जब बहलोल लोदी का सिंहासनारोहण हुआ, तब दिल्ली सल्तनत में एक शान्त क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गया। तुर्कों के हाथ से सत्ता पहली बार उसके अधीन सैनिक रहे व बाद के कालों में सेनापति व प्रान्तपति रहे अफ़गानों के हाथ में चली गई। इस परिवर्तन का कारण अफ़गानों के रहन-सहन तथा राजनीतिक संरचना में तलाशी जा सकती है। वे प्रारम्भ से कबीलों में विभक्त रहे हैं। इनमें प्रमुख थे लोदी, लोहानी, यूसुफ़खेल, सरवानी, मेवाती, जिलवानी, तुर्क बच्चा, फ़रमूली, करमूली, सूरी इत्यादि।
1.
कबिलाई
परंपरा को राजतन्त्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना
अपनी
जनजातीय अथवा कबीलाई परम्पराओं के चलते अफगान लोग राजतंत्रीय परम्पराओं से अनभिज्ञ
थे। कबीले के सभी सदस्य समान होते थे और जो उनमें से सर्वाधिक योग्य होता था, वही
सर्वसम्मति से सरदार के रूप में चुना जाता था। अतः जब बहलोल लोदी सत्ता के शीर्ष
पर पहुँचा, तब इस कबीलाई परम्परा के नए राजनीतिक परिवेश, आवश्यकताओं
एवं राजत्व की स्थापित परम्पराओं की ओर संक्रमण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। यह
वस्तुतः बहलोल की एक महान उपलब्धि थी,
कि वह अफ़गानों के स्वतन्त्र, निर्भीक
जनतान्त्रिक विचारों और आस्थाओं को राजतन्त्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप दिशा प्रदान
करने में सफल रहा था। अफ़गान कबिलाई राजनीतिक व्यवस्था, परिष्कृत, सहज
भाव से शनैः शनैः राजतन्त्रीय अर्हताओं के अनुरूप ढ़लने लगी। फिर भी गाहे-बगाहे सत्ता
प्राप्ति के अति उत्साह एवं राजनीतिक प्रभुत्व के चलते, उनका
स्वातन्त्र्य विचार पुनः सक्रिय रूप से अभिव्यक्त होने लगता था।
2.
भारतीय-तुर्की
अवधारणा के पूर्णतया प्रतिकूल
डॉ.
अब्दुल हलीम के शोध के अनुसार, लोदी सरकार कुलीनतन्त्रीय थी, जिसमें
अफ़गान परिवारों का राजनीतिक प्रभुत्व सुस्थापित था,
उदाहरणार्थ- लोदी, नूहानी, फ़र्मूली
एवं शेखानी, जो अपनी स्वार्थ सिद्धि में ही लिप्त थे। वे देश के
वास्तविक शासक थे, सुल्तान तो उनकी परम्परानुसार एक निर्वाचित कबिलाई सरदार
था। अतः अफ़गानों के राजत्व की यह अवधारणा,
जहाँ शासक पृथ्वी पर ईश्वर
की छाया न होकर एक कबिलाई सरदार मात्र था,
भारत के लिए यह बिल्कुल नवीन
स्थिति थी। यह भारतीय-तुर्की अवधारणा के पूर्णतया प्रतिकूल थी, किन्तु
प्रारम्भिक एवं मौलिक इस्लामी अवधारणा के अधिक निकट थी ।
3.
राजत्व
को 'बन्धुत्व' का
आवरण
इस्लाम
के समता, समानत एवं बन्धुत्व के मौलिक सिद्धान्तों वाला जनतान्त्रिक
राज्य ही अधिक अनुकूल एवं उपयुक्त था,
फिर भी उम्मैया एवं अब्बासी
कालों के 'जमशेदी' स्वरूप ने राजत्व के फ़ारसी परिकल्पना का
मार्ग प्रशस्त कर दिया। अतः बहलोल लोदी ने अपने राजत्व को 'बन्धुत्व' का
आवरण उसी प्रकार से पहना दिया, जैसे बलबन ने राजत्व को 'दैवी' आवरण
पहनाया था। यह सत्य है कि बहलोल का राजत्व, अफ़गानों
की जनजातीय समानता एवं बन्धुत्व से प्रेरित,
निर्देशित एवं नियन्त्रित
था।
4.
सिंहासन
के स्थान पर कालीन
अफ़गान
सरदारों का समकालीन इतिहासकार अब्दुल्ला अपने ग्रन्थ 'तारीख-ए-दाउदी' में
बहलोल के राजत्व पर विस्तार से लिखता है । उसी के विवरणों के आधार पर हम उसके
राजत्व का विस्तृत एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन कर सकते हैं। उसके विचारानुसार , बहलोल
एक सरल एवं आडम्बररहित सुल्तान था। वह कभी अपने दरबार में अन्य सुल्तानों की भाँति
सिंहासनारूढ़ नहीं हुआ तथा अपने अमीरों को कभी अपने समक्ष खड़े नहीं रहने दिया।
अपितु, सिंहासन के स्थान पर उसने कालीन का उपयोग किया, जिसमें
प्रमुख अमीरों के साथ वह बैठता था। निश्चय ही सिंहासन पर आसन न ग्रहण करके वह अपने
और अपने अधिकारियों के मध्य के अन्तर को कम या समाप्त करता प्रतीत होता था। अमीरों
के लिए एक सुखद सन्तोष था कि सुल्तान,
तुर्क सुल्तान की भाँति
व्यवहार न करके एक कबिलायी सरदार की भाँति व्यवहार कर रहा है, जो
उनकी परम्परा एवं इच्छानुसार आचरण था।
5.
