बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक दशा के बारे में हमें बाबरनामा से पर्याप्त सूचना मिलती है। बाबर लिखता है कि "भारत की राजधानी दिल्ली है। सुलतान शिहाउद्दीन गौरी के समय से सुलतान फ़िरोजशाह तक हिन्दुस्तान का अधिकांश भाग दिल्ली के बादशाह के अधीन था। जब मैंने इस देश को जीता तो यहाँ पाँच मुसलमान और दो काफिर शासकों का राज्य था। यों तो पहाड़ी और जंगली प्रदेशों में अनेक छोटे-छोटे राजा और अमीर थे, परन्तु बड़े और प्रधान ये पाँच ही थे।'
मुसलमान बादशाह
1.
दिल्ली -उपर्युक्त पाँच राज्यों में एक राज्य अफगानों का था जिसमें राजधानी
सम्मिलित थी और जो बहराह से बिहार तक फैला हुआ था। सुलतान बहलोल लोदी और उसके
लड़के सुलतान सिकन्दर ने दिल्ली और जौनपुर दोनों को जीतकर एक राज्य बना लिया था।
2.
गुजरात - दूसरा शासक गुजरात का सुलतान मोहम्मद मुजफ्फर था। वह सन् 1526 में
पानीपत में सुलतान इब्राहीम की हार से कुछ दिन पहले ही इस संसार से चल बसा था। वह
विद्वान शासक था। हदीस पढ़ने का उसको शौक था। वह हमेशा कुरान लिखने में लगा रहता
था। उसकी कौम का नाम तंग है। वे लोग सुलतान फिरोज़ के और उसके परिवार के, जिसका
उल्लेख किया जा चुका है, 'जामवरदार'
अर्थात् प्याला उठाने वाले
थे। फिरोज़ की मृत्यु के बाद इन लोगों ने गुजरात की गद्दी छीन ली थी।
3.
बहमनी - तीसरा राज्य दक्षिण में बहमनी लोगों का था, परन्तु
इस समय दक्षिण के सुलतानों के हाथ में न कोई अधिकार था, न
शक्ति। उनके राज्य के विभिन्न परगने शक्तिशाली सरदारों ने छीन लिये हैं। जब शासक
को किसी चीज की आवश्यकता होती है तो उसे अपने ही अमीरों से याचना करनी पड़ती है ।
4.
मालवा - चौथा बादशाह सुलतान महमूद था जो मालवा का शासक था। यह राजवंश
खिल्जियों का था। राणा सांगा ने इनको हरा कर उनके कई प्रदेश छीन लिये थे । यह वंश
भी निर्बल हो गया था ।
5.
बंगाल - पाँचवाँ बादशाह बंगाल का शासक नसरतशाह था। उसका पिता भी वहाँ का
बादशाह था। वह सैय्यद था और उसका नाम सुलतान अलाउद्दीन था। उसको राजगद्दी अपने
बाप-दादाओं से वंशक्रमानुगत रूप से मिली थी। बंगाल में यह विचित्र रीति है कि वहाँ
राज्य वंशक्रम से नहीं मिलता। जो कोई शासक को मारकर सिंहासन पर बैठ जाता है, उसी
को लोग तत्काल बादशाह मान लेते हैं। बंगाल के लोग कहा करते हैं कि हम तो
राजसिंहासन भक्त हैं। जो कोई इस पर बैठता है,
उसी का हम आदेश मानते हैं और
उसके साथ सच्चाई का बर्ताव करते हैं।
बाबर
लिखता है कि जिन पाँच बादशाहों का उल्लेख हो चुका है वे बड़े-बड़े हैं । सब
मुसलमान हैं और उनके पास बड़ी-बड़ी सेनाएँ हैं।
हिन्दू शासक
1.
