मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

Government of India Act of 1919

         Causes

1. Dissatisfaction with Minto-Marley reforms

About Minto-Marley reforms. K.M. Munshi said that it was a bribe for the liberal litigants of the Congress. While Surendranath Banerjee said that its rules and regulations almost destroyed the scheme of reforms. Thus there was discontent in India regarding these reforms.

2. International pressure

The circumstances of the First World War emphasized the right of self-determination throughout the world. Meanwhile, the Mesopotamian campaign of the Government of India was unsuccessful. The failure's inquiry report came in May 1917, stating that "the Government of India is utterly inept in the matter of efficiency."

3. Demand for the members of the Central Legislative Council

A deputation of the members of the Central Legislative Council demanded that "not only good or efficient government is necessary but that government which is acceptable to the people because it is responsible to them."

4. Declaration of Montague

Coming to the post of Secretary of India, Montague announced that "the policy of His Majesty's Government, with which the Government of India also fully agrees, is that the contact of Indians in every department of Indian Government should be increased gradually and self-governing administrative institutions should be developed gradually." This system proceeded as an integral part of the English Empire."


             Major provisions of the Government of India Act of 1919

1. Preamble

The Montague Declaration of 1917 AD was given the form of a preamble to the Act. The main points of this preamble were as follows: First, India has to remain a part of the British Empire. Secondly, responsible government has to be established in India but slowly.

2. India Secretary

Till now the expenditure on the Secretary of India and his department was recovered from the revenue of India. But now this expenditure is being done from the funds approved by the British Parliament. The High Commissioner was appointed to reduce the work load of the Secretary of India.

3. Council of India

The number of members of the Council of India was reduced to a minimum of 8 and a maximum of 12.

4. Two-house system at the central level

For the first time a Two-house legislature was established at the central level. The first State Council, it had 60 members, in which 27 were nominated and 33 were elected. Second Legislative Council, it had 145 members, in which 41 were nominated and 104 were elected.

5. Power of the Central Legislature

The two Houses of the Central Legislature had equal powers in all other matters, except in matters relating to finance. The vote of the Council of States was not required to pass the Finance Bill.

Members of the Central Legislature could ask questions and supplementary questions to the government and could also criticize them.

In case of deadlock in both the Houses, the Governor General could call a joint sitting, where the final decision was taken by majority. The Governor General's authority over ordinances and veto remained.

6. Diarchy in the Provinces

Lineus Cartius is considered the father of diarchy. Diarchy system was implemented in the provinces. According to this, the provincial subjects were divided into two classes. The first reserved subject - in which revenue, justice, finance, police, etc. were kept in the reserved category, which was to be administered by the governor and his executive. While the second transferred subjects – in this, education, health etc. were transferred subjects whose administration was given in the hands of the responsible ministers.

7. Election System

Direct election system was adopted in the provinces in which there was a system of reservation on communal basis. The right to vote was based on property qualification. Women were also given suffrage. The electoral system on a communal basis was extended to the Sikhs as well.

                   Review of the Act of 1919

1. Defective theory of diarchy

K.V. Reddy who had been a Madras minister once said that "I was the development minister but the forest department was not under me. I was the agriculture minister but the irrigation and land reforms department was not under me."

2. Insignificance of transferred subjects

All the important departments were included in the reserved subject. While the less important departments were included in the transferred subjects. There was complete lack of budget on the transferred subjects.

3. Comprehensive and special role of provincial governor

The role of the provincial governor was extensive. He not only had full authority over the reserved subjects, but he also had influence over those subjects which did not come under the transferred subjects. These people used to deduct limited financial grants as well.

4. Lack of coordination between ministers and employees

The provincial ministers did not have control over the employees of the state. The provincial staff were Responsible to the Viceroy and his executive, so there was no coordination between the staff and the ministers.

5. Lack of joint Responsible

Because the provincial government was divided into reserved subjects and transferred subjects. Hence there was lack of joint responsibility. Diarchy had now become a slur as Butler wrote that he heard people saying "You diarchy", "I'll kill you with diarchy".

In this way, the Act of 1919 was ugly, confusing and complex in character. To get rid of this, Gandhi later started the non-cooperation movement.

1919 का भारत सरकार अधिनियम

          कारण

1.    मिंटो-मार्ले सुधारों के प्रति असंतोष

मिंटो-मार्ले सुधारों के बारे में के. एम. मुंशी ने कहा कि यह कांग्रेस के उदार वादियों के लिए रिश्वत थी। जबकि सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने कहा कि इसके नियमों तथा अधिनियम ने सुधारों की योजना का लगभग नाश कर दिया। इस प्रकार इन सुधारों को लेकर भारत में असंतोष व्याप्त था।

2.    अंतरराष्ट्रीय दबाव

प्रथम विश्व युद्ध की परिस्थितियों ने पूरे विश्व में आत्म निर्णय के अधिकार पर बल दिया। इसी दौरान भारत सरकार का मेसोपोटामिया अभियान असफल रहा। असफलता की जांच रिपोर्ट मई 1917 में आई, जिसमें कहा गया कि "भारत सरकार कार्य कुशलता के विषय में पूर्णतया अयोग्य है।"

