बुधवार, 12 अक्तूबर 2022

फ्रांस की पुरातन व्यवस्था




सामान्यतः पुरातन व्यवस्था शब्द का प्रयोग फ़्रांस में 1789 के बाद पत्रकारों तथा राजनेताओं के द्वारा किया गया था, यह शब्द क्रांति पूर्व के फ़्रांस की स्थिति को सम्बोधित करता था। 1794 के बाद अंग्रेजों ने इसका प्रयोग शुरू कर दिया। पुरातन व्यवस्था संस्थानिक रूप से सुस्त, आर्थिक रूप से गतिहीन, सांस्कृतिक रूप से शोषणकारी तथा सामाजिक रूप से स्तरीकृत थी। यह व्यवस्था स्व-आधुनिकीकरण के लिए सर्वथा अक्षम थी। अतः इसमें सुधार एक बड़े हिंसा के द्वारा ही संभव था।

राजनीतिक स्थिति

पुरातन व्यवस्था की राजनीतिक स्थिति की प्रमुख विशेषता उसमें व्याप्त अनियमितताएं थीं, इसी कारण उसके लिए 'अपव्ययी अराजकता', तथा 'शक्तियों का कचरा' आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।

1.     राजा के अधिकार 

फ्रांस में क्रान्ति से पूर्व निरंकुश राजतन्त्र था, जिसका सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था । राजा 'दैवीय अधिकारों' में विश्वास करने के कारण, स्वयं को किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था के प्रति उत्तरदायी नहीं मानता था तथा निरंकुशतापूर्वक शासन करना चाहता था, जैसा कि लुई XVI के कथन, 'चूंकि मैं चाहता हूं, इसलिए यह कानूनी है" से स्पष्ट है। राजा ही कानून बनाता, वही कर लगाता, खर्च भी अपनी इच्छानुसार करता, युद्ध की घोषणा करता तथा अपनी स्वेच्छा से ही अन्य राष्ट्रों के साथ सन्धि करता था। राजा किसी भी व्यक्ति को बिना अभियोग लगाए बन्दी बना सकता था। यद्यपि स्टेट्स-जनरल तथा पारलमां  राजा की शक्तियों पर अंकुश लगाने वाली दो संस्थाएं थीं, किन्तु स्टेट्स जनरल नियमित संस्था नहीं थी तथा राजा की इच्छा पर ही उसका अधिवेशन बुलाया जाता था। फ्रांस में दूसरी संस्था पारलमां थी जो प्रतिनिधि संस्था न होकर एक उच्चतम न्यायालय के समान थी।

2.   राजा की विलासिता

फ्रांस के शासक अत्यन्त शानशौकत से रहते थे तथा अत्यन्त विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। फ्रांस की राजधानी पेरिस थी, किन्तु राजा वार्साय में रहते थे जो पेरिस से 12 मील की दूरी पर स्थित था। वार्साय में उनका आलीशान महल बना हुआ था, जिसे लुई XIV ने करोड़ों डालर खर्च करके बनवाया था। उस महल में सैकड़ों कमरे, गिरजाघर, नाट्यशाला, भोजन कक्ष, सत्कार-गृह, अगणित अतिथि-भवन तथा नौकरों के रहने के लिए सैकड़ों कमरे बने हुए थे। इस महल में ही अनेक उद्यान, मूर्तियां, फब्बारे तथा कृत्रिम सरोवर बने हुए थे। राजा व राज-परिवार के लोग आमोद-प्रमोद में विलीन रहते थे। हेजन ने लिखा है कि "इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि इन प्रासादों के निवासी अपने को सच्चे अर्थों में 'देवानां प्रिय' समझते थे क्योंकि पृथ्वी पर उससे अधिक विलासिता और तड़क-भड़क कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिल सकती थी।" राजपरिवार के लोगों द्वारा निरन्तर इसी प्रकार से अपव्यय करने का राजकोष पर गम्भीर प्रभाव होता था। इसी कारण फ्रांस में लोग राज-दरबार को 'राष्ट्र की कब्र' कहते थे।

