गाजी मलिक ने एक परिपक्व और निर्भीक साहसी के रूप में अपनी योग्यता सिद्ध कर दी और सरदारों ने उसके सर पर ताज रख कर अपनी बुद्धिमानी का परिचय दिया। ग़ाजी मलिक ने ग़यासुद्दीन तुग़लुक का ख़िताब धारण किया। साधारण स्थिति से उन्नति कर नए सुल्तान ने एक ओर अपने संबंधियों और मित्रों को सम्मान, आदर तथा पद बांटे वहीं दूसरी ओर बल्बन के उदाहरण की नकल करते हुए अपने को आडंबरपूर्ण उपाधियों से मर्यादायुक्त बनाया। इस प्रकार पुनर्गठित राज्य की शासन व्यवस्था से गयासुद्दीन ने प्रशासनिक सुधार और राजसत्ता की पुनर्स्थापना की नीति के द्वारा अपने राजत्व सिद्धांत का प्रतिपादन किया। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक व्यावहारिक योजना बनाई जो मूलतः अलाउद्दीन की कठोर प्रणाली और उसके उत्तराधिकारियों की अत्यधिक उदार सौम्यता के बीच मध्यवर्ती समझौता था। बरनी कहता है कि प्रशासन संबंधी सभी कार्यों में मध्य मार्ग अर्थात रस्मे मियान, उसकी नीति का आधार था।
सुल्तान के समक्ष समस्या
1.
विप्लव
: प्रान्तों की अनियमित निष्ठा
जिस साम्राज्य पर शासन करने के लिए गयासुद्दीन को
बुलाया गया था वह असंख्य जटिल समस्याओं से आंदोलित था। बाहर और दूर तक फैले
क्षेत्र में एकछत्र नियंत्रण रखने में उसकी विशालता बाधक थी। प्रांतों में बार-बार
विप्लव होते रहते थे। सिंध, राजपूताना,
चितौड़, नागौर,
जालौर और बंगाल इत्यादि की निष्ठा अनियमित थी। इस असंतोषजनक राजनीतिक परिस्थितियों
के अतिरिक्त, जो नए सुल्तान का ध्यान तुरंत आकर्षित कर रही थीं, शासन
व्यवस्था पूर्णतः अस्तव्यस्त हो गई थी।
2.
रिक्त
राजकोष : पूर्ववर्तियों द्वारा धन का
अपव्यय
अधिकारियों और उनके व्यक्तियों का समर्थन प्राप्त करने के
लिए उन्हें घूस दिया गया था। कुत्बुद्दीन मुबारक और खुसरो ख़ां दोनों ही ने अपनी
स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए सैनिकों को संतुष्ट करने में अपार धन व्यय किया था।
कहते हैं कि खुसरो खां द्वारा अंधाधुंध धन लुटाने से कोष पूर्णतः खाली हो गया था। अल्लाउद्दीन
की राजस्व प्रणाली बिल्कुल ध्वस्त हो गई थी और परिणामस्वरूप राज्य की आर्थिक
स्थिरता को भयंकर धक्का पहुंचा था।
इस प्रकार ग़यासुद्दीन तुग़लुक़ को जिन समस्याओं का सामना
करना था वे केवल आकार में ही विस्तृत नहीं थी बल्कि स्वाभाविक रूप से भी उलझी हुई
थीं। यद्यपि मुख्यतः वह एक सेनानी था किंतु ग़यासुद्दीन ने शीघ्र ही परिस्थिति
आंकी और अनेक साहसिक किंतु सोच समझ कर उठाए गए पगों द्वारा वह सल्तनत की शासन
व्यवस्था सामान्य स्तर पर ले आया। बरनी ठीक ही यह महत्वपूर्ण विचार प्रकट करता है
कि उसने कुछ दिनों में जो प्राप्त किया उसे प्राप्त करने में दूसरे लोग वर्षों
लगाते। उसके दृढ और ओजस्वी शासन ने जनता को शांति और समृद्धि प्रदान की।
नीतिगत
और व्यवहारिक संयम का राजत्व सिद्धांत : रस्मे-मियान अर्थात मध्यमार्ग
1.
