सोमवार, 27 जनवरी 2020

पुस्तक समीक्षा : 'इस बार तेरे शहर में(2018)' और  'अक्टूबर उस साल(2019)

वर्तमान कविता जटिल जगत की यथार्थता तथा मानव की अनुभूतिजन्य आवश्यकता के मध्य संघर्ष कर रही है। त्रासदीपूर्ण विडंबना के दौर में अपने पक्ष में खड़ा व्यक्ति सामाजिक संबंधों, अपने जीवन और साहित्य को लहूलुहान कर रहा है। ऐसे में कुछ कविताएं मूल्यों की रक्षा के लिए संजीवनी दे रही है तथा संबंधों को सहज बनाने का प्रयास कर रही है। वर्तमान युग के भाव बोध को समझने और रंजीत करने की क्षमता जिन कवियों में नजर आती है उनमें से एक युवा कवि मनीष हैं।

हाल ही में उनकी दो रचनाएं 'इस बार तेरे शहर में(2018)' और  'अक्टूबर उस साल(2019)' प्रकाशित हुई हैं। दोनों रचना संग्रह भाव प्रवणता, विषय वैविध्य तथा प्रस्तुति योजना और शब्द शक्ति की दृष्टि से प्रशंसनीय हैं। इनमें जटिल यथार्थ को समेटने की शक्ति भी दिखाई पड़ती है।

'कविताओं के शब्द' कविता में कविता की भाषा के संवर्धन के महत्व व कवि की इस संदर्भ में दृष्टि स्पष्ट है। कवि काव्य की भाषा की उपयोगिता तथा संवेदनशीलता से भलीभांति परिचित है। स्त्री-पुरूष के यांत्रिक समानता के स्थान पर यथोचित समता व व्यक्तिनिष्ठता को महत्त्व दे कर स्त्रीत्व को पढ़ा गया है। 'दुबली-पतली और उजली-सी लड़की' 'उसका मन'  'उसके संकल्पों का संगीत' 'तुम जो सुलझाती हो' यह निर्मला पुतुल के पठन के आग्रह को पूरा करने का प्रयास नज़र आता है कि (तन के भूगोल से परे, स्त्री के मन की गाँठे खोल कर, पढ़ा है कभी तुमने उसके भीतर का खौलता इतिहास..)।

युवाकवि मनीष की दोनों रचनाओं में स्त्री-पुरूष संबंधों की जटिलता तथा उसके उलझे सूत्रों को स्पर्श किया गया है। प्रेम और आकर्षण के कार्यव्यापार में उद्दीपन व प्रतिकर्षण के पहलू प्रकाशित होते हैं। 'तुम्हारे ही पास' 'तृषिता' 'कही अनकही' 'चाँदनी पीते हुए' 'गांठो की गठरी' 'बचाना चाहता हूँ' इत्यादि में प्रेम के प्रति जैविक व सामाजिक अंतर को उद्दात्ततापूर्वक परोसा गया है। संबंधो के प्रति 'दूरी की छटपटाहट' तथा 'निकटता के अनछुएपन' को आत्मीयतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है। 'मैं नहीं चाहता था' में प्रेम के कलंकित विजय व गौरवपूर्ण पराजय को व्यंजित किया गया है। कई स्थानों पर प्रेम श्रद्धा के स्तर को छूता प्रतीत होता है। अस्तित्व की क्षणिकता व जीवन की नश्वरता में भावों व अनुभूति की शाश्वतता को कवि..'कि तुम जरूर रहना' में उकेरने का सार्थक प्रयास करता है। 'अनगिनत मेरी प्रार्थनाएं' 'चाय का कप' में कवि संबंधों की बुनियाद व उसके कोमलता व कांतता को प्रतिष्ठित करता है। 'कही-अनकही' में व्यक्तित्व की भिन्नता के बावजूद स्नेहशक्ति से दृढ़बंधित मनुष्य की विनम्र अपेक्षा झलकती है।

आधुनिक जीवन की जटिलताओं में प्रमुख है एक साथ कई भूमिकाओं को निभाना या उसमें अनुकूलतम उपलब्धि प्राप्त कर लेना, कवि मनीष में 'मौन प्रार्थना के साथ' निष्पक्षतापूर्वक इसे समेटने और पाठकों में सहृदयता भर देने की प्रखर क्षमता है। सामाजिक अलोचनापरकता तथा व्यक्ति का इसमें उलझाव चिन्तनीय है जो रचना संग्रह में कई बार उभर कर सामने आता है। आधुनिक जीवन का अजनबीपन, विसंगति बोध व रिक्त हृदय के त्रास में कवि ने 'रिक्त स्थानों की पूर्ति' जैसी रचनाएं भी हैं।

मनीष जी की कई रचनाओं में स्त्री सौंदर्यबोध व प्रेमदृष्टि छायावादी प्रतीत होती है विशेषकर पंत जी काव्य जैसी - (सरल भौहों में था आकाश, हास में शैशव का संसार..)। स्निग्ध कोमल गात वर्णन व भावप्रवणता का स्तर मात्रात्मक दृष्टि से निःसन्देह कम होते हुए भी समान है परंतु ध्यातव्य है कि 'जीवनराग' जैसी कुछेक कविताओं को छोड़ दे तो आभिजात्यता की जगह मानक भाषा ही मिलती है। यह श्रद्धामूलक झुकाव 'सवालों में बंधी' 'प्यार के किस्सों में' तथा 'जीवन यात्रा' में भावनात्मक पदचिह्न छोड़ता चला जाता है।

अच्छा बिस्तर नींद की गारंटी नहीं है न ही धन सुख का है। कवि कई दैनिक जीवन की वस्तुओं जैसे 'कैमरा' से याद 'पेन' द्वारा नवीनता तथा 'विजिटिंग कार्ड' द्वारा मतलबी संबंधों पर व्यंग्य करते हैं।

आधुनिक साहित्य पर्यावरण चिंताओं व सतर्कतावों से भरा चिंतन बन गया है परन्तु 'हे देवभूमि' व 'वह गीली चिड़िया' में पर्यावरण भावभूमि पर समांगीकरण का प्रयास करता है। 'अक्टूबर उस साल में' कई कविताएं जैसे 'मतवाला करुणामय पावस' 'बसंत का ख़ाब क़बीला' में प्रकृति वर्णन व आयामगत विविधता की दृष्टि से श्रेष्ठ है। 'भूली-भूली जनश्रुतियों ने' में भी प्रकृति के प्रतीक बंद प्रतीत नहीं होते हैं।

अधिकांश कवियों के आरंभिक संग्रहों में स्वच्छंद भाववमन अधिक प्रदर्शित होता है परन्तु मनीष जी के संग्रह इससे भिन्न हैं जहाँ सहज भावनाओं का उच्छलन है। बावजूद इसके इसमें भाषाई साफगोई, तार्किकता व अनुभूति की विशिष्टता साहित्यिक संस्कारों से युक्त बना देती है जैसे 'जब कोई किसी को याद करता है' 'जीवन के तीस बसंत', 'तुम मिलती तो बताता', 'यह पीला स्वेटर', 'कच्चे से इश्क' आदि। प्रेम में अस्तित्व की अंतर्निर्भरता जो विलय तक पहुंचती है कहीं-कहीं अचानक प्रखर हो उठती है जैसे 'हे मेरी तुम' रचना में हुई है।

इन काव्य संग्रहों में अन्तर्जगत की सिक्तता, मरुता और ग्रंथियाँ लंबे प्रवास पर निकल चुकी प्रतीत होती है। 'आज मेरे अंदर की रुकी हुई नदी' 'विकलता के स्वप्न' 'कृतघ्न यातना' में कवि के उद्वेलन व संघर्ष के ताने-बाने बनते बिगड़ते गतिमान है।

मानवीय संबंधों की अनुभूत चेतना कई कविताओं में सहजता पूर्वक प्रवाहित होती गई है जो पाठकों के लिए कथ्य व कथन के अंतराल की नगण्यता के कारण अतिग्राह्य है, 'मुझे आदत थी' व 'उस साल अक्टूबर' जैसी कविताएं इस दिशा में आगे ले जाती है।

कवि कलाकार होता है यह रंगरेज़ पाठकों के हृदय पृष्ठ पर शब्द तूलिका से मर्मस्पर्शी चित्र बनाता है। मनीष जी जैसा कवि हो और विषय बनारस जैसा शहर हो तो बस कहना ही क्या ?  लगता है जैसे 'इस बार तेरे शहर में' 'बनारस के घाट' देख ही आएं क्या' ? 'लंकेटिंग' फीलिंग भला कविताओं में कहाँ तक समाए ? बहरहाल 'अयोध्या' और 'मणिकर्णिका' जैसी कविताएं पाठकों में जीवनमूल्यों के प्रति यह गहरी समझ विकसित करती है की जीवन नश्वर है और परंपरा का प्रवाह शाश्वत है।

