मंगलवार, 24 जनवरी 2023

सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों के प्रमुख कारण


19वीं सदी का धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण आधुनिक भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इसने भारतीयों को आत्मनिरीक्षण करने के लिए मजबूर किया। इस समय भारतीय समाज एक निष्क्रिय और शक्तिहीन अवस्था में था। समाज के निम्न वर्ग ने सामाजिक सम्मान और आर्थिक सुविधाओं के लिए ईसाई धर्म स्वीकार करना शुरू कर दिया था। इसलिए धर्म और समाज की रक्षा के लिए सुधार की आवश्यकता थी। इन सुधारों के साथ-साथ नए राष्ट्र की परियोजना भी चलाई जा रही थी। इसके निम्नलिखित कारण थे-

1. पश्चिमी ज्ञानोदय के प्रभाव में भारत में पुनर्जागरण

भारत में पश्चिमी वर्ग तर्कवाद, वैज्ञानिकता और मानवतावाद से बहुत प्रभावित था। इस प्रकार 'धर्मनिरपेक्षता' की एक नई प्रवृत्ति का जन्म हुआ। इसके अनुसार धर्म को तर्क से मापा जाने लगा और निजी धर्म में किसी भी तरह की विसंगतियों को त्यागा जाने लगा और पारंपरिक मान्यताओं को बदलने या उनके लिए तर्कसंगत कारण खोजने का प्रयास किया गया। इस प्रकार अस्पृश्यता का विचार, जो हिंदू धर्म का एक अभिन्न अंग था, त्यागा जाने लगा। इसी प्रकार समाज के दैनिक कर्मकांडों में भी परिवर्तन हुए।

2. धर्म और समाज की विवेकपूर्ण समीक्षा

आधुनिक भारत के प्रारंभिक विचारकों का ध्यान भारत के सामाजिक और धार्मिक मुद्दों की ओर गया। उदाहरण के लिए, राजा राम मोहन राय ने अपनी पहली प्रकाशित रचना तुहफत-उल-मुवाहहिदीन (एकेश्वरवादियों को एक उपहार) में सामान्य रूप से तत्कालीन धार्मिक व्यवस्था और उससे जुड़े निहित स्वार्थों की विवेकपूर्ण समीक्षा की। अपने बाद के कार्यों में, उन्होंने हिंदू धर्म की धार्मिक मान्यताओं, पाखंड और सती प्रथा, बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों की भी आलोचना की। उनकी राय में, सामाजिक सुधार और आधुनिकीकरण दोनों के लिए धार्मिक सुधार आवश्यक थे।

3. शहरीकरण और आधुनिकीकरण

शहरीकरण और आधुनिकीकरण और रेलवे की शुरूआत ने खाने, पीने, अस्पृश्यता आदि के बारे में लोगों के विचारों को प्रभावित किया। इन नए विचारों की तकनीक की उथल-पुथल ने भारतीय संस्कृति में प्रसार की भावना पैदा की। संस्कृत के अध्ययन और प्रिंटिंग प्रेस के विस्तार के कारण लोग उन पुस्तकों को पढ़ने लगे जिन्हें उनके पूर्वजों ने पहले कभी नहीं पढ़ा था। इस ज्ञान के विस्तार के कारण भारत में पुनर्जागरण की भावना का संचार हुआ। इन सबके परिणामस्वरूप भारतीय समाज में कुछ धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलन प्रारंभ हुए, जिन्होंने न केवल भारतीय समाज के स्वरूप को बदला बल्कि भारत के आधुनिकीकरण में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

4. राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति

ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में कई सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन हुए। ये सभी उभरती हुई राष्ट्रीय चेतना और भारतीय लोगों के बीच पश्चिमी उदार विचारों के प्रसार की अभिव्यक्तियाँ थीं। ये आंदोलन राष्ट्रीय रूप लेते रहे और साथ ही उन्होंने सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में पुनर्निर्माण के कार्यक्रम को लागू किया। सामाजिक दायरे में कई आंदोलन हुए जैसे जाति सुधार या जाति उन्मूलन, महिलाओं के लिए समान अधिकार, बाल विवाह के खिलाफ अभियान, विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबंध, कानूनी और सामाजिक असमानताओं के खिलाफ संघर्ष

5. राष्ट्रवाद की लोकतांत्रिक आकांक्षा

भारतीय राष्ट्रवाद ने अपने जन्म से ही एक लोकतांत्रिक इच्छा को महसूस किया। सामाजिक सुधार और धार्मिक सुधार आंदोलनों ने इन इच्छाओं को अपने में समाहित कर लिया। विभिन्न स्तरों पर इन आंदोलनों ने धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्रों से उन विशेषाधिकारों को खत्म करने की कोशिश की जो राष्ट्र की एकता में बाधक थे, देश की सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं का लोकतंत्रीकरण किया, जाति व्यवस्था में सुधार या उन्मूलन किया। उन्होंने जाति या लिंग के भेदभाव के बिना सभी भारतीय लोगों के लिए सामाजिक अधिकार स्थापित करने का प्रयास किया। सुधारकों ने तर्क दिया कि एक मजबूत राष्ट्रीय एकता के निर्माण के लिए संस्थानों और सामाजिक संबंधों का ऐसा लोकतंत्रीकरण आवश्यक था।

6. स्वशासन की मांग की वैधता के लिए तर्क

भारत की धार्मिक समस्याओं और सामाजिक बुराइयों ने ब्रिटिश सत्ता को उनके औपनिवेशिक शासन को जारी रखने का कारण प्रदान किया। महिलाओं और दलितों की समस्याओं ने स्वशासन के लिए भारतीयों के लिए अक्षमता पैदा की। दलितों ने अपनी हीनता के लिए मुख्यधारा के राष्ट्रवाद का विरोध किया। उन्होंने राष्ट्र की स्वतंत्रता और भारत की स्वशासन की अपेक्षा अपनी मुक्ति के प्रश्न को प्राथमिकता दी। इसलिए मुख्यधारा के राष्ट्रवादियों के लिए यह आवश्यक था कि वे अपने इन  प्रश्नों का समाधान करें। इस प्रकार सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों ने स्वशासन और स्वतंत्रता की भारतीय माँग की वैधता के लिए तर्क प्रदान किए।

