वृद्धि करना

2.       आर्थिक रूप से लोगों को पंगु बनाकर उनकी विद्रोह करने की शक्ति को तोड़ना

3.       सेना का खर्च चलाने के लिए राजस्व बढ़ाना था

4.       ऐसी व्यवस्था करना कि धनी लोगों का बोझ गरीबों पर न पड़े

इसके लिए उसने कुछ कानून बनाए –

1.       जो व्यक्ति खेती करे, नाप और प्रति बिस्वा उपज के आधार पर आधी उपज कर के रूप में दे

2.       गाँव के सभी लोग समान दर से लगान दें

3.       खूत, मुकद्दम या चौधरी भी साधारण कृषक (बलाहार) की तरह अपना पूरा लगान दें

अपनी योजना को अल्लाउद्दीन ने चार चरणों में पूरा किया

·      प्रथम चरण

सबसे पहले उसने भूमि अनुदानों अर्थात मिल्क, इनाम, वक्फ को रद्द करके सभी भूमियों को खालिस भूमि में बदल दिया तथा अधिकारियों को नगद वेतन देना शुरू कर दिया। हालाँकि सीमित मात्रा में अनुदान चलते रहे।

·      द्वितीय चरण

इसके बाद उसने भूमि की माप कराई तथा भूमि की वास्तविक आय पर राजस्व निश्चित किया। मध्यस्थों अर्थात खुत, मुकद्दम और चौधरी के राजस्व विशेषाधिकारों हूकुके खोती(राज्य से प्राप्त) तथा किस्मते खोती( किसानों से प्राप्त) को समाप्त कर दिया।

·      तृतीय चरण

कर को औसत उत्पादन के आधार पर लगाया गया तथा उसको बढ़ा कर पच्चास प्रतिशत कर दिया गया। कर को कठोरता पूर्वक वसूल किया गया

·      चतुर्थ चरण

कठोरता के बावजूद  भू-राजस्व का कुछ हिस्सा बकाया पड़ा रहता था। सुल्तान ने इस समस्या को हल करने के लिए एक विशेष अधिकारी दीवान-ए-मुस्तखराज की स्थापना की।

कर संग्रह अधिकारी

इन कानूनों से सरकार का किसानों से पहली बार सीधा सम्बन्ध स्थापित हुआ। सरकारी कर्मचारी अब गाँव-गाँव पहुँचे। ये थे मुहस्सिल (खिराज वसूल करने वाले), आमिल (कर संग्रह करने वाले) गुमाश्ता (प्रतिनिधि), मुतसर्रिफ ( हिसाब की जाँच करने वाले), ओहदा दाराने दफातिर (कार्यालय के अध्यक्ष), नवीसिन्दा (लिपिक)। ये जिला स्तर पर कार्य करते थे लेकिन इनकी पहुँच गाँवों तक थी।

सकारात्मक परिणाम

1.       गाँव और शहर के बीच घनिष्ट और पूरक संबंधों की स्थापना

2.       सल्तनत का आतंरिक पुनर्गठन

3.       आगे चलकर शेरशाह और अकबर के लिए मॉडल  

नकारात्मक परिणाम

1.       कृषकों के लिए अब कृषि लाभदायक नहीं रह गई। यह लगान व्यवस्था बहुत कृषक - विरोधी थी।

2.       पचास प्रतिशत भू-राजस्व तथा चराई, घरी, जजिया का भार कृषक की कमर तोड़ने वाला था। 

बाज़ार नियंत्रण व्यवस्था

अलाउद्दीन के बाजार सुधार प्रशासनिक और सैनिक आवश्यकताओं के अनुरूप किये गये थे अलाउद्दीन के बाजार सुधार एवं उनकी प्रभावनीयता उसके समकालीनों के लिए आश्चर्य की बात थी। मध्यकालीन शासकों से इस बात का ध्यान रखने की अपेक्षा की जाती थी कि जीवन की आवश्यक वस्तुएं, विशेषकर खाद्यान्न, नगरों में निवास करने वाले लोगों को उचित मूल्यों पर उपलब्ध होती रहें। ऐसा इसलिए था कि संपूर्ण इस्लामी जगत में नगरों को शक्ति और सत्ता की संचालक शक्ति माना जाता था ।

