जिस साम्राज्य की स्थापना बाबर ने पानीपत तथा घाघरा के युद्धों में अफगानों को परास्त करके की थी, उसे हुमायूँ ने चौसा तथा कन्नौज के युद्धों में शेरशाह से पराजित होकर खो दिया। हुमायूँ अनुभवी सेनानायक था, फिर भी वह शेरशाह के समक्ष असफल हो गया।
चुनौतियां
(1.) मिर्जाओं
तथा भाइयों का असहयोग:
मुहम्मद
जमान मिर्जा, मुहम्मद सुल्तान मिर्जा,
मेंहदी ख्वाजा आदि
तैमूरवंशीय मिर्जा वर्ग के अमीर, बाबर के सहयोगी रहे थे तथा स्वयं को बाबर के
समान ही मंगोलों के तख्त का अधिकारी समझते थे। उनमें से अधिकतर मिर्जाओं ने
हुमायूँ का साथ नहीं दिया। हुमायूँ ने अपने राज्य का बहुत बड़ा हिस्सा अपने भाइयों
को दे दिया था किंतु भाइयों ने समय पर हुमायूँ की सहायता नहीं की।
(2.) रिक्त
राजकोष:
इतिहासकारों
ने हुमायूँ के रिक्त राजकोष को भी हुमायूँ की असफलताओं के लिये जिम्मेदार माना है।
बाबर ने दिल्ली एवं आगरा से प्राप्त बहुत सारा धन समरकंद, बुखारा
एवं फरगना में अपने रिश्तेदारों एवं मित्रों को भिजवा दिया। जिससे सेना के लिये धन
की कमी हो गई। जब हुमायूँ को शेर खाँ से लड़ने के लिये सेना के रसद एवं आयुध की
आवश्यकता थी, तब हुमायूँ को कहीं से आर्थिक सहयोग नहीं मिला।
(3.) हुमायूँ
की धर्मान्धता:
हुमायूँ
ने उस काल के मुस्लिम शासकों की तरह धार्मिक कट्टरता का परिचय दिया तथा राजपूतों
के साथ मित्रता करने का प्रयास नहीं किया। जब मेवाड़ की राजमाता कर्णावती ने राखी
भिजवाकर हुमायूँ की सहायता मांगी तो हुमायूँ के लिये बड़ा अच्छा अवसर था कि वह
मेवाड़ की सहायता करके राजपूतों का विश्वास जीत लेता किंतु उसने काफिरों की मदद
करना उचित नहीं समझा। यदि उसने राजपूतों को मित्र बनाया होता तो इन राजपूतों ने न
केवल गुजरात के बादशाह बहादुरशाह के विरुद्ध अपितु अफगानों एवं शेर खाँ के विरुद्ध
भी हुमायूँ की बहुत सहायता की होती।
(4.) शेर
खाँ तथा बहादुरशाह का एक साथ सामना:
हुमायूँ
की विफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि नेपोलियन की तरह ही उसके शत्रु पूरब और
पश्चिम दोनों तरफ थे, उसे दो विपरीत मोर्चों पर लड़ना था। उसे पूरब में शेरशाह तथा पश्चिम
में बहादुरशाह के विरुद्ध एक साथ संघर्ष करना पड़ा था। हुमायूँ में दोनों के
विरुद्ध एक साथ लोहा लेने की क्षमता नहीं थी।
(5.) तोपखाने
के कुशल प्रयोग का अभाव:
हुमायूँ
की विफलता का एक यह भी कारण था कि वह अपने पिता बाबर की भाँति तोपखाने का कुशल
प्रयोग नहीं कर सका क्योंकि अफगानों के पास भी तोपखाना था और वह मुगलों के तोपखाने
से कहीं अधिक अच्छा हो गया था। इसीलिये लाख प्रयत्न करने पर भी हुमायूँ का तोपची
मुस्तफा रूमी खाँ पाँच महिने तक चुनार के दुर्ग को नहीं भेद सका। शेर खाँ को अपनी
स्थिति दृढ़ करने के लिये समय मिल गया तथा परिस्थितियाँ हुमायूँ के हाथ से निकल
गईं।
हुमायूँ
की भूलें
हुमायूँ
जीवन भर एक के बाद एक भूल करता रहा जिनके गंभीर परिणाम निकले।
(1.) साम्राज्य
के बटवारे में कामरान को पंजाब,
काबुल तथा कांधार
राज्य
का विभाजन करने में सबसे बड़ी भूल यह हुई कि दगाबाज़ कामरान के अधिकार में ऐसा
हिस्सा दे दिया गया जो बाबर के राज्य का प्राण था। इससे यह हुआ कि हुमायूँ के पास
केवल नया राज्य रह गया और जिन साधनों द्वारा यह राज्य प्राप्त किया गया था और
जिनके द्वारा इस पर अधिकार रखा जा सकता था, वे उसके हाथ से जाते रहे।
(2.) आर्थिक
अपव्यय
हुमायूँ
ने आगरा में एक जलसा किया जिसमें बारह हज़ार आदमियों को दावत और खिलअत दी गई। इस
समय यह अपव्यय उचित नहीं था। रशब्रुक विलियम ठीक ही कहता है कि इसके साथ ही पुरानी
कहानी शुरू हो गई- आर्थिक ह्रास, प्रपंच और राजवंश का अंत।
(3.) चित्तौड़
की सहायता नहीं करना:
गुजरात
के शासक बहादुरशाह के विरुद्ध चित्तौड़ की सहायता का प्रस्ताव स्वीकार नहीं करना, हुमायूँ
की बड़ी भूल थी। इससे उसने राजपूतों को मित्र बनाने का अवसर खो दिया।
(4.) हमीदा
बानू से विवाह:
हमीदा
बानू, हिन्दाल के धर्मगुरु की पुत्री थी। इसलिये हिन्दाल नहीं
चाहता था कि हुमायूँ उससे विवाह करे किंतु हुमायूँ ने उसकी बात नहीं मानी और
हिन्दाल नाराज होकर हुमायूँ का साथ छोड़ गया। हुमायूँ की लम्पटता देखकर अन्य साथी
भी हुमायूँ का साथ छोड़ गये। इसका परिणाम यह हुआ कि हुमायूँ को उसके ही भाइयों ने
भारत से बाहर भाग जाने पर विवश कर दिया।
(5.) सैनिक
शिविर निचले स्थान पर लगाना:
शेर
खां के बहकावे में आकर हुमायूँ ने कन्नौज में अपना सैनिक शिविर निचले स्थान पर
लगाया। उसके दुर्भाग्य से मई के महीने में भी तेज बारिश हो गई और उसका सैनिक शिविर
पानी से भर गया।
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