7. परिवर्तन की चेतना

भारत में अंग्रेजी शिक्षित भारतीय जनता में सुधार की चेतना जागृत हुई। राजा राममोहन राय, अक्षय कुमार दत्त, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, देवेंद्र नाथ टैगोर, माइकल मधुसूदन दत्त, गिरीश चंद्र घोष, हरिश्चंद्र मुखर्जी जैसे लोग बंगाल में हिंदू धर्म के नाम पर अन्याय और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने में अपने उत्कृष्ट कार्य के लिए प्रसिद्ध हैं। देश के अन्य भागों में भी परिवर्तन की इच्छा जागृत हुई। पश्चिम में गोपाल हरि देशमुख, महादेव गोविंद रानाडे और ज्योतिबा फुले, दक्षिण में नारायण गुरु स्वामी इनके अलावा दयानंद सरस्वती और सैयद अहमद खान जैसे प्रमुख सुधारकों ने भारतीय समाज में परिवर्तन की चेतना जगाई।

Major causes of social and religious movements

 

            

The religious and social renaissance of the 19th century is an important event in modern Indian history. This forced Indians to introspect. At this time the Indian society was in a passive and powerless state. The lower class of the society had started accepting Christianity for social respect and economic facilities. Therefore, there was a need for reform to protect religion and society. Along with these reforms, the project of new nation was also being run. The reasons for this were the following-

1.    Renaissance in India under the influence of the Western Enlightenment

The western  class in India was greatly influenced by rationalism, scientism and humanism. Thus a new trend of 'secularism' was born. According to this religion began to be measured by the reason and any inconsistencies in private religion were discarded and efforts were made to either replace the traditional beliefs or find a rational reason for them. Thus the idea of untouchability, which was an integral part of Hinduism, was abandoned. Similarly, there were changes in the daily rituals of the society.

2.    Judicious Review of Religion and Society

The attention of the early thinkers of modern India went towards the social and religious issues of India. For example, Raja Ram Mohan Roy in his first published work Tuhfat-ul-Muwahhidin (A Gift to Monotheists) made a judicious review of the then religious system in general and the vested interests associated with it. In his later works, he also criticized the religious beliefs of Hinduism, hypocrisy and social evils like Sati Pratha, child marriage. In his opinion, religious reforms were necessary for both social reform and modernization.

3.    Urbanization and Modernization

Urbanization and modernization and the introduction of railways influenced people's ideas about eating, drinking, untouchability, etc. The turbulence of these new ideas technology created a sense of diffusion in Indian culture. Due to the study of Sanskrit and the expansion of printing press, people started reading books which their ancestors had never read before. Due to the expansion of this knowledge, there was a spirit of renaissance in India. As a result of all this, some religious and social reform movements started in the Indian society, which not only changed the form of Indian society but also contributed very significantly in the modernization of India.

4.    Expression of Nationalism

Many social and religious reform movements took place in India during the British rule. All these were manifestations of the emerging national consciousness and the spread of western liberal ideas among the Indian people. These movements continued to take a national form and at the same time, they implemented the program of reconstruction in the social and religious field. There were many movements in the social circle like caste reform or caste abolition, equal rights for women, campaign against child marriage, ban on widow remarriage, struggle against legal and social inequalities

5.    Democratic aspiration of Nationalism

Indian nationalism felt a democratic desire from its birth. Social reform and religious reform movements incorporated these desires within themselves. These movements at different levels tried to eliminate privileges from the religious and political spheres that were hindering the unity of the nation, democratize the social and religious institutions of the country, reform or abolish the caste system. He tried to establish social rights for all Indian people without discrimination of caste or gender. The reformers argued that such a democratization of institutions and social relations was essential to building a strong national unity.

6.    Arguments for the legitimacy of the demand for self-government

The religious problems and social evils of India provided the reason for the continuation of their colonial rule to the British authority. The problems of women and Dalits created disabilities for the Indians for self-government. Dalits resisted mainstream nationalism for their inferiority. He gave priority to the question of his liberation over the independence of the nation and the self-government of India. It was therefore necessary for the mainstream nationalists to address their questions. Thus the social and religious reform movements provided arguments for the legitimacy of the Indian demand for self -government and independence.

7.    Consciousness of change

In India, the consciousness of reform was awakened among the English educated Indian people. People like Raja Rammohan Roy, Akshay Kumar Dutt, Ishwar Chandra Vidyasagar, Devendra Nath Tagore, Michael Madhusudan Dutt, Girish Chandra Ghosh, Harishchandra Mukherjee are famous for their outstanding work in fighting against injustice and superstition in the name of Hinduism in Bengal. The desire for change awakened in other parts of the country as well. Movements led by Gopal Hari Deshmukh, Mahadev Govind Ranade and Jyotiba Phule in the west, Narayan Guru Swami in the south besides prominent reformers like Dayanand Saraswati and Syed Ahmed Khan raised consciousness in the Indian society.

सोमवार, 23 जनवरी 2023

कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियां

कुतुबुद्दीन ऐबक के समक्ष चुनौतियाँ

जिन परिस्थितियों में उसने भारत के प्रशासनिक दायित्व का निर्वहन करना प्रारम्भ किया था, वे नितान्त प्रतिकूल थीं। मोहम्मद गौरी की आकस्मिक मृत्यु ने गज़नी - गौर से लेकर लखनौती तक में लगभग राजनीतिक अराजकता सी स्थिति थी। ऐबक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसकी प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित थीं-

1.   प्रतिद्वन्द्वियों की समस्या:

सर्वप्रथम ऐबक को अपने प्रतिद्वन्द्वियों का सामना करना था जिनमें इख्तियारूद्दीन, यल्दूज तथा कुबाचा प्रमुख थे। इनके अधिकार में बहुत बड़े क्षेत्र थे और वे अपने को ऐबक का समकक्षी समझते थे। यल्दूज गजनी में और कुबाचा मुल्तान में शासन करता था।

2.  हिन्दू सरदारों की समस्या:

ऐबक की दूसरी कठिनाई यह थी कि प्रमुख हिन्दू सरदार, खोई हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहे थे। 1026 ई. में चंदेल राजपूतों ने अपनी राजधानी कालिंजर पर फिर से अधिकार स्थापित कर लिया। गहड़वाल राजपूतों ने हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में फर्रूखाबाद तथा बदायूँ में धाक जमा ली। ग्वालियर फिर से प्रतिहार राजपूतों के हाथों में चला गया। बंगाल तथा बिहार में भी इख्तियारूद्दीन के मर जाने के बाद विद्रोह की अग्नि प्रज्वलित हो उठी।

3.  मध्य एशिया से आक्रमण की आशंका:

