पानीपत का प्रथम युद्ध
20
अप्रैल, 1526 को बाबर अपनी सेना के साथ भारत को जीतने के उद्देश्य
से पानीपत के प्रसिद्ध ऐतिहासिक क्षेत्र में पहुंचा।
पानीपत के युद्ध के कारण
पानीपत
के युद्ध के कई कुछ महत्वपूर्ण कारण इस प्रकार थे:
1. बाबर की महत्वाकांक्षा:
अन्य
समकालीन शासकों की तरह बाबर भी बहुत महत्वाकांक्षी था। वह खुद कहता है कि
"मैंने हिंदुस्तान की विजय के बारे में सोचना कभी बंद नहीं किया था।"
लेकिन इसे करने का उपयुक्त अवसर कभी नहीं मिला था,
"क्योंकि मैं कभी-कभी अपने
बेगों की आशंकाओं से, कभी-कभी अपने भाइयों और मेरे बीच असहमति से रूक
था।" वह समरकंद की विजय के लिए लगातार संघर्ष में शामिल थे। जब वह वहाँ अंततः
असफल रहा, तो उसने भारत पर विजय प्राप्त करके अपनी महत्वाकांक्षा को
पूरा करने का प्रयास किया।
2.
दयनीय राजनीतिक स्थिति:
उत्तर
पश्चिम भारत की राजनीतिक स्थिति बाबर के भारत में प्रवेश के लिए उपयुक्त थी। बाबर
जानता था कि भारत कई छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ है और इन राज्यों के शासक
कभी भी एक साथ नहीं हो सकते। यह उनकी जानकारी में था कि वे अक्सर आपस में झगड़ते
रहते थे। बाबर ने इस अराजक राजनीतिक स्थिति को भारत पर आक्रमण करने का उपयुक्त
अवसर माना।
3.
भारत की अपार संपदा और कुछ क्षेत्रों पर कब्जा करने का कानूनी अधिकार:
मध्य
एशिया के अनगिनत आक्रमणकारियों की तरह,
बाबर अपनी शानदार संपत्ति के
लालच में भारत की ओर आकर्षित हुआ। भारत सोने और धन की भूमि के रूप में प्रसिद्ध
था। बाबर के पूर्वज तैमूर ने न केवल एक विशाल खजाना और कई कुशल कारीगरों को ले
लिया था, जिन्होंने उसे अपने एशियाई साम्राज्य को मजबूत करने और
अपनी राजधानी को सुशोभित करने में मदद की,
बल्कि पंजाब में कुछ
क्षेत्रों को भी जोड़ा। ये क्षेत्र कई वर्षों तक तैमूर के उत्तराधिकारी के कब्जे
में रहे। जब बाबर ने काबुल पर विजय प्राप्त की,
तो उसे लगा कि इन क्षेत्रों
पर उसका वैध अधिकार है।
4.
भौगोलिक कारण:
इसके
अलावा, भारत काबुल के बहुत निकट होने के कारण, जहाँ
बाबर शासन कर रहा था, एक महत्वाकांक्षी शासक के लिए भारत पर आक्रमण
करना स्वाभाविक था।
5.
काबुल से अल्प आय:
बाबर
के भारत पर आक्रमण का एक अन्य कारण काबुल की अल्प आय थी। इतिहासकार अबुल फजल की
टिप्पणी। "बाबर ने बदख्शां, कंधार और काबुल पर शासन किया, जिससे
सेना की आवश्यकता के लिए पर्याप्त आय नहीं हुई,
वास्तव में, कुछ
सीमावर्ती क्षेत्रों में सेनाओं और प्रशासन को नियंत्रित करने पर खर्च आय से अधिक
था।" इस तरह काबुल की अल्प आय ने भी बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए
प्रोत्साहित किया। बाबर अच्छी तरह जानता था कि पंजाब के उपजाऊ प्रांत पर कब्जा
करने के बाद उसे कोई आर्थिक समस्या नहीं होगी और वह बहुत आसानी से अपनी स्थिति
मजबूत कर सकता है।
6.
उज्बेकों का डर:
बाबर
काबुल पर एक उज़्बेक हमले से भी आशंकित था,
और भारत को शरण का एक अच्छा
स्थान और उज़्बेकों के खिलाफ कार्रवाई के लिए उपयुक्त आधार मानता था।
7.
निमंत्रण:
कुछ
इतिहासकारों का मत है कि बाबर को दौलत खान लोदी और राणा सांगा द्वारा दिल्ली
सल्तनत पर हमला करने के लिए आमंत्रित किया गया था। उनके अनुसार 1524 में बाबर को
दौलत खान लोदी से एक दूत मिला, जिसका नेतृत्व उनके बेटे दिलावर खान ने किया
था। उन्होंने बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया, और
सुझाव दिया कि उसे इब्राहिम लोदी को विस्थापित करना चाहिए क्योंकि वह एक अत्याचारी
था और उसे अपने दरबारियों और अमीरों से कोई समर्थन नहीं मिला। कुछ इतिहासकारों के
अनुसार, यह संभव है कि राणा संग्राम सिंह का एक दूत उसी समय आया, जिसने
बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। इन दूतों ने बाबर को आश्वस्त
किया कि भारत के नहीं तो पूरे पंजाब पर उसकी विजय का समय आ गया है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कई कारकों ने बाबर को पानीपत की युद्ध के लिए प्रेरित किया। उसकी महत्वाकांक्षाएं, भारत की अपार संपत्ति, भारत की कमजोर राजनीतिक स्थिति और इब्राहिम लोदी के दुश्मनों द्वारा दिए गए कुछ निमंत्रण उनमें से प्रमुख थे।
अफगान बनाम मुगल : सेना
और रणनीति
अफगान
सेना:
दिल्ली
सल्तनत की सेनाएँ पारंपरिक रूप से घुड़सवार सेना पर आधारित थीं। इसमें भारतीय
युद्ध के हाथी को जोड़ा गया था। हाथी और घोड़े सल्तनत की सैन्य शक्ति के दो स्तंभ थे।
सेना अर्ध-सामंती ढांचे पर आधारित थी। दिल्ली सल्तनत की सेना, सुल्तान के सीधे
नियंत्रण वाले एक छोटे केंद्रीय बल,
विभिन्न अफगान प्रमुखों और
भारतीय सामंती की सेना और भाड़े के सैनिकों (बड़े पैमाने पर पैदल सेना) द्वारा बनती
थी। कोई तोपखाना नहीं था और पैदल सेना बहुत अधिक महत्वपूर्ण बल थी। इब्राहिम लोदी
इस समय केंद्रीकरण के प्रयासों में लगा था जिसके कारण वह सरदारों के बीच अलोकप्रिय
था। पानीपत में इब्राहिम लोदी की सेना में 50,000 सैनिक और 400 युद्धक हाथी होने का अनुमान लगाया जाता है । शायद इनमें से