3.  अक्षम प्रशासनिक व्यवस्था

फ्रांस की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यधिक दोषपूर्ण तथा अक्षम थी। प्रशासन में योजना व व्यवस्था का पूर्णतया अभाव था। विभागों में कार्यों का वितरण भी तर्कसंगत न था। अनेक ऐसे कार्य थे, जिनकी जिम्मेदारी कई विभागों में विभक्त थी, जिससे कोई भी विभाग उस कार्य को नहीं करता था। राजा को परामर्श देने के लिए पांच समितियां थीं, जो कानून बनाने, आदेश जारी करने तथा अन्य घरेलू व विदेशी कार्यों को भी करती थीं। प्रशासन की दृष्टि से फ्रांस 36 भागों में विभक्त था, जिन्हें जिनेरालिते (Generalities) कहा जाता था। प्रत्येक जिनेरालिते का अध्यक्ष ऐतादां (Intendant) कहलाता था । ऐतादां, साधारणतया मध्यम वर्ग का होता था। इसकी नियुक्ति स्वयं राजा के द्वारा ही की जाती थी। इसका काम राजधानी के आदेशों का पालन करना तथा अपने काम की आख्या राजधानी को भेजना था। ये ऐतादां, वास्तव में उस कुशासन को चलाने के साधन थे, जिसकी वास्तविक शक्ति पूर्वोक्त पांच समितियों के हाथों में थी। अतः ये भी निरंकुश रूप से ही प्रशासन करते थे ।

4.  कानून

फ्रांस में अलग-अलग स्थानों के लिए अलग-अलग कानून थे। फ्रांस में तेरह प्रान्तों में व्यापार पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध न था, किन्तु अन्य प्रान्त एक-दूसरे से इस प्रकार पृथक् थे, जैसे अलग-अलग देश होते हैं। एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त को माल भेजने पर कर देना पड़ता था। फ्रांस में न्याय व्यवस्था भी अत्यन्त पेचीदा व दोषपूर्ण थी। फ्रांस में लगभग 400 प्रकार के न्याय विधान थे। राजा बिना किसी पूर्व सूचना किसी भी व्यक्ति को बन्दी बनवा सकता था। राजा ही नहीं वरन् उसका कोई भी कृपापात्र 'लेतरे दे शाशे' (lettre de chachet) की सहायता से किसी को भी गिरफ्तार कर सकता था। वाल्टेयर तथा मीराबो को भी इस कुप्रणाली के द्वारा कुछ समय के लिए बन्दी बनाया गया था।

आर्थिक स्थिति

   1.शोचनीय आर्थिक स्थिति

फ्रांस में 'करदाताओं की इच्छा पर आधारित कर-व्यवस्था के सिद्धान्तों' का प्रतिपादन नहीं हुआ था। वित्त-प्रशासन भी न्याय प्रणाली व सरकार के अन्य विभागों के प्रशासनों के समान स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश था। फ्रांस की सरकार की योजना रहित आर्थिक नीति ने फ्रांस को आर्थिक रूप से खोखला कर दिया था। राष्ट्रीय आय का लगभग 50% भाग राष्ट्रीय ऋण की ब्याज देने चुक जाता था। राज्य की कुल आय से खर्चा सदैव अधिक होने से पुनः सरकार को ऋण लेने के लिए विवश होना पड़ता था। हेजन ने लिखा है कि राजकीय वित्त-नीति सामान्यतः उस सिद्धान्त पर चलती है कि खर्च आमदनी के अनुरूप हो, किन्तु फ्रांसीसी सरकार का सिद्धान्त उल्टा था। वह व्यय के अनुरूप आय को निश्चित करती थी।'

2.   पदों को बेचना

निरन्तर बढ़ते हुए ऋण से मुक्ति पाने का सरकार को एक उपाय सूझता था कि वह और अधिक ऋण ले तथा पदों को बेचकर धन एकत्र करे। इसके अतिरिक्त एक अन्य तरीका भी फ्रांसीसी सरकार ने अपनाया। इसके अन्तर्गत धनी व्यक्तियों का एक समूह राजा को धन दे देता था तथा बदले में उन्हें कर वसूलने का अधिकार प्राप्त हो जाता था। इस प्रणाली को 'कर वसूलने का अधिकार' (farming out the taxes) कहा जाता था। यह अत्यन्त दोषपूर्ण प्रणाली थी, क्योंकि वे लोग वास्तविक देय कर से अधिक वसूलते थे जिससे जनता प्रताड़ित होती थी तथा राज्य की आय कम हो जाती थी। लुई XVI के समय में वह ऋण इतना अधिक बढ़ गया कि लोगों ने ऋण देना बन्द कर दिया, जिससे सरकार गम्भीर वित्तीय संकट में फंस गयी।

