अपनी पराजय के पश्चात् हुमायूँ आगरा आया किन्तु वह केवल एक रात आगरा में रहा तथा दूसरे दिन अपने परिवार और कुछ खजाने के साथ दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिया। रोहतास में हिन्दाल भी उससे आ मिला। अब दोनों भाइयों ने लाहौर के लिए प्रस्थान किया। लाहौर में मिर्जा अस्करी भी उनसे आ मिला।
सिंध प्रवास
हुमायूँ
ने हिन्दाल के साथ लाहौर से प्रस्थान कर सिन्ध में प्रवेश किया परन्तु दोनों भाई
वहाँ अधिक दिनों तक एक साथ नहीं रह सके। हुमायूँ हिन्दाल के धर्मगुरु की कन्या
हमीदा बानू पर आसक्त हो गया जिसके साथ उसने 31 अगस्त 1541 को विवाह कर लिया। इससे हिन्दाल हुमायूँ से
अप्रसन्न हो गया और उसका साथ छोड़कर कन्दहार चला गया। हुमायूँ के साथियों की संख्या
धीरे-धीरे घटने लगी। इसलिये हुमायूँ का सिन्ध में रहना खतरे से खाली नहीं रहा।
हुमायूँ ने मारवाड़ के शासक राजा मालदेव के यहाँ जाने का निश्चय किया परन्तु जब वह
जोधपुर के निकट पहुँचा तब उसे यह ज्ञात हुआ कि मालदेव शेरशाह से मिल गया है और
हुमायूँ को कैद कर लेने का वचन दे चुका है। इस सूचना से हुमायूँ आतंकित हो उठा और
वहाँ से जैसलमेर होता हुआ अमरकोट की तरफ भाग खड़ा हुआ।
अमर कोट प्रवास
22 अगस्त 1542 को हुमायूँ अत्यंत दयनीय दशा में अमरकोट पहुँचा। अमरकोट के राणा ने हुमायूँ का स्वागत किया और उसे हर प्रकार से सहायता देने का वचन दिया। हुमायूँ लगभग डेढ़ महीने तक अमरकोट में रहा। यहीं पर 14 अक्टूबर 1542 को हमीदा बानू की कोख से अकबर का जन्म हुआ। कई महीने तक सिन्ध में भटकने के बाद हुमायूँ ने जुलाई 1543 में कन्दहार के लिए प्रस्थान किया। भारत से निष्कासन हुमायूँ अभी कन्दहार के मार्ग में था कि उसे सूचना मिली की मिर्जा अस्करी, कामरान की आज्ञा से उसे कैद करने आ रहा है। इस पर हुमायूँ ने अपने नवजात शिशु को अपने विश्वसनीय आदमियों के संरक्षण में छोड़कर अपनी पत्नी तथा बाईस स्वामिभक्त अनुचरों के साथ दिसम्बर 1543 में गजनी के मार्ग से फारस के लिए प्रस्थान कर दिया।
फारस प्रवास
हुमायूँ
ने मार्ग में ही एक पत्र फारस के शाह तहमास्प को भिजवाकर अपने फारस आने की सूचना
भिजवाई। इस पर तहमास्प ने अपने अफसरों तथा सूबेदारों को आदेश भिजवाया कि हुमायूँ
का फारस राज्य में हर स्थान पर राजसी स्वागत किया जाय। जुलाई 1544
में हुमायूँ फारस के शाह तहमास्प से मिला।
यहाँ इसने शिया परंपरा का
पालन किया।
शाह द्वारा सैनिक सहायता
शाह
ने हुमायूँ को 13 हजार अश्वारोही दिये ताकि हुमायूँ कन्दहार पर आक्रमण कर
सके। इस सहायता के बदले में हुमायूँ से यह वचन लिया गया कि वह शाह की बहिन की लड़की
से विवाह करेगा और जब फारस की सेना कन्दहार,
गजनी तथा काबुल जीत कर
हुमायूँ को सौंप देगी, तब हुमायूँ कन्दहार फारस के शाह को लौटा देगा।
तथा शिया मत तथा फ़ारसी संस्कृति का प्रसार करेगा।
हुमायूँ की भारत वापसी
उसने
सबसे पहले कन्दहार पर आक्रमण किया। कंदहार की सुरक्षा कामरान ने मिर्जा अस्करी को
सौंप रखी थी। कन्दहार का घेरा लगभग पाँच माह तक चला। 3
सितम्बर 1545 को अस्करी ने कन्दहार का दुर्ग हुमायूँ को समर्पित कर
दिया। फारस के शहजादे ने हुमायूँ से यह माँग की कि वह कन्दहार को, कन्दहार
से प्राप्त कोष तथा अपने भाई अस्करी के साथ फारस के शाह को समर्पित कर दे जो नहीं
दिया गया।
काबुल तथा बदख्शाँ पर अधिकार
हुमायूँ
ने कन्दहार को आधार बनाकर काबुल की ओर ध्यान दिया। उन दिनों हिन्दाल काबुल में था।
वह कामरान का साथ छोड़कर हुमायूँ से आ मिला। कामरान के अन्य साथी भी कामरान का साथ
छोड़कर हुमायूँ की तरफ आ गये। इससे कामरान भयभीत हो गया और काबुल से सिन्ध भाग गया।
नवम्बर 1545 में हुमायूँ ने काबुल में प्रवेश किया जहाँ पर वह अपने
तीन वर्षीय बालक अकबर से मिला। हुमायूँ ने बदख्शाँ पर भी अधिकार कर लिया। यहाँ पर
हुमायूँ बीमार हो गया। कुछ लोगों ने उसकी मृत्यु की अफवाह उड़ा दी। जब कामरान को यह
सूचना मिली तो वह सिन्ध से चला आया और उसने फिर से काबुल पर अधिकार कर लिया। अप्रैल
1547 में हुमायूँ ने पुनः काबुल पर अधिकार कर लिया। दिसम्बर 1551
में कामरान को अन्धा कर दिया गया। इसके बाद उसे अपनी पत्नी तथा नौकर के साथ मक्का
जाने की आज्ञा दे दी गई जहाँ 5 अक्टूबर 1557 को कामरान की मृत्यु हो गई। मिर्जा अस्करी को
भी मक्का जाने की अनुमति दे दी गई।
भारत
की परिस्थितियाँ अब हुमायूँ के अनुकूल हो गई थीं क्योंकि शेर खाँ की मृत्यु हो
चुकी थी तथा उसके निर्बल उत्तराधिकारियों के शासन में अफगान राज्य पतनोन्मुख हो
चला था। अब हुमायूँ ने अपने पूर्वजों के खोये हुए साम्राज्य को पुनः प्राप्त करने
का प्रयत्न करने लगा।
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