25,000 भारी अश्वारोही सेनाएं थीं जिनमें मुख्य रूप से अफगान थे, शेष
सामंती या कम मूल्य के भाड़े के सैनिक थे।
अफगान
रणनीति:
युद्ध
की रणनीति में पारंपरिक पांच डिवीजन शामिल थे - मोहरा, दाएं, बाएं, केंद्र
और पीछे। सुल्तान घुड़सवार सेना के एक चुनी हुई टुकड़ी के साथ केंद्र में रहता था।
झड़प और रात में छापेमारी आम बात थी। अफ़गानों ने अपनी युद्ध की रणनीति अपने
हाथियों और घुड़सवार सेना के प्रहार बलों के इर्द-गिर्द रखी। इसलिए समतल मैदानों
पर बड़े पैमाने पर हमले इब्राहिम लोदी की योजना के प्रमुख तत्व थे। इस सेना का एक
बड़ा हिस्सा विभिन्न अमीरों के सामंती दल थे,
इस प्रकार वे सहयोग से काम
करने के लिए न तो ड्रिल किए गए थे और न ही प्रशिक्षित थे, और
गतिशीलता की कमी से पीड़ित थे। अनुभवी लड़ाकों के अनुशासन की कमी होने पर भी वे
अच्छी तरह से सुसज्जित और साहसी थे। उन्हें मध्य एशिया की तुलुघमा रणनीति की भी
कोई समझ नहीं थी।
मुग़ल
सेना:
बाबर
की सेना में तुर्क, मंगोल, ईरानी और अफगान शामिल थे। यह एक अनुभवी कोर के
रूप में बनाया गया था जो एक दशक से अधिक समय से उनके साथ युद्ध कर रहा था और इस
प्रकार सैनिकों और कमांडरों को एक दूसरे पर विश्वास था, और
एक दूसरे से परिचित थे। इसमें समानता का एक तत्व भी था जहां कोई भी सैनिक बाबर के
साथ भोजन कर सकता था या सल्तनत सेना में पदानुक्रम के विपरीत रणनीति पर अपनी राय
दे सकता था। और वे घर से बहुत दूर युद्ध कर रहे थे,
जहां हार का मतलब होगा
विनाश। इन सभी कारकों ने बेहतर मनोबल में योगदान दिया। 10, 50, 100, 500, 1000
की इकाइयों के साथ सेना को संगठित किया गया था। पानीपत में बाबर की सेना की संख्या
15,000-20,000 थी। उनमें से अधिकांश तीक्ष्ण घुड़सवार सेना, बारूद
और तोपों के साथ तुर्की गनर्स द्वारा संयोजित थे जो अब तक भारतीय युद्ध के मैदान
पर एक अज्ञात विशेषता है।
मुगल
रणनीति:
इस युद्ध में बाबर ने उज़्बेग की युद्ध पद्धति तुलुगमा का प्रयोग किया था। शत्रु पक्ष पर दाएं, बाएं और पीछे से हमला करने की विधि को तुलुग़मा कहा जाता है। तुलुग़मा ने बेहतर गतिशीलता और लचीलेपन के लिए पारंपरिक डिवीजनों के भीतर एक छोटे बल को अधीनस्थ डिवीजनों में विभाजित किया। अत्यधिक गतिशील दाएं और बाएं डिवीजनों ने बड़ी दुश्मन सेना को घेर लिया। मानक मध्य एशियाई युद्ध शैली, सेना को चार मूल भागों में विभाजित करती थी- 1. करावल- सबसे आगे की फौज अर्थात टोही दल, 2. हरावल- सामने की पांत, 3. गोल- फौज़ के बीच का हिस्सा जहाँ बादशाह रहता था तथा 4. ज़रनगार और बरनगार अर्थात बायाँ और दायाँ हाथ।
बाबर
ने तोपों को सजाने के लिए उस्मानी या रूमी पद्धति का इस्तेमाल किया। दो गाड़ियों
के बीच एक व्यवस्थित स्थान छोड़कर उसमें तोपें रखने की विधि उस्मानी कहलाती है। इस
युद्ध में बाबर ने उस्ताद अली और मुस्तफा नाम के दो तोपखाने की भी सेवा ली थी।
युद्ध में गाड़ियों को सजाने की विधि अराबा कहलाती थी।
पानीपत के प्रथम युद्ध की घटनाएँ
12 अप्रेल 1526 को दोनों सेनाएं एक दूसरे के समक्ष आ खड़ी हुईं। कीन के अनुसार एक ओर निराशापूर्ण साहस था और कुछ वैज्ञानिक युद्ध के साधन तो दूसरी ओर मध्यकालीन हथियारबंद सैनिक थे जिनमें भाला चलाने वालों की और तीर चलाने वालों की भरमार थी। उनके झुण्ड के झुण्ड अव्यवस्थित रूप से मूर्खतापूर्ण धक्कों के साथ आगे बढ़ते जा रहे थे। नौ दिन तक दोनों सेनाएँ एक दूसरे के समक्ष डटी रहीं। अन्त में 21 अप्रेल को इब्राहीम लोदी ने अपनी सेना को आक्रमण करने की आज्ञा दी। इब्राहीम की सेना इतनी विशाल थी कि उसका सुचारू रीति से संचालन नहीं हो सका। बाबर की सेना ने इब्राहीम लोदी की सेना को चारों ओर से घेरकर उस पर तोपेखाने तथा बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। यह युद्ध प्रातः 9 से 10 बजे के बीच आरम्भ हुआ तथा दोपहर बाद तक भयंकर रूप से होता रहा। अंत में इब्राहीम की सेना परास्त हो गई। उसके 15 हजार सैनिक मारे गये और शेष सेना लड़ाई के मैदान से भाग खड़ी हुई। इब्राहीम लोदी स्वयं लड़ता हुआ मारा गया। इस प्रकार बाबर को पानीपत के प्रथम युद्ध में विजय प्राप्त हो गई।
पानीपत के युद्ध में बाबर की विजय के कारण
यद्यपि इब्राहीम लोदी की सेना बाबर की सेना की
तुलना में अधिक विशाल थी परन्तु बाबर ने छोटी सेना की सहायता से ही उस पर विजय प्राप्त
कर ली। इस विजय के निम्नलिखित कारण थे-
(1.) बाबर का कुशल सेनापतित्त्व:
बाबर
कुशल तथा अनुभवी सेनापति था। उसे युद्ध लड़ने का व्यापक अनुभव था। वह मंगोलों, उजबेगों
तथा पारसीकों की रणपद्धतियों से परिचित था। वह अनेक युद्धों में सेना का संचालन
करके युद्ध कला की व्यवहारिक बारीकियों का ज्ञान प्राप्त कर चुका था। इसके विपरीत
इब्राहीम लोदी युद्ध के अनुभव से शून्य था। उसने इससे पहले एक भी बड़े युद्ध में
भाग नहीं लिया था। न ही वह विदेशी रणपद्धतियों से परिचित था। ऐसी स्थिति में वह
बाबर की सेना का सामना करने की क्षमता नहीं रखता था।