ऐबक को सर्वाधिक भय मध्य एशिया से आक्रमण का था। ख्वारिज्म के शाह की दृष्टि गजनी तथा दिल्ली पर लगी हुई थी।

4.  गज़नी साम्राज्य

लाहौर को गज़नी साम्राज्य अपना अंग समझता था, अतः ऐबक लाहौर को गज़नी के प्रभुत्व से मुक्त कराना चाहता था

5.  इस्लामी कानून का रोड़ा

इस्लामी कानून के अनुसार एक दास शासक नहीं बन सकता था, अतः ऐबक के लिए स्वयं को गोरी के उत्तराधिकारी राजकुमार मेहमूद से अपने को दासता से से मुक्त कराना आवश्यक था।

                 भारत में ऐबक का जीवन

भारत में ऐबक के जीवन को तीन चरणों में बाटा जा सकता है-

प्रथम चरण 1206 ईसवी तक

जब वह मुइजुद्दीन का प्रतिनिधि था तब उसका शासनकाल सैनिक गतिविधियों से पूर्ण था।

द्वितीय चरण 1206 से 1208 तक

जब गोरी की भारतीय सल्तनत का मलिक या सिपहसालार था तब उसका जीवन राजनीतिक कार्यों में व्यतीत हुआ।

तृतीय चरण 1208 से 1210 तक

जब वह भारतीय राज्य का औपचारिक अधिकार प्राप्त शासक था तब उसने दिल्ली सल्तनत का मानचित्र निर्मित किया।

             चुनौतियों का समाधान : उपलब्धियां

ऐबक में कठिनाइयों एवं बाधाओं को दूर करने की पूर्ण क्षमता थी उसने साहस और धैर्य से कठिनाइयों एवं बाधाओं को दूर किया।

(क) प्रबुद्ध मार्ग 

1. विवाह कूटनीति

उसने विवाह के द्वारा कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करके, तात्कालिक समाधान खोजा। इसने तुर्की सरदारों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का भरसक प्रयास किया। इसने नासिरुद्दीन कुबाचा के साथ अपनी बहन का विवाह कर दिया और कुबाचा ने उसकी अधीनता स्वीकार कर लिया। इसने अपना विवाह ताजुद्दीन याल्दौज़ की पुत्री के साथ किया और इल्तुतमिश की बढती हैसियत और उपयोगिता को देखते हुए उससे अपनी लड़की का विवाह करके उसने अपनी स्थिति को मजबूत कर ली।

2. कुशल अकर्मण्यता की नीति

राजपूत : ऐबक उत्तर-पश्चिम की राजनीति तथा बंगाल के झगड़े में इतना व्यस्त था कि वह राजपूतों की शक्ति को नहीं दबा सकता था। अतः उसने बदायूं पर अपना आधिपत्य स्थापित करके अपने दास इल्तुतमिश को वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया और अन्य छोटे-छोटे राजाओं से कर वसूल किया परन्तु उसने कालिंजर तथा ग्वालियर को फिर से अधिकार में करने का प्रयास नहीं किया।

गज़नी : यह गज़नी में विद्रोह होते ही वहां से खिसक लिया।

बंगाल : साथ ही बंगाल की परिस्थिति से समझौता करने अलीमर्दान को समर्थन दिया।  दरअसल 1206 ईसवी में बख्तियार खिलज़ी का वध अलीमर्दा खाँ ने कर दिया परन्तु स्थानीय खिलजी सरदारों ने उसे कैद करके कारागार में डाल दिया और उसके स्थान पर मुहम्मद शेख को शासक बना दिया। अलीमर्दा खाँ कारगार से निकल भागा और दिल्ली पहुँच कर ऐबक से, बंगाल में हस्तक्षेप करने के लिए कहा। अलीमर्दा खाँ बंगाल का गवर्नर बना दिया गया। उसने ऐबक की अधीनता स्वीकार कर ली और दिल्ली को वार्षिक कर देने के लिए उद्यत हो गया।

मध्य एशिया : कुतुबुद्दीन ऐबक ने बुद्धिमानी दिखाते हुए स्वयं को मध्य-एशिया की राजनीति से अलग रखा। अतः वह उस ओर से आने वाली सम्भाव्य आपत्तियों से सर्वथा विमुक्त रहा।

3. कट्टरपंथियों के लिए खुराक की व्यवस्था

27 हिन्दू और जैन मंदिरों को तोड़ कर कुव्वत–उल–मस्जिद बनाई गई। उसने अजमेर में एक संस्कृत महाविद्यालय को को तुड़वाकर ढाई दिन का झोपड़ा नामक एक मस्जिद भी बनवाई।

(ख) तुर्की निर्भीकता का मार्ग: विजय अभियान  

1. प्रतिद्वन्द्वियों पर विजय:

भारत में ऐबक के तीन प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी थे- इख्तियारूद्दीन, कुबाचा तथा यल्दूज। इख्तियारूद्दीन ने सदैव ऐबक का आदर किया और उसी की अधीनता में शासन किया। कुबाचा अब ऐबक का बहनोई था। अतः कुबाचा ने उसका विरोध नहीं किया और न उसे किसी प्रकार कष्ट पहुँचाया। यल्दूज ऐबक का श्वसुर था परन्तु यल्दूज ने ऐबक का विरोध किया। 1208 ई. में यल्दूज ने गजनी में एक सेना तैयार की और मुल्तान पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में कर लिया परन्तु ऐबक ने कुबाचा का सहयोग लेकर शीघ्र ही उसे वहाँ से मार भगाया तथा गजनी पर अधिकार कर लिया। लेकिन गजनी के लोग यह सहन नहीं कर सके। ऐबक को विवश होकर दिल्ली लौट जाना पड़ा परन्तु उसने यल्दूज के भारतीय साम्राज्य पर प्रभुत्व स्थापित करने के समस्त प्रयत्नों को विफल कर दिया।

(ग)परिष्कृत फ़ारसी उदारता का मार्ग

1. मलिक के पद से संतुष्ट 

यहाँ एक बात विशेष महत्वपूर्ण है, जिसका उल्लेख आवश्यक है। 1206 ई. में मोहम्मद गौरी की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात् उसने प्रशासनिक दायित्व तो ग्रहण कर लिया था, किन्तु, मात्र 'मलिक' एवं 'सिपहसालार' के विरूद ही धारण किए। उसने कभी अपने आप को 'सुल्तान' नहीं सम्बोधित किया और न ही सुल्तान का विरूद धारण किया।