सुल्तान
सम्बोधन का प्रयोग नहीं
उसने
स्वयं कभी सुल्तान सम्बोधन का प्रयोग अपने लिए नहीं किया, अपितु
'मसनद-ए-आला' की
पदवी से ही सन्तुष्ट रहा। वह अपने फ़रमानों में अपने अमीरों को इसी प्रकार 'मसनद-ए-आली' सम्बोधित
करता था।
6.
कोई
व्यक्तिगत अंगरक्षक नहीं
रिज्कुल्लाह
मुश्ताक़ी हमें अपने ग्रन्थ 'वाक्यात-ए-मुश्ताक़ी' के
माध्यम से सूचित करता है कि बहलोल ने कोई व्यक्तिगत अंगरक्षक नहीं रखे। वस्तुतः यह
अफ़गान परम्पराओं के तो अनुकूल हो सकता है,
किन्तु यह दिल्ली सुल्तानों
की स्थापित परम्पराओं के साथ समयानुकूल नहीं प्रतीत होता। फिर भी, यह
मानना पड़ेगा कि यह कदम सुल्तान बहलोल के आत्मविश्वास एपं लोकप्रियता को ही दिखाता
है। उसके सद्व्यवहार, दृढ़ शासन एवं अनुभवी प्रशासन से किसी को
विरोध नहीं था।
7.
भोजन
: विश्वास बहाली का उपाय
उसका भोजन उसके महल में नहीं बनता था, अपितु बारी-बारी से अमीरों द्वारा भेजा जाता था। इसके दो निश्चित उद्देश्य थे - एक, अमीरों के अन्दर विश्वसनीयता का भाव विकसित करना, ताकि वे भली-भाँति समझ जाएँ, कि शासक उन पर कितना विश्वास करता। इससे एक पारस्परिक विश्वास की भावना विकसित हुई, जिसने यह सम्भव कर दिया कि अड़तीस वर्ष से अधिक के शासन काल में अमीरों का एक भी संगठित विद्रोह नहीं हुआ। दूसरे, इस प्रकार क्रमबद्ध तरीके से अपने अमीरों के यहाँ से भोजन मँगवाकर वह शासन में उनकी परोक्ष भागीदारी का आभास कराना चाहता था। और यह भी कि वह उनका नमक आदि का सेवन कर रहा था। यही नहीं, जब उसका भोजन दस्तरखान पर परोस दिया जाता था, तब द्वार से दरबानों को हटा लिया जाता था ताकि कोई भी अमीर, जो उस समय सुल्तान से मिलने आया हो वह सुल्तान का 'हम नेवाला' हो सके।
8.
नाराज़
अमीरों को मनाने उसके घर जाना
जब
कोई अमीर किसी बात पर उससे असन्तुष्ट अथवा रूष्ट प्रतीत होता था, तब
वह उसे शाँत एवं मनाने का भरसक प्रयास करता था। वह उक्त अमीर के घर जाता एवं अपनी
तलवार उसके सामने समर्पित करके क्षमा याचना के भाव में कहता था कि यदि वह उसे
राजपद के योग्य नहीं समझते तो वे स्वतन्त्र हैं,
कि वह उसे कोई और प्रशासनिक
दायित्व सौंप दें और जिस किसी व्यक्ति को सुल्तान के पद के योग्य समझे, वह
पद उसे प्रदान कर दिया जाए।
उसके
ऐसे आचरण के पीछे उसकी दो स्थितियां काम करतीं थीं। एक तो वह यह प्रदर्शित करने
में सफल रहा कि अफ़गान सत्ता के दायित्वों के निर्वहन के
माध्यम से राज्य कार्य कम कर रहे हैं,
अपितु अफ़गान बिरादरी के
सदस्य होने के नाते अपने ही शासन में बिरादरी का हक़ या 'हक़्क़-ए-बिरादरी' अदा
कर रहे हैं। यदि सभी लोग 'हक़्क़-ए-बिरादरी' अदा
कर रहे हैं, तो कोई भी कार्य अथवा पद छोटा या बड़ा, महत्वपूर्ण
या गौण नहीं है, अपितु प्रत्येक कार्य और दायित्व एक समान हैं। इस प्रकार
हम पाते हैं कि बहलोल लोदी एक ऐसा राजत्व परिभाषित करने में सफल रहा जिसका आदर्श
था, 'राजत्व ही बन्धुत्व है और बन्धुत्व ही राजत्व है'।
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