(2.) बाबर को योग्य सेनापतियों की सेवाएँ:
बाबर
यद्यपि स्वयं प्रधान सेनापति था परन्तु अपनी सेना के विभिन्न अंगों का संचालन उसने
बड़े ही योग्य तथा कुशल सेनापतियों को सौंप रखा था। उसे दो तुर्की सेनापतियों की
सेवाएँ प्राप्त थीं जो नवीन रण-पद्धतियों का उपयोग करने में दक्ष थे। बाबर का
पुत्र हुमायूँ भी कुशल योद्धा तथा दक्ष सेनापति था। इब्राहीम लोदी को इस प्रकार के
योग्य सेनापतियों की सेवाएँ प्राप्त नहीं थीं। उसे अपने अमीरों तथा प्रांतपतियों
का सहयोग प्राप्त नहीं था। दौलत खाँ तथा पंजाब के अन्य अमीर उसके विरुद्ध थे तथा
बाबर का साथ दे रहे थे।
(3.) बाबर के सैनिकों में जीत के प्रति उत्साह:
बाबर
के सैनिक बड़े लड़का तथा रणकुशल थे। उन्हें शत्रु की धरती पर खड़े रहकर युद्ध करने का
व्यापक अनुभव था। वे कई तरह की पेंतरेबाजी में कुशल थे और स्वयं को परिस्थितियों
के अनुकूल ढालने और उसमें लड़ने की क्षमता रखते थे। अफगानिस्तान जैसे निर्धन देश से
होने के कारण वे धन प्राप्ति के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देते थे। उनमें जीत
के प्रति अदम्य उत्साह था जबकि इब्राहीम लोदी के सैनिक उतने रणकुशल नहीं थे, जितने
बाबर के। उन्हें न तो युद्धों का उतना अनुभव था और न उनमें उतना उत्साह तथा साहस
ही था जितना बाबर के सैनिकों में था।
(4.) बाबर की कुशल व्यूह-रचना:
बाबर शत्रु सैन्य के बल के अनुसार सैन्य-व्यूह रचने में दक्ष था। उसने पानीपत के मैदान में पहुंचते ही सैनिक व्यूह की रचना का कार्य आरम्भ कर दिया था। उसने अपनी सेना की चारों ओर से सुरक्षा का प्रबंध किया और फिर केन्द्र में तोपों और दोनों पक्षों में तेजी से आक्रमण करने वाले अश्वारोहियों की व्यवस्था की। ये अश्वारोही, मुख्य सेना की गति भंग हो जाने पर उसे चारों ओर से सहायता पहुँचा सकते थे। यह बड़ी ही वैज्ञानिक व्यूह-रचना थी जिसमें रक्षात्मक तथा आक्रमणात्मक दोनों प्रकार की व्यवस्था थी। इसके विपरीत इब्राहीम लोदी की व्यूह-रचना परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थी। उसने अपनी सेना की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की। उसने हाथियों को अपनी सेना के हरावल में रखकर अपनी पराजय का प्रबंध स्वयं ही कर लिया था। जब तोपों से गोले बरसने आरम्भ हुए तो हाथी पीलवानों के नियंत्रण से बाहर हो गये और उन्होंने अपने ही सैनिकों को रौंद डाला। इससे उनमें भगदड़ मच गयी।
(5.) बाबर का कुशल सैन्य संचालन:
बाबर
ने अपनी सेना का संचालन कुशलता से किया था। छोटी होने के कारण उसकी सेना में गति
थी। वह तेजी से आक्रमण कर सकती थी और संकट आने पर भाग सकती थी। उसकी सेना के बाईं
तथा दाहिनी ओर के सैनिक बड़ी तेजी से शत्रु पर आक्रमण करते थे और उसे चारों ओर से
घेर लेने का प्रयत्न करते थे। वह अपने तोपखाने तथा अपने अश्वारोहियों द्वारा ऐसा
संयुक्त आक्रमण करता था कि शत्रु को उसके सामने ठहरना कठिन हो जाता था। इसके
विपरीत इब्राहीम लोदी में सैन्य संचालन की कुशलता नहीं थी। उसकी सेना इतनी विशाल
थी कि उसका सुचारू रीति से संचालन करना कठिन था। उसमें न गति थी और न पैंतरेबाजी।
बाबर की तोप गाड़ियों के कारण इब्राहीम की सेना के अग्रिम भाग का आगे बढ़ना रुक गया
किंतु पीछे की सेना इस बात को नहीं जान सकी और वह निरंतर आगे बढ़ने का प्रयत्न करती
रही इससे सेना में धकापेल आरम्भ हो गई। वह मनुष्यों का एक ढेर बन गई और बाबर की
सेना ने भीषण नरसंहार आरम्भ कर दिया।
(6.) बाबर द्वारा तोपखाने का प्रयोग:
अभी
तक उत्तर-पश्चिम के मार्ग से भारत पर जितने आक्रमण हुए थे उनमें से किसी ने भी
तोपेखने का प्रयोग नहीं किया था। इसलिये भारत के सैनिक इस तोपखाने के समक्ष युद्ध
करने के अभ्यस्त नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि जब तोपों ने गोले और आग बरसाना आरम्भ
किया तब उसी समय बाबर के अश्वारोहियों ने भी पार्श्वों से निकलकर इब्राहीम की सेना
पर तेजी से आक्रमण किया। इससे इब्राहीम लोदी की सेना में अफरा-तफरी मच गई। तोपखाने
के साथ-साथ बाबर के सैनिक इब्राहीम लोदी के सैनिकों से अधिक अच्छे अस्त्र-शस्त्रों
से सुसज्जित थे। इससे वे अधिक सफलतापूर्वक प्रहार कर सकते थे।
दिल्ली
तथा आगरा पर अधिकार जिस दिन बाबर को पानीपत युद्ध में विजय प्राप्त हुई उसी दिन
बाबर ने अपने पुत्र हुमायूँ को आगरा पर और अपने दामाद मेंहदी ख्वाजा को दिल्ली पर
अधिकार करने के लिए भेज दिया। इन दोनों ने अपना कार्य सरलता से सम्पन्न कर लिया।
इस प्रकर दिल्ली और आगरा पर बाबर का अधिकार हो गया। 27 अप्रैल 1526 को शुक्रवार के
दिन दिल्ली की मस्जिद में बाबर के नाम खुतबा पढ़ा गया और गरीबों को दान-दक्षिणा दी
गई। इस प्रकार बाबर दिल्ली का बादशाह बन गया।
पानीपत
के प्रथम युद्ध के परिणाम
पानीपत
का प्रथम युद्ध भारत के निर्णयात्मक युद्धों में से है। इसने भारत की राजनीति से
एक युग का अंत करके दूसरे युग का आरम्भ कर दिया। उत्तर भारत की राजनीति में इस
युद्ध ने भारी फेर बदल कर दिया।
(1.) लोदी वंश का अंत:
इस
