रविवार, 22 जनवरी 2023

व्यापारिक क्रांति के कारण


व्यापारिक क्रांति : पूंजीवाद और वाणिज्यवाद का मिलन

पूंजीवाद का लक्ष्य एक ऐसी व्यावसायिक व्यवस्था थी जो व्यक्तियों को अमीर बनाती है। अर्थात यह एक ऐसी प्रणाली है जिसे व्यक्ति को पुरस्कृत करने के लिए डिज़ाइन किया गया था, अतः यह जोखिम लेने के लिए प्रोत्साहित करती है। इसके विपरीत, वाणिज्यवाद ने राज्य की सामान्य समृद्धि को बढ़ाने के लिए आर्थिक नीति में प्रत्यक्ष सरकारी हस्तक्षेप पर जोर दिया। अर्थात इसका एक प्रमुख लक्ष्य एक ऐसी व्यवस्था है जो राज्य को शक्तिशाली बनाती थी। हालांकि दोनों अंत तक भिन्न थे, फिर भी दोनों प्रणालियां प्रारंभिक-आधुनिक काल तक एक साथ मिलकर काम करती रहीं। दरअसल सरकारों और उद्यमियों ने इस प्रकार के नए संस्थानों को डिजाइन किया जो सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दियों के दौरान वैश्विक व्यापार के विस्तार की सुविधा प्रदान करते थे, जिसे व्यापारिक क्रांति कहा गया है।

                        व्यापारिक क्रांति के कारण

समस्त स्थितियों का विश्लेषण करने के उपरान्त इस क्रान्ति के लिए निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी कहा जा सकता है-

1.    धर्मयुद्ध—

धर्मयुद्धों ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को गतिशीलता प्रदान की। क्योंकि जव पश्चिमी यूरोपीय देशों के लोग धर्मयुद्धों में भाग लेने के लिये पूर्वी देशों में गये तो वहाँ उन्हें चीनी, मसाले, सिल्क के कपड़ों, बहुमूल्य रत्नों इत्यादि की जानकारी प्राप्त हुई जिसे वे लौटते समय अपने साथ स्वदेश लाये। अतः यूरोपीय देशों में इन वस्तुओं की माँग बढ़ी। इटैलियन नगरों को इससे अधिक व्यापारिक लाभ हुआ तथा भूमध्यसागरीय व्यापार का मार्ग पश्चिमी यूरोपीय व्यापरियों के लिये खुल गया। इससे पश्चिमी यूरोप के व्यापारियों का पूर्वी देशों के व्यापारियों के साथ सम्पर्क वढ़ा तथा व्यापारिक गतिविधियों में तीव्रता आई जिसने व्यापारिक क्रान्ति के विकास में महत्वपूर्ण सहयोग दिया।

2.    पुनर्जागरण - 

पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप नवचेतना का संचार हुआ। मनुष्य ने पारलौकिक जीवन के स्थान पर भौतिकवाद की ओर झुकना आरम्भ कर दिया। मनुष्य अन्धविश्वासों, कठिनाइयों व परम्पराओं का विरोध करने का साहस कर सका। फलतः भौतिक जीवन के प्रति आकांक्षा बढ़ने लगी जिसने अर्थव्यवस्था पर सीधा प्रभाव डाला। अतः भौतिक संसाधनों की प्राप्ति हेतु शनैः-शनैः गम्भीर प्रयत्न आरम्भ हो गए जिन्होंने शीघ्र ही व्यापक आर्थिक परिवर्तन का क्रम आरम्भ कर दिया।

3.    प्रोटेस्टेंट नैतिकता - 

मध्य युग में चर्च ने जीवन को निस्सार बतलाते हुए आध्यात्मिक जीवन की सर्वश्रेष्ठता को प्रतिपादित किया। भौतिक सुखों को आध्यात्मिक जीवन के लिए कांटे के रूप में प्रतिपादित किया गया, किन्तु प्रोटेस्टेण्टों ने न सिर्फ आध्यात्मिक दुनिया बल्कि सांसारिक दुनिया की बेहतरी को भी आदर्श बना दिया इसने पूंजीवाद के मार्ग की बाधाएं दूर करने में योगदान दिया। जैसा कि मैक्स वेबर ने दिखया है- मितव्ययिता, समय के महत्व एवं परिश्रम एवं ब्याज लेने की प्रक्रिया पर प्रोटेस्टेण्टों ने विशेष योगदान दिया। अतः सामान्य जनमानस में व्यक्तिगत सम्पत्ति को जोड़ने की भावना ने जोर पकड़ना आरम्भ कर दिया।

4.    आर्थिक स्थिति –

वाणिज्यवाद के उदय के लिए आर्थिक स्थिति भी कम उत्तरदायी नहीं थी। मुद्रा के प्रचलन से व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में व्यापकता आ गयी। स्थानीय आवश्यकता के अतिरिक्त भी अब उत्पादन करने वाले देशों में अधिक उत्पादन की आवश्यकता को बल मिला। नयी खानों व बैंकों के विकास ने विदेशी व्यापार को प्रोत्साहित किया। अब प्रत्येक देश सोने व चांदी को प्राप्त करने की होड़ में जुट गया। अमरीका के अनेक भागों में सोने व चांदी के भण्डारों का पता लग जाने से एक नए परिवेश ने जन्म ले लिया।

