अनेक घटनाओं का घात- प्रतिघात पुनर्जागरण के रूप में प्रस्फुटित हुआ। इसके लिए कोई एक घटना या समय जिम्मेदार नहीं था, बल्कि अलग-अलग समय पर हुई घटनाओं और परिवर्तनों ने इसकी पृष्ठभूमि तैयार की। दरअसल यह मनोवृति जिस सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की उत्पाद थी, वह दावतों के बाद अकालों को धारण कर रही थी। लगातार युद्धों तथा कृषि पर मौसम की मार को अभी जनसंख्या झेल ही रही थी कि ब्लैक डेथ जैसी महामारी ने दस्तक दी तथा यूरोपीय समाज और अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से बाधित कर दिया। परिणामों ने जिस संतुलन का निर्माण किया वह सिर्फ अर्थव्यवस्था के नए रूप और उसकी तकनीकी पर ही नहीं बल्कि समाज और उसकी मनोवृति के विस्थापन पर भी निर्भर था।
1. इटालियन पृष्ठभूमि
प्राचीन रोमन विरासत पर गर्व करने वाला पोप का निवास स्थान इटली सबसे अलग था। भूमध्यसागरीय देशों में इटली की अनुकूल व्यापारिक स्थिति ने वहां मिलान, नेपल्स, फ्लोरेंस तथा वेनिस जैसे शहरों का निर्माण किया। जिसका प्रभाव सिर्फ नवोदित व्यापारिक वर्ग के उदय के रूप में ही नहीं हुआ बल्कि इसने इटली में एक ऐसे मध्यवर्ग का निर्माण किया जिसे न तो सामंतो की परवाह थी न पोप की,जो मध्यकालीन मान्यताओं को ताख पर रखता था तथा उसकी व्यावसायिक जरूरते शिक्षा में लौकिकता पर बल देती थीं। फ्लोरेंस का यही समाज दांते, पेट्रार्क, बुकासियो, एंजेलो तथा मैकियावेली जैसों का प्रश्रयदाता बना।
2. धर्मयुद्ध
जेरूसलम को लेकर मुसलामानों और ईसाईयों के बीच, ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक से तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक, यूरोप में लड़े गए युद्धों को, धर्मयुद्ध की संज्ञा दी गई है। इन धर्मयुद्धों के कारण यूरोपवासियों का पूर्व के लोगों के साथ सम्पर्क हुआ, जो ज्ञान के प्रकाश से आलोकित थे। यह ज्ञातव्य है कि पूर्वी देशों में अरब लोगों ने यूनान तथा भारतीय सभ्यताओं के सम्पर्क से अपनी एक समृद्ध सभ्यता को विकसित कर लिया था। धर्मयुद्ध यूरोप के अलगाव की समाप्ति में सहायक सिद्ध हुए। अरस्तु के वैज्ञानिक ग्रंथ, अरबी अंक, बीजगणित, दिग्दर्शक यंत्र और कागज, पश्चिम यूरोप में धर्मयुद्धों के माध्यम से ही पहुँचे। इस प्रकार इन धर्मयुद्धों ने नवीन विचारों का प्रसार करके तथा पुराने विचारों, विश्वासों एवं संस्थाओं को क्षति पहुँचाकर महत्त्वपूर्ण कार्य किया और उसी के फलस्वरूप पुनर्जागरण सम्भव हो सका।
3. व्यापारिक समृद्धि
मानव इतिहास में सभ्यताओं एवं संस्कृति का पल्लवन सदैव ही समृद्धि के द्वारा सम्भव हुआ। धर्मयुद्धों के कारण यूरोप के पूर्वी देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हुए। कई यूरोपीय व्यापारी जेरूसलम एवं एशिया माइनर के तटों पर बस चुके थे। परिणामस्वरूप व्यापार में काफी वृद्धि हुई, जिसने अन्ततः पुनर्जागरण की भावना के उदय में सहायता पहुँचाई। व्यापारिक समृद्धि ने पुनर्जागरण में चार प्रकार से सहयोग दिया पहला- विचारों तथा प्रगतिशील तत्त्वों का आदान प्रदान। दूसरा- नये नगरों, जैसे - वेनिस, मिलान, फ्लोरेंस, आंग्लवर्ग, नरेमबर्ग आदि को जन्म। तीसरा- नवोदित व्यापारी वर्ग के पास अपार सम्पत्ति एवं सम्पदा बढ़ने से उन्हें विद्यार्जन का अवसर मिला। मध्ययुग में केवल पादरियों को ही इसका अवसर मिलता था। चौथा – व्यापारी वर्ग ने चर्च की कड़ी आलोचना करके उसके महत्त्व को कम करने की कोशिश की।
4. कागज और मुद्रण यंत्र