उद्देश्य

1.       बरनी का कथन है कि अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार सुधार इसलिए किए कि मंगोलों द्वारा दिल्ली की घेराबंदी की जाने के बाद वह एक विशाल सेना तैयार करना चाहता था, किन्तु अपने सैनिकों को सामान्य वेतन देने की स्थिति में उसके सारे खजाने खाली हो जाते।

2.       बरनी के अनुसार बाजार सुधार एक अन्य कारण अलाउद्दीन की हिन्दुओं को साधनहीन बनाने की नीति के तहत किये गये थे ताकि वे विद्रोह करने का विचार भी अपने मन में न ला सकें।

3.       डॉ बी. पी. सक्सेना - अलाउद्दीन ने जनकल्याण की भावना से प्रेरित होकर बाज़ार नियंत्रण व्यवस्था को लागू किया। यह विचार शेख हमीदुद्दीन की पुस्तक खैरात उल मजलिस पर आधारित है।

4.       डॉ पी सरन तथा के एस लाल वस्तुतः बाजार नियंत्रण व्यवस्था एक प्रकार की राजनीतिक बाध्यता से प्रेरित थी।

                आर्थिक विनियमन: बाज़ार सुधार

अ.  मण्डी या खाद्यान्न बाजार

शहर के हर मोहल्ले में केंद्रीय सहायता प्राप्त नियंत्रित किराना की दुकान होती थी मण्डी की व्यवस्था के बारे में बरनी सुल्तान के सात आदेशों का उल्लेख करता है जिनसे मण्डी के संगठन के बारे में ज्ञात होता है।  :

  1. पहला और सबसे कठिन नियमन (ज़ाबिता): यह विभिन्न प्रकार के अनाज की कीमत तय करने से संबंधित था। सरकार द्वारा निर्धारित कीमतें प्रति मन  इस प्रकार थीं: गेहूं - 7.5 जीतल, जौ - 4 जीतल, चावल - 5 जीतल, दाल - 5 जीतल आदि।

  2. दूसरा नियमन: यह अनाज बाजार के नियंत्रक (शहना) के रूप में मलिक क़बुल उलुघ खानी की नियुक्ति से संबंधित था।

  3. तीसरा नियमन: यह शाही भंडारों में अनाज के संग्रह से संबंधित था।

  4. चौथा नियमन: अनाज परिवहन करने वाले व्यापारियों को मलिक क़ाबुल को सौंपने के लिए था।

  5. पाँचवाँ नियमन: मुनाफाखोरी पर एक सख्त प्रतिबंध लगाया गया था।

  6. छठा नियमन: इसमें देश के सम्बंधित अधिकारियों  से यह वचन लेने की आवश्यकता थी कि वे सुनिश्चित करेंगे कि किसान अपने खेतों से अनाज व्यापारियों को नगद कीमत पर प्रदान करें।

  7. सातवाँ नियमन: इसके अनुसार सुल्तान को अनाज बाजार के बारे में तीन स्वतंत्र स्रोतों से प्रतिदिन रिपोर्ट मिलती थी: पहला, बाजार के नियंत्रक (शहना-ए-मंडी) से; दूसरा, बरीद (खुफिया अधिकारी) से; और तीसरा, गुप्त जासूसों (मुन्हिस) से जो नियुक्त किए गए थे।

ब. सराय-ए-अदल

सराय-ए-अदल (न्याय का स्थान) काफी हद तक सब्सिडी वाला बाजार था, जहाँ तैयार वस्त्र और माल लंबी दूरी से लाए जाते थे। यह माल सुल्तान के राज्य क्षेत्र से बाहर और यहां तक कि विदेशी देशों से भी लाया जाता था। इन विशिष्ट वस्तुओं में कपड़ा, चीनी, जड़ी-बूटियां, सूखे मेवे, मक्खन (रुघान-ए-सुतुर, घी) और दीपक का तेल (रुघान-ए-चिराग) शामिल थे।

