सोमवार, 23 जनवरी 2023

कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियां

कुतुबुद्दीन ऐबक के समक्ष चुनौतियाँ

जिन परिस्थितियों में उसने भारत के प्रशासनिक दायित्व का निर्वहन करना प्रारम्भ किया था, वे नितान्त प्रतिकूल थीं। मोहम्मद गौरी की आकस्मिक मृत्यु ने गज़नी - गौर से लेकर लखनौती तक में लगभग राजनीतिक अराजकता सी स्थिति थी। ऐबक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसकी प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित थीं-

1.   प्रतिद्वन्द्वियों की समस्या:

सर्वप्रथम ऐबक को अपने प्रतिद्वन्द्वियों का सामना करना था जिनमें इख्तियारूद्दीन, यल्दूज तथा कुबाचा प्रमुख थे। इनके अधिकार में बहुत बड़े क्षेत्र थे और वे अपने को ऐबक का समकक्षी समझते थे। यल्दूज गजनी में और कुबाचा मुल्तान में शासन करता था।

2.  हिन्दू सरदारों की समस्या:

ऐबक की दूसरी कठिनाई यह थी कि प्रमुख हिन्दू सरदार, खोई हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहे थे। 12o6 ई. में चंदेल राजपूतों ने अपनी राजधानी कालिंजर पर फिर से अधिकार स्थापित कर लिया। गहड़वाल राजपूतों ने हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में फर्रूखाबाद तथा बदायूँ में धाक जमा ली। ग्वालियर फिर से प्रतिहार राजपूतों के हाथों में चला गया। बंगाल तथा बिहार में भी इख्तियारूद्दीन के मर जाने के बाद विद्रोह की अग्नि प्रज्वलित हो उठी।

3.  मध्य एशिया से आक्रमण की आशंका:

ऐबक को सर्वाधिक भय मध्य एशिया से आक्रमण का था। ख्वारिज्म के शाह की दृष्टि गजनी तथा दिल्ली पर लगी हुई थी।

4.  गज़नी साम्राज्य

लाहौर को गज़नी साम्राज्य अपना अंग समझता था, अतः ऐबक लाहौर को गज़नी के प्रभुत्व से मुक्त कराना चाहता था

5.  इस्लामी कानून का रोड़ा

इस्लामी कानून के अनुसार एक दास शासक नहीं बन सकता था, अतः ऐबक के लिए स्वयं को गोरी के उत्तराधिकारी राजकुमार मेहमूद से अपने को दासता से से मुक्त कराना आवश्यक था।

                 भारत में ऐबक का जीवन

भारत में ऐबक के जीवन को तीन चरणों में बाटा जा सकता है-

प्रथम चरण 1206 ईसवी तक

जब वह मुइजुद्दीन का प्रतिनिधि था तब उसका शासनकाल सैनिक गतिविधियों से पूर्ण था।

द्वितीय चरण 1206 से 1208 तक

जब गोरी की भारतीय सल्तनत का मलिक या सिपहसालार था तब उसका जीवन राजनीतिक कार्यों में व्यतीत हुआ।

तृतीय चरण 1208 से 1210 तक

जब वह भारतीय राज्य का औपचारिक अधिकार प्राप्त शासक था तब उसने दिल्ली सल्तनत का मानचित्र निर्मित किया।

             चुनौतियों का समाधान : उपलब्धियां

ऐबक में कठिनाइयों एवं बाधाओं को दूर करने की पूर्ण क्षमता थी उसने साहस और धैर्य से कठिनाइयों एवं बाधाओं को दूर किया।

(क) प्रबुद्ध मार्ग 

1. विवाह कूटनीति

उसने विवाह के द्वारा कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करके, तात्कालिक समाधान खोजा। इसने तुर्की सरदारों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का भरसक प्रयास किया। इसने नासिरुद्दीन कुबाचा के साथ अपनी बहन का विवाह कर दिया और कुबाचा ने उसकी अधीनता स्वीकार कर लिया। इसने अपना विवाह ताजुद्दीन याल्दौज़ की पुत्री के साथ किया और इल्तुतमिश की बढती हैसियत और उपयोगिता को देखते हुए उससे अपनी लड़की का विवाह करके उसने अपनी स्थिति को मजबूत कर ली।

2. कुशल अकर्मण्यता की नीति

राजपूत : ऐबक उत्तर-पश्चिम की राजनीति तथा बंगाल के झगड़े में इतना व्यस्त था कि वह राजपूतों की शक्ति को नहीं दबा सकता था। अतः उसने बदायूं पर अपना आधिपत्य स्थापित करके अपने दास इल्तुतमिश को वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया और अन्य छोटे-छोटे राजाओं से कर वसूल किया परन्तु उसने कालिंजर तथा ग्वालियर को फिर से अधिकार में करने का प्रयास नहीं किया।