5.    राजनीतिक स्थिति –

मैकियावली ने अपनी रचना 'दि प्रिन्स' में राजा की शक्ति को सर्वोपरि माना और स्पष्ट कर दिया कि अन्य शक्तियों को भी राजा की शक्ति के अधीन झुकना चाहिए। अलेक्जेण्डर ग्रे के शब्दों में, “मैकियावली ने राजनीति को सभी नैतिकता से अलग स्वतन्त्र स्वरूप प्रदान किया।” निःसन्देह राज्य की सर्वोपरिता पर बल दिया जाने लगा। वस्तुतः इसका मूल कारण आन्तरिक स्थिति एवं बाह्य आक्रमणों का खतरा था। आन्तरिक स्थिति चौपट हो गयी थी। समस्त जनता की आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो चुकी थी। कृषि एवं घरेलू अर्थव्यवस्था से शक्तिशाली सेना का व्यय उठाना कठिन हो गया था। इधर वाणिज्यवादी इस बात पर बल दे रहे थे कि व्यापार के माध्यम से राजकीय खजाने में वृद्धि हो सकती है अतः राजाओं ने भी नए देशों की खोज व विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन प्रदान किया।

6.    हैनसियाटिक संघ-

उत्तरी यूरोप एवं जर्मनी के अनेक नगरों ने व्यापार के लिये एक संघ का गठन किया जो 'हैनसियाटिक संघ' कहलाया यद्यपि इसके गठन के लिये पहल 12वीं शताब्दी में की गई थी परन्तु इस संघ ने 14वीं शताब्दी में वास्तविक रूप ग्रहण किया। इसके पश्चात् 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक उत्तरी यूरोप के व्यापार में इसने महत्वपूर्ण भाग लिया। इस संघ के चरमोत्कर्ष काल में इसमें साठ से अस्सी नगर तक सम्मिलित थे। इन नगरों में व्यापारिक केन्द्र तथा मालगोदाम स्थापित किए गए जहाँ हैनसियाटिक संघ में सम्मिलित व्यापारियों द्वारा अनाज, मछली, चमड़ा, ऊन, इमारती लकड़ी, लोहा, ताँबा, लाख, डामर इत्यादि का विक्रय किया जाता था।

7.    मार्कोपोलो का यात्रा-वृत्तान्त-

मार्कोपोलो का यात्रा-वृत्तान्त भी इस क्रान्ति में सहयोगी कारण सिद्ध हुआ। मार्कोपोलो ने 13वीं शताब्दी में चीन एवं अन्य पूर्वी देशों की यात्रा की तथा स्वदेश लौटने के पश्चात् उसने अपना यात्रा-वृत्तान्त प्रकाशित किया। इसमें उसने पूर्वी देशों के वैभव तथा वहाँ मिलने वाली चीनी, कपास, मसाले, सोना-चाँदी, बहुमूल्य रत्नों इत्यादि का वर्णन किया जिसके कारण पश्चिमी यूरोपवासियों में सुदूरपूर्व के उत्पादनों के प्रति आकर्षण बढ़ा।

8.    सामुद्रिक यात्रायें—

यदि 15वीं शताब्दी में आरम्भ होने वाली सामुद्रिक यात्रायें न होतीं तो सम्भवतः यह व्यापारिक क्रान्ति इतनी सफल एवं व्यापक नहीं हो पाती। पूर्वी देशों के साथ स्पेन तथा पुर्तगाल की व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने की महत्वाकांक्षा ने सागर में दुस्साहसिक यात्रायें करने के लिए प्रेरित किया।

9.    विचारकों का योगदान-

इंग्लैण्ड के सर टामस मन ने 1664 में 'इंग्लैण्ड ट्रेज़र बाय फॉरिन ट्रेड' नामक पुस्तक लिखी । यह पुस्तक 'वाणिज्यवाद की गीता' के नाम से प्रख्यात है। टामस मन के अनुसार, “अपनी समृद्धि की वृद्धि के लिए कम से कम आयात एवं अधिक से अधिक निर्यात की नीति अपनायी जानी चाहिए।" ऐण्टोनिओ सैरा का जन्म 1580 ई. में इटली में हुआ था। उसने अपनी पुस्तक में वाणिज्यवाद के सिद्धान्तों पर बल दिया था। सैरा के अनुसार, “कृषि में मौसम की अनिश्चितता के कारण लाभ अनिश्चित रहता है जबकि उद्योगों में तो वृद्धि का नियम ही चरितार्थ होता है। अतः उद्योगों की वृद्धि की नीति पर बल दिया जाना चाहिए।" जीन बेपटिस्ट कोलबर्ट फ्रांस का वित्तमन्त्री था। कोलबर्ट के अनुसार, “सड़कों एवं नहरों का निर्माण कर घरेलू अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो सकती है। शक्तिशाली जहाजी बेड़े का निर्माण, अनाज के निर्यात पर प्रतिबन्ध, गिल्डों पर राजकीय नियन्त्रण, व्यापारिक कम्पनियों की स्थापना, औपनिवेशिक विस्तार एवं मुद्रा के सृजन के लिए उद्योगों को प्रोत्साहित करना, वाणिज्यवाद के लिए या एक देश के विकास के लिए परम आवश्यक है।"

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