  1. पहला नियम: सराय-ए-अदल की स्थापना के लिए संबंधित था। बदायूँ दरवाजे के अंदर, कोशक-ए-सब्ज के पास एक बड़ा भूखंड लंबे समय से अनुपयोगी पड़ा हुआ था यह वहीँ पर बना ।

  2. दूसरा नियम: बरनी ने हमें सरकारी मूल्य सूची के कुछ वस्तुओं के बारे में जानकारी दी है।

  3. तीसरा नियम: व्यापारियों के पंजीकरण से संबंधित था। 'सुल्तान ने आदेश दिया कि दिल्ली के सभी व्यापारी, चाहे हिंदू हों या मुसलमान, वाणिज्य मंत्रालय (दीवान-ए-रियासत) में पंजीकृत हों; और उनके व्यापार को नियंत्रित किया जाए।

  4. चौथा नियम: मुल्तानी व्यापारियों से संबंधित था। सिराय-ए-अदल की वस्तुएं नियंत्रित व्यापारियों द्वारा लंबी दूरी से लाई जाती थीं, और अधिक महंगी वस्तुओं के मामले में उन्हें सब्सिडी की आवश्यकता होती थी।

  5. पांचवां नियम: अनुमति प्राप्त करने से संबंधित था। उच्च गुणवत्ता वाले कपड़ों की खरीद और बिक्री के लिए पहले से और लिखित रूप में प्राधिकृत अधिकारी से स्वीकृति लेनी आवश्यक थी।

स. दासों, पशूओं तथा घोड़ों का बाजार

ये तीनों बाजार पृथक्‌-पृथक् थे। तीनों बाज़ारों पर चार सामान्य नियम लागू किए गए थे:

  1. प्रकार के अनुसार मूल्य का निर्धारण;
  2. व्यापारियों और पूंजीपतियों का बहिष्कार;
  3. दलालों पर सख्त नियंत्रण;
  4. सुल्तान द्वारा बार-बार जाँच-पड़ताल।

घोड़े:

सेना के लिए स्वीकृत घोड़ों को अनुभवी घोड़ा दलालों की मदद से तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया:

  • प्रथम श्रेणी: 100 से 120 टंका।
  • द्वितीय श्रेणी: 80 से 90 टंका।
  • तृतीय श्रेणी: 60 से 70 टंका।

दास:

  • घरेलू कामकाज के लिए महिला दास की कीमत 5 से 12 टंका निर्धारित की गई।
  • उपपत्नी (कनीज़क-ए-किनारी) के रूप में महिला दास की कीमत 20 से 30 या 40 टंका थी।

पशुधन:

  • प्रजनन के लिए नर पशु (सुतूर-ए-जुफ्ती): 3 टंका।
  • मांस के लिए गायें: 1 से 2 टंका।
  • दूध देने वाली गायें: 3 से 4 टंका।
  • दूध देने वाली मादा भैंस: 10 से 12 टंका।
  • मांस के लिए भैंस: 5 से 6 टंका।

सामान्य बाजार

सामान्य बाजार, जो पूरे शहर में बिखरे हुए थे, वाणिज्य मंत्रालय (दीवान-ए-रियासत) के नियंत्रण में थे। अलाउद्दीन ने इस व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। लेकिन बरनी के अनुसार, अलाउद्दीन ने अपने अधीन कार्यरत एक दल के साथ उत्पादन लागत (हुक्म-ए-बर) के आधार पर हर चीज़ की कीमत तय की, चाहे वह कितनी भी छोटी क्यों न हो—टोपी, मोज़े, कंघी, सुई, गन्ना, सब्ज़ियाँ, दलिया, सूप, हलवा, रेवरी, विभिन्न प्रकार की रोटियाँ, मछली, पान के पत्ते, रंग, सुपारी, गुलाब और हरे पौधे; वास्तव में, सामान्य बाजारों में बेची जाने वाली सभी चीज़ों की कीमतें। सिंहासन द्वारा अनुमोदित मूल्य सूची वाणिज्य मंत्रालय को सौंप दी गई।

सामान्य बाजारों से संबंधित चार नियम थे:

पहला नियम: याकूब नज़ीर को बाजार के अध्यक्ष (रियासत-ए-मंडी) के रूप में नियुक्त किया गया क्योंकि वह दिल्ली के लोगों के स्वभाव से भलीभाँति परिचित था।