हिन्दी प्रदेश में भाषाई क्षेत्रवाद की स्थिति विचित्र है यह एक साथ जोड़ती व बाँटती है। 'मैंने कुछ गालियाँ सीखी है' में रचनाकार ने पाठकों को इस स्थिति में डाल दिया है जहाँ वह यथेष्ट की तलाश में बेचैन हो उठता है। भाषाई गालियाँ तेजी से प्रतिनिधि वाक्य बनती जा रही हैं तथा भाषाई तमीज़ हाशिए पर लटक रही है।

वर्तमान काव्य प्रवृत्तियों में प्रमुख है उत्तर छायावाद जहाँ मानव जीवन में असंगति बढ़ी है तथा गुंथे हुए यथार्थ को पकड़ने की सतर्कता काव्य में भी विद्यमान है। 'आत्मीयता' में स्थिर मान्यताओं से जुड़ा धोखा उद्घाटित होता है। कवि मनीष ने स्थितप्रज्ञ हो इस चुनौती को स्वीकार किया है। भावना व संवेदना भी बाज़ारवाद से बच नहीं सकी है तथा यह भी समय व वज़न के घेरे में आ गया है- 'स्थगित संवेदनाएं' में कवि ने त्रासद मानवीय स्थिति को व्यंजित किया है। कवि हृदय की आत्मीयता व प्रेम रिश्तों की गरमाहट 'वो संतरा' जैसी कविताओं में दिखाई देती हैं जहाँ आत्मपरकता तथा अभिव्यंजनात्मकता दोनों ही प्रखर हैं।

वाह्य व आंतरिक स्थिति लगातर सुसंगत होने तथा एकात्मकता का आनंद उठाने के बारे में कविताओं विशेषकर 'अक्टूबर उस साल' संग्रह तथा कविता 'वह साल वह अक्टूबर' में उत्कृष्ट स्तर को प्राप्त करती है। जो शब्द चयन में सटीकता, संगीतात्मकता तथा वातावरण की गतिशीलता पाठकों को आकर्षित करती है। ऋतु सौंदर्य व मौसमी बहार साहित्य के लिए लम्बे समय से कच्चा माल रहा है परन्तु यहां यह भावों के साथ आंदोलित होता है।

स्त्री-पुरुष प्रेम व्यापार इन रचना संग्रहों में पाठकों को अधिक संस्कारित करता है तथा प्रतिशोध आधारित त्रुटि की संभावना को कम करता है। 'बहुत कठिन होता है' में कवि प्रेम के यथार्थ बिम्ब को प्रस्तुत करता है जहाँ एकान्तिक ठहराव मिलता है।

परिवर्तन ही शाश्वत है, हर पीढ़ी अपने संक्रमण तथा उसकी पीड़ा को लेकर सजग, उत्सुक पर शिकायती रही है। 'कुछ उदास परम्पराएं' में परम्पराओं से विचलन तथा नई व्यवस्था के साथ सामंजस्य की कमी दिखाई पड़ती है।

भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक मान्य माध्यम है लेकिन इसमें भाषाई आवरण में अपने मंतव्य छिपा लेना तथा कलात्मकता का दुरूपयोग भी नया नहीं है,। भाषा कई बार विनम्रतापूर्वक अन्याय को पोषित करती है तथा उस पर प्रश्न नहीं खड़ा करती परंतु कवि भाषा के लिबास में अभिव्यक्ति की सुगमता तथा खतरे से भिज्ञ है जैसे (दरख्तों को, कुल्हाड़ी के नाखूनों पर भरोसा है)।

सभ्यता के इतिहास में अन्याय आधारित प्रथाओं को उद्दात प्रभाव प्रदान किया गया है, इसके परतों को उधेड़ना साहित्य का कर्तव्य है। कवि मनीष कई कविताओं में इस दिशा में प्रगतिशील प्रतीत होते हैं। वर्जनाओं व सीमाओं की लकीर पर गुणा-गणित करने के बजाए इसके औचित्य पर तार्किक विचार करते हैं। साहित्य में सत्य की पड़ताल की दीर्घ परंपरा रही है, कवि मनीष ने दर्शन के वैचारिक वाद -विवाद की जगह अनुभूतिजन्य सत्य को अधिक समीचीन माना है। 'इतिहास मेरे साथ' कविता में सत्य के प्रति समझौता हो जाने की संभावना को उदघाटित किया गया है। 'गंभीर चिंताओं की परिधि में' कवि ने वैयक्तिक चेतना को साध्य माना है। वे मनुष्य और समाज को प्रयोग शाला बना देने के पक्षधर नही हैं। 

‌'अक्टूबर उस साल' की कुछ रचनाएं भविष्य में नारा बन जाने की संभावनाओं से युक्त हैं। समाज की लंबी कुलबुलाहट के बाद दबी चेतना को जैसे ही अभिव्यक्ति मिलती है वह समाज द्वारा हाथों-हाथ ली जाती है। ऐसा दुष्यंत कुमार की रचनाओं में सिद्ध भी हो चुका है। कवि मनीष जी की रचनाओं में 'यूं तो संकीर्णताओं को'(वहन कर रहा हूं), 'दौर-ए-निजाम' जैसी कविताएंं वर्तमान विडम्बनापूर्ण सामाजिक  स्थिति पर सटीकता से जनता का पक्ष रखती हैं तथा बाजार व सत्ता के कुचक्र में निस्सहाय व्यक्ति के सामग्री या दर्शक बन जाने की अभिशप्तता को उचित रूप में रखती हैं।

सिद्ध बहुरूपिये भूमण्डलीय बाज़ार ने व्यक्ति की इच्छाओं,वासनाओं व सुगमताओं को अधिक कठोरतापूर्वक परिभाषित कर लिया है, तंत्र द्वारा अव्यवस्था के प्रति व्यक्ति की सहनशीलता की सीमा को बढ़ा दिया गया है। तंत्र की जटिलता व अन्यायपरकता को समझते हुए भी व्यक्ति अभिशप्त है। इन संग्रहों में न्यूनतम शब्दों में अनुभव व चिंतन सहजतापूर्वक व्यक्त हुआ है। उर्दू,फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग लोक प्रचलन के अनुपात में ही प्रयोग किया गया है। अर्थों के स्तर पर पर लय व तुकों का सृजनात्मक रूप उभर कर सामने आया है। बहुअर्थी प्रतीक और उपमानों की ताज़गी रचना संग्रह की आकर्षक विशेषता है। अलक्षित, संश्लिष्ट व गतिशील बिम्बों का प्रयोग हुआ है जो सामग्री की ताज़गी बरकरार रखती है।

राजीव कुमार पाण्डेय

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

शिक्षा : परिवर्तन शाश्वत है..

मानव अभूतपूर्व क्रांति का सामना कर रहा है, हमारी सभी पुरानी रचनायें टूट रही हैं, और उन्हें बदलने के लिए अब तक कोई नई रचना उभरी नहीं है। सवाल है कि हम खुद को और हमारे बच्चों को ऐसे अभूतपूर्व परिवर्तनों और कट्टरपंथी अनिश्चितताओं की दुनिया के लिए कैसे तैयार कर सकते हैं ? उस बच्चे को क्या सिखाया जाना चाहिए जो अब के बाद की दुनिया में उसे जीवित रहने और विकसित करने में मदद करेगा ? कुछ पाने के लिए उसे किस तरह के कौशल की आवश्यकता होगी, वह दृष्टि उसे कैसे प्राप्त होगी जिससे वह यह देख सके कि उसके चारों ओर क्या हो रहा है, और जो जीवन की भूलभुलैया पर मार्गदर्शन करे ?

