गुरुवार, 19 जनवरी 2023

ब्रह्म समाज एवं राजाराम मोहन राय के सुधार


 

19वीं शताब्दी में राजाराम मोहन राय वह प्रथम भारतीय व्यक्ति थे, जिन्होंने सर्वप्रथम भारतीयों के पुनर्जागरण हेतु समाज में व्याप्त बुराइयों के विरुद्ध सुधार आन्दोलन चलाया। अतः इन्हें आधुनिक भारत का पिता, भारतीय राष्ट्रवाद का जनक, नव प्रभात का तारा, नवजागरण का अग्रदूत, सुधार "आन्दोलनों का प्रवर्तक" तथा "अतीत एवं भविष्य के मध्य सेतु" कहा जाता है।

परिचय –

राजाराम मोहन राय का जन्म 1774 में बंगाल के हुगली जिले में राधानगर नामक गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम रमाकान्त राय था। उनके पिता एक जमींदार थे। उनके पिता, उनके दादा और ‘राय रायान' की उपाधि के प्रथम धारक उनके पितामह सब के सब बंगाल के नवाबों के अधीन सेवा कर चुके थे। इनको 'राय' की उपाधि बंगाल के नवाब ने दी थी। 1830 में मुगल बादशाह अकबर द्वितीय ने राम मोहन राय को 'राजा' की उपाधि देकर अपने प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैण्ड के सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में भेजा ताकि वे सम्राट के सामने मुगल बादशाह को दी जाने वाली अपर्याप्त पेंशन के बारे में बादशाह का पक्ष रख सके

राजा राम मोहन राय ऐसे प्रथम भारतीय थे, जिन्होंने यह मिथक तोड़ा कि समुद्र यात्रा करना पाप है। इंग्लैण्ड में ये तीन वर्ष तक रहे और इनकी मृत्यु 27 सितम्बर, 1833 में इंग्लैण्ड में ब्रिस्टल नामक स्थान पर हो गई।

शिक्षा -

राममोहन राय के प्रारंभिक जीवन के विषय में सही सूचना प्राप्त नहीं है। बहुत संभव है कि पहले उनकी शिक्षा घर में और उसके बाद स्थानीय पाठशाला में हुई, जहां उन्होंने संस्कृत, फारसी और बांग्ला सीखी। वह पटना और बनारस में फारसी, अरबी और संस्कृत सीखने के लिए गए। जब उनकी उम्र लगभग 16 साल की हो गई तो वह ज्ञान की खोज में घर छोड़कर निकल पड़े और उत्तर भारत तथा हिमालय में घूमते रहे। संभव है कि इन यात्राओं के दौरान उन्होंने बौद्ध और लामा सिद्धांतों का भी अध्ययन किया हो। उन्होंने राधानगर के अपने संस्कृत शिक्षक से तंत्र और अपने अरबी तथा फारसी के शिक्षकों से इस्लाम धर्म सूफी पंथ का ज्ञान प्राप्त किया। वह इन धर्मों का अच्छा तुलनात्मक ज्ञान रखते थे। पर ऐसा लगता है कि इस्लाम के अध्ययन का उनके मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपने वाद-विवाद में अरबों के तर्कशास्त्र से बहुत मदद ली जिसे वह अन्य सभी तर्कशास्त्र से श्रेष्ठ मानते थे। वह मुता-जिला के दर्शन से प्रभावित हुए थे हाफिज और जलालुद्दीन रूमी के शेरों की बड़े चाव से दुहराते थे।