2. परंपरा का सम्मान

उसे राजत्व के सिद्धान्त की पूर्ण जानकारी थी, जिसके अनुसार 'एक दास, सुल्तान नहीं बन सकता था'। ऐबक ने गज़नी पर शासन के दौरान फिरोजकोह में दिन काट रहे गोरी के उत्तराधिकारी राजकुमार मेहमूद से मुक्तिपत्र प्राप्त कर दासता से मुक्ति प्राप्त कर ली। गयासुद्दीन मेहमूद ने उसे राजकीय सत्ता के आवश्यक चिह्न “छत्र” तथा “दुरबाश” दे दिए। इस प्रकार जब उसे दासता से मुक्ति मिल गयी तब 1208-9 ई. में उसने सुल्तान का विरूद धारण किया।

3. संरक्षण व न्यायप्रिय शासन तथा उदारता

फ़ख़े मुदब्बिर एक स्थान पर लिखता है कि 'यद्यपि उसके सैनिकों में विभिन्न जातियों, जनजातियों, क्षेत्रों के लोग थे; यथा तुर्क, गौरी, खुरासानी, ख़ल्जी, अफ़गान व हिन्दुस्तानी, फिर भी किसी सैनिक को यह साहस न था कि वह किसी किसान के घास का एक तिनका, रोटी का टुकड़ा, बकरी या पक्षी लेता या उस  के घर-जमीन पर बलात् अधिकार कर लेता।' अतः उसने न्याय एवं उदारता के साथ शासन किया और अपनी उदारता के लिए तो वह शताब्दियों तक प्रसिद्ध रहा। अतः समकालीन साहित्य में उसे  लाख बख़्श (लाखों दान करने वाले) के सम्बोधन से पुकारा जाता है। अतः सैन्य गुणों के साथ-साथ दानवीरता, न्यायप्रियता एवं प्रजा के प्रति पितृ-तुल्य चिन्ता सहज ही उसका राजत्व सिद्धान्त स्थापित कर देते हैं।

मिन्हाज़ के अनुसार सुलतान दूसरा हातिम था और बड़ा वीर तथा उदार शासक था। वह विशाल हृदय का महान दानी था इसलिये उसे लाख बक्श भी कहा जाता था। उसने कुतुबमीनार तथा ढाई दिन का झोपड़ा मस्जिद भी बनवाया।

हसन निजामी के अनुसार उसके राज्य में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे।

निष्कर्ष

इस प्रकार, ऐबक एक सामान्य गुलाम से अपनी योग्यता के बल पर सुल्तान बन गया। उसने अपनी कूटनीति तथा वीरता से अपने मार्ग की बाधाओं को दूर किया। डॉ. ए. बी. एम. हबीबुल्ला अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में उसका मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं "उसमें तुर्कों की निर्भीकता एवं फ़ारसियों की परिष्कृत अभिरूचि एवं शालीनता पायी जाती थी।”  

Achievements of Qutbuddin Aibek

Challenges before Qutbuddin Aibek

The circumstances in which he started discharging the administrative responsibility of India were very unfavorable. The sudden death of Mohammad Ghori caused political anarchy almost from Ghazni-Gor to Lakhnauti. Aibek had to face many difficulties. His main problems were the following-

1.  Rivals:

First of all, Aibek had to face his rivals, among whom Ikhtiyaruddin, Yalduj and Qubacha were prominent. They had very large area under their authority and they considered themselves equal to Aibek. Yalduj ruled in Ghazni and Qubacha ruled in Multan.

2. Hindu Sardars:

Aibek's other difficulty was that the leading Hindu chieftains were trying to recover their lost independence. In 1026 AD, the Chandela Rajputs re-established their authority over their capital Kalinjar. The Gahadwal Rajputs under the leadership of Harishchandra captured Farrukhabad and Badaun. Gwalior again passed into the hands of the Pratihara Rajputs. In Bengal and Bihar also, after the death of Ikhtiyaruddin, the fire of rebellion ignited.

3. Fear of invasion from Central Asia:

Aibek was most afraid of invasion from Central Asia. The sight of the Shah of Khwarizm was fixed on Ghazni and Delhi.

4. Ghazni Empire

The Ghazni Empire considered Lahore as its part, so Aibek wanted to free Lahore from the dominance of Ghazni.

5. Obstacles of Islamic law

According to Islamic law a slave could not become a ruler, so it was necessary for Aibek to free himself from servitude to Prince Mahmud, the successor of Ghori.

            Aibek's life in India

Aibek's life in India can be divided into three phases-

First phase till 1206 AD

When he was the representative of Muizzuddin, his reign was full of military activities.

Phase II from 1206 to 1208

When he was the Malik or the warlord of the Indian Sultanate of Ghori, his life was spent in political work.

Phase III from 1208 to 1210

When he was the formal ruler of the Indian state, he made the map of the Delhi Sultanate.

      Solving Challenges: Achievements

Aibek had full ability to overcome difficulties and obstacles, he overcome difficulties and obstacles with courage and patience.

(a) The enlightened path

1. Marriage Diplomacy

He sought an immediate solution by establishing diplomatic relations through marriage. He tried its best to strengthen his position by establishing matrimonial relations with the Turkish Sardars. He married his sister to Nasiruddin Qubacha and Qubacha accepted his suzerainty. He married Tajuddin Yaldouz's daughter and seeing the increasing status and usefulness of Iltutmish, he strengthened his position by marrying his daughter to him.

2. Policy of efficient inactivity

Rajputs: Aibek was too busy with the politics of the north-west and the Bengal conflict that he could not suppress the power of the Rajputs. Therefore, by establishing his supremacy over Badaun, he appointed his slave Iltutmish as its ruler and collected taxes from other small kings, but he did not try to recapture Kalinjar and Gwalior.

Ghazni: As soon as there was a rebellion in Ghazni, he moved from there.

Bengal: Also supported Alimardan to compromise with the situation in Bengal. In fact, in 1206 AD, Bakhtiyar Khilji was killed by Alimarda Khan, but the local Khilji chieftains imprisoned him and made Muhammad Sheikh the ruler in his place. Alimarda Khan escaped from prison and reached Delhi and asked Aibek to intervene in Bengal. Alimarda Khan was made the governor of Bengal. He accepted the submission of Aibek and agreed to pay annual tribute to Delhi.

Central Asia: Qutbuddin Aibek wisely kept himself away from the politics of Central Asia. Therefore, he remained completely free from possible objections coming from that side.