इक्कीसवीं शताब्दी में हमें बड़ी मात्रा में जानकारी मिली है, जो सेंसर तो नहीं है अलबत्ता गलत जानकारी फैलाने या अपरिवर्तनीयताओं के साथ हमें विचलित करने में व्यस्त है । स्मार्टफ़ोन है तो आप हर सूचना से बस एक क्लिक दूर हैं, जो इतने विरोधाभासी हैं कि यह जानना मुश्किल है कि किस पर विश्वास करना है। इसके अलावा, अनगिनत अन्य चीजें भी सिर्फ एक क्लिक दूर हैं, जिसे ध्यान में रखा जा सकता है, जब राजनीति या विज्ञान बहुत जटिल लगते हैं तो यह हमें कुछ मजेदार कुत्ते बिल्लियों की वीडियो, मनोरंजन, सेलिब्रिटी गपशप या पोर्न की तरफ मोह लेता हैं।

ऐसी दुनिया में, एक चीज जिसे एक शिक्षक को अपने विद्यार्थियों को देने की ज़रूरत होगी, वह अधिक सूचना नहीं है। वे पहले से ही बहुत अधिक है। इसके बजाए जरूरत है सूचनाओं के प्रति एक समग्र दृष्टिकोण बनाने की क्षमता विकसित करने की जो अन्तर करना सिखाये और यह समझाए कि दुनिया के व्यापक फलक पर महत्वपूर्ण क्या है और महत्वहीन क्या है। अगर आपको तेज़ चलना है तो आपको हल्का होना होगा।

अगले कुछ दशकों में हम जो निर्णय लेंगे वह जीवन के भविष्य को आकार देगा। यदि हम में बदलाव के प्रति व्यापक दृष्टिकोण की कमी रही तो जीवन का भविष्य जूए से तय किया जाएगा।

रविवार, 18 फ़रवरी 2018

कोलाहल में "हम" और "राज्य"



हिंसा : मिथ्या चेतना नहीं

दादरी लिंचिंग। इसके लिये हमारे यहाँ कोई परिचित शब्द नहीं है। शब्दावली आयोग इसके लिये अबूझ सा "अपहनन" शब्द गढ़ता है। अपहनन बिना किसी व्यवस्थित न्याय प्रक्रिया के अनौपचारिक भीड़ द्वारा दिया गया प्राणदण्ड है। यह सिर्फ हत्या नहीं है। दादरी लिंचिंग की हत्यारी भीड़ के दुष्कृत्य के साथ ही देश में घट रही कुछ अन्य घटनाओं ने हमारे सामाजिक राजनीतिक ताने बाने को झकझोर कर रख दिया है। जहाँ सजग नागरिको में इन घटनाओं को लेकर बेचैनी व्याप्त है वही राष्ट्रपति महोदय भी चिंता ज़ाहिर कर चुके हैं। इन घटनाओं की व्याख्या मात्र साम्प्रदायिकता की मिथ्या चेतना के आधार पर कर के ख़ारिज नहीं किया जा सकता है बल्कि इसके ठोस सामाजिक राजनीतिक पहलू हैं। जहाँ भारत के सबसे बड़े धार्मिक समुदाय में लंबे समय से इकठ्ठा हुए असंतोष को अब हवा मिल रही है वहीँ दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समुदाय में चिंता की लहरे उठाई जा रहीं हैं। परिणाम स्वरुप सामुदायिक शिकायतें समाधान के लिए स्वतंत्र कार्यवाही को अंज़ाम दे रही हैं। इस तरह की कार्यवाही अभिव्यक्ति के सभी रूपों तथा लोकप्रिय माध्यमों में और समाज के हर स्तर पर बढ़ रही है।

चिंता : पंथनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक

अपने तर्कों और समर्थकों के साथ अपने को अल्पसंख्यक कहने वाला देश का दूसरा सबसे बढ़ा धार्मिक समुदाय अभी भी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में पचा नहीं पा रहा है। यही नहीं उसे भारतीय राष्ट्र राज्य की अन्य संस्थाओं से भी बदस्तूर शिकायतें है इसे हम याकूब के प्रकरण से देख सकतें हैं। राज्य की कुछ कार्यवाही, योग को सरकारी प्रोत्साहन, समारोहों, टेलीविजन के सीरियल और सबसे बढ़ कर सत्ता पक्ष से जुड़े लोगों के वक्तव्य इत्यादि भी इनके लिए शक और चिंता के दायरे में हैं। इन्हें लगता है कि भारत का पंथनिरपेक्ष स्वरुप कहीं कमजोर हो रहा है।

असंतोष : पंथनिरपेक्षता और बहुसंख्यक

जो धार्मिक बहुसंख्यक समुदाय है उसके लिए इस तरह की सभी चिंताएं असंतोष का कारण हैं। इन चिंताओ को वह राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल मान रहा है। साथ ही इन्हें भारत की पंथनिरपेक्षता अल्पसंख्यकवाद का ही दूसरा रूप लगता है। यह सेकुलरवाद के लिए पहले हिन्दी में धर्मनिरपेक्षता शब्द लाता है और फिर इसके वर्तमान प्रतिरूप को वह विरोधाभासी घोषित कर के इसे असंभव परियोजना सिद्ध कर देता है। यह अपनी चयनित परंपरा को पंथनिरपेक्षता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति घोषित करता है जिसे वह सर्वधर्मसमभाव कहता है।

नवसाम्प्रदायिकता : धर्म का सेकुलर इस्तेमाल

स्वयम्भू सेकुलर जो अपने लिए अक्सर धर्मनिरपेक्ष शब्द का ही प्रयोग करतें हैं। इनमें से ज्यादातर की फ़ितरत ऐसे उद्देश्यपूर्ण बयान जारी करने की है जिनसे धार्मिक लोगों की भावनाएं आहत हों। चूँकि ये ज्यादा से ज्यादा लोगों को आहत करना चाहतें हैं अतः इनके निशाने पर अधिकत्तर बहुसंख्यक ही होतें हैं। स्वघोषित नास्तिक सेकुलर तो अपने लिये पूरा आसमान खुला रख छोड़ें हैं इनके लक्ष्य पर सभी धार्मिक समुदाय के लोग हैं। ये समाज उत्तेजक लोग मिथ्या चेतना को हक़ीक़त में बदलने की क्षमता रखतें है। यह एक तरह से धर्म का सेकुलर इस्तेमाल है जिसे हम नव साम्प्रदायिकता कह सकतें हैं। यहाँ पर अपवादों को ध्यान में रखना चाहिए।

टेलीविजन और सोशल मिडिया : दुःस्वप्न का अंतहीन प्रवास

टेलीविजन हमारे घरों में सामूहिक दिवा स्वप्न का अंतहीन प्रवास लाता है यह मुद्दो के बारे ठीक ढंग से  सोचने और समझने की हमारी क्षमता में कमी ला देता है। अब हमारा जीवन परदे और मोबाइल स्क्रीन पर दिखने वाले यथार्थ से भिन्न नहीं रहा। सभी तरह की चिन्ता, असंतोष और विवाद को टीआरपी की चाह वाला इलेक्ट्रानिक मिडिया तथा पसंद और नफरती चाह वाला सोशल मिडिया अंतहीन प्रवास पर रखे हुए है।

इतिहास : आविष्कार और राजनीतिक इस्तेमाल

आज हम सब पहले से ज्यादा ''जटिलताओं की सामान्य स्थिति'' में रहने को अभिशप्त हैं, जहाँ पर इतिहास क्या ज्यादातर विज्ञान का सच भी उद्देश्यपूर्ण शब्दों की बाज़ीगरी  है। सभी प्रकार के ज्ञान की खोज सत्ता और प्रभुत्व की राजनीति से सीधे तौर पर जुडी हुई है। इन सब में इतिहास इस बात में अनोखा है की यह सभी को उसकी  जरुरत के अनुसार सामग्री प्रदान करता है। लिखे गए इतिहास से कोई संतुष्ट नहीं है , सभी को इससे शिकायत है। हाँ ! कुछ को तो इतिहास से ही शिकायत है। उपरोक्त तीनो शक्तियां अपनी सामग्री इतिहास अर्जित करतीं है तथा उसकी अपनी उद्देश्यपरक व्याख्या अपने औपनिवेशिक इतिहास की साम्राज्यवादी धारणा से ग्रहण करती हैं।

चरित्र : तार्किक लोग

जब ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करना कठिन हो जाता है तो हम उसे सिद्ध करने की कोशिश करतें हैं और जब पड़ोसी के लिए हमारे दिल में मुहब्बत ख़त्म हो जाती है तो हम खुद को इस कायल करने की कोशिश करतें हैं कि उनसे नफ़रत करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। सभी समुदाय अपनी तर्क क्षमता का प्रयोग एक दूसरे को नीचा दिखाने तथा हराने में कर रहें हैं।