युद्ध ने लोदी वंश के भाग्य का उसी प्रकार निर्णय कर दिया जिस प्रकार तैमूर के
आक्रमण ने तुगलक वंश के भाग्य का निर्णय कर दिया था। लोदी वंश सदा के लिये अस्ताचल
में चला गया।
(2.) दिल्ली सल्तनत का अंत:
लोदी
वंश के पराभव के साथ ही दिल्ली सल्तनत का युग भी समाप्त हो गया। उत्तर भारत में एक
नया वंश शासन करने के लिये आ गया।
(3.) भारत में मुगल सम्राज्य की स्थापना:
पानीपत
की पहली लड़ाई का सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना हो
गई जो अपनी शान-शौकत, सैनिक शक्ति तथा अपनी सभ्यता एवं संस्कृति में
मुस्लिम जगत् के राज्यों में सबसे अधिक महान् था और जो रोमन साम्राज्य की बराबरी
का दावा कर सकता था।
(4.) राजधानी दिल्ली के स्थान पर आगरा स्थानांतरित:
बाबर
दिल्ली में कुछ ही दिन रहा। वह दिल्ली से आगरा चला गया और वहीं पर सुल्तान
इब्राहीम लोदी के महल में रहने लगा। अब आगरा ही उसकी राजधानी बन गया।
(5.) अफगानों के संगठन पर बुरा प्रभाव:
लोदी
वंश के उदय के साथ ही दिल्ली सल्तनत तथा उत्तरी पंजाब में अफगान अमीरों का दबदबा
स्थापित हो गया था किंतु इस युद्ध ने अफगानों के संगठन को छिन्न-भिन्न कर दिया और
उनका नैतिक बल कमजोर हो गया।
(6.) जन साधारण में भय:
पानीपत
की पराजय के बाद न केवल लोदी सेना के सैनिक वरन् जन साधारण भी आक्रमणकारियों से
भयभीत होकर इधर-उधर भाग खड़ा हुआ। किलेबंदी वाले नगरों के फाटक बन्द कर दिये और लोग
अपनी सुरक्षा का प्रबंध करने लगे।
(7.) बाबर के गौरव में वृद्धि:
पानीपत
की विजय से बाबर के गौरव तथा प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि हुई और उसकी गणना एशिया के
महान् विजेताओं में होने लगी।
(8.) बाबर को अपार धन की प्राप्ति:
बाबर
को दिल्ली तथा आगरा से अपार धन की प्राप्ति हुई। इससे पहले उसकी आर्थिक स्थिति
अत्यंत खराब थी। भारत से मिले धन को बाबर ने मुक्त हस्त से अपने सैनिकों में
बंटवाया। उसने समरकंद, ईराक,
खुरासान व काशनगर में स्थित
अपने सम्बन्धियों को भी उपहार भेजे। मक्का एवं मदीना में पवित्र आदमियों को भी
उसने भेंट भिजवाई। उसकी इस उदारता के लिये उसे कलंदर नाम दिया गया।
(9.) राजपूतों में निराशा:
इस
युद्ध से राजपूतों की बड़ी निराशा हुई क्योंकि लोदी साम्राज्य के बाद दिल्ली में
राजपूत राज्य स्थापित करने का उनका स्वप्न समाप्त हो गया ।
पानीपत
के युद्ध के उपरान्त बाबर की समस्याएँ
पानीपत
की लड़ाई में विजय प्राप्त करने के उपरान्त बाबर ने दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार
स्थापित कर लिया परन्तु उसे अनेक समस्याओं का सामना करना था। उसकी प्रमुख समस्याएँ
इस प्रकार से थीं-
(1.) जन साधारण में अविश्वास की समस्या:
बाबर
की पहली समस्या जन साधारण में विश्वास उत्पन्न करने की थी जो या तो अपने नगरों को
छोड़कर भागे जा रहे थे या नगरों के फाटकों को बन्द करके अपनी सुरक्षा करने में लगे
हुए थे। लोग तैमूर लंग के आक्रमण को भूले नहीं थे इसलिये मंगोल भारत में घृणा की
दृष्टि से देखे जाते थे।
(2.) अराजकता की समस्या:
शासन
के प्रति जन साधारण में अविश्वास के कारण सरकारी कर्मचारी भी अपना काम छोड़कर बैठ
गये। इस कारण चारों ओर अराजकता फैल गई। बाजारों में खाद्य सामग्री की कमी हो गई।
अवसर पाकर चोर तथा डकैत जन साधारण को लूटने लगे।
(3.) अफगान सरदारों की समस्या:
पानीपत
के युद्ध में इब्राहीम लोदी की मृत्यु हो जाने से अफगानों का संगठन बिखर गया। इस
कारण अफगान सरदार अपनी सेनाओं के साथ इधर-उधर घूम रहे थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा
था कि क्या करें। इनमें से अनेक सरदार छोटे-छोटे भू-भागों पर स्वतन्त्र राज्य
स्थापित करने के लिये अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने का प्रयास करने लगे।
(4.) बाबर के सैनिकों में घर लौटने की इच्छा:
दिल्ली
तथा आगरा विजय करने के पश्चात् बाबर के सैनिक तथा सरदार अपने घरों को लौट जाने के
लिए आतुर हो रहे थे। यद्यपि बाबर ने दिल्ली तथा आगरा से प्राप्त विपुल धन अपने
सैनिकों तथा सरदारों में मुक्त हस्त से बाँट दिया था परन्तु अब वे भारत में ठहरने
के लिए तैयार नहीं थे। ये सैनिक पहाड़ियों तथा घाटियों के निवासी होने के कारण भारत
की गर्मी को सहन नहीं कर पा रहे थे। चूंकि अधिकतर किसान अपनी खेतीबाड़ी छोड़कर भाग
खड़े हुए थे इसलिये उत्तर भारत में खाने-पीने की सामग्री का बड़ा अभाव हो गया था। जब
इन सैनिकों एवं सरदारों को यह ज्ञात हुआ कि बाबर ने भारत में रहने का निश्चय कर
लिया है तब वे समझ गये कि उन्हें भी बहुत दिनों तक भारत में रहना पडे़गा और
निरन्तर युद्ध तथा संघर्ष करना पडे़गा। चूंकि अब उनके पास पर्याप्त धन था इसलिये
वे अपना शेष जीवन युद्धों में बिताने की बजाय आराम से अपने घरों में बिताना चाहते
थे।
(5.) राणा सांगा की समस्या:
इन
दिनों राजपूतों का नेता मेवाड़ का शासक राणा संग्रामसिंह था जिसे राणा सांगा भी
कहते हैं। वह अट्ठारह युद्धों में विजय प्राप्त कर चुका। युद्धों में ही उसने अपनी