3.  बजट का अभाव

फ्रांसीसी वित्तीय नीति का एक अन्य गम्भीर दोष बजट का अभाव था। बजट के अभाव में राज्य का आय-व्यय का लेखा-जोखा भी ठीक से नहीं रखा जा सकता था। राजा राजकीय धन को व्यक्तिगत धन समझकर मनमाने तरीके से खर्च करते थे। वह धन जो कि राष्ट्र के लिए आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराने पर खर्च होना चाहिए था, राजा की व्यक्तिगत आवश्यकताओं व विलासिता पर खर्च किया जाता था। ऐसी परिस्थिति में देश की आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था।

4.  दोषपूर्ण कर प्रणाली

किसी भी देश की आय का प्रमुख स्रोत कर (tax) होते हैं। फ्रांस में कर-व्यवस्था (taxation systems) अत्यन्त दोषपूर्ण थी। कर दो प्रकार के होते थे—प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष कर व्यक्तिगत सम्पत्ति, आय व जागीर पर देने पड़ते थे, किन्तु अधिकांश कर ऐसे थे जिनसे सामन्त व चर्च के अधिकारी आदि जो कि विशेषाधिकार वर्ग में आते थे, मुक्त थे, अतः करों का सारा बोझ गरीब जनता पर पड़ता था। कितने आश्चर्य की बात है कि जो वर्ग कर देने में सक्षम था उसे कर देना ही नहीं पड़ता था और जो भूखे पेट थे, उनसे शरीर की हड्डियां भी मांगी जाती थीं। यही कारण है कि उस समय फ्रांस में कहा जाता था, “सामन्त युद्ध करते हैं, पादरी पूजा करते हैं तथा जनता कर देती है। इस प्रकार कर प्रणाली पूर्णतया पक्षपात पर आधारित थी”।

सामाजिक स्थिति  

फ्रांसीसी समाज का वर्गीकरण इस प्रकार था। प्रथम, सुविधा प्राप्त वर्ग तथा दूसरा विशेषाधिकारविहीन वर्ग था, जिनको किसी प्रकार की सुविधाएं न थीं तथा इनका जीवन अत्यन्त कष्टप्रद था।

1.    प्रथम एस्टेट/पादरी (Clergy)

पादरी प्रथम एस्टेट के अन्तर्गत आने वाला वर्ग था तथा इनका स्थान समाज में सर्वोच्च था। वे अत्यन्त शक्तिशाली तथा धनी थे। फ्रांस की कुल भूमि का लगभग 1/5वां भाग इनके अधीन था। इस भूमि से उन्हें अत्यधिक आय प्राप्त होती थी। इसके अतिरिक्त वे किसानों से धार्मिक कर (tithes) भी वसूल करते थे। यद्यपि यह वास्तविक अर्थों में राष्ट्रीय कर था, किन्तु इसका लाभ धर्माधिकारी उठाते थे। चर्च के अधिकारी अपने अधीन किसानों से जागीरदारी कर भी वसूल करते थे। चर्च की वार्षिक आय लगभग दस करोड़ डालर थी, जिसे धार्मिक भवनों के निर्माण व मरम्मत, धार्मिक सेवाओं, चिकित्सालयों तथा पाठशालाओं की सहायता के लिए खर्च किया जाना चाहिए था, किन्तु वास्तविक स्थिति ऐसी न थी। फ्रांस की अन्य संस्थाओं के समान ही चर्च में भी घोर भ्रष्टाचार व्याप्त था, जिससे देश की नैतिक भावना को आघात लगता था। चर्च की आय का प्रमुख भाग बड़े अधिकारियों के व्यक्तिगत खातों में चला जाता था। इन धर्माचारियों में से कुछ का नैतिक चरित्र अत्यन्त निन्दनीय और विचारधारा निम्नस्तरीय थी। चर्च के अधिकारियों की स्थिति में भी भारी अन्तर था। उच्च धर्माधिकारियों की स्थिति बहुत अच्छी थी तथा चर्च व धर्म के प्रत्येक मामले में वे सर्वेसर्वा थे, किन्तु चर्च के छोटे अधिकारियों की स्थिति बहुत खराब थी। उनकी और साधारण जनता की स्थिति में विशेष फर्क न था। अन्यायपूर्ण व्यवस्था से वे पूर्णतया परिचित थे, इस कारण क्रान्ति के समय इन लोगों ने जनसाधारण की सहायता की।