धर्मयोद्धा : धर्महीन चरित्र

आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च समानमेतत्पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
अगर किसी मनुष्य में धार्मिक लक्षण नहीं है और उसकी गतिविधी केवल आहार ग्रहण करने, निंद्रा में,भविष्य के भय में अथवा संतान उत्पत्ति में लिप्त है, वह पशु के समान है क्योकि धर्म ही मनुष्य और पशु में भेद करता हैं| दस लक्षण जो कि धार्मिक मनुष्यों में मिलते हैं वह हैं।
धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ॥
धैर्य न छोड़ना , बिना बदले की भावना के लिए  क्षमा करें ,मन को नियंत्रित करे ,अस्तेयं, विचार, शब्द और कार्य में पवित्रता, इंद्रियों को नियंत्रित कर के स्वतंत्र होना, विवेक जो कि मनुष्य को सही और गलत में अंतर बताता हैं , भौतिक और अध्यात्मिक ज्ञान , जीवन के हर क्षेत्र में सत्य का पालन करना, क्रोध का अभाव क्योंकि क्रोध ही आगे हिंसा का कारण होता हैं। सभी धर्मों के यही मूल लक्षण यही हैं। क्या इनमें से एक भी मुम्बई या दादरी जैसे धर्म योद्धाओं के चरित्र का भाग है।

आयात : संस्कृतियों के बीच संघर्ष

सैमुअल पी हटिंगटन ने अपनी किताब क्लैस ऑफ़ सिविलाइजेशन एंड रिमार्किंग वर्ल्ड ऑर्डर में जहाँ इतिहास की अग्र गति के लिए सभ्यतामूलक रास्ते पर जोर दिया और इस्लाम कनफ्यूसियस बौद्ध और हिन्दू भारत की चुनौतियों को इतिहास का नया मोर्चा करार दिया। वहीँ अपनी एक अन्य पुस्तक हू आर वी में आंग्ल सैक्सन प्रोटेस्टेंट शुद्धता एकता तथा इनकी अन्यों से भिन्नता पर जोर दिया। भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक राजीव मल्होत्रा हिन्दू कार्यकर्त्ता हैं जिनकी प्रसिद्धि बढ़ रही है। इनकी दो चर्चित किताबें ब्रेकिंग इंडिया और बीइंग डिफरेंट अपने नाम से ही बहुत कुछ कहती है। पहली किताब जहाँ भय पैदा कराती है वहीँ दूसरी किताब इसका समाधान अन्यों से अलगाव की समझ को देती है। इसी तरह के विचार मुस्लिम दुनिया में चर्चित जाकिर नायक के हैं। आईएसआईएस की गतिविधियों से भी अन्य समाजों में हलचल व्याप्त हो रही है।

समुदाय : राष्ट्र का शनीचर

राष्ट्र नागरिको से बनता है न की समुदायों से लेकिन इसके आधुनिक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया के पहले ही सामुदायिक लामबंदी प्रारम्भ हो गई थी। प्लासी के युद्ध को प्लासी क्रांति कहा गया और हिन्दुओ को समझाया गया
कि यह मुस्लिमों के क्रूर शासन से उनकी मुक्ति है। सोमनाथ पर आक्रमण से हिंदुओं की आत्मा हज़ार सालों से तड़पती रही इसका पहला दावा 1848 में ब्रिटेन की कॉमन सभा में किया गया। 1857 की क्रांति के बाद हंटर की इंडियन मुस्लमान के माध्यम से मुसलमानों से यह कहा गया कि हिंदुओं से अलग रहने में ही उनकी भलाई है और इसके लाभ गिनाये गए।
1906 में मुस्लिम लीग का जन्म हुआ और 1924 में हिन्दू महा सभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे सामुदायिक संगठन भी अस्तित्व में आ गए। जब इनके अस्तित्व और दंगों को देख कर गांधी ने 1927 में ही कहा कि हिन्दू मुस्लिम संबंधों की समस्या का समाधान अब मनुष्य के बस से बाहर और सिर्फ भगवान के हाथों में है। क्या हुआ इतिहास इसका गवाह है। समुदाय की राजनीति से हमेशा समुदाय में एक अलग राष्ट्र बनने की संभावना होती है। अब फिर समुदाय राजनीति के केंद्र में हैं।

समाधान : सीमाबद्ध समझ को तोड़ना

लोगों के लिए किसी सीमाबद्ध समझ की रुझान को त्यागना आसान नहीं है, वह भी तब जब यह व्यक्ति की सामाजिक पहचान और समझ के आधार पर विकसित हुआ हो। वास्तव में ये सामाजिक संरचना के वे पहलू हैं, जिन्हें बदलना मुश्किल है। लेकिन कुछ चुने हुए पहलुओं में सुधार लाया जा सकता है या उनके कठिन प्रभाव को विमर्श और कार्यवाही के संयुक्त असर से कम किया जा सकता है। इतिहास में ऐसा हुआ है। राज्य को समस्याओं के समाधान के लिए अनेको उपाय करने पड़ेंगे तथा साथ ही जनता के ध्यान को धार्मिक समस्याओं से हटा कर दूसरी ओर ले जाने की कोशिश भी करनी होगी। धर्म का आलोचनात्मक आदर विकसित करना होगा।

पथप्रदर्शक : हमारा संविधान

हम सभी नागरिको और राज्य की पथप्रदर्शक पुस्तक भारत के संविधान की प्रथम पँक्ति का प्रथम शब्द जब "हम" आता है जो भारत के लोग हैं, तो अधिकारों के साथ ही इस हम से कुछ पवित्र दायित्व भी जुड़ जातें हैं। वह दायित्व जो इसे एक राष्ट्र बनातें हैं। अपने साथ ही भारत राज्य को भी हमने कुछ अधिकार और कर्तव्य सौपें हैं जिसके दम पर वह हमारे कल्याण के लिए प्रतिबद्ध है। हमारे और भारत राज्य के बीच कैसा सम्बन्ध हो इसका मार्गदर्शन करने के लिए हमारे पास लिखित संविधान हैं। हम और राज्य तथा इसके बीच का सम्बन्ध यह तीनो चीजे उलझन और बेचैनी के दौर में हैं इन्हें हमें दूर करना होगा।

कर्तव्य : भारत के लोग और राज्य

संविधान का "हम" सवा अरब बेटे बेटियों का सामूहिक मानस है जिसे भारत माता कहतें हैं और जिसकी हम जीत चाहतें हैं। यह तभी होगा जब नागरिक के रूप में हम संविधान में निहित अपने कर्तव्य को याद करें और उसका पालन करें। जैसे संविधान , इसके आदर्श और संस्थाओं का आदर करें। राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों का पालन करें। भारत की प्रभुता एकता अखंडता की रक्षा का करें। समरसता और सामान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करें। सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्त्व समझें और उसका परिरक्षण करें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानववाद ज्ञानार्जन और सुधार की भावना का विकास करें हिंसा से दूरी रखे । हम भारत के लोगों ने भारतीय राज्य को अधिकारों के साथ ही कुछ कर्तव्य सौंपा है जिसके दम पर वह हमारे कल्याण के लिए कटिबद्ध है। राज्य लोक कल्‍याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्‍यवस्‍था बनाने, एक समान नागरिक संहिता विकसित करने, दुधारू पशुओं को संरक्षण देने और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए निर्देशित किया गया है।

पंथनिरपेक्षता : राज्य का धर्म

भारतीय राज्य के लिए पंथनिरपेक्षता संवैधानिक धर्म है। इसका पालन करना प्रत्येक सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है। इसकी पंथनिरपेक्ष धारणा सामुदायिक हितो से ऊपर है। इसका मानना है कि धर्म निजी जीवन की चीज है सार्वजनिक जीवन की नहीं है। समन्वित संस्कृति पर आधारित राष्ट्र समुदाय से ऊपर है। यह आशा करता है कि सेकुलरवाद की मदद से राष्ट्र के प्रति निष्ठा धार्मिक दावेदारियों से ऊपर समझी जायेगी। राज्य सभी पंथो से खुद को अलग रखेगा तथा किसी को भी शाही चर्च नहीं बनने देगा।

विरासत : समागम और तार्किक आदर

भारत में उत्तर वैदिक काल में ही वेदों की आलोचना शुरू हो गई थी। यहाँ तक की ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में ईश्वर की सीमा बता दिया गया है। विश्व का पहला निरीश्वरवादी धर्म भारत में फला फुला। अशोक, अकबर, दाराशिकोह , गांधी आज हमारे लिए ही नहीं दुनिया के लिए अनुकरणीय हैं। विभिन्न धर्मो और संस्कृतियों के लंबे और और नतिज़ाबक्श टकराव का विनम्र योगदान बेहद रचनात्मक रहा है। जिससे हम समृद्ध हुए हैं। सोलहवीं सदी की बात है भक्त कवि से मिलने सूफी पधारे , अनुयाइयों को गरमागरम बहस की उम्मीद थी । पर ये क्या दोनों मिलते ही गले लग कर रोने लगे फिर अलग हुए और बिना एक शब्द बात किये चले गए । भक्त अनुयाई से न रहा गया पूछ बैठा । आपने बहस नहीं किया ? भक्त कवि बोले जो मुझे पता है वो उसे पता है और जो उसे पता है वो मुझे पता है दुनिया में बहुत झगड़े और दुःख हैं और हम कुछ कर नहीं पा रहें हैं यही सोच कर रोने लगे थे। हम अपने आधुनिक कर्मो से अपनी महान सभ्यता को क्षुद्र समझना सीख रहें हैं।