गज़नी : यह गज़नी में विद्रोह होते ही वहां से खिसक लिया।

बंगाल : साथ ही बंगाल की परिस्थिति से समझौता करने अलीमर्दान को समर्थन दिया।  दरअसल 1206 ईसवी में बख्तियार खिलज़ी का वध अलीमर्दा खाँ ने कर दिया परन्तु स्थानीय खिलजी सरदारों ने उसे कैद करके कारागार में डाल दिया और उसके स्थान पर मुहम्मद शेख को शासक बना दिया। अलीमर्दा खाँ कारगार से निकल भागा और दिल्ली पहुँच कर ऐबक से, बंगाल में हस्तक्षेप करने के लिए कहा। अलीमर्दा खाँ बंगाल का गवर्नर बना दिया गया। उसने ऐबक की अधीनता स्वीकार कर ली और दिल्ली को वार्षिक कर देने के लिए उद्यत हो गया।

मध्य एशिया : कुतुबुद्दीन ऐबक ने बुद्धिमानी दिखाते हुए स्वयं को मध्य-एशिया की राजनीति से अलग रखा। अतः वह उस ओर से आने वाली सम्भाव्य आपत्तियों से सर्वथा विमुक्त रहा।

3. कट्टरपंथियों के लिए खुराक की व्यवस्था

27 हिन्दू और जैन मंदिरों को तोड़ कर कुव्वत–उल–मस्जिद बनाई गई। उसने अजमेर में एक संस्कृत महाविद्यालय को को तुड़वाकर ढाई दिन का झोपड़ा नामक एक मस्जिद भी बनवाई।

(ख) तुर्की निर्भीकता का मार्ग: विजय अभियान  

1. प्रतिद्वन्द्वियों पर विजय:

भारत में ऐबक के तीन प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी थे- इख्तियारूद्दीन, कुबाचा तथा यल्दूज। इख्तियारूद्दीन ने सदैव ऐबक का आदर किया और उसी की अधीनता में शासन किया। कुबाचा अब ऐबक का बहनोई था। अतः कुबाचा ने उसका विरोध नहीं किया और न उसे किसी प्रकार कष्ट पहुँचाया। यल्दूज ऐबक का श्वसुर था परन्तु यल्दूज ने ऐबक का विरोध किया। 1208 ई. में यल्दूज ने गजनी में एक सेना तैयार की और मुल्तान पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में कर लिया परन्तु ऐबक ने कुबाचा का सहयोग लेकर शीघ्र ही उसे वहाँ से मार भगाया तथा गजनी पर अधिकार कर लिया। लेकिन गजनी के लोग यह सहन नहीं कर सके। ऐबक को विवश होकर दिल्ली लौट जाना पड़ा परन्तु उसने यल्दूज के भारतीय साम्राज्य पर प्रभुत्व स्थापित करने के समस्त प्रयत्नों को विफल कर दिया।

(ग)परिष्कृत फ़ारसी उदारता का मार्ग

1. मलिक के पद से संतुष्ट 

यहाँ एक बात विशेष महत्वपूर्ण है, जिसका उल्लेख आवश्यक है। 1206 ई. में मोहम्मद गौरी की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात् उसने प्रशासनिक दायित्व तो ग्रहण कर लिया था, किन्तु, मात्र 'मलिक' एवं 'सिपहसालार' के विरूद ही धारण किए। उसने कभी अपने आप को 'सुल्तान' नहीं सम्बोधित किया और न ही सुल्तान का विरूद धारण किया।

2. परंपरा का सम्मान

उसे राजत्व के सिद्धान्त की पूर्ण जानकारी थी, जिसके अनुसार 'एक दास, सुल्तान नहीं बन सकता था'। ऐबक ने गज़नी पर शासन के दौरान फिरोजकोह में दिन काट रहे गोरी के उत्तराधिकारी राजकुमार मेहमूद से मुक्तिपत्र प्राप्त कर दासता से मुक्ति प्राप्त कर ली। गयासुद्दीन मेहमूद ने उसे राजकीय सत्ता के आवश्यक चिह्न “छत्र” तथा “दुरबाश” दे दिए। इस प्रकार जब उसे दासता से मुक्ति मिल गयी तब 1208-9 ई. में उसने सुल्तान का विरूद धारण किया।

3. संरक्षण व न्यायप्रिय शासन तथा उदारता

फ़ख़े मुदब्बिर एक स्थान पर लिखता है कि 'यद्यपि उसके सैनिकों में विभिन्न जातियों, जनजातियों, क्षेत्रों के लोग थे; यथा तुर्क, गौरी, खुरासानी, ख़ल्जी, अफ़गान व हिन्दुस्तानी, फिर भी किसी सैनिक को यह साहस न था कि वह किसी किसान के घास का एक तिनका, रोटी का टुकड़ा, बकरी या पक्षी लेता या उस  के घर-जमीन पर बलात् अधिकार कर लेता।' अतः उसने न्याय एवं उदारता के साथ शासन किया और अपनी उदारता के लिए तो वह शताब्दियों तक प्रसिद्ध रहा। अतः समकालीन साहित्य में उसे  लाख बख़्श (लाखों दान करने वाले) के सम्बोधन से पुकारा जाता है। अतः सैन्य गुणों के साथ-साथ दानवीरता, न्यायप्रियता एवं प्रजा के प्रति पितृ-तुल्य चिन्ता सहज ही उसका राजत्व सिद्धान्त स्थापित कर देते हैं।