सामाजिक जीवन की शुरुआत -

1803 में अपने पिता की मृत्यु के समय वह कंपनी की सेवा में प्रविष्ट हुए और 2 वर्ष बाद वह डिगबी के दीवान हो गए, जिसके साथ वह 1814 तक रहे। डिगबी इनके मित्र हो गए और उन्होंने राममोहन राय को अंग्रेजी की शिक्षा दी। उन्होंने डिगबी के साथ जो 10 साल गुजारे, उसके दौरान उन्होंने पाश्चात्य चिंतन तथा साहित्य का गंभीर अध्ययन किया और एक ऐसी लेखन शैली विकसित की, जिसकी प्रशंसा करते हुए बेंथम ने कहा था कि "इस शैली के साथ, एक हिंदू का नाम न जुड़ा होता, तो हम यह समझते कि यह बहुत उच्च शिक्षित अंग्रेज की कलम से निकली है।'' सच्ची बात तो यह है कि इनकी शैली जेम्स मिल से श्रेष्ठ थी। 1814 में डिगबी के इंग्लैंड लौट आने पर, वह कलकत्ता बसने के लिए आए। यहां उन्होंने जन सेवा और समाज सुधार के अपने यशस्वी जीवन का सूत्रपात किया। उन्होंने धर्म, समाज और नीतिशास्त्र की बड़ी समस्याओं के संबंध में अपने विचार बना लिए थे और वह इसके बाद फौरन मैदान में उतर पड़े और अंधकार व मूढ़ता के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी।

धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन

कलकत्ता में वह श्रीरामपुर के मिशनरियों के संपर्क में आए। पादरियों द्वारा की गई हिंदू-धर्म की आलोचनाओं के साथ वह वहां तक सहमत थे, जहां तक यह प्रचलित विश्वासों और रीति-नीति के विरुद्ध थी। अब वह ईसाई धर्म के अध्ययन की ओर बढ़े। उन्होंने ग्रीक, लैटिन और हैब्रू भाषाएं पढ़ीं और ईसाई धर्मशास्त्रियों की रचनाओं का अध्ययन किया। वह ईसामसीह की शिक्षाओं के प्रशंसक बन गए, पर उन्होंने बाइबिल के कठमुल्लापन तथा अलौकिकतावाद को नामंजूर कर दिया।

हिंदू धर्म के बचाव मात्र से संतुष्ट न रहकर उन्होंने ईसाइयों के चमत्कारों, ईश्वर की त्रिधा प्रकृति और पवित्र या दिव्य गर्भधारण के विश्वास पर हमला बोल दिया। उन्होंने अपने पादरी विरोधियों को ऐसी तर्कहीन बातों के लिए सफाई देने के लिए मजबूर किया। उनका कहना यह था कि हिंदू धर्म, ईसाई धर्म से निष्कृष्ट नहीं था, जैसाकि 'बंगाल हरकारु' के संपादक को लिखे हुए उनके पत्र से ज्ञात होता है-

"यदि ईसाइयों के कथनानुसार हम लोग बुद्धि की किरण के लिए ईसाइयों के प्रति कृतज्ञ हैं, जिससे यदि उनका यह मतलब है कि हम उपयोगी यांत्रित कलाओं के लिए उनके कृतज्ञ हैं, तो मैं इससे सहमत हूं और इसके लिए मैं कृतज्ञ भी हूं। पर जहां तक विज्ञान, साहित्य या धर्म की बात है, मैं यह नहीं मानता कि हम किसी तरह भी उनके कृतज्ञ हैं क्योंकि यह इतिहास से प्रमाणित किया जा सकता है कि संसार प्रथम ज्ञान के लिए हमारे पूर्व पुरुषों का ऋणी था क्योंकि यह ज्ञान पूर्व में ही उदित हुआ और ज्ञान की देवी को धन्यवाद है कि हमारे पास अब भी एक ऐसी दार्शनिक तथा सशक्त भाषा है, जो हमें दूसरी जातियों के मुकाबले विशिष्टता देती है और जो विदेशियों की भाषा से उधार लिए बिना, वैज्ञानिक और अमूर्त तथा सूक्ष्म चिंतन में समर्थ है।"