एक आँख, एक भुजा तथा एक पैर खो दिये थे। उसके शरीर पर अस्सी घावों
के चिह्न थे। वह अत्यंत महत्त्वाकांक्षी शासक था और लोदी साम्राज्य के ध्वंसावशेष
पर अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। पानीपत के युद्ध में वह भाग नहीं ले सका
था क्योंकि उसे गुजरात के शासक मुजफ्फरशाह की ओर से आक्रमण की आशंका थी परन्तु अब
मुजफ्फरशाह की मृत्यु हो चुकी थी और राणा का ध्यान दिल्ली तथा आगरा पर केन्द्रित
था जहाँ पर बाबर ने अधिकार कर लिया था। राणा सांगा का अनुमान था कि बाबर अपने
पूर्वज तैमूर की भांति दिल्ली को लूट-पाट कर काबुल लौट जाएगा परन्तु बाबर ने भारत
में रहने का निश्चय कर लिया था। ऐसी स्थिति में राणा तथा बाबर में संघर्ष होना
अनिवार्य था क्योंकि बाबर के निश्चय ने राणा सांगा की कामनाओं पर पानी फेर दिया
था।
समस्याओं
का समाधान
बाबर
ने उपरोक्त समस्याओं का बड़ी सावधानी तथा चतुराई के साथ सामना किया।
(1.) जन साधारण में विश्वास की उत्पत्ति:
बाबर ने जन साधारण में मुगलों के शासन के प्रति विश्वास
जागृत करने के लिये उदारता तथा सहानुभूति की नीति का अनुसरण किया और अपने व्यवहार
से स्पष्ट कर दिया कि जो लोग उसकी शरण में आकर उसकी अधीनता स्वीकार कर लेंगे, उनके
साथ अच्छा व्यवहार किया जायेगा तथा उन्हें नौकरी में समुचित पद भी दिये जायेंगे।
(2.) अफगान सरदारों को जागीरें:
बाबर ने अफगान सरदारों को शांत करने तथा अपने पक्ष में
करने के लिये उन्हें वचन दिया कि जो अफगान सरदार उसके स्वामित्व को स्वीकार कर
लेंगे उनकी रक्षा की जायेगी और उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें दी जायेंगी। इस घोषणा का
अफगान सरदारों पर अच्छा असर हुआ। बहुत से अफगान सरदार बाबर के समक्ष उपस्थित हो
गये। बाबर ने उनकी योग्यता के अनुसार उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें दे दीं। शेष अफगान
सरदारों की समस्या को सुलझाने के लिए उसने अविजित भू-भागों को अपने सरदारों में
बाँट दिया और उन्हें आदेश दिया कि वे विद्रोही अफगानों पर विजय प्राप्त करें और
राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करें। जो अफगान सरदार बड़े ही शक्तिशाली
थे और सरलता से नियन्त्रण में नहीं लाये जा सकते थे उनका दमन बाद में करने का
निर्णय लिया गया।
(3.) बाबर के सैनिकों में घर लौटने की इच्छा:
बाबर ने अपने सैनिकों को अपने घरों को लौटने से रोकने के
लिये अपने सैनिकों की एक सभा आयोजित की और उसमें ओजपूर्ण भाषण दिया। उसने अपने
सैनिकों को समझाया कि अनेक वर्षों के परिश्रम से,
कठिनाइयों का सामना करके, लम्बी
यात्रा करके, अपनी सेना को युद्धों में झौंककर और भीषण हत्याएं करके
हमने अल्लाह की कृपा से शत्रुओं के झुण्ड को परास्त किया है जिससे हम उनकी विशाल
भूमि को प्राप्त कर सकें। अब वह कौनसी शक्ति है जो हमें विवश कर रही है, कौनसी
ऐसी आवश्यकता उत्पन्न हो गई है कि हम 'अकारण ही उन प्रदेशों को छोड़ दें जिन्हें हमने
अपने जीवन को संकट में डालकर प्राप्त किया है!'
बाबर के इस ओजपूर्ण भाषण का
उसके सैनिकों एवं सेनापतियों पर इतना प्रभाव पड़ा कि कुछ को छोड़कर शेष ने भारत में
रहने और बाबर के उद्देश्य को पूरा करने का निश्चय कर लिया।
(4.) राणा सांगा से युद्ध का निश्चय:
महत्वाकांक्षी राणा सांगा रूपी समस्या का समाधान एक ही तरह
से हो सकता था कि बाबर सांगा को युद्ध में परास्त करे। अतः बाबर ने राणा सांगा पर
आक्रमण करने का निश्चय किया। राणा सांगा से लोहा लेने के पूर्व बाबर ने उसके मार्ग
में आने वाले धौलपुर, बयाना तथा ग्वालियर के छोटे-छोटे अफगान शासकों
को भी नतमस्तक करने का निश्चय किया।
खनवा
का युद्ध
पानीपत का प्रथम युद्ध बाबर के लिये भारत में पैर टिकाने के लिये पर्याप्त था किंतु साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार के लिये बाबर को कई युद्ध लड़ने पड़े। वह कभी भी भारत में शांति से शासन नहीं कर सका। बाबर का पूरा जीवन युद्धों की एक लम्बी शृंखला है। इन्हीं युद्धों को लड़ते हुए उसकी मृत्यु हुई। बाबर पानीपत का प्रथम युद्ध जीत चुका था तथा अब खनवा का युद्ध उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। यह युद्ध भी पानीपत के प्रथम युद्ध की भांति बाबर के जीवन के निर्णायक युद्धों में से एक है।
खनवा युद्ध का प्रमुख कारण
खनवा युद्ध का प्रमुख कारण बाबर द्वारा भारत में ही रहने
का निर्णय लेना था। इस कारण सांगा उसे भारत से बाहर निकालने के लिये उद्धत हो उठा।
1. राणा सांगा की शक्ति और उसकी महत्वाकांक्षा
2. बाबर पर राणा सांगा का आरोप की उसने आगरा पर हमला नहीं किया
3. बाबर के वापस नहीं जाने पर राणा सांगा का निराश हो जाना
4. लोदियों द्वारा राणा को उकसाना
बाबर का बयाना के दुर्ग पर अधिकार:
बयाना मेवाड़ की सीमा पर स्थित था। इसे राजपूताने का फाटक
कहा जाता था। इन दिनों बयाना पर आलम खाँ के छोटे भाई निजाम खाँ का अधिकार था।
बयाना दुर्ग का सामरिक दृष्टि से बड़ा महत्त्व था। बयाना पर अधिकार कर लेने पर बाबर