3. Dose for radicals

Quwwat-ul-Masjid was built by demolishing 27 Hindu and Jain temples. He also built a mosque called Dhai Din Ka Jhopra by demolishing a Sanskrit college in Ajmer.

(b) Turkish boldness : campaign of conquest

1. Victory over rivals:

Aibek had three main rivals in India - Ikhtiyaruddin, Qubacha and Yalduj. Ikhtiyaruddin always respected Aibek and ruled under him. Qubacha was now Aibek's son-in-law. So Kubacha did not oppose him and did not hurt him in any way. Yalduz was the father-in-law of Aibek but Yalduz opposed Aibek. In 1208 AD, Yalduj prepared an army in Ghazni and attacked Multan and captured it, but Aibek, with the help of Qubacha, quickly chased him away from there and took control of Ghazni. But the people of Ghazni could not tolerate this. Aibek was forced to return to Delhi but he failed all the efforts of Yalduj to establish dominance over the Indian Empire.

(c) The path of refined Persian generosity

1. Satisfied with the post of Malik

Here one thing is very important, which needs to be mentioned. After the sudden death of Mohammad Ghori in 1206 AD, he had assumed the administrative responsibility, but only against 'Malik' and 'Sipahsalar'. He never addressed himself as 'Sultan' nor did he hold designation the Sultan.

2. Respect for tradition

He was fully aware of the principle of kingship, according to which “a slave could not become a Sultan”. During the reign of Ghazni, Aibek obtained freedom from slavery by obtaining a letter of emancipation from Prince Mahmud, the successor of Ghori, who was spending days in Firozkoh. Ghiyasuddin Mehmud gave him the necessary symbols of state power "Chhatra" and "Durbash". In this way, when he got freedom from slavery, then in 1208-9 AD, he held post the Sultan.

3. Protection and impartialt rule and generosity

Fakhe Mudabbir writes at one place that 'although his soldiers had people from different castes, tribes, regions; Turks, Ghauris, Khurasanis, Khaljis, Afghans and Hindustani, yet no soldier had the courage to take a straw of grass, a piece of bread, a goat or a bird from a farmer or forcibly take possession of his house and land. So he ruled with justice and generosity and for his generosity he was famous for centuries. Therefore, in contemporary literature, he is called with the address of Lakh Baksh (the one who donates millions). Therefore, along with military qualities, charity, justice and fatherly concern towards the subjects easily establish his principle of kingship.

According to Minhaj, Sultan was the second Hatim and was a very brave and generous ruler. He was a great donor with a heart, so he was also called Lakh Baksh. He also built Qutub Minar and Dhai Din Ka Jhopra Masjid.

According to Hasan Nizami, lions and goats used to drink water at the bank of river in his kingdom.

Conclusion

Thus, Aibek rose from a common slave to a Sultan by virtue of his own merit. He removed the obstacles in his path by his diplomacy and bravery. Dr. A. B. M. Habibullah evaluating him in his famous book, writes, "The boldness of the Turks and the refined taste and decency of the Persians were found in him."

लॉर्ड रिपन का सुधार

 

1880 में, ग्लैडस्टन के नेतृत्व में लिबरल पार्टी इंग्लैंड में सत्ता में आई। उन्होंने भारत के प्रति अपनी नीति का वर्णन इन शब्दों में किया, "भारत में निवास करने का हमारा अधिकार इस तर्क पर आधारित है कि हमारा रहना भारतीयों के लिए फायदेमंद है और दूसरा यह कि भारतीयों को यह महसूस होना चाहिए कि यह उनके लिए फायदेमंद है"। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सरकार ने रिपन को वायसराय के पद के लिए चुना। रिपन जो एक लोकतंत्रवादी था, ने अपनी पुस्तक "द ड्यूटी ऑफ द एज" में लोकतंत्र के दो गुणों का उल्लेख किया है। पहली भागीदारी और दूसरी स्वशासन। आगे उनकी नीतियां इन लक्ष्यों से प्रेरित थीं।

1. वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1882 का निरसन

लिटन द्वारा पारित इस घिनौने कृत्य को 1882 ई. में निरस्त कर दिया गया। भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों को अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्रों के समान स्वतंत्रता दी गई। इससे जनता की राय को फिर से खुश करने में काफी मदद मिली। हालांकि अन्य तरीकों से विद्रोह के लेखों को अभी भी जब्त करने का अधिकार था।

2. पहला कारखाना अधिनियम 1881

जिन फैक्ट्रियों में 100 से ज्यादा मजदूर काम करते थे वहां 7 साल से कम उम्र के मजदूर काम नहीं कर सकते थे. 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए काम के घंटे निर्धारित किए गए। खतरनाक मशीनों के चारों ओर बाड़ लगाना अनिवार्य कर दिया गया। इन नियमों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए एक इंस्पेक्टर नियुक्त किया गया था।

3. वित्तीय विकेंद्रीकरण 1882

मेयो द्वारा प्रारंभ की गई विकेन्द्रीकरण नीति के लिए तीन मदें निश्चित की गई हैं। पहले मद की सारी राशि केंद्र में चली गई। इसमें सीमा शुल्क, डाक, टेलीग्राफ, रेलवे, अफीम, नमक, टकसाल, सैन्य आय और भूमि कर आदि शामिल थे। दूसरे मद की आय प्रांतीय सरकार के पास जाती थी। इसमें जेल, चिकित्सा सेवा, छपाई, राजमार्ग और सामान्य प्रशासन जैसी स्थानीय प्रकृति की वस्तुएँ शामिल थीं। तीसरी मद थी आबकारी कर, स्टाम्प, वन, निबंधन शुल्क आदि, जो प्रांतों और केंद्र सरकारों के बीच समान रूप से विभाजित थे।

4. स्थानीय स्वशासन 1882

रिपन का कहना था कि देश की राजनीतिक शिक्षा की शुरुआत स्थानीय स्वशासन से होती है। इसकी अवधि के दौरान, ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय बोर्डों की स्थापना की गई थी। प्रत्येक जिले में जिला अनुमंडल तालुका या तहसील बोर्ड बनाने की अनुमति दी गई, शहरों में नगर पालिकाओं की स्थापना की गई। स्थानीय संस्थाओं को निश्चित कार्य तथा आय के साधन दिये गये। इसके लिए 1883-85 के बीच स्थानीय स्वशासन अधिनियम पारित किए गए। 1884 के मद्रास स्थानीय बोर्ड अधिनियम के अनुसार, प्रकाश व्यवस्था, स्वच्छता, शिक्षा, जल आपूर्ति और चिकित्सा सहायता का कार्य स्थानीय संस्थाओं को सौंपा गया था। इस तरह के कृत्य पंजाब और बंगाल में किए गए थे।