इस प्रकार चिंतन तथा संस्कृति के एक अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र में उन्होंने पाश्चात्य श्रेष्ठता का खोखलापन प्रदर्शित किया और हिंदुओं का आत्मविश्वास पुनर्जीवित किया, जो इस बीच मिशनरियों तथा उनके साथियों के हमलों के द्वारा बहुत बुरी तरह झंझोड़ा जा चुका था। इससे यह स्वप्न कि पाश्चात्य शिक्षा और ईसाइयत के प्रचार से भारत ईसाई बन जाएगा, बहुत कुछ फीका पड़ने लग गया। हिंदू धर्म के मौलिक और शुद्ध रूप की पैरवी करते हुए उन्होंने भ्रष्टाचार और आमनवीय रिवाजों की मोटी दीवारों पर बहुत जबर्दस्त हमला कर दिया, जो ह्रास की शताब्दियों के दौरान, धर्म के गढ़ के चारों ओर खड़ी हो गई थीं, और जिन्हें कबीर, नानक, दादू तथा दूसरों ने साहस के साथ तोड़ डोलने की कोशिश की थी। उन्होंने दुख के साथ यह अनुभव किया कि "हिंदू समाज अपनी जात-पांत, बहुविवाह, कुलीन प्रथा, सतीदाह, शिशु हत्या और दूसरी बुराइयों के कारण बिल्कुल सड़ चुका था। आचार बहुत ही गिरा हुआ था। लोग अनाचार, आलस्य, सामाजिक झगड़े और पार्टीबंदी के पचड़ों में समय व्यतीत करते थे। देश भर में अज्ञान और कुसंस्कार का बोलबाला था। देश में अंधकार फैला हुआ था और किसी भी आदमी को पता नहीं था कि यह अंधकार कब और कैसे दूर हो सकता है।" 1811 में राजा राम मोहन राय के बड़े भाई की पत्नी के सती हो जाने से इन्हें असीम दुख का अनुभव हुआ तथा इस घटना से उन्होंने इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने का निश्चय किया था और इनके अथक प्रयासों से 1829 में सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा।

राममोहन राय ने कलकत्ता में जो 15 साल व्यतीत किए, उसके दौरान, उन्होंने बहुत तेजी से जो काम किया उससे समाज में एक असाधारण उत्साह पैदा हो गया, जो गरम तथा नरम आंदोलनों के साथ मिल कर मध्यम वर्ग के विशेषकर शिक्षित वर्गों के रुख में बहुत बड़ा परिवर्तन ला सका। रूढ़िवादी मध्ययुगीन दृष्टिकोण की जगह पर चिंतन तथा कार्य में एक नई चेतना जागी। राममोहन राय द्वारा चलाए हुए सर्वतोमुखी आंदोलन के कारण ही यह परिवर्तन आया। राष्ट्रीय जीवन का शायद ही कोई ऐसा पहलू था, जिसे उन्होंने प्रभावित न किया हो।

रचनाएं

1809 में इन्होंने तोहफत-उल-मुवाहिदीन (एकेश्वरवादियों का उपहार) नामक पुस्तक लिखी। अपनी इस प्रथम कृति को उन्होंने फारसी भाषा में लिखा था, जिसमें मूर्ति पूजा का विरोध किया तथा एक ईश्वर को सब धर्मों का मूल बताया गया था।

1820 में ईसाई धर्म के विचारों से प्रभावित होकर "प्रिंसेप ऑफ जीसस" नामक पुस्तक लिखी, जो 1823 में जान डिग्वी के प्रयासों से लंदन में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में इन्होंने न्यू टेस्टामेट के नैतिक एवं दार्शनिक संदेश को उसकी चमत्कारिक कहानियों से अलग करने की कोशिश की तथा मात्र न्यू टेस्टामेंट के नैतिक तत्वों की प्रशंसा की।

संस्थाएं

1814 में इन्होंने कलकत्ता में 'आत्मीय सभा' की स्थापना की तथा मूर्ति पूजा, जाति प्रथा की भर्त्सना करती थी।

1817 में इन्होंने डेविड हेयर के सहयोग से कलकत्ता में “हिन्दू कालेज" की स्थापना की

