मोहम्मद बिन तुगलक ने राजत्व को एक नवीन स्वरूप प्रदान किया, इसलिए बरनी उसके धार्मिक तथा अन्य प्रशासनिक विषयों के प्रति उसकी अनोखी मनोवृत्ति का उल्लेख करता है। इस मनोवृत्ति का कारण था सुल्तान की विद्वता, प्रचण्ड बुद्धि, वाक्पटुता, अध्ययनशीलता एवं उदार मानसिकता तथा व्यापक आधार। यह सब उसके प्रशासनिक सुधारों एवं उसकी परियोजनाओं के विभिन्न पहलुओं में दिखता है उसके राजत्व को सही अर्थों में समझने के लिए आवश्यक है, कि, उसकी नीतियों तथा विचारों के पीछे का मन्तव्य भी समझा जाए।
1. राजत्व
का दैवी सिद्धान्त : 'ज़िल्ले
अल्लाह'
मोहम्मद
तुगलक ने वस्तुतः अलाउद्दीन खल्जी व बलबन की भांति सुल्तान को 'ज़िल्ले अल्लाह' ही
माना तथा अपनी शक्ति अक्षुण्ण रखने हेतु उलमा व उमरा दोनों वर्गों पर दृढ़
नियन्त्रण रखा। इसी कारण उसके काल में विद्रोह भी हुए और राजत्व
के दैवी सिद्धान्त पर विश्वास करने वाले सुल्तान ने उनका उन्मूलन भी बलबन के
समान दृढ़ता के साथ ही किया।
2. शासक:
प्रजापालक व संरक्षक
उसके
दृष्टिकोण में शासक भी ईश्वर की भाँति है, अतः प्रजापालक व संरक्षक है। उसने अपने सिंहासनारोहण के
उपरान्त जनता को यह विश्वास दिलाया था कि वह अपने पिता के पदचिह्नों पर चलेगा और
घोषणा की, कि, “मेरी स्नेहपूर्ण दृष्टि
से मेरे साम्राज्य का प्रत्येक वृद्ध पुरुष मेरे पिता के समान है और प्रत्येक युवक
बहराम खाँ के समान मेरा भाई है।” अतः प्रारम्भ से ही प्रजा के प्रति एक पितृ-तुल्य
व्यवहार का आभास मोहम्मद तुगलक ने करवाया था। दोआब
में अकाल के समय उसने तात्कालिक राहत के तौर पर छह महीने का राशन मुफ्त में बटवाया
तथा किसानों को सोनधर नामक कर्ज दिया, साथ ही दीर्घ-कालीन नीति के तौर पर
दीवाने-कोही की स्थापना की।
3. 'उलमा ए - दुनिया': शाही सद्भावना का अभाव
मोहम्मद
तुगलक के साथ एक गड़बड़ी थी - वह स्वयं बहुत शिक्षित था - कुरान शरीफ़, हदीस व शरियत - सबका अध्ययन, विश्लेषण एवं व्याख्या
में वह अद्वितीय था, अतः संत निज़ामुद्दीन औलिया के इस शिष्य
ने उलमा की वास्तविकता को भली-भाँति समझ लिया था और बलबन की भाँति 'उलमा ए - दुनिया' के
लिए सद्भावना का निश्चित अभाव हमें दिखता है। बरनी,
इसामी तथा इब्ने बतूता इत्यादि की नाराजगी इसी में छुपी हुई है इसलिए ही यह लोग
मुहम्मद तुगलक की आलोचना करते हुए इसे सबसे बुद्धिमान मुर्ख की संज्ञा देते हैं।
4. राजनयिक
सम्बन्ध: राजनीतिक क्षितिज का विस्तार
वह
विदेशों के साथ भी सांस्कृतिक सम्बन्धों की आवश्यकता को समझता था। वह भारत की
राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृथकता से विचलित था। उसके राजनीतिक
क्षितिज के विस्तार में एक ओर, मिस्र तक के
देश थे तो दूसरी ओर, चीन तथा खुरासान सम्मिलित थे। उसके काल
में विश्व के अनेक देशों के साथ भारतीय राजनयिक सम्बन्धों
की स्थापना हुई। खुरासान, इराक़, ईरान,
सीस्तान, हिरात, मिस्र,
ट्रॉसाक्सियाना, तान्जीर आदि से राजनयिक व
कूटनीतिक विनमय हुए एवं सम्बन्ध स्थापित हुए। इन सम्पर्कों ने एवं दूतों के आवागमन
ने उसका राजनीतिक दृष्टिकोण विस्तृत, गतिशील एवं उदार किया।
5. अफसरशाही
: अखिल भारतीय स्वरूप
इन्हीं