को अपने साम्राज्य की रक्षा करने में भी सुविधा होती और इसे आधार बनाकर वह
राजपूताने में प्रवेश भी कर सकता था। इसलिये बाबर ने तार्दी बेग को बयाना पर
आक्रमण करने के लिए भेजा परन्तु निजाम खाँ ने उसे मार भगाया। विवश होकर बाबर ने
निजाम खाँ के साथ मैत्री करने का प्रयत्न किया। अंत में निजाम खाँ ने इस्लाम की रक्षा
तथा काफिर राणा सांगा के विनाश के लिये बाबर से मैत्री कर ली।
बाबर का धौलपुर तथा ग्वालियर के दुर्गों पर अधिकार:
बयाना में घट रही घटनाओं ने राणा की चिंताएं बढ़ा दीं।
इसलिये वह भी अपनी सेनाओं के साथ आगे बढ़ा और रणथंभौर से थोड़ी दूरी पर स्थित कन्दर
दुर्ग पर अधिकार करके बैठ गया। बाबर ने राणा की गतिविधियों को देखकर अनुमान लगा
लिया कि राणा से अकेले पार पाना असंभव है। इसलिये उसने अफगान सरदारों को अपनी ओर
मिलाने के लिये नया पासा फैंका। बाबर ने अपने युद्ध को 'जेहाद' या
धर्मयुद्ध के नाम से पुकारा और अफगान सरदारों से अनुरोध किया कि वे इस्लाम की
रक्षा के लिये अपनी जागीर छोड़कर सुरक्षित प्रान्तों में चले जायें जहाँ उन्हें
उतनी ही बड़ी जागीर मिल जाएगी। प्रायः समस्त अफगान सरदारों ने बाबर के इस प्रस्ताव
को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार ग्वालियर,
बयाना, धौलपुर
तथा अन्य दुर्ग बाबर के अधिकार में आ गये जिनमें उसने मुगल सेनाएँ रख दीं।
राणा सांगा द्वारा बयाना पर अधिकार:
अफगान सरदार हसन खाँ मेवाती ने बाबर के प्रस्ताव को
स्वीकार नहीं किया। उसने इब्राहीम लोदी के भाई महमूद लोदी को इब्राहीम लोदी का
उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और उसे दिल्ली के तख्त पर बैठाने के लिए राणा सांगा से
सहायता मांगी। राणा सांगा ने हसन खाँ मेवाती का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। अब हसन
खाँ मेवाती तथा राणा सांगा की संयुक्त सेनाएँ आगे बढ़ीं और उन्होंने बयाना पर
अधिकार कर लिया।
सीकरी की पराजय:
11 फरवरी 1527 को बाबर ने आगरा से प्रस्थान किया। उसने
सीकरी के निकट स्थित बड़ी झील के किनारे अपना खेमा लगाया और युद्ध की तैयारी करने
लगा। राणा भी अपनी सेना लेकर सीकरी के पास आ गया। सांगा की सेना ने बाबर की सेना
के एक अंग पर धावा बोलकर उसे छिन्न-भिन्न कर दिया। इससे बाबर के सैनिकों में
निराशा फैल गई और उनका उत्साह भ¦ होने लगा। इसी समय कुछ अफगान सरदारों ने
उपद्रव किया और वे बाबर का साथ छोड़कर चले गये। इससे बाबर की चिन्ता और बढ़ गई। उसने
फिर से अपने सैनिकों की सभा बुलाई और उनके सामने पहले की ही तरह ओजपूर्ण भाषण देकर
उनसे यह शपथ करवा ली कि मरते दम तक लड़ेंगे। बाबर ने सैनिकों के समक्ष, शराब
नहीं पीने की शपथ ली तथा शराब पीने के सोने-चांदी के बर्तन तोड़कर गरीबों तथा
फकीरों में बंटवा दिये। इससे बाबर के सैनिकों का उत्साह बढ़ गया और वे फिर से शत्रु
का सामना करने के लिए कटिबद्ध हो गये।
युद्ध का आरम्भ:
सीकरी से दस मील की दूरी पर कनवाह अथवा खनवा नामक स्थान
है। इस स्थान पर 27 मार्च 1527 ई. को प्रातः साढ़े नौ बजे बाबर तथा राणा सांगा की
सेनाओं में भीषण संघर्ष आरम्भ हुआ। बाबर ने खनवा के युद्ध में उसी प्रकार की व्यूह
रचना की जिस प्रकार की व्यूह रचना उसने पानीपत के मैदान में की थी। उसने अपनी सेना
के सामने गाड़ियों की कतार लगवाकर उन्हें लोहे की जंजीरों से बँधवा दिया। इन गाड़ियों
की आड़ में उसने तोपें तथा बंदूक चलाने वालों को रखा जो शत्रु सैन्य पर गोलों तथा
जलते हुए बारूद की वर्षा करते थे। उसने अपनी सेना को तीन भागों में विभक्त किया-
दाहिना पक्ष, बांया पक्ष तथा मध्यभाग। दाहिने पक्ष का संचालन हुमायूँ, बायें
का मेंहदी ख्वाजा और मध्य भाग का संचालन स्वयं बाबर के नेतृत्व में रखा गया। तोपों
तथा बन्दूकों के संचालन का कार्य उस्ताद अली को सौंपा गया। सेना के दोनों सिरों पर
बाबर ने तुलगमा सैनिक रखे जिनका कार्य युद्ध के जम जाने पर दोनों ओर से घूम कर, शत्रु
सैन्य पर पीछे से आक्रमण करना था।
राणा सांगा की पराजय:
युद्ध के पूर्व बाबर ने अपने ज्योतिषी मुहम्मद शरीफ को दण्डित किया क्योंकि उसने युद्ध में हार की भविष्यवाणी की थी। इसके बाद बाबर ने धार्मिक तकरीर और कहा कि मरे तो शहीद मारे तो गाज़ी, तथा जेहाद का नारा दिया, शराब पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा तमगा नामक कर को हटा लिया। तथा कुरआन की शपथ ली। युद्ध का आरम्भ राजपूतों ने किया। उन्होंने बाबर की सेना के दाहिने पक्ष पर धावा बोलकर उसे अस्त-व्यस्त कर दिया। यह देखकर बाबर ने राजपूतों के बायें पक्ष पर अपने चुने हुए सैनिकों को लगा दिया। इससे युद्ध ने विकराल रूप ले लिया। थोड़ी ही देर में राजपूतों की सेना में घुसने के लिये वामपक्ष तथा मध्यभाग का मार्ग खुल गया। मुस्तफा रूमी ने इस स्थिति का लाभ उठाते हुए अपने तोपखाने को आगे बढ़ाया और राजपूत सेना पर गोलों तथा जलते हुए बारूद की वर्षा आरम्भ कर दी। मुगलों के बायें पक्ष पर भी भयानक युद्ध हो रहा था। इसी समय तुलगम सेना ने राजपूतों पर पीछे से आक्रमण किया। राजपूत सेना चारों ओर से घेर ली गई। राजपूतों के लिये तोपों की मार के समक्ष ठहरना असम्भव हो गया। वे तेजी से घटने लगे। राणा सांगा युद्ध में बुरी तरह घायल हो गया। राजपूत सेनापति राणा को रणक्षेत्र से निकाल कर ले गये। सांगा की सेना बुरी तरह परास्त हो गई।
