लुई चौदहवें के शासनकाल के महत्त्व का अंदाजा इस बात से लगया जा सकता है कि वाल्टेयर तथा विल ड्यूरा ने उस समय के यूरोप के इतिहास को लुई चौदहवें के नाम से परिभाषित किया है।
1. राजत्व सिद्धान्त : परिभाषा तथा प्रदर्शन
a. सत्ता में बटवारा नहीं : मजारें की मृत्यु हो जाने पर प्रशासन की
सम्पूर्ण वागडोर राजा लुई चतुर्दश ने अपने हाथों में केन्द्रित कर ली। इसके
पश्चात् राजा लुई चतुर्दश ने किसी भी व्यक्ति को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त
नहीं किया और उसने कहा कि उसे किसी मन्त्री की सहायता की आवश्यकता नहीं है वह
स्वयं शासन करेगा। वह स्वयं प्रशासन
नीतियों का संचालन करना चाहता था। वह अपने मन्त्रियों एवं अधिकारियों को लिपिकों
एवं सेवकों की भाँति समझता था।
b. राज्य की संस्थाओं की शक्तियाँ सीमित : फ़्रांस की पार्लेमा, स्टेट्स जनरल तथा
नगरपालिकाओं के अधिकारों को सीमित कर दिया गया इसी कारण उसके शासन काल में 'स्टेट्स
जनरल' नामक राष्ट्रीय सभा की कोई वैठक नहीं बुलाई गई। इसी कारण
उसके शासन काल में 'स्टेट्स जनरल'
नामक राष्ट्रीय सभा की कोई
वैठक नहीं बुलाई गई। उसने यह कहना आरम्भ
किया कि “मैं ही राज्य हूँ।"
c. राजा के दैवी अधिकार की मान्यता : समाज के भाग्यवादी लोगों के लिए उसने यह
स्थापित करने की कोशिश की कि उसे राजा के रूप में ही ईश्वर ने पैदा किया है अतः
लोगों को राजा की आज्ञाओं का पालन करना उनकी नियति है। लूई ने इस काम को बड़ी
धूमधाम और गरिमा के साथ संपन्न किया। बोस्सुए एक वाक्पटु पादरी था और इतिहास तथा
दर्शन में उसका विशद अध्ययन था। इसे उसने अपने लड़के के का शिक्षक बना दिया। रोज जब वह चर्च में भाषण करता था तो राजा की
सर्वोच्चता की हिमायत करता था। उसके अनुसार राजतंत्र 'सबसे
प्राचीन, सबसे उपयुक्त और सबसे स्वाभाविक शासनतंत्र है।' वह
कहता था कि राजा को ईश्वर अपने विशेष कार्य के लिये पैदा करता है। राजा के माध्यम
से ही ईश्वर संसार पर नियंत्रण रखता है। इसलिये राजा केवल ईश्वर के प्रति
उत्तरदायी है उसके अनुसार “राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि होता है।"
d. राज चिन्ह सूर्य : उसने अपना राज
चिह्न सूर्य रखा था। उसे Roi Soleil या Sun
King कहा जाता था। यह बात बड़ी
सारगर्भित थी। जैसे पूरे सौरमंडल का केंद्र सूरज होता है वैसे ही पूरी व्यवस्था का
केंद्र वह स्वयं था। और जिस प्रकार सौरमंडल के सभी ग्रह सूरज का चक्कर लगाते हैं उससे
प्रकाश और जीवन पाते हैं उसी प्रकार उसके राज्य में जीवन और प्रकाश उसी से
प्रवाहित होता था।
e. राजवैभव पर जोर : उसने अपने गौरव तथा प्रतिष्ठा को प्रदर्शित करने के लिए
पेरिस नगर से 12 मील की दूरी पर वर्साई नामक स्थान पर एक राज-प्रासाद का निर्माण
करवाया। इसके निर्माण में फ्रान्स के उच्च कोटि के कारीगरों की सेवाएँ ली गयीं तथा
राज-प्रासाद को बड़े सुन्दर एवं वैभवशाली ढंग से अलंकृत किया गया। वर्साई के
राज-प्रासाद में राजा तथा उसका परिवार,
दरवारी तथा प्रशासन के उच्च
अधिकारी निवास करते थे।
f. छवि निर्माण के लिए सांस्कृतिक विकास : लुई चतुर्दश ने कला, साहित्य
एवं संगीत को उन्नतिशील बनाने की ओर भी विशेष ध्यान दिया। कारनील एक सुप्रसिद्ध
नाटककार था तथा उसे 'फ्रान्स के चित्रपट का पिता' कहा
जाता है। मोलेर भी उच्चकोटि का नाटककार था। मदान द सेविने के हास्यपूर्ण पत्रों
में उसकी लेखन-शैली की कुशलता स्पष्ट दिखाई देती है। ला फॉनटेन एवं रात्सीन की
शैली भी बहुत सुन्दर है। इन साहित्यकारों की कृतियों ने फ्रान्सीसी भाषा को यूरोप
में सर्वप्रिय बना दिया था। इसीलिये राजा लुई चतुर्दश का शासनकाल फ्रान्सीसी
साहित्य का ‘स्वर्ण युग' कहा जाता है। फ्रान्स की कला, रहन-सहन, वेशभूषा
तथा साहित्य सभ्य यूरोप के लिए एक आदर्श बन गये।"
2.