3.    केंद्रीय विधान परिषद के सदस्यों की मांग

केंद्रीय विधान परिषद के सदस्यों के एक प्रतिनिधिमंडल ने मांग की कि "केवल अच्छी अथवा दक्ष सरकार ही आवश्यक नहीं है अपितु उस सरकार की आवश्यकता है जो जनता को स्वीकार हो क्योंकि वह उसके प्रति उत्तरदायी है।"

4.    मोंटेग्यू की घोषणा

भारत सचिव के पद पर आते हैं मांटेग्यू ने यह घोषणा की कि "महामहिम की सरकार की नीति जिससे भारत सरकार भी पूर्णता सहमत है यह है कि भारतीय शासन के प्रत्येक विभाग में भारतीयों का संपर्क उत्तरोत्तर बढ़े तथा स्वशासी प्रशासनिक संस्थाओं का धीरे-धीरे विकास हो। यह प्रणाली अंग्रेजी साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में आगे बढ़े।"

                  1919 के भारत सरकार अधिनियम के प्रमुख प्रावधान

1.     प्रस्तावना

1917 ईस्वी की मांटेग्यू घोषणा को अधिनियम की प्रस्तावना का रूप दे दिया गया। इस प्रस्तावना के मुख्य बिंदु इस प्रकार थे पहला भारत को अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बने रहना है। दूसरा भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना होनी है लेकिन धीरे-धीरे।

2.    भारत सचिव

अब तक भारत सचिव तथा उसके विभाग पर होने वाले खर्च भारत के राजस्व से वसूला जाता था। लेकिन अब यह खर्च ब्रिटिश संसद द्वारा स्वीकृत धनराशि से किया जाने लगा। भारत सचिव के कार्य भार को कम करने के लिए हाई कमिश्नर की नियुक्ति की गई।

3.    भारत परिषद

भारत परिषद के सदस्यों की संख्या कम से कम 8 तथा अधिक से अधिक 12 कर दिया गया।

4.    केंद्रीय स्तर पर द्विसदनात्मक व्यवस्था

केंद्रीय स्तर पर पहली बार द्विसदनात्मक विधानमंडल की स्थापना की गई। पहला राज्य परिषद, इसमें 60 सदस्य थे, जिसमें 27 मनोनीत किए जाते थे तथा 33 का निर्वाचन होता था। दूसरा विधान परिषद, इसमें 145 सदस्य थे, जिसमें 41 मनोनीत किए जाते थे और 104 का निर्वाचन होता था।

5.    केंद्रीय विधान मंडल की शक्ति

केवल वित्त संबंधी मामलों को छोड़कर अन्य सभी मामलों में केंद्रीय विधानमंडल के दोनों सदनों की बराबर शक्तियां प्राप्त थी। वित्त विधेयक पारित कराने के लिए राज्य परिषद के मत की आवश्यकता नहीं थी।

केंद्रीय विधान मंडल के सदस्य सरकार से प्रश्न एवं पूरक प्रश्न पूछ सकते थे तथा उनके आलोचना भी कर सकते थे।

दोनों सदनों में गतिरोध की दशा में गवर्नर जनरल संयुक्त बैठक बुला सकता था, जहां बहुमत से अंतिम निर्णय लिया जाता था। अध्यादेश और वीटो पर गवर्नर जनरल का अधिकार बना रहा।

6.    प्रांतों में द्वैध शासन

द्वैध शासन का जन्मदाता लीनियस कार्टियस को माना जाता है। प्रांतों में द्वैध शासन प्रणाली लागू की गई। इसके अनुसार प्रांतीय विषयों को दो वर्गों में विभाजित किया गया। पहला आरक्षित विषय - जिसमें राजस्व, न्याय, वित्त, पुलिस आदि आरक्षित श्रेणी में रखे गए जिसका प्रशासन गवर्नर और उसकी कार्यकारिणी को करना था। जबकि दूसरा हस्तांतरित विषय- इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य आदि हस्तांतरित विषय थे जिनका प्रशासन उत्तरदायी मंत्रियों के हाथों में दिया गया था।

7.    चुनाव प्रणाली

प्रांतों में प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली अपनाई गई जिसमें सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था थी। मत देने का अधिकार संपत्ति संबंधी योग्यता पर आधारित था। महिलाओं को भी मताधिकार दिया गया। सांप्रदायिक आधार पर निर्वाचन प्रणाली को सिखों पर भी लागू किया गया।

               1919 के अधिनियम की समीक्षा

1.     द्वैध शासन का दोष पूर्ण सिद्धांत

के.वी. रेड्डी जो मद्रास के मंत्री रह चुके थे ने एक बार कहा था कि " मैं विकास मंत्री था किंतु वन विभाग मेरे अधीन नहीं था मैं कृषि मंत्री था परंतु सिचाई विभाग और भूमि सुधार विभाग मेरे अधीन नहीं था।"

2.    हस्तांतरित विषयों की महत्वहीनता

सभी महत्वपूर्ण विभाग आरक्षित विषय में शामिल थे। जबकि कम महत्वपूर्ण विभाग हस्तांतरित विषयों में शामिल थे। हस्तांतरित विषयों पर बजट का भी सर्वथा अभाव था।