मिन्हाज़ के अनुसार सुलतान दूसरा हातिम था और बड़ा वीर तथा उदार शासक था। वह विशाल हृदय का महान दानी था इसलिये उसे लाख बक्श भी कहा जाता था। उसने कुतुबमीनार तथा ढाई दिन का झोपड़ा मस्जिद भी बनवाया।

हसन निजामी के अनुसार उसके राज्य में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे।

निष्कर्ष

इस प्रकार, ऐबक एक सामान्य गुलाम से अपनी योग्यता के बल पर सुल्तान बन गया। उसने अपनी कूटनीति तथा वीरता से अपने मार्ग की बाधाओं को दूर किया। डॉ. ए. बी. एम. हबीबुल्ला अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में उसका मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं "उसमें तुर्कों की निर्भीकता एवं फ़ारसियों की परिष्कृत अभिरूचि एवं शालीनता पायी जाती थी।”  

Achievements of Qutbuddin Aibek

Challenges before Qutbuddin Aibek

The circumstances in which he started discharging the administrative responsibility of India were very unfavorable. The sudden death of Mohammad Ghori caused political anarchy almost from Ghazni-Gor to Lakhnauti. Aibek had to face many difficulties. His main problems were the following-

1.  Rivals:

First of all, Aibek had to face his rivals, among whom Ikhtiyaruddin, Yalduj and Qubacha were prominent. They had very large area under their authority and they considered themselves equal to Aibek. Yalduj ruled in Ghazni and Qubacha ruled in Multan.

2. Hindu Sardars:

Aibek's other difficulty was that the leading Hindu chieftains were trying to recover their lost independence. In 1206 AD, the Chandela Rajputs re-established their authority over their capital Kalinjar. The Gahadwal Rajputs under the leadership of Harishchandra captured Farrukhabad and Badaun. Gwalior again passed into the hands of the Pratihara Rajputs. In Bengal and Bihar also, after the death of Ikhtiyaruddin, the fire of rebellion ignited.

3. Fear of invasion from Central Asia:

Aibek was most afraid of invasion from Central Asia. The sight of the Shah of Khwarizm was fixed on Ghazni and Delhi.

4. Ghazni Empire

The Ghazni Empire considered Lahore as its part, so Aibek wanted to free Lahore from the dominance of Ghazni.

5. Obstacles of Islamic law

According to Islamic law a slave could not become a ruler, so it was necessary for Aibek to free himself from servitude to Prince Mahmud, the successor of Ghori.

            Aibek's life in India

Aibek's life in India can be divided into three phases-

First phase till 1206 AD

When he was the representative of Muizzuddin, his reign was full of military activities.

Phase II from 1206 to 1208

When he was the Malik or the warlord of the Indian Sultanate of Ghori, his life was spent in political work.

Phase III from 1208 to 1210

When he was the formal ruler of the Indian state, he made the map of the Delhi Sultanate.

      Solving Challenges: Achievements

Aibek had full ability to overcome difficulties and obstacles, he overcome difficulties and obstacles with courage and patience.

(a) The enlightened path

1. Marriage Diplomacy

He sought an immediate solution by establishing diplomatic relations through marriage. He tried its best to strengthen his position by establishing matrimonial relations with the Turkish Sardars. He married his sister to Nasiruddin Qubacha and Qubacha accepted his suzerainty. He married Tajuddin Yaldouz's daughter and seeing the increasing status and usefulness of Iltutmish, he strengthened his position by marrying his daughter to him.

2. Policy of efficient inactivity

Rajputs: Aibek was too busy with the politics of the north-west and the Bengal conflict that he could not suppress the power of the Rajputs. Therefore, by establishing his supremacy over Badaun, he appointed his slave Iltutmish as its ruler and collected taxes from other small kings, but he did not try to recapture Kalinjar and Gwalior.

Ghazni: As soon as there was a rebellion in Ghazni, he moved from there.

Bengal: Also supported Alimardan to compromise with the situation in Bengal. In fact, in 1206 AD, Bakhtiyar Khilji was killed by Alimarda Khan, but the local Khilji chieftains imprisoned him and made Muhammad Sheikh the ruler in his place. Alimarda Khan escaped from prison and reached Delhi and asked Aibek to intervene in Bengal. Alimarda Khan was made the governor of Bengal. He accepted the submission of Aibek and agreed to pay annual tribute to Delhi.

Central Asia: Qutbuddin Aibek wisely kept himself away from the politics of Central Asia. Therefore, he remained completely free from possible objections coming from that side.

3. Dose for radicals

Quwwat-ul-Masjid was built by demolishing 27 Hindu and Jain temples. He also built a mosque called Dhai Din Ka Jhopra by demolishing a Sanskrit college in Ajmer.

(b) Turkish boldness : campaign of conquest

1. Victory over rivals:

Aibek had three main rivals in India - Ikhtiyaruddin, Qubacha and Yalduj. Ikhtiyaruddin always respected Aibek and ruled under him. Qubacha was now Aibek's son-in-law. So Kubacha did not oppose him and did not hurt him in any way. Yalduz was the father-in-law of Aibek but Yalduz opposed Aibek. In 1208 AD, Yalduj prepared an army in Ghazni and attacked Multan and captured it, but Aibek, with the help of Qubacha, quickly chased him away from there and took control of Ghazni. But the people of Ghazni could not tolerate this. Aibek was forced to return to Delhi but he failed all the efforts of Yalduj to establish dominance over the Indian Empire.