राणा सांगा का निधन:
राणा सांगा युद्ध के आरंभिक भाग में ही किसी हथियार की
चपेट में आ जाने से बेहोश हो गया था। इसलिये उसके सरदार उसे रणक्षेत्र से निकालकर
सुरक्षित स्थान पर ले गये। होश में आने पर सांगा को अपने सरदारों का यह कार्य उचित
नहीं लगा। उसने फिर से युद्ध क्षेत्र में जाने की इच्छा प्रकट की इससे रुष्ट होकर
कुछ सरदारों ने सांगा को जहर दे दिया जिससे कालपी में सांगा की मृत्यु हो गई। राणा
का शव भरतपुर के निकट बसवा ले जाया गया और वहीं पर उसका अंतिम संस्कार किया गया।
खनवा के युद्ध में राजपूतों की पराजय के कारण
(1.) बाबर की तुलगमा रणनीति:
खनवा के मैदान में राजपूतों की पराजय का सबसे बड़ा कारण
बाबर द्वारा अपनाई गई तुलगम रणनीति थी। उसने तुलगम सैनिकों के माध्यम से राजपूतों
की सेना को चारों ओर से घेर लिया तथा राजपूत सेना के मध्य में घुसने का भी मार्ग
बना लिया। इससे राजपूत सैनिक, आग बरसाती तोपों की मार के सामने ही रहे।
उन्हें पीछे हटने का अवसर ही नहीं मिला। तुलगम सेना रक्षा के दृष्टिकोण से निर्बल
होती है परन्तु तीव्र आक्रमण के लिये बड़ी उपयोगी होती है। जब बाबर की तुलगम सेना ने
राजपूतों को पीछे से घेर लिया तब राजपूतों का भीषण संहार आरम्भ हो गया और वे
परास्त हो गए।
(2.) तोपखाने का प्रयोग:
बाबर की विजय का दूसरा कारण बाबर द्वारा प्रयुक्त तोपखाना
था। राजपूत सैनिक तोपों के सामने लड़ने के अभ्यस्त नहीं थे। तोपों के सामने
राजपूतों की प्रत्येक रणनीति एवं वीरता विफल हो गई। उनका अब तक का युद्ध अनुभव भी
काम नहीं आया।
(3.) राणा सांगा की सेना की विशालता:
बाबर की सेना से युद्ध करते समय जो गलती इब्राहीम लोदी ने
की, लगभग वही गलती राणा सांगा ने भी की। वह बाबर की छोटी सेना
से लड़ने के लिये विशाल सेना लेकर आ गया। बाबर की छोटी सेना बड़ी ही सुव्यस्थित थी।
इससे उसका संचालन सुचारू रीति से हो सकता था। इसके विपरीत राणा सांगा की सेना
अत्यन्त विशाल थी जिसका त्वरित संचालन करना अत्यंत कठिन था। जब सांगा की बड़ी सेना
आगे से तोपखाने और पीछे से तुलगम सैनिकों के बीच में फंस गई तब वह चाह कर भी युद्ध
क्षेत्र से नहीं हट सकी।
(4.) राणा सांगा की रणनीतिक भूल:
राणा सांगा ने एक बहुत बड़ी रणनीतिक भूल यह की कि बयाना पर
अधिकार कर लेने के उपरान्त उसने तुरन्त बाबर पर आक्रमण नहीं किया। इससे बाबर को
सेना की व्यूहरचना के लिए काफी समय मिल गया। यदि राणा ने तुरन्त आक्रमण कर दिया
होता तो बाबर को संभलने का अवसर ही नहीं मिलता। न वह अपना तोपखाना सजा पाता और न तुलगम
सैनिकों को यथा स्थान नियुक्त कर पाता। ऐसी स्थिति में युद्ध का परिणाम कुछ और ही
हो सकता था।
(5.) राणा सांगा का बेहोश हो जाना:
खनवा के युद्ध में बाबर की विजय का बहुत बड़ा कारण युद्ध की
प्रारम्भिक अवस्था में ही राणा सांगा का घायल होकर बेहोश हो जाना तथा रण-क्षेत्र
से हटा लिया जाना था। सेना के मनोबल को बनाए रखने के लिए झाला नामक सरदार को राणा
के वस्त्र पहनाकर उसे हाथी पर बिठा कर युद्ध का संचालन होता रहा। ऐसी स्थिति में
राजपूत लोग राणा की योग्यता, उसके रण-कौशल,
उसके अनुभव तथा उसके नेतृत्व
से वंचित रहे।
खनवा के युद्ध के परिणाम
भारतीय इतिहास पर खनवा के युद्ध के दूरगामी प्रभाव हुए।
इससे भारत के भविष्य का राजनीतिक परिदृश्य बदल गया।
(1.) राणा सांगा के प्रभाव को क्षति:
इस
युद्ध से पहले राणा सांगा लगातार मालवा,
दिल्ली तथा गुजरात के
राज्यों को परास्त करता हुआ अपना प्रभाव बढ़ा रहा था। उसने सीकरी के पास बाबर की
सेना को भी मार कर भगा दिया था। इस कारण सांगा का प्रभाव बहुत बढ़-चढ़ गया था किंतु
खनवा के युद्ध में मिली पराजय से राणा सांगा के प्रभाव को बड़ी क्षति पहुँची। वह युद्ध
क्षेत्र में घायल हो गया। उसके असंतुष्ट सरदारों ने उसे विष देकर उसका अंत कर
दिया।
(2.) राजपूतों के संघ का बिखराव:
खनवा
युद्ध में मिली पराजय के बाद राजपूतों का संघ बिखर गया। सांगा की पराजय के बाद
राजपूतों का नेतृत्व करने वाला कोई प्रभावशाही हिन्दू नरेश नहीं रहा। इस कारण
हिन्दुओं के प्रभाव को बड़ा धक्का लगा और पास-पड़ौस के मुसलमान राज्यों में राजपूतों
का भय समाप्त हो गया।
(3.) हिन्दुओं की आशा पर तुषारापात:
लोदी सल्तनत के कमजोर पड़ जाने पर हिन्दू शासक उत्तरी भारत
में अपनी शक्ति बढ़ाने का जो स्वप्न देख रहे थे वह स्वप्न बिखर गया।
(4.) राजपूताना असुरक्षित:
खनवा
युद्ध की पराजय के बाद राजपूताना एक बार फिर असुरक्षित हो गया और उस पर पास-पड़ोस
के राज्यों के आक्रमण आरम्भ हो गये। राजपूताना की स्वतन्त्रता फिर से खतरे में पड़
गई।
(5.) मुगल साम्राज्य की स्थापना की राह आसान:
खनवा युद्ध ने मुगल साम्राज्य की स्थापना का मार्ग खोल