1817 में ही कलकत्ता में एक अंग्रेजी स्कूल भी खोला, जिसमें प्रसिद्ध दार्शनिक दाँते, रूसो, वाल्तेयर के दर्शन की शिक्षा दी जाती थीं।

1821 में इन्होंने कलकत्ता में "यूरीटेरियन (एकेश्वर) मिशन' की स्थापना की, जिसका उद्देश्य एक स्थान पर एकत्र होकर विषयों पर चिन्तन करना था

1821 में "संवाद कौमुदी" नामक बंगाली पत्रिका तथा 1822 में फारसी भाषा में 'मिरातुल-अखबार' का प्रकाशन किया तथा अंग्रेजी भाषा में 'ब्रह्मनिकल मैग्जीन' भी प्रकाशित की

1825 में इन्होंने बेदान्त कालेज की स्थापना की, जहाँ भारतीय विद्याओं एवं पश्चिमी विज्ञान की जानकारी दी जाती थी। बंगाली भाषा को समृद्ध बनाने हेतु इन्होंने बंगला व्याकरण की रचना की। इनकी विभिन्न भाषाओं में काफी अच्छी जानकारी थी और इन्होंने बंगाली, अंग्रेजी, हिन्दी, फारसी में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया।

 

                          ब्रह्म समाज की स्थापना 

20 अगस्त 1828 को राजा राम मोहन राय ने "ब्रह्म समाज' की स्थापना की, 1830 में लिखे हुए प्रन्यासकरण पत्र (trust deed) में कहा कि इस समाज का उद्देश्य शाश्वत, सर्वाधार, अपरिवर्त्य ईश्वर की पूजा है जो सारे विश्व का कर्त्ता और रक्षक है। एक नया भवन भी न्यास-मण्डल (Board of Trustees) को दे दिया गया जिसमें मूर्तिपूजा तथा बलि देने की अनुमति नहीं थी। उनके उपदेशों का तात्पर्य भी सभी धर्मों में आपसी एकता के बन्धन को दृढ़ करना था। राजा साहिब स्वयं हिन्दू ही रहे और यज्ञोपवीत पहनते रहे परन्तु 1833 में उनकी इंग्लैंड में अकाल मृत्यु के कारण समाज का मार्ग दर्शन नहीं रहा और शनैः शनैः उसमें शिथिलता आ गई। जिसके उद्देश्य निम्नलिखित थे-

1. बहुदेववाद, मूर्तिपूजा का विरोध तथा अवतारवाद का खण्डन करना।

2. बहुपत्नी प्रथा, बाल विवाह एवं सती प्रथा का विरोध तथा विधवा विवाह का समर्थन करना।

3. पाश्चात्य शिक्षा तथा बंगला भाषा का प्रचार प्रसार

4. जातिवाद अस्पृश्यता का विरोध तथा सर्वधर्म समभाव एवं निर्गुण ब्रह्म की उपासना करना।

5. राजाराम मोहन राय ने सती प्रथा का विरोध करते हुए कहा था कि "किसी भी शास्त्र के अनुसार यह हत्या है।"

ब्रह्म समाज ने सर्वधर्म समभाव पर बल दिया तथा एकेश्वरवाद के सिद्धान्त को अपनाया।

राजा राम मोहन राय का उद्देश्य किसी नए धर्म की स्थापना करना नहीं था। अपितु उनका उद्देश्य हिन्दू समाज को सुधार लाना था।