विजयनगर — काफिर शासकों में देश और नेता की दृष्टि से सबसे अधिक शक्तिशाली विजयनगर
का राजा है। मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में हरिहर और बुक्का ने इस स्वतन्त्र हिन्दू
राज्य की स्थापना की थी। यह राज्य कृष्णा नदी के दक्षिण में था। इस राज्य का
सर्वाधिक शक्तिशाली राजा कृष्णदेव राय था जो बाबर का समकालीन था। विजयनगर तथा
बहमनी राज्यों में सदैव युद्ध होता रहता था। कृष्णदेव राय ने बहमनी सुल्तान को
पराजित किया था। उसने विजयनगर राज्य की सीमाओं को पश्चिम और पूरब में समुद्र तक और
दक्षिण में कन्याकुमारी तक विस्तृत किया था। उसने पुर्तगालियों से मैत्रीपूर्ण
सम्बन्ध स्थापित किए। उसके शासनकाल में विजयनगर शक्ति और समृद्धि के शिखर पर था।
2.
मेवाड़ - दूसरा शासक राणा साँगा है। उसने अपनी तलवार और वीरता के द्वारा इन्हीं
दिनों में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त कर लिया है। उसका प्रारम्भिक राज्य चितौड़ था ।
जब माँडू के शासकों में गड़बड़ मची तो उसने माँडु के कई प्रदेश, यथा
रतपुर (रणथम्भौर), सारंगपुर, भीलसा और चन्देरी छीन लिये ।
हिन्दुस्तान
के अन्दर और उसकी सीमाओं पर कई अन्य रईस और राजा राज्य करते हैं । अपने राज्यों की
दूरी और दुर्गमता के कारण इन लोगों में से कितनों ही ने मुसलमान बादशाहों की
अधीनता कभी स्वीकार नहीं की है ।
उपर्युक्त
राज्यों के अतिरिक्त खानदेश, उड़ीसा,
कश्मीर और सिन्ध भी उत्तरी
भारत के उल्लेखनीय राज्य थे। खानदेश मीर मुहम्मद के अधीन था। कश्मीर का शासक
मुहम्मदशाह था। वह अयोग्य था। उसके समय में राज्य की वास्तविक शक्ति उसके मन्त्री
चक के हाथों में थी। सिन्ध में शासन सत्ता के लिये समा वंश और अफगान वंश में
संघर्ष चल रहा था। उड़ीसा भी दलबंदियों का अखाड़ा था। इस समय पुर्तगाली भारत के
पश्चिमी तट पर बस चुके थे तथा उन्होंने भारत के राजनीतिक तथा व्यापारिक जीवन में
अस्थिरता ला दी थी।
बाबर
के आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक दशा की विशेषता
सोलहवीं
शताब्दी के आरम्भ में भारत की राजनीतिक अवस्था शोचनीय थी। देश अनेक छोटे छोटे
राज्यों में विभक्त था। इनमें परस्पर संघर्ष चलता था। दिल्ली की केन्द्रीय शक्ति
कमजोर हो चुकी थी। उसमें अराजक तत्वों पर नियन्त्रण रखने की क्षमता नहीं थी। इस
प्रकार बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक दशा सोचनीय थी। यह स्थिति बाबर के
अनुकूल थी।
1.
दिल्ली
सल्तनत: विघटन के दौर में
भारत
में राजनीतिक विघटन की प्रक्रिया मुहम्मद तुगलक के काल में ही आरम्भ हो गई थी।
दक्षिण भारत में विजयनगर और बहमनी राज्य स्थापित हो गए थे। मुहम्मद तुगलक का
उत्तराधिकारी फिरोज तुगलक एक दुर्बल शासक था। उसने उत्तर भारत की दशा सुधारने का
कोई प्रयास नहीं किया। तैमूर के द्वारा किए गए भयंकर विनाश ने विघटन की इस
प्रक्रिया को और भी तेज कर दिया। तैमूर के आक्रमण के पूर्व ही दिल्ली सल्तनत
मृत्यु को प्राप्त कर चुकी थी। अब सिर्फ उसकी प्रेतात्मा बची थी। तैमूर ने इस
प्रेतात्मा पर घातक प्रहार किया तथा इसे दर्द से चीखने दिया। तैमूर चूँकि भारत में
साम्राज्य बनाने का इच्छुक नहीं था अतः उसने दिल्ली को लूटा और चला गया। सैयद शासक
लिलीपुट के निवासियों की भांति बेहद छोटे कद के थे। एक समकालीन कवि ने व्यंग्य
पूर्वक कहा है कि शहंशाही शाह आलम, उस दिल्ली ता पालम। लोदी शासक इस बुझते हुए
दीपक की अंतिम टीम टिमाहट थे।
2.