3.    प्रांतीय गवर्नर की व्यापक तथा विशेष भूमिका

प्रांतीय गवर्नर की भूमिका व्यापक थी। उन्हें न सिर्फ आरक्षित विषयों पर पूर्ण अधिकार था बल्कि वे विषय जो हस्तांतरित विषय में नहीं आते थे उन पर भी उनका असर था। यह लोग सीमित आर्थिक अनुदान में भी कटौती कर लेते थे।

4.    मंत्रियों तथा कर्मचारियों में तालमेल का अभाव

राज्य के कर्मचारियों पर प्रांतीय मंत्रियों का नियंत्रण नहीं रहता था। प्रांतीय कर्मचारी वायसराय और उनकी कार्यकारिणी के प्रति जवाबदेह थे इसलिए कर्मचारियों और मंत्रियों में तालमेल नहीं बन पा रहा था।

5.    संयुक्त उत्तरदायित्व का अभाव

क्योंकि प्रांतीय सरकार आरक्षित विषयों और हस्तांतरित विषय में बटी हुई थी। अतः संयुक्त उत्तरदायित्व का अभाव था। द्वैध शासन अब एक गाली बन चुका था जैसा कि बटलर ने लिखा है कि उसने लोगों को कहते हुए सुना था कि "अबे वो द्वैध शासन", "मैं तुम्हें द्वैध शासन से मारूंगा"।

इस प्रकार देखा जाए तो 1919 का अधिनियम भद्दा, भ्रममय तथा जटिल चरित्र का था। जिस से निजात पाने के लिए गांधी ने आगे चलकर असहयोग आंदोलन चलाया।

Establishment and Objectives of the Muslim League

                                                     Establishment

Minto succeeded in his policy of persuading a significant section of Muslims not to join the Congress, the background of which had already been created by the Aligarh Movement and the "Command Performance and Demands" of the Shimla Delegation.

Thus another step in the direction of national integration was stopped. Immediately after meeting the Viceroy, the members of the Shimla delegation consulted among themselves to draw up their separate program. The Aga Khan wrote in his memoirs, "The only hope for them was to embark on the path of independent political recognition and activity and to obtain acceptance within the nation from the British Government."

As a result, when the Mohammedan Educational Conference met in December 1906, Nawab Salimullah invited the Muslim leaders to Dhaka. Their meeting was presided over by Waqarul Mulk, who gave a speech in Urdu and justified the formation of a separate organization of Muslims. He said :

"Unless the Muslim majority, which has fallen from its once lofty position, resolves to support each other and to walk in unison of loyalty to the Government of India, there remains the danger that Hindus will flood drown him."

The proposal for the creation of a new organization was put forward by Salimullah and approved by Hakim Ajmal Khan. It was named All India Muslim League.

                        Objective of Muslim League

The All India Muslim League was formally inaugurated on December 30, 1906. And its objectives were explained in this way: -

(i) To encourage the feeling of loyalty to the British government among the Indian Muslims and to remove any misconceptions about the government, if any.

(ii) To protect the political and other rights of the Indian Muslims and to place their aspirations and needs before the government in dignified terms.

(iii) Keeping in view the objectives (i) and (ii) to promote harmony between Muslims and other Indian communities as far as possible.

So thus we see that from the very beginning the league was a communal organization whose object was only to protect the political and other interests of the Muslims. Its form remained till 1947 with some changes.

The real political objectives of the League become clear from a speech delivered by Nawab Waqar-ul-Mulk at Aligarh. He had said: “God forbid, if the British rule ends in India, Hindus will rule over us and our lives, property and religion will be in danger. There is only one way to save the Muslims from this danger, that is, they should help in maintaining the British Raj. If the Muslims would whole heartedly side with the British, their kingdom would be here completely. The Muslims should think of themselves as the English army ready to shed their blood and lay down their lives for the British Crown."

           Reaction to the Establishment of the League

British

There were mixed reactions to the founding of the league. The pro-British newspapers were by and large sympathetic to an organization that had been "built on the safe and sound rock of loyalty to the British Raj". The 'Englishman' hoped that "this institution will prove to be an effective alternative to the Congress". The 'Times' described it as a counterbalancing body of the Congress but expressed doubt that the League would be able to follow the path of peace.

Nationalist

Indian nationalist newspapers took this incident in Muslim politics lightly and understood it as another ploy of imperial diplomacy. The League was seen as yet another weak structure of ex-officers, pensioners and government favor seekers that was about to collapse.

Hindu nationalists were not the only ones to downplay the prospects of the League and its support from the government. Freedom-loving anti-British Ulemas also made similar wrong assumptions. Shibli Nomani, a leading scholar of his time and founder of an academy and institution in Azamgarh, who had been an associate of Syed Ahmad Khan in Aligarh in his early life, was confused by the declaration of complete loyalty of the League members and Doubting his sincerity, he criticized him in the following words:

"आज़ादीए ख्याल पे तुमको है गरूर, 

तो लीग को भी शाने गुलामी पे नाज है। 

मुख्तसर उसके फजायल कोई पूछे तो ये हैं ,

मुहसिने कौम भी है खादिमें हुक्काम भी है।"

In any case, this assessment of the nationalists certainly lacked the understanding and insight of political reality, it also hurt the sentiments of the influential group of Muslims who were supported by the government.