राजा राम मोहन राय के बाद ब्रह्म समाज : देवेन्द्र नाथ टैगोर

राजा राम मोहन राय के इंग्लैण्ड जाने के पश्चात् ब्रह्म समाज का संचालन द्वारकानाथ टैगोर तथा 'राय' के शिष्य पं० रामचन्द्र विद्यावागीश ने दस वर्षों तक किया। तदुपरान्त द्वारका नाथ टैगोर के बड़े पुत्र देवेन्द्र नाथ टैगोर ने 1843 में ब्रह्म समाज का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। नेतृत्व संभालने के पूर्व ही इन्होंने 1839 में "तत्वबोधिनी सभा" की स्थापना की थी। जिसका प्रमुख उद्देश्य था, धर्म के वास्तविक तत्व को खोजकर विकास करना एवं उपनिषदों के ज्ञान का प्रसार करना। उस समय ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, अक्षय दत्त, राजेन्द्र लाल मिश्र आदि लोग इस सभा के सदस्य थे। 1840 में तत्वबोधिनी स्कूल की स्थापना हुई तथा इसी नाम से पत्रिका भी प्रकाशित की गई।

21 दिसम्बर, 1843 को टैगोर ने औपचारिक रूप से ब्रह्म समाज की सदस्यता ग्रहण की और राम मोहन राय के सुधारों को अनवरत जारी रखा। 1856 में ये संस्था को त्यागकर शिमला की पहाड़ियों में एकान्तवास हेतु चले गए और ब्रह्म समाज का नेतृत्व अब केशव चन्द सेन के हाथों में चला गया था।

इस संस्था में नया जीवन फूंकने और इसे एक ईश्वरवादी आन्दोलन के रूप में आगे बढ़ाने का श्रेय महर्षि देवेन्द्र नाथ टैगोर (1818-1905) को था। वह इस आन्दोलन में 1842 में सम्मिलित हुए और उन्होंने ब्रह्म धर्म अवलम्बियों को मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, कर्मकाण्ड और प्रायश्चित इत्यादि से रोका। उनके विचार में लकड़ी और पाषाण की मूर्तियों को ईश्वर कैसे माना जाए। ईश्वर को जिस रूप में चाहो पूजों अर्थात् कोई गायत्री मंत्र में भी पूजना चाहे अथवा किसी और साधारण रीति से पूजना चाहे तो भी ठीक है। उन्होंने केशव चन्द्र सेन को ब्रह्म समाज धर्म का आचार्य नियुक्त कर दिया। उनके प्रभाव के अधीन हिन्दू धर्म के सर्वोत्तम विश्वास और नैतिक आचरणों को बनाए रखा गया।

   केशव चन्द्र सेन और ब्रह्म समाज

केशव चन्द्र सेन ने 1857 को ब्रह्म समाज की सदस्यता ग्रहण की और शीघ्र ही इनके नेतृत्व में ब्रह्म समाज प्रगतिवादी विचारधारा तथा उसके समर्थकों से युक्त हो गया। केशव चन्द्र सेन की वाक्पटुता, तर्कशक्ति तथा उदारवादी विचारों ने ब्रह्म समाज को अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया और इसकी शाखाएँ अब उ०प्र०, मध्य प्रदेश, बंगाल, बम्बई, मद्रास तथा पंजाब में भी खुल गईं। परन्तु शीघ्र ही देवेन्द्र नाथ टैगोर तथा 'सेन' में मतभेद हो गया, कारण यह था कि सेन सभी धर्मों की शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह तथा अपनी सभाओं में सभी धर्मों की पुस्तकों का पाठ करने लगे। अतः टैगोर ने 1865 में केशव चन्द्र सेन को आचार्य पद से हटा दिया। केशव सेन के अनुयायियों ने 1866 में अपना ब्रह्मसमाज ऑफ़ इंडिया बना लिया, जबकि देवेंद्रनाथ के अनुयायियों ने आदि (मूल) ब्रह्म-समाज के नाम से अपनी पहचान बनाए रखने की कोशिश की।  इन्होंने सामाजिक सुधारों तथा स्त्री मुक्ति, मद्य निषेध पर बल दिया।