(c) The path of refined Persian generosity

1. Satisfied with the post of Malik

Here one thing is very important, which needs to be mentioned. After the sudden death of Mohammad Ghori in 1206 AD, he had assumed the administrative responsibility, but only against 'Malik' and 'Sipahsalar'. He never addressed himself as 'Sultan' nor did he hold designation the Sultan.

2. Respect for tradition

He was fully aware of the principle of kingship, according to which “a slave could not become a Sultan”. During the reign of Ghazni, Aibek obtained freedom from slavery by obtaining a letter of emancipation from Prince Mahmud, the successor of Ghori, who was spending days in Firozkoh. Ghiyasuddin Mehmud gave him the necessary symbols of state power "Chhatra" and "Durbash". In this way, when he got freedom from slavery, then in 1208-9 AD, he held post the Sultan.

3. Protection and impartialt rule and generosity

Fakhe Mudabbir writes at one place that 'although his soldiers had people from different castes, tribes, regions; Turks, Ghauris, Khurasanis, Khaljis, Afghans and Hindustani, yet no soldier had the courage to take a straw of grass, a piece of bread, a goat or a bird from a farmer or forcibly take possession of his house and land. So he ruled with justice and generosity and for his generosity he was famous for centuries. Therefore, in contemporary literature, he is called with the address of Lakh Baksh (the one who donates millions). Therefore, along with military qualities, charity, justice and fatherly concern towards the subjects easily establish his principle of kingship.

According to Minhaj, Sultan was the second Hatim and was a very brave and generous ruler. He was a great donor with a heart, so he was also called Lakh Baksh. He also built Qutub Minar and Dhai Din Ka Jhopra Masjid.

According to Hasan Nizami, lions and goats used to drink water at the bank of river in his kingdom.

Conclusion

Thus, Aibek rose from a common slave to a Sultan by virtue of his own merit. He removed the obstacles in his path by his diplomacy and bravery. Dr. A. B. M. Habibullah evaluating him in his famous book, writes, "The boldness of the Turks and the refined taste and decency of the Persians were found in him."

रविवार, 22 जनवरी 2023

Causes of the Commercial Revolution


Commercial Revolution: Combination of Capitalism and Mercantilism

The goal of capitalism was a business system that made individuals wealthy. That is a system that was designed to reward the individual, so it encourages risk-taking. In contrast, mercantilism emphasized direct government intervention in economic policy to increase the general prosperity of the state. That is, one of its main goals is a system that would make the state powerful. Although the both were distinct until the end, the both systems continued to work together until the early-modern period. Indeed, governments and entrepreneurs designed new institutions of this type that facilitated the expansion of global trade during the fourteenth and eighteenth centuries, which has been called the Commercial Revolution.

Causes of the Commercial Revolution

The following factors significantly contributed to this transformative revolution:

  1. Crusades
    The Crusades stimulated European interest in foreign goods and trade. Western European crusaders brought back knowledge of Eastern goods such as sugar, spices, silks, and gemstones. The growing demand for these items spurred European trade with the East, benefiting Italian cities, opening Mediterranean trade routes, and expanding Western Europe’s connections with Eastern merchants.

  2. Renaissance
    The Renaissance ignited a new materialistic outlook, shifting focus from spiritual to worldly life. Individuals challenged superstitions and traditions, embracing personal wealth and economic ambition. This outlook fueled serious efforts to acquire material resources, setting the stage for widespread economic transformation.

  3. Protestant Ethics
    During the Middle Ages, the Church discouraged materialism, emphasizing spiritual pursuits. However, Protestant ideals promoted worldly improvement alongside spiritual growth. As Max Weber noted, Protestants emphasized thrift, time management, hard work, and moderate interest-taking, fostering a cultural shift toward personal wealth accumulation and aiding the rise of capitalism.

  4. Economic Conditions
    The circulation of money stimulated trade and commerce, while the discovery of new mines and the establishment of banks facilitated foreign trade. Countries now competed for gold and silver, further spurred by precious metal discoveries in the Americas, fueling the expansion of international commerce.

  5. Political Climate
    Political thinkers like Machiavelli, in his work The Prince, underscored the primacy of state power, urging monarchs to consolidate authority. European states sought new revenue sources to fund armies and assert power, encouraging overseas exploration and foreign trade as a means to increase state wealth.

  6. Hanseatic League
    Formed by cities in Northern Europe and Germany, the Hanseatic League organized trade across Northern Europe. From the 12th to the 16th century, this league fostered commercial networks, establishing trading centers and warehouses, facilitating trade in goods like grain, fish, leather, wool, and metals, thus enhancing the reach of European commerce.

  7. Marco Polo’s Travels
    The travel writings of Marco Polo, who journeyed to China and the East in the 13th century, captivated Western Europeans with descriptions of Eastern wealth, including spices, silks, and precious stones. His accounts attracted European interest and investment in trade with the Far East.

  8. Maritime Voyages
    The 15th-century sea voyages, driven by Spain and Portugal's ambitions to access Eastern trade routes, were essential in broadening the scope of the Commercial Revolution. These explorations opened direct sea routes to Asia, paving the way for global trade.