अनुभवों एवं सम्पकों के परिणामस्वरूप उसके राजत्व का एक अखिल भारतीय स्वरूप दिखायी
देता है। हिमालय की तराई से द्वारसमुद्र और थट्टा से लखनौती तक समस्त प्रदेश उसके
अधीन थे। राजनीतिक दृष्टि से सुल्तान के विचारों का सार भारत की राजनीतिक तथा
प्रशासनिक एकता स्थापित करने का था। यही नहीं, यह भी उसका
विश्वास था, कि प्रशासन को विस्तृत आधार देकर ही वह अपनी
सत्ता की नींव दृढ़ कर सकेगा, अतः उसने राजकीय सेवाओं को
योग्यता के आधार पर भरने का विश्वास व्यक्त किया था। बरनी जो स्वयं अकुलीनों से
घृणा करता था, लिखता है कि अकुलीन व्यक्तियों को भी प्रशासन के उच्चतम पदों पर
उसके काल में नियुक्त किया गया। यही नहीं, हिन्दुओं की भी
उच्च पदों पर नियुक्ति एक सुनियोजित प्रशासनिक नीति का परिणाम थी।
6. धार्मिक
दृष्टिकोण : बौद्धिक स्वतन्त्रता के वातावरण की कोशिश
उसके
अध्ययन,
शिक्षा एवं विदेशी सम्पर्कों का निश्चित प्रभाव उसके व्यक्तित्व एवं
धार्मिक दृष्टिकोण में पड़ा। भारत जैसे विभिन्न
धर्मों के देश में उसने सभी धर्मों एवं धर्मावलम्बियों के प्रति समान रूप से उदार
भाव रखा। उसने हिन्दुओं की होली में भागीदारी की तो शत्रुंजय जैन मन्दिर में भी
कुछ अनुष्ठान सम्पन्न किए। वह गिरनार के मन्दिर में भी गया। इसामी तथा इब्न बतूता
दोनों ही विवरण देते हैं, कि वह योगियों से भी व्यक्तिगत वाद
- विवाद करता था, जबकि नमाज पढ़ने तथा इस्लाम धर्म द्वारा
आदेशित अन्य धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करने में वह बेहद औपचारिक था। उसने एक बौद्धिक स्वतन्त्रता का वातावरण अपने साम्राज्य में
निर्मित करने में सफलता प्राप्त की। उसने प्रसिद्ध सूफी सन्तों का सदैव नमन किया।
जौना खाँ के रूप में वह शेख निज़ामुद्दीन औलिया के कन्खाह में नियमित जाने लगा था,
जबकि चिश्तिया संत शेख फ़रीदउद्दीन गंज शकर के पौत्र शेख अलाउद्दीन
का शिष्य था। उसने अनेक सूफ़ी संतों के मज़ारों पर बदायूँ (मीरान मुलहिम), दिल्ली (शेख निज़ामुद्दीन औलिया), मुल्तान (शेख
रुक्नुद्दीन अबुलफ़तह) तथा अजोधन (शेख अलाउद्दीन) में मकबरे भी निर्मित करवाए। अतः
उसका धार्मिक - सांस्कृतिक - सामाजिक दृष्टिकोण बेहद उदार, मानवीय
एवं परिपक्व था।
इस
प्रकार सुल्तान का राजत्व वस्तुतः 'प्रबुद्ध
निरंकुशवाद' की पराकाष्ठा थी, जहाँ एक 'सांस्कृतिक राज्य की स्थापना की योजना स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है।
मोहम्मद की मृत्यु 20 मार्च, 1351 ई.
को हुई थी एवं उत्तराधिकारी का सिंहासनारोहण 24 मार्च,
1351 ई . को ही हो सका। यदि चार दिन तक थट्टा के निकट, सिन्धु नदी के तट पर मोहम्मद की सेनाएँ उसके हरम एवं कोष की तीन मंगोल
आक्रमणों से रक्षा कर सकीं, तो ये वस्तुतः उसके राजत्व के
दैवी स्वरूप, सत्ता के व्यापक आधार एवं उसकी उदारता से
जनमानस में उपजी उसके प्रति आस्था का ही परिणाम था। यही नहीं अपने राजत्व के दैवी
स्वरूप एवं प्रबुद्ध निरंकुशता के चलते ही वह सर्वाधिक संख्या में सुसंगठित
विद्रोहों का उन्मूलन करने में सफल रहा था, जहाँ उसका
उत्तराधिकारी पूर्णतया असफल रहा और दिल्ली सुल्तनत को विकेन्द्रीकरण एवं विभाजन के
कगार पर पहुँचा दिया।
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