1872 में सेन के प्रयासों से 'ब्रह्म विवाह ऐक्ट' पारित हुआ। जिसमें ब्रह्म पद्धित से सम्पत्र वैवाहिक संस्कारों को मान्यता प्राप्त हो गई। 1878 में केशव चन्द्र सेन ने अपनी 13 वर्षीय अल्पवयस्क पुत्री का विवाह 'कूच 'बिहार' (असम) के राजा से कर दिया, जिसका इनके साथियों ने कड़ा विरोध किया और शिवनाथ शास्त्री तथा आनन्द मोहन बोस के नेतृत्व में बहुत से लोगों ने अपने को सेन के ब्रह्म समाज से अलग करके 1878 में 'साधारण ब्रह्म समाज' की स्थापना की और इसके बाद केशव चन्द्र सेन इतिहास के अन्धकार में गायब हो गए।

साधारण ब्रह्म समाज ने अनेक कल्याणकारी कार्य किए तथा जनमानस को शिक्षित एवं जागरुक करने के लिए इन्होंने 'तत्व कौमुदी', संजीवनी, मार्डन रिव्यू प्रवेश तथा इण्डिया मैसेंजर नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन किया- केशव चन्द्र सेन ने भारत का पहला अंग्रेजी दैनिक 'इण्डियन मिरर' का प्रकाशन 1861 में किया था

केशव चन्द्र सेन ऐसे पहले मिशनरी थे, जिन्होंने धर्म प्रचार के लिए भ्रमण किया ब्रह्म समाज भारत का पहला आधुनिक मिशनरी आन्दोलन था।समाज सुधार की दृष्टि से ब्रह्म समाज ने अनेक सामाजिक अन्धविश्वास तथा कुरीतियों को खत्म किया तथा समाज में स्त्री शिक्षा, समानता, छुआछूत, पर्दा प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह आदि जैसी बुराइयों को खत्म करने में इसका महत्वपूर्ण योगदान था।

                                    राममोहन राय के सुधार प्रयास  

उनका हृदय पूर्व और पश्चिम के उत्तम तत्वों के समन्वय में लगा था जिसे वह समकालीन भारतीय स्थितियों में स्थापित करना चाहते थे। उन्हें सत्य ही भारत के आधुनिकीकरण के कर्ता के रूप में स्मरण किया जाता है क्योंकि उनके सामाजिक तथा धार्मिक सुधारों, पश्चिमी शिक्षा पद्धति के प्रसार, नागरिक अधिकारों के समर्थन, समाचारपत्रों के स्वतन्त्रता के समर्थन, संवैधानिक आन्दोलनों के समर्थन के कारण भारत में एक उदारवादी तथा आधुनिक विचारधारा का सूत्रपात हुआ

1. धार्मिक सुधार

धर्म के मामले में उनके विचार उपयोगितावादी (utilitarian) थे। लोग उन्हें धार्मिक बेन्थम अनुयायी (Religious Benthamite) कहते थे। उनके सामने आधारभूत समस्या यह थी कि कैसे 18वीं सदी के पाश्चात्य वस्तुपरक वैज्ञानिक और तर्कवादी चिंतन की संगति पूर्व के अंतर्दृष्टिजन्य, वैयक्तिक, प्रत्यक्ष अनुभूति-लब्ध और उच्चतर समझे जाने वाले ज्ञान के साथ में बैठाई जा सकती है।

पश्चिम के प्रत्यक्षवाद से ह्यम का संदेहवाद और वैज्ञानिक वस्तुनिरपेक्षवाद आ गया जिससे ठोस विश्वसनीय शक्ति का दावा ही कट जाता था। इसके अनुसार ज्ञान, इंद्रिय-ग्राह्यता तथा व्यष्टि तक सीमित हो जाता था।

इसके विपरीत मध्ययुगीन भारतीय दर्शन मन को शून्य करके एक वस्तुनिरपेक्ष आदर्शवाद में आश्रय लेने के लिए मजबूर करता था। यह रहस्यवाद शुद्ध नकार पर आधारित था, जिससे अलगाव और व्यष्टि का निषेध होता था। समस्या के इस समाधान से, कुछ ऐसे महत्वपूर्ण साध्य निकलते थे जो सामाजिक संगठन और शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण थे।