दूसरा नियम: सुल्तान को बाजार में कीमतों और गतिविधियों के बारे में सूचित किया जाता था।

तीसरा नियम: याकूब नज़ीर ने बाजार में निरीक्षकों (शहना) की नियुक्ति की।

चौथा नियम: यदि किसी व्यक्ति को कम तौलने का दोषी पाया जाता, तो उसके शरीर से उस कमी के वजन का दोगुना मांस काट लिया जाता।

सकारात्मक प्रभाव

1.       पहला इसके द्वारा बाजार की शक्तियों में सीधा हस्तक्षेप किया गया।

2.       इसके माध्यम से अलाउद्दीन अपेक्षाकृत कम संसाधनों में एक स्थायी सेना का निर्माण कर सका।

3.       इस बाजार नियन्त्रण का लाभ सामान्य लोगों को भी प्राप्त हुआ तथा नगरीय जनसंख्या सस्ती दरों में अनाजों के अतिरिक्त अन्य वस्तुये प्राप्त कर सकती थी

4.       इसने एक प्रेरित व्यापार को जन्म दिया क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अनाजों की बिकी को प्रोत्साहन मिला।

5.       नगरीय जनसख्या के अनाजो की आवश्यकता बेहतर रूप से पूरी हुई अतः नगरीकरण की प्रक्रिया को भी प्रोत्साहन मिला।

नकारात्मक

1.       इस व्यवस्था ने कृषि एवं वाणिज्य व्यापार इन दोनों को मूल उत्प्रेरणा मुनाफा को ही छीन लिया।

2.       इस व्यवस्था के तहत नगरीय जनसंख्या के लाभ हेतु ग्रामीण जनसंख्या का शोषण किया गया।

3.       नगरीय जनसंख्या में भी बड़े व्यापारियों को मुनाफा और लाभ प्राप्त होता रहा वस्तुतः मूल्य नियंत्रण का नकारात्मक प्रभाव शिल्पियों तथा छोटे व्यापारियों पर पड़ा।

4.       सभी प्रकार की वस्तुओं के मूल्य निश्चित कर देने से अधिकारी तंत्र को प्रोत्साहन मिला।

5.       इस समय मजदूरों की मजदूरी तथा सैनिको के वेतन घटा दिये गये। इससे इनकी क्रय शक्ति घट गई। अतः वस्तुओं के मूल्य में कमी से इन्हे फापदा नहीं हुआ बल्कि फायदा राज्य तथा सामंतों को मिला।

अलाउद्दीन के बाजार सुधारक तात्कालिक रूप से बहुत ही सफल रहे परंतु यह अस्थाई प्रकृति के थे। डा० पी० सरन के शब्दों में यह सम्पूर्ण नीति ही पूर्णतया तर्कहीन और बनावटी थी तथा समस्त आर्थिक नियमों का उल्लघंन था। यह केवल सरकार के फायदे के लिए बनाई गई थी और साधारण जनता के लिये, जो इसके पंजे में आ गई, गरीबी, दुःख व अपमान का कारण बनी।

Reasons for the failure of Muhammad Tughlaq

 

The entire reign of Muhammad Tughlaq is a sad saga of failures. His good intentions, ideals of public welfare and plans for administrative reforms came to a sad end. It is also coincidental that he faced famine and epidemic which contributed to his failure. But after studying the entire sequence of events, it becomes clear that along with adverse circumstances, he himself was also responsible for his failures.

1.     Impracticality

The Sultan was a man of imagination and his plans were original. There was no inherent flaw in his plans like change of capital, token currency etc. but the implementation of these plans was flawed. He did not make any effort to convince the people or his officers or to take them along with him. Due to this, the schemes failed, the treasury became empty and the people had to suffer unbearable.

2.     Lack of qualified consultants

The Sultan did not get any capable advisor to conduct the administrative work. Alauddin Khilji had the advice and services of capable and loyal officers like Ulugh Khan, Zafar Khan, Nusrat Khan, Alp Khan, Malik Kafur and Kotwal Alaulmulk and they contributed to his successes. Muhammad Tughlaq did not get such loyal and capable advisors who would fearlessly give him timely advice and protect him from harmful actions.