राज्यारोहण
: न उद्विग्नता न अनिच्छा बल्कि संयम
खुसरो शाह की हत्या के पश्चात् गाजी तुगलक सीरी नगर स्थित
हजार सितून महल में आया तथा सिंहासन ग्रहण करने से पूर्व यह जाँच करवाई कि
अलाउद्दीन खिलजी के वंश का कोई व्यक्ति जीवित है या नहीं, ताकि
वह उसे शासक घोषित कर सके। उसने उपस्थित अमीरों से कहा था कि "मैं एक साधारण
व्यक्ति था जिसे सूर्य और चन्द्रमा की गर्मी सर्दी कष्ट पहुँचाती थी। स्वर्गीय
सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने मुझे एक तुच्छ पद से अपने निकटवर्ती स्तर तक उठाया और
हीरे की भांति पैनी तलवार से मैंने रात्रि के समय जागकर उसके प्रान्तों की रक्षा
की। अलाउद्दीन खिलजी के समय से मैंने जो उन्नति की है वह उस महान शासक से ही
प्राप्त की।" अमीरों ने उसे सिंहासन ग्रहण करने का अनुरोध किया लेकिन उसने
अनिच्छा प्रकट करते हुए कहा- "मेरा धनुष और बाण ही मेरे मुकुट और सिंहासन है।
मुझे अपने दीपालपुर से बहुत प्रेम है। मेरे लिए मेरी तलवार और मंगोलों के सिर ही
पर्याप्त है। आप लोग मुकुट और उसको धारण करने वाले की रक्षा करें।" इब्नबतूता
भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहता है कि गाजी मलिक ताज पहनने का इच्छुक नहीं था
और उसने आएबा किश्लु खाँ से कहा कि वह उसे स्वीकार करे। अन्ततः गाजी मलिक ने 8
सितम्बर 1320 ई. को अमीरों व मलिकों की सर्वसम्मति से "गयासुद्दीन तुगलक शाह
गाजी" का खिताब धारण कर विधिवत सिंहासन ग्रहण किया।
2.
किसान
: न विद्रोही न भिखारी बल्कि लाभ-हानि के साझेदार
उसके आदेश थे कि किसानों से ऐसा व्यवहार किया जाए कि
समृद्धि उन्हें विद्रोह करने के लिए प्रलोभन न दे और न उन्हें भिखारी बना दिया जाए
क्योंकि उस परिस्थिति में वे खेती करना छोड़ देंगे। अलाउद्दीन के अत्यंत कठोर
सुधारों ने किसानों का आर्थिक जीवन चकनाचूर कर दिया था। कर का बोझ इतना भारी था कि
कार्य करने की प्रेरणा नष्ट हो गई थी। उन्हें कृषि की उन्नति करने या उसके विकास
में कोई रुचि नहीं थी। जिस लाभ का वे शताब्दियों से उपभोग कर रहे थे वह समाप्त हो
गया था और वे निर्धनता और दरिद्रता के गर्त में ढकेल दिए गए थे। किसानों
का बोझ हल्का करने के लिए उसने अलाउद्दीन के भूमि नापने अर्थात हुक्म-ए-मसाहत तथा
प्रति बिस्वा उपज का नियम रद्द कर दिया और उसके स्थान पर उपज में साझे अर्थात
हुक्मे हासिल का नियम लागू कर दिया। इसके दो लाभ थे। प्रथम, इसने
किसानों का उन्नत खेती से होने वाला लाभ निश्चित कर दिया । दूसरे, फ़सल
की पूर्ण अथवा आंशिक ख़राबी का ध्यान रखा। गयासुद्दीन ने इस शर्त सहित उसे एक
क़ानूनी स्वीकृति दी कि जहां कहीं संभव हो वहां उसमें 1/10 या
1/11 की वृद्धि की जाए।
3.
मुक़द्दम
: न उदासीन न विद्रोही बल्कि ग्रामीण मुखिया का गौरव
मुक्ताओं तथा किसानों के बीच मध्यस्थ बनने में मुक़द्दमों की उदासीनता ने, जो उनके अनुलाभ समाप्त किए जाने के कारण थी, उनकी आर्थिक स्थिति पर अवश्य दुष्प्रभाव डाला होगा। ऐसी विषम परिस्थिति चिल्ला चिल्ला कर परिवर्तन की मांग कर रही थी । ग़यासुद्दीन तुग़लुक़ ने अवसर की मांग के प्रति अपनी योग्यता का परिचय दिया और राजस्व मामलों को नियमित करने के लिए मजबूती और हमदर्दी के साथ ठोस कदम उठाए। ग्यासुद्दीन गाँव के मुखिया का स्तर घटाकर एक साधारण किसान के स्तर तक लाने की नीति के विरूद्ध था, उसने ये मत प्रकट किया कि- "इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि प्रधान और मुखिया के कन्धों पर भारी उत्तरदायित्व है।" अतः उसने मध्यवर्ती जमीदारों, विशेषत: मुकद्दम और खुतों को उनके 'हक्क ए खोती' के पुराने अधिकार लौटा दिए, उनके खेतों और चरागाहों को कर मुक्त कर दिया, किन्तु उन्हें 'किस्मत एक खोती' का अधिकार नहीं दिया। इस प्रकार उनको वही स्थिति प्रदान की जो उन्हें बल्बन के समय प्राप्त थी। उनको लगान वसूली के लिए उचित जमींदाराना शुल्क दिया गया किन्तु साथ ही निश्चित लगान से अधिक वसूली तथा अत्याचार करने के लिए मनाही कर दी। प्रधान या मुखिया ऐसी स्थिति में रखा जाए कि वह शासन का अधिकार न भूले और धन की प्रचुरता से विद्रोही या ढीठ न बन जाए। इस प्रकार उसने गांव के मुखिया से सौम्य किंतु दृढ़ व्यवहार किया। उसकी सेवाएं उपयोग में लाई गई।
4.