  9. Influence of Economic Thinkers
    Economic thinkers like Sir Thomas Mun, Antonio Serra, and Jean-Baptiste Colbert articulated key principles of mercantilism, which advocated for policies like maximizing exports and minimizing imports, establishing strong domestic industries, and building infrastructure to support commerce. These ideas contributed to economic policy and institutional development, facilitating the expansion of trade and the accumulation of national wealth.

In conclusion, the Commercial Revolution was not merely an economic shift but a profound cultural and ideological transformation. It encouraged innovation, trade expansion, and wealth accumulation, while also giving rise to significant challenges, such as colonial exploitation and social inequality. Nonetheless, this period remains a cornerstone in the history of economic thought, influencing the formation of modern economic systems and practices that continue to shape global trade and relations today.

व्यापारिक क्रांति के कारण


व्यापारिक क्रांति : पूंजीवाद और वाणिज्यवाद का मिलन

पूंजीवाद का लक्ष्य एक ऐसी व्यावसायिक व्यवस्था थी जो व्यक्तियों को अमीर बनाती है। अर्थात यह एक ऐसी प्रणाली है जिसे व्यक्ति को पुरस्कृत करने के लिए डिज़ाइन किया गया था, अतः यह जोखिम लेने के लिए प्रोत्साहित करती है। इसके विपरीत, वाणिज्यवाद ने राज्य की सामान्य समृद्धि को बढ़ाने के लिए आर्थिक नीति में प्रत्यक्ष सरकारी हस्तक्षेप पर जोर दिया। अर्थात इसका एक प्रमुख लक्ष्य एक ऐसी व्यवस्था है जो राज्य को शक्तिशाली बनाती थी। हालांकि दोनों अंत तक भिन्न थे, फिर भी दोनों प्रणालियां प्रारंभिक-आधुनिक काल तक एक साथ मिलकर काम करती रहीं। दरअसल सरकारों और उद्यमियों ने इस प्रकार के नए संस्थानों को डिजाइन किया जो सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दियों के दौरान वैश्विक व्यापार के विस्तार की सुविधा प्रदान करते थे, जिसे व्यापारिक क्रांति कहा गया है।

                        व्यापारिक क्रांति के कारण

समस्त स्थितियों का विश्लेषण करने के उपरान्त इस क्रान्ति के लिए निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी कहा जा सकता है-

1.    धर्मयुद्ध—

धर्मयुद्धों ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को गतिशीलता प्रदान की। क्योंकि जव पश्चिमी यूरोपीय देशों के लोग धर्मयुद्धों में भाग लेने के लिये पूर्वी देशों में गये तो वहाँ उन्हें चीनी, मसाले, सिल्क के कपड़ों, बहुमूल्य रत्नों इत्यादि की जानकारी प्राप्त हुई जिसे वे लौटते समय अपने साथ स्वदेश लाये। अतः यूरोपीय देशों में इन वस्तुओं की माँग बढ़ी। इटैलियन नगरों को इससे अधिक व्यापारिक लाभ हुआ तथा भूमध्यसागरीय व्यापार का मार्ग पश्चिमी यूरोपीय व्यापरियों के लिये खुल गया। इससे पश्चिमी यूरोप के व्यापारियों का पूर्वी देशों के व्यापारियों के साथ सम्पर्क वढ़ा तथा व्यापारिक गतिविधियों में तीव्रता आई जिसने व्यापारिक क्रान्ति के विकास में महत्वपूर्ण सहयोग दिया।

2.    पुनर्जागरण - 

पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप नवचेतना का संचार हुआ। मनुष्य ने पारलौकिक जीवन के स्थान पर भौतिकवाद की ओर झुकना आरम्भ कर दिया। मनुष्य अन्धविश्वासों, कठिनाइयों व परम्पराओं का विरोध करने का साहस कर सका। फलतः भौतिक जीवन के प्रति आकांक्षा बढ़ने लगी जिसने अर्थव्यवस्था पर सीधा प्रभाव डाला। अतः भौतिक संसाधनों की प्राप्ति हेतु शनैः-शनैः गम्भीर प्रयत्न आरम्भ हो गए जिन्होंने शीघ्र ही व्यापक आर्थिक परिवर्तन का क्रम आरम्भ कर दिया।

3.    प्रोटेस्टेंट नैतिकता - 

मध्य युग में चर्च ने जीवन को निस्सार बतलाते हुए आध्यात्मिक जीवन की सर्वश्रेष्ठता को प्रतिपादित किया। भौतिक सुखों को आध्यात्मिक जीवन के लिए कांटे के रूप में प्रतिपादित किया गया, किन्तु प्रोटेस्टेण्टों ने न सिर्फ आध्यात्मिक दुनिया बल्कि सांसारिक दुनिया की बेहतरी को भी आदर्श बना दिया इसने पूंजीवाद के मार्ग की बाधाएं दूर करने में योगदान दिया। जैसा कि मैक्स वेबर ने दिखया है- मितव्ययिता, समय के महत्व एवं परिश्रम एवं ब्याज लेने की प्रक्रिया पर प्रोटेस्टेण्टों ने विशेष योगदान दिया। अतः सामान्य जनमानस में व्यक्तिगत सम्पत्ति को जोड़ने की भावना ने जोर पकड़ना आरम्भ कर दिया।