3.     Harsh punishment

One of the main reasons for Muhammad's failure was his harsh punishment policy. He used to impose death penalty even for ordinary crimes due to which feelings of fear and hatred had arisen towards him among the public. For the success of the administration, a balance between pardon and punishment was necessary and at the same time it was also necessary for the public to have faith in the justice of the Sultan. Unfortunately, the situation worsened due to the Sultan's harsh punishment system.

4.     Religious policy

The Ulema class was angry with the religious policy of the Sultan. The Sultan did not differentiate between common people and Ulemas in the matter of giving punishment. The Sultan believed that this class had become selfish and sycophantic and did not perform its duties towards the society and the state. The Sultan forced people of this class to work in the army and administration. Due to Sultan's specific Islamic ideology and progressive thoughts, this class started considering him as an infidel. This class had influence on the public due to which the public also became against the Sultan.

5.     Opposition of the Umrah

The Sultan made two changes in the appointments of the Amirs. First, he appointed ordinary people who had qualifications to umrah positions. Due to this the hereditary class of the umrah became angry with him. Second, the Sultan appointed foreigners to high posts. These foreigners were money-greedy and selfish and they came to India only to accumulate wealth. Due to the ingratitude of this class, the Sultan's difficulties increased and his reign failed.

6.     Conservatism and backwardness of the people

It was the misfortune of Sultan Muhammad that he did not get the support of his people. The public was unable to understand his progressive plans. Sultan's working style was also unsuitable for success. Due to his rashness and haste, the public became suspicious of him due to which the Sultan did not get the support of the public. In this situation the Sultan's failure became inevitable.

7.     Natural disasters

Natural disasters were also the reason for the failure of Muhammad Tughlaq. Due to the widespread and severe famine in the Doab, the state had to suffer immense revenue loss which led to an economic crisis. Due to the spread of the epidemic in the south, Multan could not suppress Mabar's rebellion, which encouraged other rebels. His army was destroyed due to rain and snow in Karachal.

8.     Sultan's character

The root cause of his failure was his character. There were abundance of such defects in it due to which it would have been possible for any ruler to achieve success. The first thing was that he was stubborn and impatient by nature. He used to get angry quickly. Therefore no one had the courage to give advice to the Sultan. Secondly, he lacked patience and restraint. Implementing any policy requires patience and thought. The third thing was that he was an impractical theorist and lacked common sense. Fourth, he did not have the ability to judge human character which is very essential for the success of administration.

There is no doubt that the Sultan wanted to do good to the people and his actions were motivated by goodwill, but when he started facing failure at every step, he began to understand that in return for his generosity he was receiving ingratitude and opposition from the people and officials. Due to this his anger increased and as a result the severity of his punishments also increased. Thus, a well-wishing Sultan became distant from his people and his 26-year reign became a long sad story.

मुहम्मद तुगलक की असफलता के कारण

मुहम्मद तुगलक का सम्पूर्ण शासनकाल असफलताओं की दुःखद गाथा है। उसकी सद्‌भावनाएँ जनकल्याण के आदर्श तथा प्रशासनिक सुधारों की योजनाओं का दुःखद अन्त हुआ। यह भी संयोग की बात है कि उसे अकाल तथा महामारी का सामना करना पड़ा जिसने उसकी असफलता में योगदान दिया। लेकिन सम्पूर्ण घटना-क्रम का अध्ययन करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि उसकी असफलताओं के लिए विपरीत परिस्थितियों के साथ-साथ वह स्वयं भी उत्तरदायी था।

1.       अव्यावहारिकता

सुल्तान कल्पनाशील व्यक्ति था और उसकी योजनाएँ मौलिक थीं। राजधानी का परिवर्तन, सांकेतिक मुद्रा आदि उसकी योजनाओं में कोई अन्तर्निहित दोष नहीं था लेकिन इन योजनाओं का क्रियान्वयन दोषपूर्ण था। उसने प्रजा को, अपने अधिकारियों को समझाने तथा अपने साथ लेकर चलने का प्रयास नहीं किया। इससे योजनाएँ असफल हुईं, राजकोष रिक्त हो गया और प्रजा को असहनीय कष्ट उठाने पड़े।

