अबुल फज़ल के पुरखे नागौर में आकर बसे थे बाद में उलेमाओं के उत्पीड़न से तंग आकर अहमदाबाद चले गए। अबुल फजल के पिता शेख मुबारक का जन्म 1506 में हुआ था। अबुल फ़जल अपने पिता की आठ संतानों में से दुसरे नंबर का था। इसका जन्म 14 जनवरी 1551 में आगरा में हुआ था। इसने अपनी शिक्षा 15 साल में पूरी कर ली तथा 20 साल में स्वयं शिक्षक बन गया। अकबर से इसकी मुलाकात 1574 में हुई। अकबर के दरबार में इसने अपनी शुरुआत बीसी मनसबदार से की। सलीम के सह पर वीर सिंह बुंदेला ने इसकी हत्या कर दी। 1589-90 ईसवी में इसे अकबर नामा लिखने का आदेश प्राप्त हुआ। जिसे इसने सात सालों की मेहनत के बाद 1597-98 में तैयार करके अकबर को सौंप दिया।
अकबर नामा
पहला
भाग – अकबर के पिता हुमायूँ समेत उसके सभी पूर्वजों का वर्णन
दूसरा
भाग – अकबर के शासन के 46 वें वर्ष तक का कालक्रमानुसार वर्णन
तीसरा
भाग – आईन ए अकबरी
आईन ए अकबरी
पहला
भाग – 10 आईन – माता पिता, तत्कालीन राज्य व्यवस्था, अकबर का जन्म
दूसरा
भाग – 30 आईन – राज्य के कर्मचारी, सैनिक तथा असैनिक अधिकारी तथा दरबारियों का
वर्णन
तीसरा
भाग – 16 आईन – न्याय विभाग तथा राजस्व
चौथा
भाग – हिन्दू साहित्य, ज्योतिष, दर्शन, संतों की जीवनियाँ
पांचवां
भाग – सम्राट के नैतिक नियम, आचार संहिता, प्रशासनिक आदर्श, कहावतें तथा अबुल फज़ल
की आत्मकथा
अबुल फ़ज़ल की अकबरनामा के गुण
इतिहास दर्शन : भारतीय इतिहास के प्रति नवीन दृष्टिकोण : सकारात्मक बौद्धिक
प्रचारतंत्र की आवश्यकता
1. बुद्धिवादी-उदारपंथी दृष्टिकोण वाला राष्ट्रवादी इतिहासकार : अबुल फजल भारतीय इतिहास के एक अभिनव तथा अधिक व्यापक विचार को अपनाने के लिए प्रवृत्त हुए जो उनके बुद्धिवादी-उदारपंथी दृष्टिकोण से उतना ही अधिक प्रेरित था जितना मुगल साम्राज्य के बारे में उनके संरक्षक बादशाह के नए दृष्टिकोण से। अकबर भरपूर प्रयत्न करते हुए जिस साम्राज्य का निर्माण कर रहा था वह सल्तनत से भिन्न प्रकृति का था, इसकी रूपरेखा एक सच्चे भारतीय साम्राज्य, एक समग्र राष्ट्रीय सत्ता और हिंदुओं के साथ मैत्री पर आधारित साम्राज्य के रूप में निश्चित की गई जो अब लाखों स्थानीय जन समुदायों पर एक विदेशी प्रजातीय और आध्यात्मिक समूह द्वारा थोपी गई शासन व्यवस्था का पर्याय नहीं रह गया था जैसा कि सल्तनत काल में देखा गया था।
2. धार्मिक समाज में सुलह ए कुल का सिद्धांतकार : उलेमा के घोर कट्टरपंथ के विरुद्ध बुद्धि विवेक और धार्मिक सहिष्णुता की धारा का प्रतिनिधित्व करने वाले अबुल फजल ने बादशाह की अपारंपरिक नीतियों के लिए नैतिक एवं बौद्धिक आधार प्रदान किया। उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों के इस दृष्टिकोण को मानने से इनकार कर दिया कि भारतीय इतिहास का सारतत्त्व इस्लाम और हिंदुत्व की ताकतों के बीच संघर्षो का लेखा - जोखा है। धर्म एवं राजनीति के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण वाले अबुल फजल से अधिक अच्छी तरह यह काम और कोई नहीं कर सकता था।