5. भू-राजस्व नीति

रिपन की योजना स्थायी कर व्यवस्था में भी कुछ परिवर्तन करने की थी। ताकि किसानों को आश्वस्त किया जाए कि उन्हें भी स्थायी अधिकार मिलेगा।  सरकार उन्हें यह आश्वासन देगी कि वस्तुओं की मूल्य वृद्धि की स्थिति में ही भूमि कर बढ़ाया जाएगा। बंगाल के जमींदारों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और बंगाल के किसानों ने भी। क्योंकि वे ब्रिटिश नौकरशाही से डरते थे। भारत के सचिव भी इससे सहमत नहीं थे।

6. शिक्षा सुधार

1882 में सर विलियम हंटर की अध्यक्षता में एक आयोग नियुक्त किया गया, जो चार्ल्स वूड 1854 के बाद शिक्षा की प्रगति की समीक्षा करने के लिए नियुक्त किया गया। इस आयोग ने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के प्रसार और उन्नति के लिए सरकार की जिम्मेदारी पर बल दिया और सुझाव दिया कि यह कार्य सरकार द्वारा बारीकी से निगरानी करने के लिए स्थापित स्थानीय नगर पालिकाओं को सौंपा जाए। विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षा के लिए साहित्यिक शिक्षा और स्वरोजगार के लिए व्यावसायिक शिक्षा की बात की गई।

7. इल्बर्ट बिल विवाद (1883-84)

श्री बिहारी लाल गुप्ता जो कोलकाता में प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट के पद पर कार्यरत थे 1882 में उनकी पदोन्नति हुई। इसके बाद उन्हें यूरोपीय अभियुक्तों की सुनवाई का अधिकार नहीं रहा। विरोध में, उन्होंने डिप्टी गवर्नर ईडन को एक पत्र लिखा। बात आगे बढ़ी और सर पीसी इल्बर्ट ने, जो वायसराय की परिषद के कानून सदस्य थे, इस अन्याय को दूर करने की भावना से एक विधेयक पारित किया, जिसे इल्बर्ट विधेयक के नाम से जाना जाता है। इसे 2 फरवरी 1883 को विधान परिषद में पेश किया गया था। विधेयक का उद्देश्य नस्ली भेदभाव के आधार पर सभी न्यायिक अयोग्यताओं को दूर करना था। इसने एक बवंडर खड़ा कर दिया और यूरोपीय समुदाय ने इन विशेष अधिकारों की रक्षा के लिए एक रक्षा संघ बनाया। विरोध के लिए डेढ़ लाख रुपये की राशि एकत्र की गई। कहा जाता था कि क्या काला हमें जेल भेजेगा ? लंदन के प्रसिद्ध अखबार द टाइम्स ने नीतियों पर टिप्पणी की और आलोचना की। महारानी विक्टोरिया को भी वायसराय के प्रस्ताव की बुद्धिमत्ता पर संदेह था।

8. रिपन का इस्तीफा

1882, ग्लैडस्टन ने मिस्र पर अधिकार करने का आदेश दिया। भारत से सेना भेजी जाती थी और उस व्यय का कुछ भाग भारत सरकार को वहन करना पड़ता था। रिपन ने इसका विरोध किया। इल्बर्ट बिल के विवाद से वह पहले से ही नाखुश थे। उसे लगा कि वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ है। इसलिए उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया।

रिपन कहा करता था कि मुझे मेरे कर्मों से आंको शब्दों से नहीं। फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने रिपन को भारत का रक्षक कहा। और उनके शासनकाल को भारत में स्वर्ण युग की शुरुआत कहा। दूसरी ओर अर्नोल्ड ने कहा कि उसने भारत के खो जाने के दरवाजे खोल दिए। वह भारतीयों में बहुत लोकप्रिय थे और उन्हें जेंटल रिपन कहा जाता था। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने लिखा है कि उन्हें इसलिए याद नहीं किया जाता है क्योंकि उन्होंने सफलता हासिल की, बल्कि इसलिए याद किया जाता है क्योंकि उनके उद्देश्य पवित्र थे और उन्हें नस्लीय भेदभाव से नफरत थी। रिपन का कार्य असफल रहा लेकिन उसने भारतीय आशाओं और आकांक्षाओं को जगाया। इसने भारत में राजनीतिक जीवन की शुरुआत को चिह्नित किया।

लॉर्ड लिटन का सुधार, 1876-80


लॉर्ड लिटन बेंजामिन डिज़रायली की कंजर्वेटिव सरकार के एक नामित व्यक्ति थे और उन्हें मध्य एशियाई विकास पर विशेष नजर रखने के लिए नियुक्त किया गया था। लिटन पेशे से एक राजनयिक थे और उन्होंने  ब्रिटिश विदेश कार्यालय में सेवा की थी। वह एक प्रतिष्ठित कवि, उपन्यासकार और निबंधकार थे और साहित्य जगत में 'ओवेन मेरेडिथ' के नाम से जाने जाते थे। 1876 तक लिटन को प्रशासन का कोई अनुभव नहीं था और न ही भारतीय मामलों से कोई परिचित था।

1. लिटन और मुक्त व्यापार

मुक्त व्यापार इंग्लैंड के शासक वर्गों के लिए एक जुनून बन गया था, और इसलिए भी क्योंकि यह एक औद्योगिक रूप से उन्नत देश के हितों के अनुकूल था, जो उस समय इंग्लैंड था। लंकाशायर कपास निर्माता बंबई में खुल रही नई कपास मिलों से जलते थे और भारत को प्रतिस्पर्धी उद्योगों के विकास से रोकना चाहते थे; उन्होंने भारत में लगाए गए कपास के सामानों पर आयात शुल्क पर हमला किया। लिटन ने चीनी और कपड़े की कुछ अन्य किस्मों सहित उनतीस वस्तुओं पर आयात शुल्क समाप्त कर दिया। राज्य सचिव लार्ड सैलिसबरी, ने वायसराय की कार्रवाई का अनुमोदन किया, हालांकि भारत परिषद समान रूप से विभाजित थी, मतदान में सात सदस्य इसके पक्ष में थे तो सात सदस्य इसके खिलाफ थे। इस प्रकार भारतीय प्रशासन के सुधार प्रयास अंग्रेजी राजनीति की आवश्यकताओं के अधीन थे। 