धर्म : अब शिक्षा आवश्यक

इस्लाम हिन्दू या दूसरे अन्य धर्मो से नफ़रत करने वालों में एक समानता होती है कि वे दूसरे धर्म के बारे में, यहाँ तक की अपने ही धर्म के बारे में, या ठीक से कहा जाय तो धर्म  के बारे में ही कुछ नहीं जानते। अगर जानते भी हैं तो उन लोगों के माध्यम से जो इसका चयनित सन्दर्भ देतें हैं खुद की तारीफ और दूसरे धर्मों की निंदा जिनका उद्देश्य रहता है। भारतीय समाज एक धर्मप्रधान समाज है। भारत सरकार को अपने नागरिकों में धर्म के आधार पर नासमझी नहीं पैदा होने देना चाहिए। भारत सरकार और उसकी शैक्षणिक संस्थाओं को खुद इस बात की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। दसवीं तक के पाठ्यक्रम में ही सभी धर्मों की आधारभूत अवधारणाओं को रखना चाहिए। जिससे सभी को एक दूसरे के धर्म को जानने पहचानने का अवसर मिले। इससे समरसता बढ़ेगी।

निष्कर्ष : हम खुद को पहचाने

अब तक के बेहतरीन हथियारों के साथ देश की फ़िज़ा में बेहद ताकत चतुराई और धूर्तता के साथ एक ज़हरीली हवा का संक्रमण किया जा रहा है। यह एक खास तरह की समझ का आतंकी प्रसार है जो लोगों के दिमाग में डाला जा रहा है। शब्दों और सामाजिक अवस्थापनाओं के मायने की हमारी समझ पर डाका डाला जा चुका है। यह हम सवा अरब लोगों का सामूहिक मानस ही है जो इसको असफल कर सकता है। जरुरत है खुद को पहचानने कि और यह इतना भी मुश्किल नहीं है क्योंकि यह बस यह है कि हम भारत के नागरिक हैं। हमारे कुछ साझे दुनियावी शत्रु हैं जिनसे हमें लड़ना है वह हैं भूख,बीमारी ,बेरोजगारी ,अशांति , कलह। हम एक होकर इनसे जितेंगे। इस तरह से भारत जैसे बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक विकासशील लोकतंत्र में छोटी मोटी असहमति आती जाती रहेगी और उसका विमर्शात्मक हल निकलता रहेगा।

सोमवार, 14 मार्च 2016

जीवन

हर नई कहानी,
क्यों बदल देना चाहती,
आने वाली जीवन कहानी।

हर नई कविता,
क्यों बेताब कर देती,
अपने सुर में गानें को।

हर नई नसीहत,
क्यों परिवर्तित कर देती,
हर पुरानी सिख।

विचारों का ये परिवर्तन,
बोझिल करता मेरा मन,
किस राह चलू मैं।

हर राहें राहों से भरी पड़ी,
हर राहों से गुजरते लोग,
जीवन के हर रंग को जीते लोग।

मैं जब किसी राह पर कदम बढ़ाऊं,
सकुचाते शरमाते,
नई राह मुझको ललचाती।

सिद्धान्तों का ये अस्थिरतापन,
पन्नों में दबी टेढ़ी मेढ़ी स्याह लकीरों का आदर्श,
इनको बदल देना चाहता जीवन का अनुभव।

मंगलवार, 1 मार्च 2016

राष्ट्र, राष्ट्रवाद और भारत

राष्ट्र, राष्ट्रवाद और भारत

राष्ट्र कहीं होता नहीं है, अतः इसे पाया भी नहीं जाता। हाँ इसे बनाया जाता है, और सिर्फ बनाया जाता है यह इसलिए कि यह वास्तव में पूर्ण रूप से कभी बनता नहीं है। इसे बनाने में मुख्य रूप से तीन चीजें लगतीं हैं।

पहली चीज है इच्छा। अगर हम भारत नामक राष्ट्र बनाते रहना चाहतें हैं तो हमें यह कोशिश करते रहना होगा कि भारत की सवा अरब आबादी के हर नागरिक की यही इच्छा हो। मतलब हर रूठे को मनाने की कोशिश करते रहनी होगी अन्यथा एक रूठा मतलब हमारा राष्ट्र एक कम का होगा।

दूसरी चीज है संस्कृति। सबको पता है भारत संस्कृतियों का अजायबघर है। यह एकता की अजीब कोशिश है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि यह एकता इस रूप में नहीं है कि हम पिस कर संस्कृतियों कि चटनी बना दें और फिर इसे मुहँ में डाल कर स्वाद लें और अनुमान लगाएं कि इसमे क्या क्या था। बेहतर है कि जीभ के स्वाद की बजाय हम आँख से ही इसका सौंदर्य बोध प्राप्त करें जैसे फूल की टोकरी या फुलवारी। हमें सभी को आदर देते रहना होगा।

तीसरी चीज है विचारधारा। जाहिर सी बात है कि राष्ट्र बनाने के लिए राष्ट्रवादी विचार चाहिए। यह उस सोई हुई राजकुमारी(राष्ट्र) की तरह है जिसे जगने के लिए एक राजकुमार(राष्ट्रवाद) का इंतजार रहता है। एक चीज यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्रवाद से किसी भी विचार या वाद से कोई भी विरोध नहीं है सिवाय अलगाववाद के। दिल पर पत्थर रख कर हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अलगाववाद भी एक तरह का राष्ट्रवाद ही होता है जिसकी निष्पति एक और बनते राष्ट्र में होती है यह पहले वाले राष्ट्रवाद कि असफलता होती है। राष्ट्रवाद से भिन्न अलगाववादी विचार तब पनपते हैं जब ऊपर की दोनों कोशिशो में हम असफल रहतें हैं।

और रही भारत राष्ट्र की बात तो भारत स्वरूपतः एक विकासशील लोकतंत्र है। चूँकि यह विकासशील है अतः विकास के सीमित संसाधनों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए यहाँ छोटे मोटे टकराव होते रहेंगें। लेकिन चूँकि यहाँ लोकतंत्र भी है अतः इन टकरावों को मिल बैठ कर सुलझा भी लिया जायेगा।

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सहिष्णुता नहीं बंधुता चाहिये

क्रिस्टोफर नोलन द्वारा निर्देशित और लियोनार्डो डी कैप्रियो द्वारा अभिनीत विज्ञान गल्प फ़िल्म इन्सेप्शन में दो महत्वपूर्ण कल्पनायें की गई हैं पहली कि यदि हम किसी  स्वप्न में लंबे समय तक रहें तो हमें हमारा स्वप्न ही यथार्थ लगता है और हमारा यथार्थ स्वप्न प्रतीत होता है। दूसरी जो महत्वपूर्ण कल्पना की गई है वह है कि कोई हमारे स्वप्न में आकर या अपने स्वप्न में बुलाकर न केवल हमारे विचारों को चुरा सकता है बल्कि वह हमारे अंतर्मन में नए विचारों का इज़ाद भी कर सकता है और हमें इसकी भनक भी नहीं लग सकती। भारतीय इतिहास का औपनिवेशिक काल एक तरह का इन्सेप्शन ही रहा है। आजादी के इतने सालों बाद भी हम इससे पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। यह नए सिरे से फिर प्रारम्भ हुआ लगता है। भारत में सकारात्मक और परिणामी संवाद के विचार कहीं चोरी हुए से लगतें हैं और लगता है कि जैसे संघर्ष के विचारों को भारत के अंतर्मन में रोप दिया गया हो। हर एक के बरक्स हर एक का संघर्ष जैसे हमारी स्थाई नियति बनती जा रही है। प्रेम, मिलन, और समर्पण के शब्द जैसे गायब किये जा रहें हैं इसकी जगह पर नफ़रत, अलगाव और संघर्ष के शब्द ढूंढे जा रहें हैं। निशाने पर लोकतान्त्रिक रूप से चुनी गई सरकार, राष्ट्र और हमारा समाज दोनों हैं।