4.    आर्थिक स्थिति –

वाणिज्यवाद के उदय के लिए आर्थिक स्थिति भी कम उत्तरदायी नहीं थी। मुद्रा के प्रचलन से व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में व्यापकता आ गयी। स्थानीय आवश्यकता के अतिरिक्त भी अब उत्पादन करने वाले देशों में अधिक उत्पादन की आवश्यकता को बल मिला। नयी खानों व बैंकों के विकास ने विदेशी व्यापार को प्रोत्साहित किया। अब प्रत्येक देश सोने व चांदी को प्राप्त करने की होड़ में जुट गया। अमरीका के अनेक भागों में सोने व चांदी के भण्डारों का पता लग जाने से एक नए परिवेश ने जन्म ले लिया।

5.    राजनीतिक स्थिति –

मैकियावली ने अपनी रचना 'दि प्रिन्स' में राजा की शक्ति को सर्वोपरि माना और स्पष्ट कर दिया कि अन्य शक्तियों को भी राजा की शक्ति के अधीन झुकना चाहिए। अलेक्जेण्डर ग्रे के शब्दों में, “मैकियावली ने राजनीति को सभी नैतिकता से अलग स्वतन्त्र स्वरूप प्रदान किया।” निःसन्देह राज्य की सर्वोपरिता पर बल दिया जाने लगा। वस्तुतः इसका मूल कारण आन्तरिक स्थिति एवं बाह्य आक्रमणों का खतरा था। आन्तरिक स्थिति चौपट हो गयी थी। समस्त जनता की आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो चुकी थी। कृषि एवं घरेलू अर्थव्यवस्था से शक्तिशाली सेना का व्यय उठाना कठिन हो गया था। इधर वाणिज्यवादी इस बात पर बल दे रहे थे कि व्यापार के माध्यम से राजकीय खजाने में वृद्धि हो सकती है अतः राजाओं ने भी नए देशों की खोज व विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन प्रदान किया।

6.    हैनसियाटिक संघ-

उत्तरी यूरोप एवं जर्मनी के अनेक नगरों ने व्यापार के लिये एक संघ का गठन किया जो 'हैनसियाटिक संघ' कहलाया यद्यपि इसके गठन के लिये पहल 12वीं शताब्दी में की गई थी परन्तु इस संघ ने 14वीं शताब्दी में वास्तविक रूप ग्रहण किया। इसके पश्चात् 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक उत्तरी यूरोप के व्यापार में इसने महत्वपूर्ण भाग लिया। इस संघ के चरमोत्कर्ष काल में इसमें साठ से अस्सी नगर तक सम्मिलित थे। इन नगरों में व्यापारिक केन्द्र तथा मालगोदाम स्थापित किए गए जहाँ हैनसियाटिक संघ में सम्मिलित व्यापारियों द्वारा अनाज, मछली, चमड़ा, ऊन, इमारती लकड़ी, लोहा, ताँबा, लाख, डामर इत्यादि का विक्रय किया जाता था।

7.    मार्कोपोलो का यात्रा-वृत्तान्त-

मार्कोपोलो का यात्रा-वृत्तान्त भी इस क्रान्ति में सहयोगी कारण सिद्ध हुआ। मार्कोपोलो ने 13वीं शताब्दी में चीन एवं अन्य पूर्वी देशों की यात्रा की तथा स्वदेश लौटने के पश्चात् उसने अपना यात्रा-वृत्तान्त प्रकाशित किया। इसमें उसने पूर्वी देशों के वैभव तथा वहाँ मिलने वाली चीनी, कपास, मसाले, सोना-चाँदी, बहुमूल्य रत्नों इत्यादि का वर्णन किया जिसके कारण पश्चिमी यूरोपवासियों में सुदूरपूर्व के उत्पादनों के प्रति आकर्षण बढ़ा।

8.    सामुद्रिक यात्रायें—

यदि 15वीं शताब्दी में आरम्भ होने वाली सामुद्रिक यात्रायें न होतीं तो सम्भवतः यह व्यापारिक क्रान्ति इतनी सफल एवं व्यापक नहीं हो पाती। पूर्वी देशों के साथ स्पेन तथा पुर्तगाल की व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने की महत्वाकांक्षा ने सागर में दुस्साहसिक यात्रायें करने के लिए प्रेरित किया।