मुस्लिम लीग की स्थापना और उद्देश्य


                               स्थापना 

मिंटो की मुसलमानों के एक महत्वपूर्ण भाग को कांग्रेस में शामिल न होने के लिए राजी करने की अपनी नीति में सफलता मिली जिसकी पृष्टभूमि का निर्माण अलीगढ़ आंदोलन तथा शिमला प्रतिनिधिमंडल के "अंग्रेजी आज्ञानुसार प्रदर्शन और मांग" ने पहले ही कर रखा था। 

इस प्रकार राष्ट्रीय एकता की दिशा में एक और कदम का बढ़ना रूक गया। वायसराय से मिलने के तुरन्त बाद शिमला प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने अपना पृथक कार्यक्रम बनाने के लिए आपस में परामर्श किया। आगा खां ने अपने संस्मरणों में लिखा है, "उनके लिए एकमात्र आशा इसी में थी कि वे स्वतंत्र राजनैतिक मान्यता और कार्यकलाप की राह पर चल पड़ते और ब्रिटिश सरकार से राष्ट्र के अंतर्गत स्वीकृति प्राप्त करते।"

परिणामस्वरूप जब दिसंबर 1906 में मोहम्मडन एजुकेशनल कांफ्रेंस की बैठक हुई तो नवाब सलीमुल्लाह ने मुसलमान नेताओं को ढाका में आमंत्रित किया। उनकी बैठक वकारूल मुल्क की अध्यक्षता में हुई जिन्होंने उर्दू में भाषण देते हुए मुसलमानों का एक पृथक संगठन बनाने को उचित बताया। उन्होंने कहा :

 "जब तक मुस्लिम बहुमत, जो अपनी एक समय की उंची स्थिति से गिर गया है, एक दूसरे का समर्थन करने और भारत सरकार के प्रति वफ़ादारी की एकसूत्रता में बंध कर चलने का निश्चय नहीं करता, तब तक वह खतरा बना रहेगा कि हिन्दुओं की बाढ़ उसे डुबो दे।"

नए संगठन के निर्माण के लिए प्रस्ताव सलीमुल्लाह ने रखा और हकीम अजमल खां ने उसका अनुमोदन किया। उसका नाम रखा गया आल इंडियन मुस्लिम लीग ।

                       मुस्लिम लीग का उद्देश्य

30 दिसम्बर, 1906 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का विधिवत् उद्घाटन किया गया। तथा इसके उद्देश्यों की व्याख्या इस प्रकार से की गई :-

(i) भारतीय मुसलमानों में अंग्रेजी सरकार के प्रति राजभक्ति की भावना को प्रोत्साहित करना तथा यदि सरकार के प्रति कोई गलत धारणा उठे तो उसे दूर करना।

(ii) भारतीय मुसलमानों के राजनीतिक तथा अन्य अधिकारों की रक्षा करना तथा उनकी आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं को मर्यादापूर्ण शब्दों में सरकार के सन्मुख रखना।

(iii) उद्देश्य (i) तथा (ii) को ध्यान में रखते हुए यथासम्भव मुसलमानों तथा अन्य भारतीय सम्प्रदायों के बीच सद्भाव बढ़ाना ।

तो इस प्रकार हम देखते हैं कि आरम्भ से ही लीग एक साम्प्रदायिक संगठन था जिसका उद्देश्य केवल मुसलमानों के राजनीतिक तथा अन्य हितों की रक्षा करना था। इसका यह स्वरूप कुछ बदलाओं के साथ 1947 तक बना रहा।

लीग के वास्तविक राजनीतिक उद्देश्य अलीगढ़ में दिए गए नवाब वक्कार उल मुल्क के एक भाषण से स्पष्ट हो जाते हैं । उन्होंने कहा था : “अल्लाह न करे, यदि अंग्रेजी राज्य भारत में समाप्त हो जाए तो हिन्दू हम पर राज्य करेंगे और हमारी जान, माल तथा धर्म खतरे में होगा। मुसलमानों को इस खतरे से बचाने का एक ही उपाय है, वह है, कि वे अंग्रेजी राज्य को बनाए रखने में सहायता करें। यदि मुसलमान पूरे मन से अंग्रेजों के साथ रहेंगे, तो उनका राज्य यहां पूर्ण रूप से बना रहेगा । मुसलमानों को अपने आप को अंग्रेजी सेना समझना चाहिए जो ब्रिटिश क्राउन के लिए अपना रक्त बहाने तथा जीवन अर्पण करने को उद्यत है ।"

                       लीग की स्थापना पर प्रतिक्रिया 

अंग्रेज

लीग की स्थापना की मिश्रित प्रतिक्रियाएं हुईं। अंग्रेज समर्थक अखबारों ने कुल मिलाकर एक ऐसे संगठन के प्रति सहानुभूति व्यक्त की जो “ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी की सुरक्षित और सुदृढ़ चट्टान पर खड़ा किया गया था। 'इंग्लिशमैन' ने आशा व्यक्त की कि "यह संस्था कांग्रेस का प्रभावशाली विकल्प साबित होगी।" 'टाइम्स'  ने उसे कांग्रेस की प्रतितुलनकारी संस्था बताया लेकिन यह संदेह व्यक्त किया कि लीग शांति की राह पर चल सकेगी। 