2.       योग्य परामर्शदाताओं का अभाव

सुल्तान को प्रशासन कार्य के संचालन के लिए कोई योग्य परामर्शदाता प्राप्त नहीं हुआ। अलाउद्दीन खिलजी को योग्य और निष्ठावान अधिकारियों, जैसे—उलूग खाँ, जफर खाँ, नुसरत खाँ, अल्प खाँ, मलिक काफूर और कोतवाल अलाउलमुल्क का परामर्श तथा सेवाएँ प्राप्त थीं और उसकी सफलताओं में उनका योगदान था। मुहम्मद तुगलक को इस प्रकार के निष्ठावान योग्य परामर्शदाता प्राप्त नहीं हुए जो उसे निर्भयतापूर्वक समयानुकूल परामर्श देते और हानिकारक कार्यों से उसे बचाते।

3.       कठोर दण्ड

मुहम्मद की असफलता का एक प्रमुख कारण उसकी कठोर दण्ड नीति थी। वह साधारण अपराधों के लिए भी मृत्यु दण्ड देता था जिसके कारण जनता में उसके प्रति भय और घृणा की भावनाएँ उत्पन्न हो गईं थीं। प्रशासन की सफलता के लिए क्षमा और दण्ड में सन्तुलन आवश्यक था और साथ ही जनता का सुल्तान की न्यायप्रियता में विश्वास होना भी आवश्यक था। दुर्भाग्य से सुल्तान की कठोर दण्ड प्रणाली के कारण स्थिति बिगड़ी।

4.       धार्मिक नीति

सुल्तान की धार्मिक नीति से उलेमा वर्ग रुष्ट था। सुल्तान दण्ड देने के मामले में साधारण व्यक्तियों और उलेमाओं में कोई अन्तर नहीं करता था। सुल्तान का विचार था कि यह वर्ग स्वार्थी तथा चापलूस हो गया है और समाज तथा राज्य के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं करता है। सुल्तान ने इस वर्ग के लोगों को सेना तथा प्रशासन में कार्य करने के लिए विवश किया। सुल्तान की विशिष्ट इस्लामी विचारधारा और प्रगतिशील विचारों के कारण यह वर्ग उसे काफिर समझने लगा। इस वर्ग का जनता पर प्रभाव था जिससे जनता भी सुल्तान की विरोधी हो गयी।

5.       अमीरों का विरोध

सुल्तान ने अमीरों की नियुक्तियों में दो परिवर्तन किए थे। प्रथम, उसने साधारण व्यक्तियों को जो योग्यता रखते थे, अमीर पदों पर नियुक्त किया। इससे अमीरों का वंशानुगत वर्ग उससे रुष्ट हो गया। द्वितीय, सुल्तान ने विदेशियों को उच्च पदों पर नियुक्त किया। ये विदेशी धन-लोलुप और स्वार्थी थे और वे केवल धन बटोरने के लिए ही भारत आए थे। इस वर्ग की कृतघ्नता के कारण सुल्तान की कठिनाइयाँ बढ़ीं और उसका शासनकाल असफल हो गया।

6.       प्रजा की रूढ़िवादिता और पिछड़ापन

सुल्तान मुहम्मद का दुर्भाग्य था कि उसे प्रजा का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ। जनता उसकी प्रगतिशील योजनाओं को समझने में असमर्थ रही। सुल्तान की कार्य-शैली भी सफलता के लिए अनुपयुक्त थी। उसके उतावलेपन तथा जल्दबाजी के कारण जनता को उसके प्रति सन्देह हो गया जिससे सुल्तान को जनता का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ। इस स्थिति में सुल्तान का असफल होना अवश्यम्भावी हो गया।

7.       प्राकृतिक आपदाएँ

मुहम्मद तुगलक की असफलता का कारण प्राकृतिक आपदाएँ भी थीं। दोआब के व्यापक और भीषण अकाल के कारण राज्य को अपरिमित राजस्व की हानि उठानी पड़ी जिससे आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया। दक्षिण में महामारी फैलने से मुल्तान माबर का विद्रोह नहीं दबा सका जिससे अन्य विद्रोहियों को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। कराचल में वर्षा और बर्फ के कारण उसकी सेना नष्ट हो गई।