क्या 1976 के पहले भारत समाजवादी नहीं था या बाद में पूंजीवादी नीतियों ने सहयोग नहीं किया। पंथनिरपेक्ष संविधान वाले भारत में राजीव गांधी ने शाहबानो जैसो के लिए क्या किया और क्या यह राममंदिर के दुष्परिणामी ताला खुलने की वजह नहीं बना ? क्या अखंडता शब्द नक्सलवाद और कश्मीरी आतंकवाद इत्यादि को बढ़ने से रोक पाया। हमने उन धारणाओं को जो समाज और राज्य के मानस में होने चाहिए वहां से हटा कर संविधान की शोभा मात्र बना कर रख दिया। समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता के बाद एक और शब्द भविष्य में संविधान में जगह पाने का इन्तजार कर रहा है। शायद यह सहिष्णुता पिछले साल का सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाने वाला शब्द है। यह संविधान में जगह पाये अपने पूर्ववर्तियों से अलग होगा लेकिन कुछ कुछ पंथनिरपेक्ष शब्द जैसा ही इसका हश्र होगा। मगर चिंता की बात यह है कि इससे पहले ही भारत के राजनीतिक सामाजिक जीवन में इसकी जगह बनाई जा चुकी है। सहिष्णुता एक विरोधाभाषी शब्द है और असहिष्णुता तो चरम विरोधाभाषी है। इसका विरोधाभास वाल्ज़र के इस प्रश्न में दिखता है जिसमे वे कहते है कि क्या हम असहिष्णुता के प्रति सहिष्णु हो सकतें हैं।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में सहिष्णुता एक पूर्णतया नकारात्मक शब्द और विचार है जो संविधान विरुद्ध भी है। ज्यादा सहज शब्दों में कहा जाय तो सहिष्णुता का अभिप्राय उन चीजों को सहन करना या बर्दास्त करना है जिसे हम नापसंद करतें हैं। यह मन का बोझ है। प्रश्न उठता है कि गलत चीजों को हम क्यों और कब तक बर्दास्त करें और अगर बात सही है तो हम उसे क्यों स्वीकार नहीं करें। सवाल यह भी उठता है कि हम कोई गलत बात करें ही क्यों जिससे उसे किसी को बर्दास्त करना पड़े। किसी को गाली देकर हम कब तक उससे सहिष्णुता की उम्मीद रख सकतें हैं। अपराध के शिकार व्यक्ति के प्रतिरोध को हम असहिष्णु कह कर कब तक उसका खून जलातें रहेंगे। सहिष्णुता और असहिष्णुता का खेल वर्चश्व के शोर से ज्यादा कुछ नहीं है। यह प्रतिरोध के स्वर को मुर्दा शांति से भर देने का एक षड़यंत्र मात्र है। यह एक सामाजिक पाखंड है जो अस्वीकार्यता को स्वीकृति देता है। समाज को हमेशा उस दहलीज पर रखता है जहाँ कोई भी छोटी चिंगारी इसमें आग लगा देती है। सहिष्णुता का विचार हमें ऐसा समाज मुहैय्या कराता है जिसमे नफ़रत का विचार साथ साथ चलता है जो सहमति और स्वीकार्यता में बाधा बनता है।

सहिष्णुता से इतर बंधुता एक संविधान सम्मत शब्द और विचार है। यह हमारी परंपरा से भी मेल खाता है। अशोक का बारहवां दीर्घ शिलालेख अपने सम्प्रदाय को आदर देने के साथ ही दूसरे सम्प्रदाय को भी आदर देने की बात करता है। यहाँ आदर की बात हो रही है न कि बर्दास्त करने की। 1948 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंगीकृत मानव अधिकार’ की घोषणा के अनुच्छेद 1 में यह कहा गया है कि ‘‘सभी मनुष्य जन्म से ही गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से स्वतंत्र और समान हैं। उन्हें बुद्घि और अंतश्चेतना प्रदान की गयी है। उन्हें परस्पर "भ्रातृत्व" की भावना से रहना चाहिए।’’  भारत के संविधान की कुंजी उद्देशिका में कहा गया है कि हम भारत के लोग समस्त नागरिकों में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, "बंधुता" बढ़ाने के लिए इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। यहाँ उद्देश्य भारतीय नागरिकों के मध्य "बंधुत्व" की भावना स्थापित करना है, क्योंकि इस के बिना देश मे एकता स्थापित नही की जा सकती है। संविधान में "सहिष्णुता" नहीं बल्कि "बंधुता" की भावना के साथ रहने को कहा गया है। बंधुता पूर्णतया सकारात्मक मन का उल्लास है जिसमे स्वीकार्यता भरी है। यह सामाजिक प्राण वायु है। जिस प्रकार एक भाई को चोट लगे और आह दूसरे की निकले, एक की संवेदनाएं दूसरे के साथ इस प्रकार एकाकार हो जाएं कि उन्हें अलग करना ही कठिन हो जाए तो वास्तविक बंधुता वही कहलाती है। नागरिकों की ऐसी गहन संवेदनशीलता राष्ट्र निर्माण का परमावश्यक अंग है।

रविवार, 10 जनवरी 2016

भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी : भाषा बनाम सत्ता : बाज़ार और राजनीति

हम नहीं छोड़ेंगे। क्या ? अंग्रेजी ? जी नहीं सत्ता।


टीवी पर दलित चिंतक चन्द्र भान प्रसाद ने सीसैट आंदोलनकारी अंगेश से अपने ही अंदाज़ में सवाल किया। "आप पहले ये बताइये कि भारत का संविधान अंग्रेजी में ही क्यों लिखा गया" ?  मुझे नहीं लगता की ये सवाल था, दरअसल यह उस समय उठ रहे बहुत सारे प्रश्नो का एकमुश्त "सटीक उत्तर" था। मुझे किसी इतिहासकार का कथन धुंधले रूप में याद आ रहा है कि "भारत वैसा बना जैसे नेहरू थे अगर नेहरू भी दूसरे प्रकार के होते तो भारत भी दूसरे प्रकार का होता"। चन्द्र भान प्रसाद जी ने एक और बहुत ही गंभीर बात कही कि "अच्छी अंग्रेजी नहीं जानने वालों कि शादी नहीं हो रही है और आप आईएएस बनाना चाहतें हैं"।


आज़ादी और हम


भारत जब आजाद हुआ उस समय बहुत से दुखद सुखद कारणों, आभा मंडलों  और अपनी अपनी वजहों से भारत का सामूहिक मानस एक बेहोशी की हालत में था। लोकतंत्र एक अच्छा शब्द था और चुनाव एक औपचारिक खेल। उस समय जब संविधान की उद्देशिका  में "हम भारत के लोग" कहा जा रहा था तो यह मात्र "कुछ हम" थे। "भारत के लोग" इसमें नहीं थे। मुझे नहीं लगता की इसका उस समय कोई विकल्प था और न ही नेहरू और आंबेडकर की नेकनीयती पर मुझे जरा भी संदेह है। सत्ता 'कुछ हम' के हाथों में थी। मगर कब तक ?


पावर और पैसा : सिविल सेवा और आई आई टी


सिविल सेवा और आई आई टी ..अगर इसे मैं पावर और पैसा कहूँ तो किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए ...दोनों में परिवर्तन हुआ है । परिवर्तन का समय और परिणाम बेहद महत्वपूर्ण है । समय तब चुना गया जब "ख़ारिज किये गए बेकार लोगों" का प्रतिशत 0% से बढ़ते बढ़ते लगभग सिविल सेवा 30 % और आई आई टी  45 % तक पहुँच गया था। लेकिन परिवर्तन की एक तरफ़ा मार इन्ही लोगों पर पड़ी और सिविल सेवा में ये 3 % पहुंच गया । आई आई टी में सुधार के पहले साल ही घट कर 15 % पर आ गया हालांकि यह घटाव की शुरूआत थी। हालाँकि नई सरकार ने कुछ राहत दी। भारत में बहुरूपी और विभेदकारी शिक्षा व्यवस्था का भरपूर दुरूपयोग हो रहा है। सत्ता और साधनों पर वर्चस्व बनाये रखने हेतु इसका इस्तेमाल बड़ी सफाई से किया जा रहा है। भारतीय भाषा आंदोलनकारी श्याम रूद्र पाठक ध्यान दिलातें हैं कि हाल में कर्मचारी चयन आयोग के विज्ञापन के पाठ्यक्रम में 62 % सहभागिता अकेले अंग्रेजी भाषा की है कोई भी समझ सकता है कि यह अंग्रेजी माध्यम के लिए एक तरह का आरक्षण है।