राष्ट्रवादी

भारतीय राष्ट्रवादी समाचार पत्रों ने मुस्लिम राजनीति में इस घटना को हल्के-फुल्के ढंग से लिया और उसे साम्राज्यशाही कूटनीति की एक और चाल समझा। लीग को भूतपूर्व अधिकारियों, पेंशनयाफ्ता लोगों और सरकारी कृपा पाने के इच्छुक लोगों का एक और कमजोर ढांचा समझा गया जिसे जल्द ढह जाना था।

लीग की संभावना और सरकार की उसे सहायता को कम करके देखने वालों में केवल हिन्दू राष्ट्रवादी ही नहीं थे। स्वतंत्रताप्रिय ब्रिटिश विरोधी उलेमाओं ने भी ऐसे ही गलत अंदाज लगाए। अपने समय के एक चोटी के विद्वान और आजमगढ़ में एक अकादमी तथा संस्था कायम करने वाले शिबली नोमानी भी, जो आरंभिक जीवन में अलीगढ़ में सैयद अहमद खां के सहयोगी रह चुके थे, लीग के सदस्यों की पूर्ण वफादारी की घोषणा से भ्रम में पड़ गए और उसकी ईमानदारी पर शक करते हुए उन्होंने निम्नलिखित शब्दों में उसकी आलोचना की :

"आज़ादीए ख्याल पे तुमको है गरूर, 
तो लीग को भी शाने गुलामी पे नाज है। 
मुख्तसर उसके फजायल कोई पूछे तो ये हैं 
मुहसिने कौम भी है खादिमें हुक्काम भी है।"

जो भी हो निश्चित तौर पर राष्ट्रवादियों की इस मूल्यांकन में राजनैतिक यथार्थता की समझ और अंतर्दृष्टि का अभाव तो था ही, इससे मुसलमानों के उस प्रभावशाली समूह की भावना को भी चोट पहुंची जिसे सरकार का समर्थन प्राप्त था।

सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

Act of 1909

                          

Agitated by the unethical actions of the British administration, the Congress started raising its voice. However, according to the policy of divide and rule, the government of Lord Curzon partitioned Bengal on communal basis, which was the culmination of its strategy. This did not stop the movement, but intensified, and this explosive situation forced Curzon's successor, Marley Minto, to unite the Muslims and any one party of the Congress (moderate or extremist) with him, to appease the Indian public through constitutional reforms. Please satisfy So this is how Marley Minto's reform came. Marley wrote about the risk of these reforms that this reform might not save the kingdom, but if it could not, no one else could. At this time the Viceroy was Lord Minto and the India Secretary was 'John Morley'.

Key Provisions

1. For the first time, the principle of electing some members of the legislature was accepted in India and Indian members were first included in the executive council of the Viceroy of India and two Indians K.C. Gupta and Syed Hussain Wilgrami were appointed to the Council of India in England. .

2. Separate representation and voting arrangements were made for Muslims by applying the principle of communal suffrage in this act.

On the basis of representation, the election system was implemented in the Legislative Council and 3 types of electoral boards were created.

I- General Electoral  II- Special Electoral  III- Class Special Electoral

4. The size and power of the Central and Provincial Legislatures were increased. The number of members of the Legislative Council was increased to 69, in which 37 were official and 32 non-official members, out of these 37 members, 27 were elected and 5 were nominated.

5. Bombay and United Provinces had 47 members in the Provincial Council, 25 in Punjab, 52 in Bengal and 30 additional members in other small provinces.

6. The members of the council were given the right to discuss the budget and question it. But these arrangements were for special persons.

7. For the first time in the Council of Viceroy, an Indian 'S.P.Sinha' was made legal advisor.

8. Members were given the power to move motions though the Speaker could refuse to do so.

9. In the Legislative Councils, the members were given the power to discuss all other public interest subjects, except such subjects, which may disturb the relations of the government with foreign powers or with the Indian princes or which are before the courts. .

10. By this act the number of members in the executive councils of Bombay, Calcutta, Bengal, and Madras was increased to 4.

Shortcoming :

These reforms also created some new problems in Indian politics. These problems were two-pronged.

British point of view

Although Lord Marley tried to make it clear that self-rule is not suitable for India, therefore he was completely against establishing a parliamentary or responsible government in India. In fact he gave an unequivocal disclaimer saying "If it is said that by this chapter of reforms a parliamentary system can be indirectly established in India, at least I am not concerned with it." Nevertheless, suffrage, electoral politics and access of Indians to elite institutions in India triggered concerns for the stability of the British.