9.    विचारकों का योगदान-

इंग्लैण्ड के सर टामस मन ने 1664 में 'इंग्लैण्ड ट्रेज़र बाय फॉरिन ट्रेड' नामक पुस्तक लिखी । यह पुस्तक 'वाणिज्यवाद की गीता' के नाम से प्रख्यात है। टामस मन के अनुसार, “अपनी समृद्धि की वृद्धि के लिए कम से कम आयात एवं अधिक से अधिक निर्यात की नीति अपनायी जानी चाहिए।" ऐण्टोनिओ सैरा का जन्म 1580 ई. में इटली में हुआ था। उसने अपनी पुस्तक में वाणिज्यवाद के सिद्धान्तों पर बल दिया था। सैरा के अनुसार, “कृषि में मौसम की अनिश्चितता के कारण लाभ अनिश्चित रहता है जबकि उद्योगों में तो वृद्धि का नियम ही चरितार्थ होता है। अतः उद्योगों की वृद्धि की नीति पर बल दिया जाना चाहिए।" जीन बेपटिस्ट कोलबर्ट फ्रांस का वित्तमन्त्री था। कोलबर्ट के अनुसार, “सड़कों एवं नहरों का निर्माण कर घरेलू अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो सकती है। शक्तिशाली जहाजी बेड़े का निर्माण, अनाज के निर्यात पर प्रतिबन्ध, गिल्डों पर राजकीय नियन्त्रण, व्यापारिक कम्पनियों की स्थापना, औपनिवेशिक विस्तार एवं मुद्रा के सृजन के लिए उद्योगों को प्रोत्साहित करना, वाणिज्यवाद के लिए या एक देश के विकास के लिए परम आवश्यक है।"

शनिवार, 21 जनवरी 2023

पुनर्जागरण के युग में विज्ञान


मध्य-युग में, यूरोप ने अरबों के संपर्क के कारण विज्ञान में प्रगति की, जबकि अरबों ने इसे भारतीयों से सीखा। हालाँकि, सोलहवीं शताब्दी के आगमन तक प्राकृतिक विज्ञान विकसित नहीं हो सका। तेरहवीं शताब्दी में, रोजर बेकन ने चिन्तनवाद  को इसकी "बुनियादी कमजोरी" के लिए खारिज कर दिया और अनुभवात्मक ज्ञान के माध्यम से सीखने की वकालत की। उन्होंने अरस्तू के निष्कर्षों को खारिज कर दिया और अवलोकन, प्रयोग और तर्क के तरीकों पर जोर दिया।

वैज्ञानिक विधि :

ब्रिटेन में सर फ्रांसिस बेकन (1561-1626) ने वकालत की कि ज्ञान का परीक्षण किया जाना चाहिए, अर्थात अनुभवजन्य तरीकों से। उन्होंने 1620 में अपने नोवम ऑर्गेनम में शिक्षा के लिए नए आदर्शों पर जोर दिया और परिकल्पनाओं का परीक्षण करने के लिए अनुभवजन्य प्रत्यक्ष तरीकों के उपयोग का भी आग्रह किया। न्यू अटलांटिस में उन्होंने कहा कि मनुष्य वैज्ञानिक ज्ञान के उपयोग के माध्यम से प्रकृति का लाभ उठा सकता है।

कॉपरनिकस (1473-1543):


तेरह शताब्दियों से अधिक समय तक, यूरोपीय लोगों ने दूसरी शताब्दी ईस्वी सन् के यूनानी वैज्ञानिक टॉलेमी के भूकेंद्रीय सिद्धांत पर कभी सवाल नहीं उठाया, ऐसा इसलिए था क्योंकि उसका  सिद्धांत "बाइबल के ब्रह्मांड विज्ञान" के अनुरूप था। लेकिन 1543 में एक छोटी सी किताब प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था ऑन द रेवोलुशंस ऑफ द सैलेस्टियल बॉडीज। यह पोलिश खगोलशास्त्री निकोलस कोपरनिकस द्वारा लिखा गया था, जिनकी मृत्यु पुस्तक प्रकाशित होने के दिन हुई थी। कोपरनिकस ने दावा किया कि यह सूर्य नहीं है जो पृथ्वी के चक्कर लगाता था, यह इसके विपरीत है। हम इसे हेलियोसेंट्रिक वर्ल्ड पिक्चर कहते हैं।

जोहान्स केप्लर (1571-1630):

जर्मन खगोलविद जोहान्स केप्लर ने व्यापक अवलोकनों के परिणाम प्रस्तुत किए जो दिखाते हैं कि ग्रह एक फोकस पर सूर्य के साथ अण्डाकार-या परवलयाकार-कक्षाओं में चलते हैं। उसने यह भी बताया कि किसी ग्रह की गति सबसे अधिक तब होती है जब वह सूर्य के सबसे निकट होता है, और यह कि ग्रह की कक्षा सूर्य से जितनी दूर होती है, वह उतनी ही धीमी गति से चलता है। उसने यह भी सिद्ध किया कि किसी ग्रह की कक्षीय अवधि का वर्ग उसकी कक्षा के अर्ध-प्रमुख अक्ष के घन के सीधे आनुपातिक है

गैलीलियो गैलीली (1564-1642):

यह इटली के एक महान खगोलशास्त्री, गणितज्ञ और भौतिक विज्ञानी था। उन्होंने पहली बार आकाशीय पिंडों की गति का अध्ययन करने के लिए एक दूरबीन का उपयोग किया और निस्संदेह कोपर्निकन सिद्धांत की वैधता को साबित कर दिया। वह रोमन कैथोलिक चर्च से परेशान हो गया। तीन साल बाद (1600 में) जियोर्डानो ब्रूनो को न्यायिक जांच द्वारा विधर्मी घोषित किया गया और कोपरनिकन प्रणाली से सहमत होने के लिए जला दिया गया। लेकिन गैलीलियो का सबसे बड़ा महत्व यह था कि उन्होंने सबसे पहले जड़त्व के तथाकथित नियम को प्रतिपादित किया। गैलीलियो ने इसे इस प्रकार प्रतिपादित किया: एक वस्तु उस स्थिति में रहता है जिसमें वह है, स्थिर  दशा में  या गति की दशा में, जब तक कोई बाहरी बल उसे अपनी स्थिति बदलने के लिए मजबूर नहीं करता है।