3. संघर्ष के वास्तविक क्षेत्र की पहचान : अबुल फजल की दृष्टि में संघर्ष मुगल साम्राज्य और भारतीय राजाओं, जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों थे, के बीच था। मूल रूप से यह सांसारिक तथा आध्यात्मिक दोनों परिप्रेक्ष्यों में जनसाधारण का नेतृत्व करने में समर्थ एक आदर्श सम्राट के अधीन स्थिरता, मजबूती और सुशासन की शक्तियों तथा जमींदारों के नेतृत्व में विखंडन एवं कुशासन की शक्तियों के मध्य संघर्ष था। इसने बादशाह के पक्ष में लड़ने वालों को मुजाहिदाने इस्लाम या गाज़ियाने इस्लाम की बजाय मुजाहिदाने इकबाल तथा गाज़ियाने दौलत कहा है।
इतिहास शिल्प : साधन, विषयवस्तु और शैली
1. साधन : अबुल फजल लिखता है कि मैंने काफी खोजबीन व मेहनत से महामहिम अकबर की गतिविधियों के सबूत व दस्तावेज़ इकट्ठे किये और बहुत समय तक राज्य के मुलाज़िमों व शाही परिवार के सदस्यों में संवाद किया, मैंने सच बोलने वाले समझदार बुजुर्गों व फुर्तीले दिमाग वाले, सत्य कर्मी जवान, दोनों की बातों को परखा तथा उनके बयानों को लिखित रूप दिया...आदेशों की मूल प्रतियों तथा प्रान्तों से आई सूचनाओं को शामिल किया गया।
2. विषयवस्तु : अकबरनामा में अनेकानेक विषयों की वृहद् जानकारी मिलती है। मोटे रूप से युद्धों से सम्बंधित जानकारी की बहुलता है। इसके अतिरिक्त दुसरे देशों तथा प्रदेशों के बारे में भी जानकारी है। इसके अतिरिक्त स्थान वर्णन, फलित ज्योतिष, जानवरों तथा आर्थिक आकड़ों की भी जानकारी मिलती है।3. शैली : अबुल फज़ल की यह मान्यता रही है कि उसने इतिहासलेखन के क्षेत्र में पुरानी श्रृंगारिक शैली व शब्द जाल की शैली को समाप्त कर एक नई शैली की आधार शिला रखी। परन्तु अकबर नामा को सरसरी तौर पर देखने पर यह मालूम पड़ता है कि उसकी मान्यता ठीक नहीं है। अकबरनामा में शब्दाडम्बरों की भरमार है। जो काई जगह इसे नीरस तथा अनाकर्षक बनाते हैं।
अबुल फ़ज़ल की अकबरनामा के दोष
1.
दोषपूर्ण
ऐतिहासिक कारणात्मकता : इतिहास में कारणात्मकता की संकल्पना के संदर्भ
में अबुल फजल का मानना है कि मुनष्यों का
व्यवहार उनकी प्रकृति से उपजता है और यही व्यवहार अलग - अलग घटनाओं का कारण होता
है। अकबर इस नियम का अपवाद है क्योंकि वह एक अर्ध - दैवी व्यक्ति है जिसके कार्य
कारण के दायरे से बाहर है। चूंकि अबुल फजल ने भी इतिहास को व्यक्तियों या संस्थाओं
से संबद्ध अलग - अलग घटनाओं या मामलों की एक समष्टि के रूप में देखा, व्याख्या
और सामान्यीकरण की यहां बहुत कम गुंजाइश थी।
2.