अपनी फारसी पुस्तिका 'तुहफतुह मुवाहिदीन' में, जो 1803-04 में प्रकाशित हुई थी, उन्होंने लिखा- "हर मामले में यह जरूरी है कि भलाई और बुराई में फर्क करते समय ज्ञान के सिद्धांतों की सहायता से तर्क या बुद्धि का आश्रय लिया जाए, क्योंकि परम दयालु परमेश्वर ने हमें ज्ञान का जो वरदान दिया है, उसे व्यर्थ नहीं माना जा सकता।

केन उपनिषद के अनुवाद की भूमिका में पंरपरा और तर्क के द्वंद्व का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा- "शायद सबसे अच्छा तरीका यह कि हम पूर्ण रूप से, केवल एक ही का आश्रय न लें, बल्कि दोनों से जो रोशनी प्राप्त हो उसका उचित प्रयोग करके हम अपनी बौद्धिक तथा नैतिक शक्तियों को उन्नत करने का प्रयास करें।''

2. सामाजिक सुधार

समाज सुधार के क्षेत्र में तो सत्य ही वह प्रभात का तारा थे। उनका मुख्य उद्देश्य स्त्रियों के प्रति अधिक उत्तम व्यवहार प्राप्त करना था। अमानुषी सती प्रथा को समाप्त करवाने के लिए जो प्रयत्न उन्होंने किए वे विश्व विख्यात हैं। वह समकालीन लोगों से बहुत आगे थे। जब उन्होंने स्त्रियों के लिए पुनर्विवाह का अधिकार मांगा, तो उनके पक्ष में उत्तराधिकार के अधिकारों में भी परिवर्तन की मांग की। वे बाल विवाह और बहुपत्नी विवाहों को बन्द करवाना चाहते थे। इससे अधिक वह उनकी शिक्षा के पक्ष में थे क्योंकि उसके बिना उनके समाज में अच्छा स्थान प्राप्त करने की बात नहीं सोची जा सकती थी।

उन्होंने जातिवाद पर भी प्रत्यक्ष प्रहार किया। उनके अनुसार जातिपांति के कारण भारतीय समाज जड़ हो गया था और इससे लोगों की एकता तथा घनिष्ठता में बाधा पड़ती थी। इन अनगिनत विभाजनों के कारण देश-प्रेम की भावना उत्पन्न ही नहीं होती। राजा साहिब ने यह सुझाव दिया कि जातिपांति के बन्धनों को हटाने के लिए शैव वैवाहिक पद्धति अपनानी चाहिए।

3. शैक्षणिक सुधार

शिक्षा के क्षेत्र में वह अंग्रेजी शिक्षा के पक्ष में थे। उनके अनुसार एक उदारवादी पाश्चात्य शिक्षा ही अज्ञान के अंधकार से हमें निकाल सकती हैं और भारतीयों को देश के प्रशासन में भाग दिला सकती है। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने लार्ड एमहर्स्ट (Amherst) को दिसम्बर 1823 को एक पत्र लिखा था, "यदि अंग्रेजी संसद की यह इच्छा है कि भारत अन्धकार में रहे तो संस्कृत शिक्षा से उत्तम कुछ नहीं हो सकता। परन्तु सरकार का उद्देश्य भारतीय लोगों को अच्छा बनाना है अतएव सरकार को एक उदारवादी शिक्षा का प्रसार करना चाहिए जिसमें गणित, सामान्य दर्शन, रसायन-शास्त्र, शरीर रचना (anatomy) तथा अन्य लाभदायक विज्ञान इत्यादि सम्मिलित हों और निश्चित धनराशि से विदेशों से कुछ विद्वान भरती किए जाएं और यहां महाविद्यालय खोले जाएं।"