न्यूटन (1643-1727):

इसने उसे सूत्रबद्ध किया जिसे हम सार्वभौमिक गुरुत्वाकर्षण का नियम कहते हैं। यह नियम कहता है कि प्रत्येक वस्तु प्रत्येक वस्तु को एक ऐसे बल से आकर्षित करती है जो वस्तुओं के आकार के अनुपात में बढ़ता है और वस्तुओं के बीच की दूरी के अनुपात में घटता है। न्यूटन ने सिद्ध किया कि यह आकर्षण-या गुरुत्वाकर्षण-सार्वभौमिक है, जिसका अर्थ है कि यह हर जगह सक्रिय है, आकाशीय पिंडों के बीच अंतरिक्ष में भी।

माइकल सेर्वेटस:

इनकी प्रमुख रुचि धर्मशास्त्र में थी, लेकिन इसने जीविकोपार्जन के लिए  चिकित्सा का पेशा अपना लिया, इसने  वर्जिन जन्म की सत्यता को साबित करने के प्रयास में रक्त के फुफ्फुसीय परिसंचरण की खोज की। उन्होंने वर्णन किया कि रक्त हृदय के दाहिने कक्षों को कैसे छोड़ता है, शुद्ध होने के लिए फेफड़ों में ले जाया जाता है, फिर हृदय में लौटता है और उस अंग से शरीर के सभी भागों में पहुँचाया जाता है। लेकिन सेर्वेटस को नसों के माध्यम से हृदय में रक्त की वापसी का कोई अंदाजा नहीं था, इसकी खोज सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत में अंग्रेज विलियम हार्वे द्वारा की गई थी।

वेसालियस (1514-1564):

वेसालियस की ऑन द स्ट्रक्चर ऑफ द ह्यूमन बॉडी, 1543 में प्रकाशित हुई थी, उसी वर्ष कोपरनिकस की रेवोल्यूशन ऑफ द हेवनली स्फेयर्स जारी हुई थी। वेसालियस, एक कॉस्मोपॉलिटन था, जो ब्रसेल्स में पैदा हुआ था और पेरिस में अध्ययन किया था, लेकिन बाद में इटली चला गया, जहां उसने पडुआ विश्वविद्यालय में शरीर रचना विज्ञान और शल्य चिकित्सा पढ़ा, अपने शोध को सही दृष्टिकोण से देखा और कहा कि प्राचीन शारीरिक सिद्धांत का अधिकांश भाग त्रुटि पूर्ण  था। 

विलियम हार्वे (1578-1657):

प्रसिद्ध अंग्रेजी चिकित्सक विलियम हार्वे ने हृदय से धमनियों तक, फिर शिराओं में और उसके बाद वापस हृदय में रक्त के संचार की खोज की (1628)।

वैज्ञानिक आविष्कार:

सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक आविष्कारों में से एक 1460 में गुटेनबर्ग द्वारा प्रिंटिंग प्रेस था। एक अन्य महत्वपूर्ण आविष्कार जिसने खगोलविदों की मदद की वह टेलीस्कोप (1608) था। इसे गैलीलियो ने सुधारा था। क्रिस्टियान ह्यूजेंस ने पेंडुलम घड़ी (1656) का आविष्कार किया। एंटोन वैन लीउवेनहोक द्वारा सूक्ष्मदर्शी का आविष्कार जिसके साथ उन्होंने प्रोटोजोआ की खोज की, ने चिकित्सा और जीव विज्ञान के ज्ञान के विकास में मदद की। थर्मामीटर का उपयोग शरीर का तापमान लेने के लिए किया जाता था और इसका आविष्कार 1714 में एक जर्मन भौतिक विज्ञानी गेब्रियल फारेनहाइट ने किया था।

इस प्रकार पुनर्जागरण काल के वैज्ञानिकों ने संदेह, अवलोकन और प्रयोग द्वारा उस पद्धति का आविष्कार किया जो आज भी प्रयोग में लाई जा रही है। वैज्ञानिक सोच ने लंबे समय से स्वीकृत विचारों और प्रथाओं की आलोचनात्मक परीक्षा की ओर अग्रसर किया। इसने मनुष्य को कला, व्यवसाय, शिक्षा और जीवन के कई अन्य क्षेत्रों में नए विचारों का परीक्षण करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया है। इसके आविष्कारों ने नए युग की आधारशिला रखी और मानव जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में पहल की। लेकिन अभी तक वैज्ञानिक जगत जादू टोने से मुक्त नहीं हो पाया था। वैज्ञानिक केप्लर ने भी पैसा कमाने के लिए जादू-टोने का सहारा लिया था।

Importance of the Commercial Revolution

The Commercial Revolution, spanning from the 11th to the 18th century, fundamentally transformed the economic, social, and political landsca...