घोर
व्यक्ति पूजक : एक इतिहासकार के
रूप में अबुल फजल की सबसे गंभीर त्रुटि उनकी व्यक्तिपरकता थी जो उतनी ही तीव्र थी
जितनी बरनी या बदायूंनी की व्यक्तिपरकता। यह अपने संरक्षक के प्रति उनके निकृष्ट
पूर्वाग्रह के रूप में व्यक्त हुई। अकबर,
जो उनकी दृष्टि में हमेशा
सही था क्योंकि वह कभी गलती नहीं कर सकता था,
के हर कदम को उचित ठहराने और
उसकी प्रशंसा करने में उन्होंने अपनी समस्त बुद्धि,
विवेक, शालीनता
तथा आत्मनियंत्रण खो दिया। शत्रु चाहे कोई राजपूत शासक हो या मुसलमान शासक, उसके
विरुद्ध अकबर के सैन्य अभियानों के उद्देश्यों को हमेशा उचित तथा प्रशंसनीय माना
गया। लेखक के अटूट विश्वास ने अकबरनामा को एक
प्रशस्ति का रूप दे दिया।
3.
ऐतिहासिक
वस्तुपरकता का लोप
: अपनी व्याख्याओं को सही ठहराने की उसकी प्रक्रिया हमेशा ऐतिहासिक
वस्तुपरकता की शर्तों को पूरा नहीं करती हैं। वह शेरशाह के विरुद्ध
पक्षपातपूर्ण और यहाँ तक कि शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण का भी परिचय देता है क्योंकि
वह इस महान अफगान को अकबर के पिता का दुश्मन मानता था। अंध आस्था और चापलूसी चापलूसी को अकबरनामा का सबसे
बड़ा दोष माना जाना चाहिए।
4.
उलेमा
के प्रति आक्रोश : यह मनोमालिन्य तथा व्यक्तिगत आक्षेप से पूरी तरह
मुक्त नहीं है, चूँकि उलेमाओं ने एक समय इसके परिवार को परेशान किया था
अतः उलेमा के विरुद्ध इसका पुराना आक्रोश इसकी शक्तिशाली कलम के माध्यम से
प्रतिशोध के रूप में फूट पड़ा। उलेमा के प्रति अकबर की घृणा और उनसे उसके अलगाव
का जो वर्णन अबुल फजल ने किया है उसे निष्पक्ष नहीं माना जा सकता है।
5.
तथ्यों
को छुपाना : अकबरनामा के लेखक
के विरुद्ध एक और गंभीर आरोप यह है कि इसने कई तथ्यों को छुपाया और इस क्रम में उन
घटनाओं एव तथ्यों की अनदेखी कर दी जो अकबर की योग्यता तथा बुद्धिमता से संबंधित
लोकप्रचलित दंतकथात्मक धारणा के प्रतिकूल थे। अतः भू - राजस्व बंदोबस्त की करोड़ी
प्रणाली के कारण विशाल परिमाण में कृषि योग्य भूमि की जो बर्बादी हुई और रैयतों को
जिन भयंकर समस्याओं का सामना करना पड़ा उन पर अबुल फजल पूरी तरह चुप हैं। इन
मुद्दों की चर्चा बदायूंनी ने की है और निजामुद्दीन अहमद ने उनकी पुष्टि की है।
6.
साहित्यिक
चोरी : अबुल फजल पर यह आरोप
लगाया जाता है कि इसने साहित्यिक चोरी की तथा उन स्रोतों से जानकारियां हासिल कीं
जिन्हें निश्चितता के साथ स्वीकार नहीं किया गया है। कई बार होता है कि वे अन्य
लेखकों की रचनाओं से शब्दशः कई अनुच्छेद ले लेते हैं। ऐसा करते हुए उन्हें किसी
तरह का भय नहीं होता और साहित्यिक सामग्रियों की चोरी के आरोप से भी अनभिज्ञ रहते
हैं। आइन में हिंदुओं से संबंधित विवरण
जो बहुत हद तक अलबरूनी से
लिए गए हैं, के मूल स्रोत से संबंधित कोई स्वीकारोक्ति नहीं है।
निष्कर्ष
इन
सब दोषों के बाद भी हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि अकबर नामा को लिखने में
उसने जो परिश्रम किया तथा थका देने वाली शोध - पद्धति को अपनाया वह निश्चित ही
प्रमाणिक इतिहास लिखने का एक विकसित प्रयास था। यद्यपि उसकी धारणायें सहज लगती हों
अथवा उसका पूर्वानुमान अमान्य हो परन्तु इसके बाद आज भी उसकी रचनायें मध्यकालीन
इतिहास लेखन में एक ऐतिहासिक अथवा युगान्तरकारी घटना है।
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