8.       सुल्तान का चरित्र

उसकी असफलता का मूल कारण उसका चरित्र था। उसमें ऐसे दोषों का आधिक्य था जिनके कारण किसी भी शासक को सफलता मिलना सम्भव हो जाता। पहली बात यह थी कि वह स्वभाव से हठी और उतावला था। वह शीघ्र ही क्रोधित हो जाता था। अतः किसी को साहस नहीं होता था कि वह सुल्तान को परामर्श दे सके। दूसरे, उसमें धैर्य और संयम की कमी थी। किसी भी नीति को क्रियान्वित करने के लिए धैर्य और विचार की आवश्यकता होती है। तीसरी बात यह थी कि वह अव्यावहारिक सिद्धान्तवादी था और उसमें सामान्य बुद्धि का अभाव था। चतुर्थ, उसमें मानवीय चरित्र को परखने का गुण नहीं था जो प्रशासन की सफलता के लिए बहुत ही आवश्यक है।

इसमें सन्देह नहीं कि सुल्तान जनता का कल्याण करना चाहता था और उसके कार्य सद्‌भावना से प्रेरित थे लेकिन जब प्रत्येक कदम पर उसे असफलता मिलने लगी तो वह समझने लगा कि उसकी उदारता के बदले में उसे जनता तथा अधिकारियों से कृतघ्नता तथा विरोध प्राप्त हो रहा था। इससे उसका क्रोध बढ़ता गया और इसके फलस्वरूप उसमें दण्डों की कठोरता भी बढ़ती गयी। इस प्रकार एक शुभकामनाओं वाला सुल्तान अपनी प्रजा से दूर होता गया और उसका 26 साल का शासन काल एक दीर्घ दुःख-गाथा बन गया।

दिल्ली सल्तनत के विघटन में फिरोज तुगलक की भूमिका

दिल्ली सल्तनत के विघटन के लिये फिरोजशाह तुगलक के उत्तरदायित्व निर्धारित करने से पूर्व इस बात का अवलोकन करना महत्वपूर्ण है कि वह एक ऐसे साम्राज्य को स्थायित्व देने के लिये गद्दी पर आया था, जिसकी चूल पहले ही हिल गयी थी।

सल्तनत के मूल ढांचे में विरोधाभास था। दिल्ली के सुल्तानों ने इन विरोधाभासों को दूर करके या कम करके अपने शासन को स्थायित्व देने का प्रयास किया। लेकिन जब फ़िरोज तुग़लक का समय आया तो वह इन विरोधाभासों को दूर करने का जो तरीका अपनाया वह साम्राज्य के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ।

1.       सुल्तान और उमरा वर्ग के बीच परस्पर सम्बन्ध

कुलीन वर्ग और सुल्तान के बीच आंतरिक द्वंद्र प्रारंभ से ही चला आ रहा था, किन्तु विभिन्न शासकों ने इसका निराकरण अपने ढंग से ढूंढने का प्रयास किया। इल्तुतमिश ने कुलीन वर्ग को संगठित करने के लिये चहलगनी का निर्माण किया। बलबन ने चहलगनी की शक्ति तोड़ दी और उसने राजत्व का एक नया सिद्धांत प्रस्तुत किया। अलाउद्दीन ने कुलीन वर्ग के आधार को और विस्तृत किया। मुहम्मद बिन तुगलक ने अलाउद्दीन खिलजी के साम्राज्यवादी नीति को आगे बढ़ाया। उसने कुलीन वर्ग का आधार और भी व्यापक बनाया। फिर फिरोज तुगलक का आगमन हुआ, जिसे कुलीन और सुल्तान के बीच संघर्ष की समस्या विरासत में प्राप्त हुई। फिरोज तुगलक ने, मुहम्मद बिन तुगलक की दोषपूर्ण नीतियों को उलटने की कोशिश की। उसने कुलीन वर्ग को संतुष्ट करने की कोशिश की और इसी क्रम में उसने कुलीनों के वेतन बढ़ा दिये और सैनिक सेवा में उनके पद को वंशानुगत बना दिया। इक्तादारों पर से बहुत सारे नियंत्रण हटा लिये और उनके पद को भी वंशानुगत बना दिया गया। लेकिन आगे हम देखेंगे कि औषधि रोग से भी ज्यादा घातक साबित हुई तथा फिरोज तुगलक की तुष्टीकरण की नीति, अंत में दिल्ली सल्तनत के विघटन के लिये उत्तरदायी हुई।