From Indian point of view

One such problem was that of separate electoral and constituencies for Muslims. As Pandit Jawaharlal Nehru put it, "It created a political resistance around them that cut them off from the rest of India, completely reversing all efforts towards unity and reconciliation that had begun over the centuries... In the beginning these resistances were small because the electorate was small but as the franchise went on increasing it polluted the whole atmosphere of the political and social circle, like a disease which affects the whole body. The Muslims were not only given separate community representation for their political importance, but for their services to the Empire they were given representation far in excess of their numbers. The matter did not end here. Other religious units in the country followed suit. How could they tolerate injustice? Some of them claimed to do 'greater service to the Empire' and yet they did not get any special concession. Thus the Sikhs agitated for their rights and in 1919 they were also given special privileges. Got representation. It's a green signal for other castes as well. Thus Harijans, Indian Christians, Europeans and Anglo-Indians also got separate representation as per the 1935 Act. The people who had been living together for centuries and in which the feeling of national unity was being formed, ended in one go. Mahatma Gandhi also said the same thing that Minto-Morley reforms have ruined us. According to KM Munshi, "He killed the emerging democracy." The Indian Constitutional Reforms Report published in 1918 said, “This (separate electorate) is against the teaching of history. It perpetuates religions and classes giving rise to camps which are conflicting with each other and encourage them to become biased rather than giving them the power to think as a citizen. This allows the existing conditions to remain unchanged and hinders the development of the principles of self-government." It's going to be awful."

Thus the process of both independence and partition of India started with the act of 1909.

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

1909 का अधिनियम

           

अंग्रेजी प्रशासन के अनैतिक कार्यों से आन्दोलित कांग्रेस ने आवाज उठानी प्रारम्भ कर दी। हालाँकि लार्ड कर्जन की सरकार ने बाँटो और राज्य करो की नीति के अनुसार साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया, जो उसके कार्यनीति की चरम परिणिति थी। इससे आन्दोलन रुका नहीं, बल्कि तीव्र हो गया और इस विस्फोटक स्थिति ने कर्जन के उत्तराधिकारी मार्ले मिन्टो को विवश कर दिया कि वह मुसलमानों तथा कांग्रेस के किसी एक दल (नरम अथवा गरम दल) को अपने साथ मिलाते हुए संवैधानिक सुधारों के द्वारा भारतीय जनमानस को संतुष्ट करे। अतः इस प्रकार मालें मिन्टो का सुधार आया। मारले ने इन सुधारों के जोखिम के बारे में लिखा कि यह सुधार संभवतः राज की रक्षा न कर सके, परन्तु यदि यह न कर सका तो कोई अन्य भी नहीं कर सकेगा। इस समय वायसराय लार्ड मिन्टो तथा भारत सचिव 'जॉन मॉरले' थे।

प्रमुख प्रावधान

1.    प्रथम बार भारत में विधायिका के कुछ सदस्यों के निर्वाचन सिद्धान्त को स्वीकार किया और भारत के वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् में सर्वप्रथम भारतीय सदस्यों को शामिल किया गया तथा दो भारतीय के० सी० गुप्ता एवं सैयद हुसैन विलग्रामी को इंग्लैण्ड की भारत परिषद् में नियुक्त किया गया।

2.    इस अधिनियम में साम्प्रदायिक मताधिकार का सिद्धान्त लागू करके मुस्लिमों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व तथा मतदान की व्यवस्था की गई ।

3.    प्रतिनिधित्व के आधार पर विधान परिषद् में निर्वाचन प्रणाली लागू हुई तथा 3 प्रकार के निर्वाचक मण्डल बनाए गए।

I- साधारण निर्वाचक मण्डल II- विशेष निर्वाचक मण्डल III- वर्ग विशेष निर्वाचक मण्डल

4.     केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान मण्डलों का आकार तथा शक्ति बढ़ा दी गई। विधान परिषद् की सदस्य संख्या 69 की गई, जिसमें 37 शासकीय तथा 32 गैर सरकारी सदस्य इन 37 सदस्यों में 27 निर्वाचित तथा 5 मनोनीत होते थे। थे!

5.     प्रान्तीय परिषद् में बम्बई तथा संयुक्त प्रान्त में 47, पंजाब में 25, बंगाल में 52, अन्य छोटे प्रान्तों में अतिरिक्त सदस्य संख्या 30 कर दी गई।

6.     परिषद् के सदस्यों को बजट विवेचना तथा उस पर प्रश्न करने का अधिकार दे दिया गया। परन्तु यह व्यवस्था विशिष्ट व्यक्तियों के लिए थे।

7.     वायसराय के परिषद् में पहली बार किसी भारतीय 'एस० पी० सिन्हा' को विधिक सलाहकार बनाया गया।

8.    सदस्यों को प्रस्ताव प्रस्तुत करने की शक्ति दी गई यद्यपि अध्यक्ष इसके लिए इनकार कर सकता था।

9.    विधायी कौंसिलों में ऐसे विषय के अतिरिक्त, जिनसे सरकार के सम्बन्ध विदेशी शक्तियों से ख़राब होते हों या भारतीय राजाओं से ख़राब होते हों या जो विषय न्यायालयों के समक्ष हों, शेष सभी सार्वजनिक हित के विषयों पर सदस्यों को चर्चा करने की शक्ति दी गई।

10.  इस अधिनियम द्वारा बम्बई, कलकत्ता, बंगाल, और मद्रास की कार्यकारिणी कौंसिलों में सदस्यों की संख्या बढाकर 4 कर दी गई।