राज्यपाल
तथा 'मुक्ता' :
न अहंकार न दमन बल्कि राज्य के आज्ञाकारी प्रतिनिधि
उसने राज्यपालों तथा 'मुक्तों'
के भूमि कर वसूल करने से
संबंधित व्यवहार के नियम निर्धारित कर दिए और किसानों की उनके अत्याचार तथा
क्रूरता से रक्षा करने के सभी संभव पूर्व-उपाय किए। इस नवीन व्यवस्था के अंतर्गत भू-राजस्व
संकलित करने का कार्य ठेके पर दिए जाने की प्रथा को प्रोत्साहन नहीं दिया गया
किंतु उच्चतम स्तर पर उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकी क्योंकि राज्यपालों के पद ठेके
पर ही आधारित होते थे। जो अधिशेष राजस्व (फ़वाजिल)
उन्हें कोष मे भेजना था वह पूर्व-निश्चित था न कि वास्तविक आय और स्वीकृत व्यय के
आधार पर तय होने वाला विषय था। 'तारीखे-फ़ीरोजशाही' में
सुसंगत किंतु बिखरे संकेतों पर एक साथ विचार करने में मुक्तों और
राज्यपालों के निर्देशन के लिए बनाए गए नियमों का एक स्पष्ट और सजग चित्र बनाना
संभव है। मलिकों तथा अमीरों के दसवें या ग्यारवें भाग का आधा और उनकी भूमि के
राजस्व का दसवां या पंद्रहवां भाग देने के लिए सुल्तान तैयार था। इसी प्रकार यदि
प्रतिनिधि या मातहत अधिकारी अपने वेतन के अतिरिक्त आधा प्रतिशत हस्तगत कर लें तो न
उनका अपमान करना था और न यातनाओं द्वारा उनसे वह धनराशि वसूल करनी थी। किंतु यदि
वे इस नियम का उल्लंघन करें तो उन्हें बांध कर बेंत मार-मार कर उनका अहंकार दूर कर
उनका अपमान करना था और पूरा धन उनसे वसूल करना था। उनसे आशा की जाती थी कि वे अपनी
'इक्ता' से
थोड़ी मांग करेंगे और इस मांग का कुछ भाग अपने प्रतिनिधियों के लिए रखेंगे। ठेका
प्रणाली में इस संशोधन ने राज्यपालों तथा 'मुक्ताओं'
के कंधों पर अधिक जिम्मेदारी
डाल दी। उन्हें देखना था कि राजस्व की वसूली बिना अत्याचार तथा क्रूरता के होती
है। कृषकों से अधिक मांगें नहीं की जाती हैं और गांव का मुखिया अपना देय किसानों
पर नहीं लादता है। जहां तक उनका संबंध था उन्हें यह आदेश थे कि वे अत्यंत न्यायी
और ईमानदार रहें अन्यथा राजस्व मंत्रालय उनके साथ कठोरता और अभद्रता का व्यवहार
करेगा।
5.