2.        सुल्तान और उलेमा वर्ग के बीच परस्पर सम्बन्ध

दिल्ली-सुल्तानों ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को सफल बनाने के लिये धर्म को राजनीति से धीरे धीरे पृथक किया। अलाउद्दीन खिलजी ने उलेमा वर्ग को नियंत्रित किया और प्रशासन में उनके हस्तक्षेप को नकार दिया। मुहम्मद बिन तुगलक एक कदम और आगे बढ़ा और उसने उलेमा वर्ग को सामान्य प्रजा की धरातल पर ला खड़ा किया। स्वभाविक रूप में कुलीन और उलेमा-वर्ग का संगठन मुहम्मद बिन तुगलक के विरुद्ध खड़ा हो गया। अब फिरोज तुगलक ने उलेमा-वर्ग को अपने विश्वास में लेना चाहा। उसने उलेमा-वर्ग के पुराने अधिकार बहाल कर दिये और प्रशासन में इस वर्ग के हस्तक्षेप कासंभव बनाया। किंतु यहाँ भी हम देखगें कि फिरोजशाह तुगलक की तुष्टीकरण की नीति, सल्तनत के लिये घातक साबित हुई।

3.        सल्तनत और आतंरिक विद्रोह तथा बाहरी आक्रमण : सैन्य तंत्र

आतंरिक विद्रोह, बाहरी आक्रमणों तथा साम्राज्य के स्थायित्व के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने एक मजबूत सैनिक तंत्र की स्थापना की स्थापना की। आगे के शासक गयासुद्दीन तुगलक ने भी सैन्य-संगठन के महत्व को समझा। मुहम्मद बिन तुगलक ने भी सैन्य-शक्ति पर भरपूर ध्यान दिया। किंतु उससे कुछ सैनिक भूलें हुई जैसे खुरासान अभियान के समय सैनिकों की नियुक्ति एवम् उन्हें पदच्युत किया जाना। अतः सैनिक तत्व मुहम्मद बिन तुगलक से असंतुष्ट हो गये। फिरोजशाह तुगलक को सैनिक, असंतोष भी एक कड़वी विरासत के रूप में प्राप्त हुआ। फिरोजशाह तुगलक ने इस समस्या का निराकरण अपने ढंग से करना चाहा। उसने सैनिकों के पद को वंशानुगत बना दिया। किन्तु यह एक स्थायी समाधान नहीं था, अपितु इसने सैनिक ढाँचा को ढ़ीला एवम् कमजोर बना दिया और आगे चलकर दिल्ली सल्तनत के विघटन में इस भूल ने अपनी भूमिका अदा की। फिरोजशाह तुगलक एक कुशल सेनापति भी नहीं था। उसने कुछ अभियान किये जिनमें उसके बंगाल के दोनों अभियान और सिंध का अभियान असफल रहे।

इस प्रकार संघर्ष एवं तनाव, सल्तनत के मूल ढाँचे में ही निहित था, जिसको विभिन्न प्रशासकों द्वारा ऊपरी स्तर पर पाट दिया गया था। फिरोजशाह तुगलक के शासन काल में वे मूलभूत विसंगतियाँ उजागर हो गई।

इस तरह दिल्ली सल्तनत के विघटन के लिए बहुत से कारक उत्तरदायी थे और विघटन की भी एक लम्बी प्रक्रिया थी किन्तु फिरोजशाह तुगलक ने अपनी दुर्बलताओं से उसे तीव्र कर दिया।

दिल्ली सल्तनत में फारसी साहित्य

  दिल्ली सल्तनत के दौरान फारसी साहित्य के विकास के कारण मंगोल आक्रमणों के कारण मध्य एशिया से विद्वानों का भारत की ओर प्रवासन। भारत में...