दोष :

इन सुधारों ने भारतीय राजनीति में कुछ नई समस्याएं भी उत्पन्न कीं। यह समस्याएं दोतरफा थीं –

ब्रिटिश नज़र से  -

हालाँकि लार्ड मारले ने यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि स्व शासन भारत के लिए उपयुक्त नहीं है इसलिए वह भारत में संसदीय अथवा उत्तरदायी सरकार स्थापित करने के पूर्णतया विरुद्ध था। वास्तव में उसने एक निरपवाद प्रत्याख्यापन दे दिया था जिसमें यह कहा गया था "यदि यह कहा जाय कि सुधारों के इस अध्याय द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से भारत में संसदीय प्रणाली स्थापित की जा सकती है तो कम से कम मेरा इससे कोई सम्बन्ध नहीं है।" फिर भी भारत में मताधिकार, चुनावी राजनीति और विशिष्ट संस्थाओं तक भारतीयों की पहुँच ने अंग्रेजों के स्थायित्व के लिए चिंता की शुरुआत कर दी।

भारतीय नज़र से -

एक ऐसी समस्या मुसलमानों के लिए पृथक मताधिकार नथा निर्वाचन क्षेत्रों की थी। जैसा कि पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, "इससे उनके चारों ओर एक राजनीतिक प्रतिरोध बन गए जिन्होंने उन्हें शेष भारत से अलग कर दिया जिससे शताब्दियों से आरम्भ हुए एकत्व तथा मिलने की ओर किए गए सभी प्रयत्न पूर्ण रूप से बदल दिए गए।...आरम्भ में ये प्रतिरोध छोटे-छोटे थे क्योंकि चुनाव मण्डल छोटे-छोटे थे परन्तु ज्यों-ज्यों मताधिकार बढ़ता चला गया इससे राजनीतिक तथा सामाजिक मण्डल का समस्त वातावरण दूषित हो गया, एक ऐसे रोग की नाई जो समस्त शरीर को प्रभावित कर देता है। उनके राजनीतिक महत्त्व के लिए मुसलमानों को न केवल पृथक सामुदायिक प्रतिनिधित्व ही दिया गया, अपितु उनकी साम्राज्य के प्रति सेवाओं के लिए उन्हें अपनी संख्या से कहीं अधिक प्रतिनिधित्व दे दिया गया। बात यहां पर भी समाप्त नहीं होती थी। देश में अन्य धार्मिक इकाइयां इस अन्याय को कैसे सहन कर सकती थीं। इनमें से कुछ ने 'साम्राज्य की अधिक अच्छी सेवा' करने का दावा किया और फिर भी उन्हें कुछ विशेष रियायत नहीं मिली थी। इस प्रकार सिक्खों ने अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन किया और 1919 में उन्हें भी विशेष प्रतिनिधित्व मिल गया। यह अन्य जातियों के लिए भी हरी झण्डी थी। इस प्रकार हरिजनों, भारतीय ईसाइयों, यूरोपियों तथा ऐंग्लोइण्डियनों को भी 1935 के अधिनियम के अनुसार पृथक प्रतिनिधित्व प्राप्त हो गया। शताब्दियों से जो लोग सम्मिलित रूप से रह रहे थे और जिनमें राष्ट्रीय एकता की भावना बन रही थी वह एक ही बार में समाप्त हो गयी। महात्मा गांधी ने भी यही कहा था कि मिण्टो-मॉर्ले सुधारों ने हमारा सर्वनाश कर दिया। के० एम० मुन्शी के अनुसार, "इन्होंने उभरते हुए प्रजातन्त्र को जान से मार डाला ।" 1918 में प्रकाशित हुई भारतीय संवैधानिक सुधारों की रिपोर्ट में कहा गया था, “यह (पृथक चुनाव मण्डल) इतिहास की शिक्षा के विरुद्ध है। यह धर्मों तथा वर्गों को जीवित रखता है जिससे ऐसे शिविर अस्तित्व में आते हैं जो परस्पर-विरोधी होते हैं और उन्हें एक नागरिक के रूप में सोचने की शक्ति प्रदान नहीं करते अपितु पक्षपाती बनने को प्रोत्साहित करते हैं। इससे विद्यमान परिस्थितियों को अपरिवर्तित रहने का अवसर मिलता है और स्वशासन के सिद्धान्तों के विकास होने में रुकावट आई है।" लॉर्ड मॉरले ने सत्य लॉर्ड मिण्टो को लिखा था, कि पृथक निर्वाचन मण्डल स्थापित करके “हम नाग के दान्त बो रहे हैं और इसका परिणाम भीषण होगा।"

इस प्रकार 1909 के अधिनियम से भारत की स्वतंत्रता तथा विभाजन दोनों की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई।

Reasons for the growth of Muslim communalism in India



What is communalism?

Communalism means for a community, for Indians it means the social and religious barriers between Hindus and Muslims which have hindered India from building a harmonious nation. Out of communalism grew communal politics and out of that grew more communalism. The culmination of which was seen in the form of communal violence and partition of India.