सेना
का पुनर्गठन : न नरमी न कठोरता बल्कि कुशल अभिभावक
वित्त व्यवस्था के पश्चात सुल्तान का ध्यान सैनिक समस्याओं
ने आकर्षित किया। अलाउद्दीन ने एक प्रभावशाली सैन्य संगठन की रचना थी जो उसके
उत्तराधिकारियों के अधीन टुकड़े टुकड़े हो गई थी। अनुभवी सेनानी ग़यासुद्दीन ने
कठिन परिश्रम से सेना का पुनर्गठन उतनी कुशलता से किया जितना संभव था आर्थिक तथा
अन्य दृष्टि से सैनिको को संतुष्ट रखना उसकी सैनिक नीति का मूल सिद्धांत था। बरनी
का यह कथन महत्वपूर्ण है कि सैनिकों के प्रति उसका स्नेह उनके माता-पिता से भी
अधिक था। उसने इस बात का ध्यान रखा कि उनके वेतन तथा भत्ते का गबन न हो। उसकी
सैन्य प्रणाली दक्ष थी। एक अनुभवी सैनिक तथा सफल सेना नायक होते हुए उमे अपने
सैनिकों से पिता के समान अनुराग था।
6.
शासन
की वैधता का स्रोत : न वंशावली न पैरासूट लैंडर बल्कि अनुभव संग्रही
सुल्तान गयासुद्दीन तुगलुक असाधारण योग्यताओं, निर्मल बुद्धि, दृढ़ तथा तरीक़े से काम करने वाला शासक था। अनेक अन्य शासकों की भांति वह साधारण स्थिति से उच्च शिखर तक पहुंचा और उसने कभी कुलीन वंशीय होने का दावा नहीं किया बल्बन के विपरीत उसने अपने लिए कभी कल्पित राजवंशावली नहीं बनवाई। वह अपने पद के लिए अपने गुणों पर निर्भर था। उसका उत्थान उल्कामय नहीं था। वह क्रमशः एक पद से दूसरे पद पर अनुभव संग्रह करते तथा मनुष्य और उनके विषयों का पूरा ज्ञान प्राप्त करते हुए बढ़ा। स्वभाव से वह शांत और स्वार्थी था। संकट के समय वह चट्टान के समान दृढ़ खड़ा रहा। उसकी सेना में हिंदू सैनिक तथा अधिकारियों का न्यायसंगत प्रतिशत था। उसने पुलिस तथा न्याय विभाग का पुनर्गठन किया जिसने जनता के हृदय में भय तथा आदर प्रेरित किया। मार्ग लुटेरों तथा चोरों से सुरक्षित हो गए और राज्य में शांति एवं सुरक्षा फैल गई।
7.
विधि संहिता : मनमानी नहीं बल्कि पथप्रदर्शन तथा निर्णयों में
एकरूपता
अपनी शासन व्यवस्था के पुनर्गठन में उसने मध्यम मार्ग का
अनुसरण किया जो दृढ़ता और औचित्य का सम्मिश्रण था। अधिकारियों के पथप्रदर्शन तथा उनके निर्णयों में एकरूपता लाने के लिए
उसने एक विधिसंहिता बनाई। बल्बन के समान वह अपने पास
योग्य व्यक्ति एकत्रित करने का उत्सुक था किंतु वह बल्बन के समान शुद्ध रक्त का
सनकी नहीं था। उसकी दृष्टि में केवल योग्यता का ही महत्व था न कि धन एवं जन्म का
उसने ग़बन तथा प्रष्टाचार दृढ़तापूर्वक दबाया। अपने अधिकारियों को साधारण
प्रलोभनों से बचाने के लिए उसने उन्हें अच्छे वेतन दिए। उसके राजस्व सुधारों ने
हिंदू मध्यस्थों को तुरंत बड़ा लाभ पहुंचाया होगा क्योंकि उसने उनके विशेषाधिकार
तथा भत्ते पुनर्स्थापित किए।
संक्षेप में कहें तो तुग़लुक़ वंश का यह संस्थापक व्यापक
सहानुभूति, दृढ़ संकल्प तथा विवेकपूर्ण निर्णय लेने वाला शासक था। वह
दिल्ली सल्तनत की स्वस्थ परंपरा संजीवित करने के लिए उत्सुक था। उसने अलाउद्दीन
ख़ल्जी के ढंगों तथा आदर्शों को नया अर्थ दिया और उनमें क्रूरता की तेज धार निकालकर
उन्हें अधिक उपयोगी और ग्राह्य बनाया। वह एक प्रवर्तक नहीं बन सका किंतु उसने
संरक्षक और संगठनकर्ता की भूमिका सफलतापूर्वक निभाई। उसका राजत्व दिल्ली सल्तनत के
राजत्व में उदार प्रवृतियों का विकास दर्शाती हैं।
इसलिए अमीर खुसरो लिखता है कि “उसने कुछ भी ऐसा नहीं किया जो परिपूर्ण न था। ज्ञान और चेतना के आधार पर कहा जा सकता है कि वह अपने
मुकुट के नीचे सौ पंडितों का सिरोवस्त्र धारण किये था”।
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