सत्ता:
विकेंद्रीकरण के दौर में
सही
मायनों में अगर देखा जाय तो बाबर के आक्रमण के पूर्व दिल्ली सल्तनत का पतन हो रहा
था न कि मुस्लिम राजनीतिक प्रभुत्व का, मुस्लिम सत्ता अभी भी थी परन्तु उसका
विकेंद्रीकरण हो गया था, बंगाल, गुजरात तथा दक्षिण सत्ता के नए केंद्र बन चुके थे
अर्थात भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। ये राज्य आपस में लड़ते-झगड़ते
रहते थे। देश में कोई सार्वभौमिक सत्ता नहीं थी। प्रभुत्व के लिए संघर्ष चल रहा
था। भारतवर्ष किसी भी ऐसे शत्रु का संगठित रूप से सामना करने की स्थिति में नहीं
था जो अपने लिए साम्राज्य बनाने का साहस और महत्वाकांक्षा रखता हो। भारत की
राजनीतिक दशा का विवेचन करते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है कि, “भारत
16वीं शताब्दी के आरम्भ में ऐसे राज्यों का एक समूह था जो किसी भी ऐसे आक्रमणकारी
का सरलता से शिकार हो सकता था जो उसे जीतने की शक्ति और इच्छा रखता हो।”
3.
सेना:
कुशलता और मारक क्षमता में कमी
भारतवर्ष
में अच्छे सैनिकों का बाहुल्य था, किन्तु उनमें अनुशासन और सैनिक शिक्षा की कमी
थी। भारतीयों ने सैनिक विज्ञान के क्षेत्र में हुए नवीन आविष्कारों को अपनाना
स्वीकार नहीं किया। परिणामस्वरूप पश्चिम के नवीनतम हथियारों के विरुद्ध लड़ना उनके
लिए कठिन था। जनता में जातीयता की भावना भरी हुई थी। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता
है कि भारतीय सेना बाबर की सेना के समान बलशाली नहीं थी।
साथ ही खैबर दर्रे की सुरक्षा का कोई प्रबंध अब नहीं था।
4.
सामाजिक
सांस्कृतिक दशा: नये साम्राज्य के लिए उर्वर भूमि
एडवर्ड्स
और गैरट का मत यह है कि, “यद्यपि भारत राजनीतिक दृष्टि से बँटा हुआ था, तथापि
वह सांस्कृतिक दृष्टि से क्रमशः संगठित हो रहा था। भक्ति आन्दोलन के प्रचार के
कारण हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के निकट आ रहे थे। दोनों में परस्पर अच्छा सहयोग
था। रामानन्द, वल्लभाचार्य,
चैतन्य, नामदेव, कबीर
और नानक भक्ति आन्दोलन के प्रवर्त्तक थे और उनकी शिक्षाओं ने जातीय भेद-भाव को
समाप्त कर हिन्दू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहन दिया था। अब जहाँ मुस्लिम अपने को
विदेशी होने की हीनता को त्याग चुके थे वहीँ हिन्दू अब पराजय बोध की हीनता से उबार
चुके थे। यह बात अमीर ख़ुसरो तथा कबीर दास की रचनाओं और नए शासक वर्ग के उभार में
दिखता है।
इस
प्रकार भारत की यह राजनीतिक स्थिति किसी भी आक्रमणकारी को विजय प्राप्त करने के
लिए प्रोत्साहित कर सकती थी। तथा यह किसी भी ऐसे आक्रमणकारी का शिकार बन सकता था, जिसमें
विजय प्राप्त करने के लिए आवश्यक शक्ति तथा दृढ़ संकल्प हो।
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