दिया। अब बाबर की रुचि अफगानिस्तान से समाप्त होकर पूरी तरह भारत में हो गई। इस
युद्ध के बाद बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की। गाज का अर्थ होता है बिजली तथा गाजी
का अर्थ होता है वह योद्धा जो काफिरों पर बिजली बन कर गिरे।
चन्देरी पर
विजय
चन्देरी दुर्ग पर इन दिनों राणा सांगा के दुर्गपति मेदिनी राय का अधिकार था। चन्देरी उन दिनों सम्पन्न नगर था। चन्देरी के सामने 230 फुट ऊँची चट्टान पर चन्देरी का दुर्ग था। यह दुर्ग मालवा तथा बुन्देलखण्ड की सीमाओं पर स्थित था और मालवा से राजपूताना जाने वाली सड़क पर बना हुआ था। इस कारण चंदेरी व्यापारिक तथा सामरिक दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था। राणा की पराजय के बाद भी मेदिनी राय ने बाबर के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं किया। 29 जनवरी 1528 को बाबर अपनी सेना के साथ चन्देरी पहुँचा। बाबर ने अपने सैनिकों को युद्ध के लिये प्रेरित करने हेतु इस युद्ध को भी 'जेहाद' का स्वरूप दिया। दूसरे दिन बाबर ने चन्देरी के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। राजपूतों ने अपनी पराजय निश्चित जानकर अपनी स्त्रियों को मौत के घाट उतार दिया तथा मरते दम तक मुगलों का सामना करते हुए रणखेत रहे। भीषण युद्ध के उपरान्त बाबर ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में भी राजपूतों का भीषण संहार हुआ। अहमदशाह को चन्देरी का शासक नियुक्त किया गया। मेदिनी राय की दो कन्याएँ इस युद्ध में पकड़ी गईं। जिनमें से एक कामरान को और दूसरी हुमायूँ को दे दी गई। चंदेरी विजय बाबर की बड़ी विजयों मे से एक मानी जाती है। यहाँ से भी बाबर को विपुल धन राशि प्राप्त हुई।
घाघरा
का युद्ध
बाबर अब तक पंजाब, दिल्ली, खनवा तथा चन्देरी के युद्ध जीत चुका था। अब वह रायसेन, भिलसा, सारंगपुर तथा चित्तौड़ पर आक्रमण करना चाहता था परन्तु इसी समय उसे अफगानों के उपद्रव की सूचना मिली। इसलिये वह अपनी योजना बदल कर अफगानों के दमन के लिए चल पड़ा। अफगान लोग भयभीत होकर बिहार तथा बंगाल की ओर भाग गये और महमूद लोदी की अध्यक्षता में संगठित होने लगे। महमूद लोदी, सुल्तान सिकन्दर लोदी का पुत्र और इब्राहीम लोदी का भाई था। पानीपत के युद्ध के उपरान्त हसन खाँ मेवाती तथा राणा सांगा ने उसे इब्राहीम लोदी का उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया था। खनवा के युद्ध में वह बाबर के विरुद्ध लड़ा भी था और परास्त होकर कुछ दिनों के लिये मेवाड़ चला गया जहाँ से वह बिहार पहुँचा और अफगानों को मुगलों के विरुद्ध संगठित करने लगा। अफगानों को दण्डित करने के लिये बाबर ने 20 जनवरी 1529 को आगरा से बिहार के लिये कूच किया। महमूद लोदी भी अपनी सेना के साथ गंगा नदी के किनारे-किनारे चुनार की ओर बढ़ा। 31 मार्च 1529 को बाबर चुनार पहुँच गया। बहुत से अफगान डरकर बाबर की शरण में आ गये और बहुत से अफगान बंगाल की ओर भाग गये। बाबर निरंतर आगे बढ़ता हुआ गंगा तथा कर्मनाशा नदी के संगम पर पहुँच गया।
अफगानों की पराजय:
बाबर ने अफगानों से अन्तिम संघर्ष करने का निश्चय कर लिया।
एक मई 1529 को उसने गंगा नदी को पार कर लिया। तीन दिन बाद उसकी सेना ने घाघरा नदी
को पार करने का प्रयत्न किया। अफगानों ने उसे रोकने का भरसक प्रयास किया परन्तु
बाबर की सेना नदी पार करने में सफल हो गई। 6 मई को घाघरा के तट पर अफगानों तथा
मुगलों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में अफगान परास्त हो गये। बहुत से अफगान
भयभीत होकर मैदान से भाग खड़े हुए। बाबर ने नसरतशाह को संधि करने के लिये विवश
किया। नसरतशाह ने बाबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा भविष्य में विद्रोह नहीं करने
का वचन दिया। यह बाबर की भारत में चौथी तथा अन्तिम विजय थी जिसके द्वारा बाबर
सम्पूर्ण उत्तरी भारत का स्वामी बन गया।
इस प्रकार बाबर जन्मजात सैनिक था। ग्यारह वर्ष की आयु से मृत्युपर्यन्त उसका जीवन युद्ध-भूमि में बीता था। उसमें सैनिक की दृढ़ता, साहस और संकटों का सामना करने की क्षमता थी। वह एक कुशल घुड़सवार, कमाल का निशानेबाज, तलवार चलाने में प्रवीण था। उसमें असाधारण शौर्य और सहनशीलता थी। उसमें महान् नेता के गुण थे। सैनिकों को प्रेरणा देना, उन्हें अनुशासित रखना और उनका विश्वास प्राप्त करना आदि दुर्लभ गुण उसमें थे। वह पराजय से कभी निरुत्साहित नहीं होता था और खतरों तथा संकटों से भागता नहीं था। वह सुख-दुःख में अपने सैनिकों के साथ ही रहता था। लेकिन आवश्यक होने पर कठोरता से अपने आदेशों का पालन भी कराता था। डॉ. आर. पी. त्रिपाठी ने लिखा है कि, “उसके नेतृत्व में तुर्कों की फुर्ती, मुगलों की सहनशक्ति और ईरानियों की वीरता थी। वह कर्मवीर था। युद्ध के संकट काल में उसकी प्रचण्डता के मध्य भी वह साधनयुक्त रहता था और उसकी चालें इतनी लचीली होती थीं कि वे युद्ध के ज्वारभाटे के अनुकूल परिवर्तित होती रहती थीं।”
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