2. वित्तीय सुधार

प्रांतीय सरकारों को भू-राजस्व, उत्पाद शुल्क, स्टाम्प, कानून और न्याय, सामान्य प्रशासन आदि सहित सभी सामान्य प्रांतीय सेवाओं पर व्यय का नियंत्रण दिया गया था। नई स्थानांतरित सेवाओं के निर्वहन के लिए, प्रांतीय सरकारों को उनके वेतन में कोई वृद्धि नहीं दी गई थी। निश्चित अनुदान, लेकिन राजस्व के कुछ निर्दिष्ट स्रोतों (जैसे, कानून और न्याय, उत्पाद शुल्क, लाइसेंस शुल्क) को अपने संबंधित प्रांतों से सौंप दिया। यह भी तय किया गया  कि अनुमानित आय से अधिक के किसी भी अधिशेष को केंद्र सरकार के साथ समान रूप से साझा किया जाय साथ ही हानि में भी बराबर का ही बटवारा हो ।

वायसराय की परिषद के वित्त सदस्य सर जॉन स्ट्रेची ने भी ब्रिटिश प्रांतों में नमक शुल्क की दरों को बराबर करने के लिए कदम उठाए। उन्होंने मुआवजे के बदले नमक के निर्माण के अपने अधिकारों के समर्पण  के लिए भारतीय राजकुमारों के साथ बातचीत की। इस प्रकार नमक की अंतर्राज्यीय तस्करी समाप्त हो गई और नमक शुल्क से सरकार को अधिक राजस्व मिलने लगा।

3. 1876-78 का अकाल

1876-78 के दौरान भारत में भयंकर अकाल पड़ा। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र मद्रास, बंबई, मैसूर, हैदराबाद और मध्य भारत और पंजाब के कुछ हिस्से थे। 58 मिलियन से अधिक की आबादी के साथ अकाल प्रभावित क्षेत्र का अनुमान 257,000 वर्ग मील था। रोमेश दत्त ने अनुमान लगाया है कि एक वर्ष में पाँच मिलियन लोग मारे गए। 1878 में रिचर्ड स्ट्रैची की अध्यक्षता में एक अकाल आयोग नियुक्त किया गया था जो अकाल की पूरी समस्या को देखता और अकाल राहत प्रदान करने की दिशा में काम करता । इसके अलावा, इसने हर प्रांत में एक अकाल कोष बनाने का आग्रह किया। निवारक कार्यक्रम के एक भाग के रूप में, आयोग ने रेलवे और सिंचाई कार्यों के निर्माण की सिफारिश की। इस प्रकार उन सिद्धांतों को निर्धारित किया गया जिन पर भारत सरकार ने अपनी बाद की अकाल नीति को आधारित किया।

4. द रॉयल टाइटल एक्ट, 1876

ब्रिटिश संसद ने महारानी विक्टोरिया को कैसर-ए-हिंद या भारत की साम्राज्ञी की उपाधि देकर रॉयल टाइटल एक्ट पारित किया।  1 जनवरी 1877 को दिल्ली में एक भव्य दरबार आयोजित किया गया था, जिसमें भारत के लोगों और राजकुमारों को शीर्षक की धारणा की घोषणा की गई थी। दुर्भाग्य से, दरबार उस समय आयोजित किया गया था जब देश के कई हिस्से भीषण अकाल की चपेट में थे। आर.जी. प्रधान के अनुसार  "भारत के लोगों के बीच राष्ट्रीय अपमान के विरोध का एक आन्दोलन चला"। कलकत्ता की एक पत्रिका ने प्रतिकूल टिप्पणी की कि नीरो बाँसुरी बजा रहा था जबकि रोम जल रहा था। उन्होंने 'भारतीयों के लिए भारत' का नारा बुलंद किया और अपने देश पर  अपना दावा किया।

5. वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट, मार्च 1878

लिटन की अलोकप्रिय नीतियों और लोगों की पीड़ा के प्रति सरकार की उदासीनता ने जनता के बीच असंतोष को जन्म दिया। बॉम्बे प्रेसीडेंसी में, विलियम वेडरबर्न के रिकॉर्ड के अनुसार, कृषि दंगों के बाद गैंग डकैती और साहूकारों पर हमले हुए। सुलगता हुआ असंतोष सतह पर आ गया और देशी प्रेस में सरकार की नीतियों की खुलकर आलोचना होने लगी। देशद्रोही लेखन के तेजी से विकास से चिंतित लिटन ने दमनकारी नीति का फैसला किया। मार्च 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट क़ानून की किताबों में डाला गया । 1878 का अधिनियम IX, भारतीय  भाषाओं में प्रकाशनों के बेहतर नियंत्रण के लिए एक मजिस्ट्रेट को किसी भी स्थानीय समाचार पत्र के प्रिंटर और प्रकाशन को जब्त करने का अधिकार देता था।

इंडिया काउंसिल के एक सदस्य सर एर्स्किन पेरी ने बिल को "एक प्रतिगामी और दोषपूर्ण-कल्पित उपाय बताया, जो भारत की भविष्य की प्रगति के लिए हानिकारक" था  एस.एन. बनर्जी ने इस अधिनियम को 'आसमान से बिजली गिरने' के रूप में वर्णित किया। अधिनियम की सबसे खराब विशेषता 'राजद्रोही देशी प्रेस' और 'वफादार एंग्लो-इंडियन प्रेस' के बीच भेदभाव था।

6. शस्त्र अधिनियम, 1878

लिटन के प्रशासन का एक अन्य दमनकारी उपाय भारतीय शस्त्र अधिनियम था। 1878 के अधिनियम XI ने बिना लाइसेंस के हथियारों को रखना, धारण करना या तस्करी करना एक अपराध बना दिया गया । अधिनियम के उल्लंघन के लिए कारावास था जो तीन साल तक या जुर्माना या दोनों के एक साथ हो सकता था । और छुपाने या छुपाने के प्रयास के मामले में सात साल तक कैद या जुर्माना  या दोनों हो सकता था। हालांकि, अधिनियम की सबसे खराब विशेषता नस्लीय भेदभाव थी जो इसे पेश किया गया था। यूरोपीय, एंग्लो-इंडियन और सरकारी अधिकारियों की कुछ श्रेणियों को इस अधिनियम के प्रभाव से छूट दी गई थी।