2.   द्वितीय एस्टेट/कुलीन वर्ग

विशेषाधिकार प्राप्त दूसरा वर्ग कुलीनों का था, जो 'द्वितीय एस्टेट' के अन्तर्गत थे। इस वर्ग के अन्तर्गत सामन्त, राजदरबारी तथा बड़े-बड़े सरकारी अधिकारी आते थे। क्रान्ति से पूर्व फ्रांस में इनकी संख्या लगभग चार लाख थी। यद्यपि रिशलू तथा लुई XIV ने सामन्तों की शक्ति में पर्याप्त ह्रास किया था, किन्तु फिर भी यह वर्ग अभी भी शक्तिशाली था। फ्रांस की कुल भूमि का चौथाई भाग उनके अधीन था, जिसकी आय से ये लोग विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। सामन्तों में भी दो वर्ग थे : सैनिक सामन्त तथा न्यायाधीश । वे सामन्त जिनके सम्बन्ध पुराने सैनिक परिवारों से थे 'सैनिक सामन्त' की श्रेणी में आते थे। सैनिक सामन्त भी दो प्रकार के थे—दरबारी सामन्त) तथा प्रान्तीय सामन्त। दरबारी सामन्त संख्या में कम थे, किन्तु वे अत्यन्त शान-शौकत व विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। राजदरबार में रहने के कारण उन्हें राजा के निकट आने का अवसर मिलता था, जिससे वे अत्यन्त शक्तिशाली हो गए थे। राज्य के अधिकांश उच्च पदों पर उनका एकाधिकार था। प्रान्तीय सामन्तों की संख्या बहुत अधिक थी, किन्तु ये इतने प्रभावशाली न थे। अपने-अपने प्रान्तों में रहने के कारण उनका राजाओं से विशेष सम्बन्ध नहीं रहता था। अतः उनके प्रभावों में वृद्धि नहीं हो पाती थी। समाज में उन्हें न तो विशेष सम्मान ही प्राप्त था। और न ही उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। फ्रांस की जनता के हृदय में सामन्त वर्ग के प्रति जो घृणा थी वह वास्तव में स्वार्थी तथा लालची दरबारी सामन्तों के लिए ही थी।'

सामन्तों का दूसरा वर्ग न्यायाधीशों का था। फ्रांस की पुरातन व्यवस्था में पदों को खरीदा जा सकता था। ऐसा पद खरीदने पर सरकार से उन्हें सामन्त होने का प्रमाण-पत्र प्राप्त हो जाता था। इस प्रकार सामन्तों के इस वर्ग का उदय हुआ था। ये लोग मध्यकालीन सामन्तों के वंशज न थे। इनमें से अधिकांश न्यायाधीश अथवा उच्चतर न्यायाधिकरणों के सदस्य थे, अतः इन्हें 'न्यायाधीश सामन्त' कहा जाता था। यह वर्ग अन्य सामन्तों की तुलना में उदारवादी था तथा समय-समय पर राजा व सरकार के कानूनों का विरोध इन्होंने किया था, किन्तु अपने विशेषाधिकारों से इन्हें विशेष लगाव था, उन्हें छोड़ने के लिए वे तैयार न थे।

3.   जनसाधारण/तृतीय एस्टेट 

पादरी व सामन्त वर्गों के अतिरिक्त फ्रांस की शेष जनता इसी वर्ग में आती थी जिसे तृतीय वर्ग  कहा जाता था। इस वर्ग को किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त न थे। इस वर्ग में भी भारी असमानता थी। धनी से धनी व्यक्ति अथवा प्रतिभाशाली साहित्यकार अथवा मजदूर तथा किसान, जो भी पादरी व कुलीन वर्ग में न था, इसी तीसरे वर्ग का सदस्य था। यह वर्ग भी प्रमुखतया तीन भागों में विभक्त था—मध्यम वर्ग, शिल्पकार तथा किसान।