आर्थिक
सुधार : कोलबेर का प्रयास
लुई
चतुर्दश ने कोलबेर को वित्तमन्त्री के पद पर नियुक्त किया। वित्त मन्त्री बनने के
पश्चात् उसका प्रमुख उद्देश्य फ्रान्स की आर्थिक दशा को उन्नतिशील एवं सुदृढ़
बनाना था। परन्तु जैसे ही उसने अपना ध्यान सुधारों की तरफ आकर्षित किया उसे कई
समस्याएं नज़र आईं।
· सरकारी व्यय की अधिकता
· सामान्य जनता पर करो का भार
· करो को वसूलने की ठेकेदारी प्रथा
· युद्धों की अधिकता से राजकोष पर असर
इन
समस्याओं से निजात के लिए इसने निम्नलिखित कदम उठाए-
· सर्वप्रथम ईमानदार एवं कर्मठ व्यक्तियों की एक
विशेष अदालत भ्रष्ट एवं धनलोलुप कर्मचारियों की जांच के लिए बनाई। उसके इस प्रयत्न
से राज्य को लगभग 40 करोड़ रुपए की अपहृत धनराशि प्राप्त हुई।
· कोल्बर्ट कुलीन वर्ग पर भी प्रत्यक्ष भूमि कर
लगाना चाहता था, किन्तु शासकीय हस्तक्षेप के कारण वह ऐसा न कर सका लेकिन
कोल्बर्ट ने कुलीनों के उन प्रमाणपत्रों की जांच की जिसके आधार पर उन्हें
प्रत्यक्ष भूमि कर से छूट मिली हुई थी। जिन कुलीनों के अधिकार प्रमाणित न हो सके
उसने उन्हें भूमि कर देने के लिए बाध्य किया।
· उसने किसानों के प्रत्यक्ष कर कम कर दिए तथा कृषकों
की स्थिति सुधारने के लिए पशुओं की नस्लों को सुधारने का प्रयत्न किया।
· सिंचाई की व्यवस्था के लिए रौन एवं गैरोन
नदियों को भूमध्यसागर एवं अटलाण्टिक सागर से मिलाने वाली 160
मील लम्बी 'लांगडक नहर'
का निर्माण हुआ।
· राज्य की आय में वृद्धि एवं व्यय में कटौती
करने के साथ-साथ ऋणों पर ब्याज दर कम कर दीं।
· कोल्बर्ट ने व्यापार एवं वाणिज्य की उन्नति के
लिए रक्षण नीति (Mercantilism) अपनाई। इस नीति के अन्तर्गत उसने फ्रांस में
नए उद्योगों को प्रोत्साहन दिया। हालैण्ड,
इंग्लैण्ड एवं इटली से
कारीगर एवं कुशल प्रशिक्षकों को फ्रांस में आमन्त्रित किया गया। फ्रांस के
कारीगरों का विदेश जाना अवैध घोषित कर दिया गया।
3.
प्रशासन
का केन्द्रीयकरण
उसका
महत्वपूर्ण कार्य केन्द्रीय प्रशासन संगठित करना था। उसने प्रशासन में अनेक
समितियों का निर्माण किया जिसके सदस्य उसके सेवक की भाँति थे । केन्द्र में प्रथम
समिति 'राज्य परिषद'
(Council of State) थी जिसका कार्य
अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के सम्बन्ध में राजा को परामर्श देना था। दूसरी, 'प्रेषक
परिषद' (Council of Despatches) थी जिसका कार्य-क्षेत्र आन्तरिक प्रशासन से
सम्बंधित था। तीसरी समिति वित्तीय कार्यों का संचालन करती थी जो 'वित्त
परिषद' (Council of Finance) कहलाती थी। राजा प्रशासन की सभी नीतियों का
निर्धारण स्वयं करता था । प्रत्येक समिति का कार्य राजा को केवल परामर्श देना ही
था तथा वे बिना राजा की स्वीकृति के स्वतन्त्र रूप से कोई कार्य नहीं कर सकती थीं।
लुई चतुर्दश स्वयं प्रशासन के विभागों पर कठोर दृष्टि रखता था । वह कहा करता था कि
"शासन, कार्य के माध्यम से तथा कार्य के लिए ही होता है।"
4.
धार्मिक
नीति
लुई
चतुर्दश ने 1682 ई. में फ्रांस में घोषणा करवा दी कि वह फ्रांस में पोप से ऊपर है
चाहे वह धर्म का ही मामला क्यों न हो। अतः लुई चौदहवें व पोप इन्नोसेण्ट (Pope Innocent) में
संघर्ष प्रारम्भ हो गया। यह संघर्ष इतिहास में 'रिगेल के संघर्ष" के नाम से जाना जाता
है। अन्ततः 1693 ई. में लुई चतुर्दश को अपनी घोषणा को वापस लेना पड़ा, किन्तु
पोप को भी फ्रांस में लुई द्वारा रिक्त बिशपों की नियुक्ति के अधिकार को मान्यता
देनी पड़ी। इस संघर्ष में लुई चतुर्दश पराजित अवश्य हो गया था, किन्तु
अब फ्रांस के चर्च पर उसकी तूती बोलने लगी। लुई चतुर्दश धार्मिक दृष्टि से
असहिष्णु था। उसने फ्रांस में गैर-कैथोलिकों के दमन की नीति अपनाई। इससे जैनसैनाइट
जैसे कुशल, शान्तिप्रिय एवं व्यापारिक दृष्टि से दक्ष व्यापारी एवं
कारीगरों को फ्रांस से पलायन करना पड़ा। उसकी धार्मिक नीति ने उसकी विदेश नीति को
गम्भीर रूप से प्रभावित किया।
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