7. वैधानिक सिविल सेवा

1833 के चार्टर अधिनियम ने भारत में सभी कार्यालयों को राष्ट्रीयता या रंग को दरकिनार करके योग्यता के लिए खुला घोषित किया था। 1853 के चार्टर अधिनियम ने कंपनी के अधीन उच्च सेवाओं में भर्ती के लिए लंदन में एक प्रतियोगी परीक्षा आयोजित करने का प्रावधान किया था। 1864 में सत्येंद्र नाथ टैगोर अनुबंधित सेवा के लिए अर्हता प्राप्त करने वाले पहले भारतीय थे। लिटन ने 1878-79 में वैधानिक सिविल सेवा की योजना प्रस्तावित की। 1879 के नियमों के अनुसार, भारत सरकार 'अच्छे परिवार और सामाजिक प्रतिष्ठा वाले कुछ भारतीयों को प्रांतीय सरकारों की सिफारिश पर और राज्य सचिव की अनुमोदन के अधीन सांविधिक सिविल सेवा में नियुक्त कर सकती थी, बशर्ते कि ऐसी संख्या नियुक्तियाँ एक वर्ष में अनुबंधित सेवा में की गई कुल नियुक्तियों के छठे हिस्से से अधिक नहीं हों । वैधानिक सिविल सेवा को अनुबंधित सेवा के समान स्थिति और वेतन नहीं देना था। हालाँकि, वैधानिक सेवा भारतीय जनता के बीच लोकप्रिय साबित नहीं हुई और आठ साल बाद इसे समाप्त कर दिया गया। अब सिविल सेवा की अधिकतम आयु 21 से घटाकर 19 वर्ष करके उक्त परीक्षा में भाग लेने से भारतीयों को हतोत्साहित करने के लिए कदम उठाए गए थे। चूंकि परीक्षा केवल लंदन में आयोजित की गई थी, इसलिए युवा भारतीयों को दुर्गम कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

मूल्याङ्कन 

लिटन निस्संदेह वैचारिक व्यक्ति था। लिटन की अलोकप्रिय और दमनकारी नीति ने जनता के बीच असंतोष को जन्म दिया। अशांति व्यापक और खतरनाक होती जा रही थी। लिटन की प्रतिक्रियावादी नीति भारतीयों के  प्रतिकार की शुरुआत के लिए काफी हद तक जिम्मेदार थी। उनकी दमनकारी नीति ने भारतीय समुदाय को आंदोलित कर दिया। इस आलोक में देखा जाए तो , लिटन बिना किसी इरादे के भारत का हितैषी साबित हुआ।

रविवार, 22 जनवरी 2023

Causes of the Commercial Revolution


Commercial Revolution: Combination of Capitalism and Mercantilism

The goal of capitalism was a business system that made individuals wealthy. That is a system that was designed to reward the individual, so it encourages risk-taking. In contrast, mercantilism emphasized direct government intervention in economic policy to increase the general prosperity of the state. That is, one of its main goals is a system that would make the state powerful. Although the both were distinct until the end, the both systems continued to work together until the early-modern period. Indeed, governments and entrepreneurs designed new institutions of this type that facilitated the expansion of global trade during the fourteenth and eighteenth centuries, which has been called the Commercial Revolution.

Causes of the Commercial Revolution

The following factors significantly contributed to this transformative revolution:

  1. Crusades
    The Crusades stimulated European interest in foreign goods and trade. Western European crusaders brought back knowledge of Eastern goods such as sugar, spices, silks, and gemstones. The growing demand for these items spurred European trade with the East, benefiting Italian cities, opening Mediterranean trade routes, and expanding Western Europe’s connections with Eastern merchants.

  2. Renaissance
    The Renaissance ignited a new materialistic outlook, shifting focus from spiritual to worldly life. Individuals challenged superstitions and traditions, embracing personal wealth and economic ambition. This outlook fueled serious efforts to acquire material resources, setting the stage for widespread economic transformation.

  3. Protestant Ethics
    During the Middle Ages, the Church discouraged materialism, emphasizing spiritual pursuits. However, Protestant ideals promoted worldly improvement alongside spiritual growth. As Max Weber noted, Protestants emphasized thrift, time management, hard work, and moderate interest-taking, fostering a cultural shift toward personal wealth accumulation and aiding the rise of capitalism.

  4. Economic Conditions
    The circulation of money stimulated trade and commerce, while the discovery of new mines and the establishment of banks facilitated foreign trade. Countries now competed for gold and silver, further spurred by precious metal discoveries in the Americas, fueling the expansion of international commerce.

  5. Political Climate
    Political thinkers like Machiavelli, in his work The Prince, underscored the primacy of state power, urging monarchs to consolidate authority. European states sought new revenue sources to fund armies and assert power, encouraging overseas exploration and foreign trade as a means to increase state wealth.

  6. Hanseatic League
    Formed by cities in Northern Europe and Germany, the Hanseatic League organized trade across Northern Europe. From the 12th to the 16th century, this league fostered commercial networks, establishing trading centers and warehouses, facilitating trade in goods like grain, fish, leather, wool, and metals, thus enhancing the reach of European commerce.

  7. Marco Polo’s Travels
    The travel writings of Marco Polo, who journeyed to China and the East in the 13th century, captivated Western Europeans with descriptions of Eastern wealth, including spices, silks, and precious stones. His accounts attracted European interest and investment in trade with the Far East.

  8. Maritime Voyages
    The 15th-century sea voyages, driven by Spain and Portugal's ambitions to access Eastern trade routes, were essential in broadening the scope of the Commercial Revolution. These explorations opened direct sea routes to Asia, paving the way for global trade.

  9. Influence of Economic Thinkers
    Economic thinkers like Sir Thomas Mun, Antonio Serra, and Jean-Baptiste Colbert articulated key principles of mercantilism, which advocated for policies like maximizing exports and minimizing imports, establishing strong domestic industries, and building infrastructure to support commerce. These ideas contributed to economic policy and institutional development, facilitating the expansion of trade and the accumulation of national wealth.

In conclusion, the Commercial Revolution was not merely an economic shift but a profound cultural and ideological transformation. It encouraged innovation, trade expansion, and wealth accumulation, while also giving rise to significant challenges, such as colonial exploitation and social inequality. Nonetheless, this period remains a cornerstone in the history of economic thought, influencing the formation of modern economic systems and practices that continue to shape global trade and relations today.

व्यावसायिक क्रांति का महत्त्व

व्यावसायिक क्रांति, जो 11वीं से 18वीं शताब्दी तक फैली थी, यूरोप और पूरी दुनिया के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में अत्यंत म...