हिंदी और भाषा  : राजनीति बनाम बाजार 


जब मैं पोस्ट ग्रेजुएट कर रहा था तो क्लास में प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी ने कहा कि भाषा आंदोलन के दौरान विद्यार्थियों ने अंग्रेजी होल्डिंगों पर कालिख पोता था दरअसल वो अपने भविष्य पर कालिख पोत रहे थे । क्योंकि वो नहीं समझ पा रहे थे कि वो किसी के लिए रास्ते को आसान कर रहे थे और अपने लिए कठिन वह भी किसी अन्य कि जरुरत से, मतलब राजनीति की जरुरत से। हिंदी और भारतीय भाषाओं को खतरा सरकार और राजनीति से है।


भूमंडलीकरण और हिन्दी


भूमंडलीकरण के बारे में एक गलतफहमी है कि यह प्रभाव डालता है दर असल यह संवाद स्थापित करता है यह खुद अपनी ही प्रक्रिया को जरूरतों के हिसाब से प्रभावित करता है । फार्च्यून मैगजीन द्वारा नामित विश्व के ख्याति लब्ध कंसल्टेंट रामचरण ने अपने एक व्याख्यान में बड़ी बड़ी कंपनियों के सीईओ को सम्बोधित करते हुए साफ़ साफ़ कहा ..लुक फॉर रॉ  टेलेंट एंड नॉट फॉर इंग्लिश स्किल।


हिन्दी : ताकत की भाषा


अंतर्राष्ट्रीय जगत में हिंदी ताकत कि भाषा बन रही है, बीसवीं शती के अंतिम दो दशकों में हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय विकास बहुत तेजी से हुआ है। वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार के क्षेत्र में हिंदी की मांग जिस तेजी से बढी है वैसी किसी और भाषा में नहीं। विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों तथा सैंकडों छोटे-बडे क़ेंद्रों में विश्वविद्यालय स्तर से लेकर शोध स्तर तक हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हुई है। विदेशों से 25 से अधिक पत्र-पत्रिकाएं लगभग नियमित रूप से हिंदी में प्रकाशित हो रही हैं। यूएई क़े 'हम एफ एम' सहित अनेक देश हिंदी कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं, जिनमें बीबीसी, जर्मनी के डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड और चीन के चाइना रेडियो इंटरनेशनल की हिंदी सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।


विश्व में हिंदी की स्थिति : चक दे हिंदी


विश्व में हिंदी की स्थिति पर चर्चा करते हुए यह जान लेना भी आवश्यक है कि प्रयोक्ताओं की संख्या के आधार पर 1952 में हिंदी विश्व में पांचवे स्थान पर थी। 1980 के आसपास वह चीनी और अंग्रेजी क़े बाद तीसरे स्थान पर आ गई। 1991 की जनगणना में हिंदी को मातृभाषा घोषित करने वालों की संख्या के आधार पर पाया गया कि यह पूरे विश्व में अंग्रेजी भाषियों की संख्या से अधिक है। इतना ही नहीं, डॉ जयंती प्रसाद नौटियाल ने निरंतर 20 वर्ष तक भारत तथा विश्व में भाषाओं संबंधी आंकडों का विश्लेषण करके सिद्ध किया है कि विश्व में हिंदी प्रयोग करने वालों की संख्या चीनी से भी अधिक है और हिंदी अब प्रथम स्थान पर है। उसने विश्व की अंग्रेज़ी समेत अन्य सभी भाषाओं को पीछे छोड़ दिया है। सन् 1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था । सन् 1997 में भारत की जनगणना का भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ प्रकाशित होने तथा संसार की भाषाओं की रिपोर्ट तैयार करने के लिए यूनेस्को द्वारा सन् 1998 में भेजी गई यूनेस्को प्रश्नावली के आधार पर उन्हें भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन द्वारा भेजी गई विस्तृत रिपोर्ट के बाद अब विश्व स्तर पर यह स्वीकृत है कि मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान है। चीनी भाषा के बोलने वालों की संख्या हिन्दी भाषा से अधिक है किन्तु चीनी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा सीमित है। अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा अधिक है किन्तु मातृभाषियों की संख्या अंग्रेज़ी भाषियों से अधिक है। प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने आलेख " संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएँ एवं हिन्दी" में विश्व स्तरीय सन्दर्भ ग्रंथों से प्रमाण प्रस्तुत करते हुए प्रतिपादित किया है कि मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में चीनी भाषा के बाद हिन्दी के बोलने वाले सर्वाधिक हैं।


हिंदी की आवश्यकता- चलो हिंदी सीखें


हिंदी भाषा और इसमें निहित भारत की सांस्कृतिक धरोहर इतनी सुदृढ अौर समृद्ध है कि इस ओर अधिक प्रयत्न न किए जाने पर भी विकास की गति बहुत तेज है। ध्यान, योग आसन और आयुर्वेद विषयों के साथ-साथ इनसे संबंधित हिंदी शब्दों का भी विश्व की दूसरी भाषाओं में विलय हो रहा है। भारतीय संगीत (चाहे वह शास्त्रीय हो या आधुनिक) हस्तकला, भोजन और वस्त्रों की विदेशी मांग जैसी आज है पहले कभी नहीं थी। लगभग हर देश में योग, ध्यान और आयुर्वेद के केन्द्र खुल गए हैं जो दुनिया भर के लोगों को भारतीय संस्कृति की ओर आकर्षित करते हैं। ऐसी संस्कृति जिसे पाने के लिए हिंदी के रास्ते से ही पहुंचा जा सकता है। डा जयंती प्रसाद नौटियाल की 2012 की नवींतम शोध से फिर यही सिद्ध हुआ कि हिंदी जानने वालोँ की दृष्टि से विश्व में हिन्दी जानने वाले सबसे अधिक हैं । चीनी जानने वाले 1050 मिलियन हैं और हिंदी जानने वाले 1200 मिलियन हैं।


हिंदी विज्ञापन- मुनाफ़े की भाषा


1980 और 1990 के दशक में भारत में उदारीकरण, वैश्वीकरण तथा औद्योगीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई। इसके परिणामस्वरूप अनेक विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में आईं तो हिंदी के लिए एक खतरा दिखाई दिया था, क्योंकि वे अपने साथ अंग्रेजी लेकर आई थीं। मीडिया महारथी रुपर्ट मरडोक स्टार चैनल लेकर आए। वह अंग्रेजी में बडी धूमधाम से शुरू हुआ था । इसी तर्ज पर सोनी, वगैरह दूसरे चैनल भी अंग्रेजी में अपने कार्यक्रम लेकर भारत में आए। मगर इन सबको विवश होकर हिंदी की ओर मुड़ना पडा, क्योंकि इन्हें अपनी दर्शक संख्या बढानी थी, अपना व्यापार, अपना लाभ बढाना था। आज टी वी चैनलों एवं मनोरंजन की दुनिया में हिंदी सबसे अधिक मुनाफ़े की भाषा है । कुल विज्ञापनों का लगभग 75 प्रतिशत हिंदी माध्यम में है।


लोकप्रियता की मिसाल- भाई हाली वुड मूवी देना हिंदी में


केंद्रीय हिन्दी संस्थान के सेवानिवृत निदेशक प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने आलेख में हिन्दी की विश्व व्यापी लोकप्रियता का प्रतिपादन करते हुए यह अभिमत व्यक्त किया है कि हिन्दी की फिल्मों, गानों, टी.वी. कार्यक्रमों ने हिन्दी को कितना लोकप्रिय बनाया है इसका आकलन करना कठिन है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में हिन्दी पढ़ने के लिए आने वाले 67 देशों के विदेशी छात्रों ने इसकी पुष्टि की कि हिन्दी फिल्मों को देखकर तथा हिन्दी फिल्मी गानों को सुनकर उन्हें हिन्दी सीखने में मदद मिली। लेखक ने स्वयं जिन देशों की यात्रा की तथा जितने विदेशी नागरिकों से बातचीत की उनसे भी जो अनुभव हुआ उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी की फिल्मों तथा फिल्मी गानों ने हिन्दी के प्रसार में अप्रतिम योगदान दिया है। सन्‌ 1995 के बाद से टी.वी. के चैनलों से प्रसारित कार्यक्रमों की लोकप्रियता भी बढ़ी है। इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि जिन सेटेलाइट चैनलों ने भारत में अपने कार्यक्रमों का आरम्भ केवल अंग्रेजी भाषा से किया था, उन्हें अपनी भाषा नीति में परिवर्तन करना पड़ा है। अब स्टार प्लस, जी.टी.वी., जी न्यूज, स्टार न्यूज, डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफिक आदि टी.वी.चैनल अपने कार्यक्रम हिन्दी में दे रहे हैं। दक्षिण पूर्व एशिया तथा खाड़ी के देशों के कितने दर्शक इन कार्यक्रमों को देखते हैं- यह अनुसन्धान का अच्छा विषय है। 'कौन बनेगा करोडपति' की लोकप्रियता ने मीडिया के क्षेत्र में हिंदी के झंडे गाड दिए, कमाई तथा प्रसिद्धि के अनेक कीर्तिमान भंग कर दिए तथा आने वाले समय में हिंदी के सुखद भविष्य के सपने जगा दिए हैं। आज सभी चैनल तथा फ़िल्म निर्माता अंग्रेजी क़ार्यक्रमों और फ़िल्मों को हिंदी में डब करके प्रस्तुत करने लगे हैं. जुरासिक पार्क जैसी अति प्रसिद्ध फ़िल्म को भी अधिक मुनाफ़े के लिए हिंदी में डब किया जाना जरूरी हो गया। इसके हिंदी संस्करण ने भारत में इतने पैसे कमाए जितने अंग्रेजी संस्करण ने पूरे विश्व में नहीं कमाए थे। आज भारत में सर्वाधिक पत्र-पत्रिकाएं तथा उनके पाठक हिंदी में हैं। सर्वाधिक फ़िल्में हिंदी में बनती हैं।