4. राजनीतिक सुधार

राजनैतिक क्षेत्र में उनका विचार था कि अंग्रेजी साम्राज्य एक वास्तविकता है और वह समझते थे कि यह भारत के विकास में एक पुनर्जन्म देने वाली शक्ति के रूप में कार्य करेगा। वास्तव में वह उन्नीसवीं शताब्दी के उदारवादी विचारकों के अग्रदूत थे। उनके अनुसार भारत को अंग्रेजी राज्य की कई वर्षों तक आवश्यकता रहेगी ताकि जिन दिनों वह अपनी राजनैतिक स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्नशील हों, देश की अत्यधिक हानि न हो अर्थात् उनके अनुसार अंग्रेजों के अधीन ही भारत नागरिक तथा राजनैतिक स्वतन्त्रताएं प्राप्त कर सकता है और सभ्य संसार में अपना स्थान प्राप्त कर सकता है।

उन्होंने उत्तरदायी सरकार की मांग नहीं की परन्तु प्रशासन में बहुत से सुधारों की आवश्यकता पर बल दिया जैसे कि अधिक अच्छी न्यायपालिका, कार्यकारिणी का न्यायपालिका से पृथक्करण, भारतीयों की सेवाओं में भरती और समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता इत्यादि ।

5. अंतर्राष्ट्रीयता संबंधी विचार

राममोहन राय की राजनीति संकीर्ण नहीं थी। उनकी आंखों में मानव जाति एक परिवार के रूप में थी और एक जाति का सुख या दुख संसार के बाकी हिस्सों का सुख या दुख था। उदाहरणस्वरूप जब आस्ट्रिया वासियों ने नेपल्स नगर की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया, तो वह इतने दुखी हुए कि उनके एक मित्र ने उन्हें एक पार्टी दी थी, वह उसमें नहीं गए। जब उन्होंने स्पेन में वैधानिक शासन की स्थापना की बात सुनी, तो उन्होंने टाउन हाल में एक सार्वजनिक भोज दिया। 1830 की फ्रांसीसी राज्यक्रांति की खबर पाकर वह इतने जोश में आ गए कि तीव्र वेदना से पीड़ित होने के बावजूद, उन्होंने यह जिद्द की कि मैं जाकर तिरंगे से मंडित फ्रांसीसी फ्राइगटों (जहाजों) को देखूंगा जो उस समय खाड़ी में मौजूद थे। जब इंग्लैंड में संसद सुधार विधेयक पर वाद- विवाद बहुत जोरों के साथ चल रहा था और उसका भाग्य अधर में था, तो उन्होंने यह प्रतिज्ञा कर ली कि यदि विधेयक गिर गया, तो मैं ब्रिटेन के साथ अपना संबंध तोड़ लूंगा। फ्रांस के परराष्ट्र मंत्री को एक पत्र में उन्होंने लिखा था- सारी मानव जाति एक महान परिवार है, विभिन्न जातियां और कबीले जिसकी शाखाएं मात्र हैं।

उनके कार्य का मूल्यांकन-

आलोचकों ने कहा है कि उनके समाज तथा धर्म के कार्यों की सफलता सीमित थी। प्रोफेसर हिरेन मुकर्जी ने 19वीं शताब्दी के भारतीय पुनर्जागरण और 16वीं शताब्दी के यूरोपीय पुनर्जागरण की तुलना मूलभूत रूप में अशुद्ध बतलाया है क्योंकि उस पुनर्जागरण से संसार का रूप ही बदल गया। राम मोहन ने पूर्व और पाश्चात्य का समन्वय लाने का प्रयत्न तो अवश्य किया परन्तु यह समन्वय निम्न स्तर का यह स्वीकार करना पड़ेगा कि जैसा प्रत्येक युग के महापुरुषों के विषय में होता है कि वे अपनी सफलताओं से कहीं अधिक बड़े होते हैं। समकालीन परिस्थितियों की सीमाओं को देखते हुए हम कह सकते हैं कि राजा राम मोहन राय वास्तव में ही एक महान दृष्टि वाले व्यक्ति थे और अपने समकालीन लोगों से बहुत ऊंचे तथा आगे थे।

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