(i) मध्यम वर्ग (Bourgeoise ) फ्रांस में मध्य वर्ग को 'बुर्जुआ' कहते थे। इस वर्ग के लोग शहरों में रहते थे तथा धनी, शिक्षित, अध्यापक, साहित्यकार, इन्जीनियर व अन्य बौद्धिक लोग थे जिन्हें शारीरिक कार्य नहीं करना पड़ता था। इस वर्ग के लोग अक्लमन्द, मेहनती, शिक्षित एवं आर्थिक रूप से सम्पन्न होने के कारण, पुरातन व्यवस्था के घोर विरोधी थे। पादरी एवं कुलीन वर्ग का इनके प्रति व्यवहार अच्छा न था, जिससे ये स्वयं को हीन महसूस करते थे। मध्यम वर्ग के अनेक धनी व्यापारियों ने सरकार को कर्ज दे रखा था, लेकिन सरकार की स्थिति को देखते हुए उन्हें अपने धन की चिन्ता होने लगी थी । उल्लेखनीय है कि फ्रांस के सर्वाधिक बुद्धिमान धनी, सभ्य तथा प्रगतिवादी लोग मध्यमवर्गीय ही थे, किन्तु उनको कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे।' मध्यम वर्ग राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त करना चाहता था। वाल्टेयर, रूसो, मॉण्टेस्क्यू तथा अनेक अर्थशास्त्रियों के विचारों ने उन्हें आन्दोलित कर रखा था।

(ii) शिल्पकार- शहरों में रहने वाला दूसरा वर्ग शिल्पकारों का था। फ्रांस में उस समय इनकी संख्या लगभग 25 लाख थी। फ्रांस में महान् क्रान्ति से पूर्व उद्योग-धन्धे पूर्णतया विकसित नहीं हो सके थे, अतः इनकी संख्या कम ही थी। शिल्पकार अनेक श्रेणियों में विभक्त थे तथा प्रत्येक श्रेणी के अपने-अपने नियम थे। श्रेणियों के पारस्परिक सम्बन्ध अत्यन्त खराब थे तथा इनमें आपस में अक्सर झगड़े होते रहते थे। सरकार की ओर से इन शिल्पकारों को किसी प्रकार की सुविधा प्रदान नहीं की जाती थी।

(iii) किसान-  फ्रांस में तृतीय वर्ग में सर्वाधिक संख्या किसानों की थी। फ्रांस में कुल मिलाकर भी किसानों की संख्या सर्वाधिक थी। फ्रांस की कुल जनसंख्या का 9/10वां भाग किसान ही थे, किन्तु फिर भी सबसे शोचनीय स्थिति उन्हीं की थी। करों का सम्पूर्ण भार भी इन्हीं गरीबों के कन्धों पर था। किसानों को अपनी कुल आय का आधे से भी अधिक भाग करों के रूप में देना पड़ता था । सामन्तों को उन्हें भूमिकर तथा चर्च को धर्मांश कर (Tithes) देना पड़ता था। इन सबका परिणाम यह होता था कि किसान सदैव आर्थिक संकट से ग्रस्त रहते थे। किसानों को हर कदम पर कर देना पड़ता था। पुलों तथा सड़कों तक का प्रयोग करने पर उनसे कर लिए जाते थे, आटे की चक्की तथा शराब बनाने के लिए, कोल्हू का प्रयोग करने के लिए भी उन पर प्रतिबन्ध था कि वे अपने ही सामन्त की चक्की अथवा कोल्हू का प्रयोग करें। चाहे उसके लिए उन्हें 4-5 मील जाना पड़ता था। चक्की अथवा कोल्हू का प्रयोग करने पर कर तो उन्हें देना ही पड़ता था । उपरोक्त कारणों से किसानों के असन्तोष की भावना बलवती होती जा रही थी। लियो गर्शीय ने लिखा है, “किसान इतने दुःखी हो चुके थे कि वे स्वयं ही एक क्रान्तिकारी तत्व के रूप में परिणत हो गए। उन्हें क्रान्ति करने के लिए मात्र एक संकेत की आवश्यकता थी तथा उन्हीं की प्रमुख भूमिका ने 1789 ई. की क्रान्ति को सफल  बनाया था।

इस प्रकार आर्थर यंग के शब्दों में यह आर्थिक गलतियों का अजायबघर था। यहाँ का विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग सांसारिक सुखों के उपभोग में अत्यंत निपुण हो गया था और अपने विनाश की तरफ बेखटक बढ़ता जा रहा था

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