हिंदी- शक्ति एवं सामर्थ्य


हिंदी भारत की नहीं, पूरे विश्व में एक विशाल क्षेत्र की भाषा है। यह विशाल क्षेत्र अधिकतर मध्यम वर्ग को अपने में समेटे है। इस मध्यम वर्ग की क्रय-शक्ति पिछले कुछ वर्षों में बहुत बढी है। खाडी देशों का मजदूर वर्ग जो भारत पाकिस्तान बंगलादेश आदि देशों से आता है सबसे अधिक सहजता हिंदी बोलने में समझता हैं। वह यहां सादा जीवन जीता है लेकिन अपनी आमदनी का एक बडा हिस्सा अंतर्राष्ट्रीय उत्पादों की खरीद में व्यय करता है। आज अपने माल के प्रचार-प्रसार, पैकिंग, गुणवत्ता आदि के लिए हिंदी को अपनाना बहुराष्ट्रीय कंपनियों की विवशता है और उनकी यही विवशता हिंदी की शक्ति एवं सामर्थ्य की द्योतक है।


हिंदी- गंभीर दुनिया


भारतीयों ने अपनी कडी मेहनत, प्रतिभा और कुशाग्र बुद्धि से आज विश्व के तमाम देशों की उन्नति में जो सहायता की है उससे प्रभावित होकर समझ गए हैं कि भारतीयों से अच्छे संबंध बनाने के लिए हिंदी सीखना कितना जरूरी है। अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने 114 मिलियन डॉलर की एक विशेष राशि अमरीका में हिंदी, चीनी और अरबी भाषाएं सीखाने के लिए स्वीकृत की थी। इससे स्पष्ट होता है कि हिंदी के महत्व को विश्व में कितनी गंभीरता से अनुभव किया जा रहा है।


प्रवासी पत्रकारिता-माटी की सुगंध


यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि जिस प्रकार से भारत में हिन्दी-पत्रकारिता विभिन्न चरणों में विकसित हुई है, ठीक उसी प्रकार से विदेशों में भी प्रवासी भारतियों के द्वारा उसके विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य हुआ है। अनेक प्रवासी अपने धर्म, संस्कार और भाषा से भावात्मक रूप में जुड़े हुए हैं। इनके द्वारा समय-समय पर हिन्दी पत्रकारिता के उन्नयन के लिए पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ किया गया था, जो अनेक रूपों में आज भी हो रहा है। इनके मूल में हिन्दी पत्रकारिता के प्रति निष्ठा और अंतर्राष्ट्रीय विकास की भावना निहित है। अनेक स्थानों पर व्यावहारिक रूप से लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से उसमें हिन्दी के साथ ही स्थानीय भाषाओं का अंश भी प्रकाशित किया जाता है और वे द्विभाषी अथवा त्रिभाषी आदि रूपों में प्रकाशित हो रहे हैं। फिजी के कमला प्रसाद मिश्रा ,मारिसस के अभिमन्यु अनंत, सूरीनाम के मुंशी रहमान खान, सूर्य प्रताप वीरे के साहित्यिक अवदान को कौन भुला सकता है। अंग्रेज कवि चैम्बरलेन ने अनेक गीत लिखे हैं । ओदोलेन स्मेकल ने मेरे प्रीत मेरे गीत आदि कितने ही ग्रन्थ हिंदी में प्रकाशित किये।


हिंदी : विरोध नहीं सहयोग की आवश्यकता


आज हिंदी ने कंप्यूटर के क्षेत्र में अंग्रेजी का वर्चस्व तोड डाला है और हिंदीभाषी करोड़ों की आबादी कंप्यूटर का प्रयोग अपनी भाषा में कर सकती हैं। आवश्यकता इस बात की है, कि हिंदी के प्राध्यापक, साहित्यकार, संपादक एवं प्रकाशक कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग करें और इसके सर्वांगीण विकास के लिए कदम बढाएं। प्रवासी भारतीयों में हजारों लोग हिंदी के विकास में संलग्न हैं। जिसमें से तीन सौ से अधिक से आप वेब पर संपर्क स्थापित कर सकते हैं। धैर्य के साथ इनसे संपर्क बनाते हुए बहुत कुछ सीखा जा सकता है। नेट के सूचना महामार्ग पर जो  हिंदी उंगली पकड़ के चल रही थी वो अब अपने पैरों पर खड़ी हो रही है । सुधा अरोड़ा कहती हैं कि राज भाषा को राज के चंगुल से बचाकर उसको जन कि भाषा बनाइये। उसको आवश्यकता की भाषा बनाइये। नामवर सिंह जी का कहना है की भूमंडलीकरण से हिंदी को खतरा है, पर वास्तविक खतरा हिंदी को हिंदी के शुद्धतावादियों से है .. भूमंडलीकरण से हिंदी लोकतंत्री हो गया है।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

पता होगा

वक्त भी उड़ता रहा है रेत ओ हवा की तरह,
साहिल पर बैठे तलबगारों को पता होगा।
जुर्रतें मेरी कम है मशविरा दे नहीं सकता
मगर अरसे के बाद यारों को पता होगा।
अय्याशियों से तज़रबा नही बढता,
जीने का कोई और तरीका दयारों को पता होगा।
खो जाती हैं दिमागी हलचलें,
लुफ्ते दिल का नशा पैमानों को पता होगा।
होश की ताकत कहाँ की खलल डाले,
इसकी फितरत शामे बाजारों को पता होगा।
यूँ तो शराबी से बेहतर कोई इसां नहीं,
मगर कितने लौटे होश में चौबदारों को पता होगा।।....
..............…........................श्रीप्रकाश पाण्डेय

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

समझदारों का गीत/ गोरख पाण्डेय



समझदारों का गीत

हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।

गोरख पाण्डे

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

पवित्र

संसार में आंसुओं से पवित्र कुछ भी नहीं है क्योंकि यही सबसे बेहतरीन पुस्तक है यही सर्वश्रेष्ठ आइना है जो हमारा और हमारी दुनिया का सच बताता है।

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

सजा और समाज

ईसा के साथ विश्वासघात जूडस के बचपन में हुआ था। आवारा के जग्गा पर छुरा राज के बचपन में चला था। औरतों से जब भी बात करो एक हाथ में डंडा लेकर बात करो यह बात नीत्से के बचपन ने कही है। हां वही बचपन जिसे बड़ा करने में हमारा पूरा समाज लगता है। वही समाज जहाँ कुछ तंदूरी मुर्गिया भी बनाई जाती हैं जो अल्कोहल से गटक लेने का निमंत्रण देतीं हैं। वह कौन सी फैक्ट्री है जहाँ से ऐसे हैवान पैदा होते हैं। समाधान वहीँ से निकलेगा। लेकिन बस नाम तो लीजिये आप सबसे पिछड़े मानसिकता के घोषित कर दिए जायेंगे। स्थाई समाधान समस्या की जड़ पर ध्यान देना है न की सिर्फ उसके कुछ लक्षण को ख़त्म कर देने पर।

दिल्ली सल्तनत में फारसी साहित्य

  दिल्ली सल्तनत के दौरान फारसी साहित्य के विकास के कारण मंगोल आक्रमणों के कारण मध्य एशिया से विद्वानों का भारत की ओर प्रवासन। भारत में...