It is very difficult to attribute any one reason to the growth of communalism in India. Different scholars have tried to make different elements and circumstances more or less responsible according to their own predilections. The different reasons that have been given can be divided into two main parts – 

 Muslim Communalism: A Legacy of India's Social Background

1. Two nation theory

Some scholars argue that India was never a nation, but was merely a community of different castes and societies, and that Hindu-Muslim interaction was "a clash of two civilizations whose languages, literary bases, ideas of education And the philosophical sources were all different.” Moreover, the religious and social differences between the two societies were so sharp and fundamental that even after living side by side for seven hundred years, they did not diminish in any way.

2. 'Economic backwardness' of Muslims

Marxist scholars have attributed this to the 'economic backwardness' of Muslims and the 'delay in the emergence of the middle class'. The new Muslim intellectuals and the upper class saw that business, finance and government posts were all monopolized by the Hindus. To protect their class interests, the Muslim intellectuals gave a communal twist to the Muslim awakening and demanded separate constituencies, representation and reservation in posts. Since economic questions are basic questions, the exploiting class misled the public and gave their frustration the form of communal expression.

3. Lack of modernity and fear among Muslims

Nehru considered communalism to be a middle class question and he attributed it to the 'lack of modernity' among Hindus and Muslims. According to him, there was a difference of a 'generation' or more in the emergence of Hindu and Muslim middle classes and these differences are manifesting themselves in political, economic and other aspects. It is this difference which psychologically creates fear among Muslims."

4. Theory of Elite class struggle

Some western scholars have told communalism to be the cause of conflict between specific classes in a multi-class society. They consider communalism to be the same as communal politics. According to him, the basic conflict was not between the Hindu and the Muslim societies, but between the rival elite class in both the religions who had become greedy for power.

5. Religious reformist movement

It has been said that the emergence of communalism was inevitable in the Hindu and Muslim reform movements of the 19th century. Wahhabis' crusade against all non-Muslims, so that Darul Islam could be established in the world, was as hateful to Hindus as Swami Dayanand ji's saying, "Purify non-Hindus and make the whole world Aryan", Muslims Even Viveka-Nanda's reference to ancient Indian achievements and saying that this is the real Indian spirit was unacceptable to Muslims because they often looked to the history of West Asia for their tradition and identity. .

6. Use of religious symbols in the national movement

Some scholars criticize their national leaders for using religious proverbs and symbols in their writings and speeches. For example, these people started calling people like Maharana Pratap, Shivaji and Guru Govind Singh as national heroes and Muslim rulers like Akbar, Shah Jahan as foreigners. This created some resentment in the Muslim mind. Similarly, the national symbols mentioned by Gandhiji in his speeches were mostly taken from Hindu sources. He often used the word 'Ram Rajya' for the best and ideal administration.

      Muslim Communalism: A Gift/Result of British Colonialism

1. Theory of communal triangle

Some writers presented the theory of communal triangle and said that between Hindus and Muslims the British rulers introduced themselves and made a triangle whose main base was themselves. Emphasis has been placed on the fact that the imperialist rulers promoted communal disunity through official machinations and manipulations as this fit in with their famous dictum "Divide and rule". The British called the victory of the Battle of Plassey the Plassey Revolution and claimed that they had freed the Hindus from the slavery of the Muslims. But he was deeply disappointed with the Hindu-Muslim unity of 1857, and Hunter, in 1871, wrote a book called Indian Muslmans, enumerating the benefits of separation of Muslims from Hindus. The Aligarh Movement and the Muslim League were encouraged by the British to divide the Indians.

2. Constitutional System

Some scholars have attributed this to the constitutional changes taking place in the Indian structure and its profound effects on communal politics. Ever since the introduction of such a representation system in which numbers mattered, the process of polar division started in the country, especially in a country where many religions were prevalent. Thus the introduction of separate electorates by the Mitto-Morley reforms in 1909 and the spread of the same system by the Government of India Acts of 1919 and 1935 encouraged communal feelings.

3. Historiography of India

Anglo-Indian writers of history tried to read or write Indian history and culture from Hindu and Muslim point of view. Indian scholars also followed this, which encouraged communal thinking. For example, ancient Indian history was termed as 'Hindu era' and medieval Indian history as 'Muslim era' and the period of modern India as 'British India', violating all the norms of history, it was explained that in all medieval history, religious politics was the only guiding factor. In this way one past of India was separated from the other past.

4. Use of protection of government posts

After the destruction of Indian industry and trade, the government was the biggest employer, where educated Indians could get positions to earn their living. This great patronage in military and civilian positions was used by the ruling class to promote communalism. Our national leaders were well aware of the harmful effects of this temptation, but they were powerless before the question of hunger.

There is definitely some grain of truth in all these interpretations. The form of the communal question kept changing according to the circumstances of the time and the new political conditions. In this way, none of the above-mentioned reasons can be called the basic or fundamental reason. But all these had a cumulative effect which gave rise to multifaceted communalism.

व्यावसायिक क्रांति का महत्त्व

व्यावसायिक क्रांति, जो 11वीं से 18वीं शताब्दी तक फैली थी, यूरोप और पूरी दुनिया के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में अत्यंत म...