मध्ययुग में अरबों के माध्यम से यूरोपवासियों ने कागज बनाने की कला सीखी। पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य में जर्मनी के जो गुटेनबर्ग नामक व्यक्ति ने एक ऐसी टाइप मशीन का आविष्कार किया, जो आधुनिक प्रेस की पूर्ववर्ती कही जा सकती है। मुद्रण यंत्र के इस आविष्कार ने बौद्धिक विकास का मार्ग खोल दिया। मुद्रण का आविष्कार होने के 50 वर्षों के अन्दर ही पुस्तकों की संख्या बढ़कर नब्बे लाख हो गई। जब पहली बार इरैस्मस की पुस्तक छपी, तो हाथोंहाथ उसकी करीब 2,500 प्रतियाँ बिक गयीं। ज्ञान पर विशिष्ट लोगों का एकाधिकार समाप्त हो गया। "पुस्तकों में ऐसा लिखा है", कहकर अब जनता को गुमराह नहीं किया जा सकता था क्योंकि जनता अब स्वयं आवश्यकता पड़ने पर ग्रंथ पढ़ सकती थीं, उनमें क्या लिखा है? पुस्तकों द्वारा ज्ञान के प्रसार से अंधविश्वास तथा रूढ़ियाँ कमजोर पड़ने लगीं, जिससे लोगों में आत्मविश्वास जागृत हुआ। छापेखाने के आविष्कार ने समाज के प्रत्येक व्यक्ति की बौद्धिक क्षुधा को शान्त करने का मार्ग प्रशस्त किया। बेकन के उदार कथन "सत्य सत्ता की नहीं, वरन् समय की पुत्री है। " के अनुरूप समय के साथ सत्य उद्घाटित होता चला गया।
5. मंगोल साम्राज्य का उदय
विशाल मंगोल साम्राज्य के उदय से पुनर्जागरण को प्रेरणा मिली। तेरहवीं शताब्दी में प्रसिद्ध मध्य- एशिया विजेता चंगेज खाँ की मृत्यु के बाद कुबलाई खाँ ने एक विशाल एवं शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की थी। इसमें रूस, पोलैण्ड, हंगरी आदि प्रदेश शामिल थे। उसका दरबार विद्वानों, धर्म प्रचारकों और व्यापारियों का केन्द्र था। मंगोल राजसभा पोप के दूतों; भारत के बौद्ध भिक्षुओं; पेरिस, इटली तथा चीन के दस्तकारों; भारत के गणितज्ञों एवं ज्योतिषाचार्यों आदि सभी से सुशोभित थी। इस अवधि में पीकिंग तथा समरकन्द अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र बन गये थे। अतः इस युग में पूर्व एवं पश्चिम का वास्तविक सम्पर्क स्थापित हुआ। प्रसिद्ध वेनिस यात्री मार्कोपोलो, कुबलाई खाँ के दरबार में 1272 ई. में गया था। वहाँ से लौटकर उसने अपनी यात्रा का विशद् विवरण लिखा । उसके यात्रा विवरण ने यूरोपवासियों के मानस को लम्बे समय तक उद्वेलित किया। प्रसंगवश यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि मंगोलों के सम्पर्क से यूरोप को कागज एवं मुद्रण, कुतुबनुमा तथा बारूद की सर्वप्रथम जानकारी मिली। 'कदाचित, मौलिक ज्ञान के रूप में नहीं बल्कि दूसरी जातियों द्वारा प्राप्त ज्ञान को सभ्य जगत् को प्रदान करने की दृष्टि से विश्व इतिहास में मंगोलों का काफी महत्त्व है।"
6. कुस्तुन्तुनिया पर तुर्कों का अधिकार
1453
ई. में तुर्कों ने पूर्वी रोमन (बाइजेन्टाइन ) साम्राज्य की राजधानी
कुस्तुन्तुनिया पर अधिकार कर लिया। कुस्तुनतुनिया पर तुकों का अधिकार हो जाने से
यूरोप से पूर्वी देशों को जाने वाले स्थल मार्ग पर अब तुर्कों का अधिकार हो गया।
अतः दक्षिण पश्चिम यूरोप के लोग किसी नए व्यापार मार्ग, सम्भवतः
बल मार्ग, खोज निकालने के लिए व्यग्र हो उठे। इस व्यग्रता ने ही
अमेरिका की खोज की, भारत एवं पूर्वी द्वीपों का जल मार्ग ढूँढ निकाला।
कुस्तुन्तुनिया पिछले दो सौ वर्षों से ज्ञान,
दर्शन तथा कला का महान्
केन्द्र था। इस्लाम में नव-दीक्षित तथा बबर तुर्कों के लिये इनकी न कोई उपयोगिता
थी और न महत्त्व। फलतः यहाँ से आजीविका की खोज में हजारों यूनानी विद्वान्, दार्शनिक
एवं कलाकार इटली, फ्रांस, जर्मनी,
इंग्लैण्ड आदि देशों में चले
गये। वे जाते समय प्राचीन रोम एवं यूनान का ज्ञान-विज्ञान तथा नयी चिंतन पद्धति
अपने साथ ले गये। अकेला कार्डिनल बेसारिओन 800 पांडुलिपियों के साथ इटली पहुँचा
था।
इस
प्रकार अनेक परिस्थितियों के सम्मिलित प्रभाव से पुनर्जागरण संभव हुआ। ऐसे कारण
तेरहवीं शताब्दी के यूरोप में पहले से मौजूद थे,
जिसके कारण यूरोप में 15वीं
और 16वीं शताब्दी में नए सांस्कृतिक,
राजनीतिक और आर्थिक जीवन
मूल्यों की स्थापना हुई और सदियों के बाद यूरोप फिर से जाग उठा।
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