गुजरात के शासक बहादुर शाह की प्रगति, कार्यकुशलता तथा विस्तारवादी नीति ने हुमायूँ के लिए चिंता खड़ी कर दी थी तथा वह शत्रु बन गया।
1.
बहादुरशाह
की विजय :
गुजरात
का शासक बहादुरशाह अत्यंत महत्त्वाकांक्षी सुल्तान था।
वह निरन्तर अपनी शक्ति में वृद्धि कर रहा था और मुगल साम्राज्य के लिए खतरा
उत्पन्न कर रहा था। उसकी दृष्टि दिल्ली के तख्त पर थी। मार्च 1531
में उसने मालवा पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। मेवाड़
का राज्य, दिल्ली तथा मालवा के बीच स्थित था। यदि बहादुरशाह मेवाड़ पर
अधिकार स्थापित कर लेता तो वह मुगल सम्राज्य की सीमा पर पहुँच जाता और सीधे मुगल
साम्राज्य पर आक्रमण कर सकता था।
2.
हुमायूँ
के शत्रुओं की शरण स्थली
वास्तव
में बहादुरशाह का दरबार हुमायूँ के शत्रुओं की शरण स्थली बन
गया था। बहुत से विद्रोही अफगान तथा असंतुष्ट मुगल अमीर बहादुरशाह के दरबार में
चले गये थे। इनमें हुमायूँ का बहनोई मुहम्मद जमाँ मिर्जा भी था जिसने हुमायूँ के
विरुद्ध विद्रोह कर रखा था और वह बयाना के कारागार से भागकर बहादुरशाह के पास
पहुँचा था। इन अमीरों ने बहादुरशाह को समझाया कि हुमायूँ एक निकम्मा शासक है और
उसकी सेना में कोई दम नहीं है। इसलिये उससे दिल्ली का तख्त प्राप्त करना कठिन नहीं
है। बहादुरशाह ने हुमायूँ के विरुद्ध हाथ आजमाने का निर्णय कर लिया। बहादुरशाह को
पुर्तगालियों से भी सैनिक सहायता का आश्वासन मिल गया। बहादुरशाह की गतिविधियां
देखकर हुमायूँ भी समझ गया था कि उससे युद्ध होना अनिवार्य है। उसने बहादुरशाह को
पत्र लिखा कि वह उसके शत्रुओं को, विशेषकर मुहम्मद जमाँ मिर्जा को अपने यहाँ शरण
नहीं दे। बहादुरशाह ने हुमायूँ को संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। इस पर हुमायूँ ने
उससे युद्ध करने का निश्चय किया।
3.
षड्यन्त्र
रचने की गंध
बहादुरशाह
ने हुमायूँ के शत्रु शेरखाँ के साथ गठजोड़ कर लिया था और हुमायूँ के विरुद्ध उसकी
सहायता कर रहा था। बहादुरशाह ने बंगाल के शासक के साथ भी सम्पर्क स्थापित कर लिया
था जो हुमायूँ के विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहा था।
हुमायूँ ने पत्रों के माध्यम से चेतावनी दी पर बात नहीं बनी।
4.
बहादुर
शाह द्वारा अपने तोपखाने में वृद्धि करना
बहादुर
शाह ने तुर्की के विख्यात तोपची रूमी खां, अमीर मुस्तफा, ख्वाजा सफ़र इत्यादि के
सहयोग से अपने तोपखाने को समृद्ध करता जा रहा था। इससे हुमायूँ चिंतित होने लगा।
घटनाक्रम
हुमायूँ
का प्रस्थान:
1535 ई. में हुमायूँ अपनी सेना के साथ आगरा से
प्रस्थान करके ग्वालियर पहुँच गया और वहीं से बहादुरशाह की गतिविधियों पर दृष्टि
रखने लगा। थोड़े दिनों बाद हुमायूँ और आगे बढ़ा तथा उज्जैन पहुँच गया। इन दिनों
बहादुरशाह चित्तौड़ का घेरा डाले हुए था। कहा जाता है कि चित्तौड़ के राणा
विक्रमादित्य की माता, रानी कर्णवती ने हुमायूँ को राखी भेजकर उससे
सहायता मांगी। यह हुमायूँ के लिए स्वर्णिम अवसर था परन्तु हुमायूँ ने इससे कोई लाभ
नहीं उठाया। उसने यह सोचकर कि बहादुरशाह काफिरों से युद्ध कर रहा है और यदि
हुमायूँ ने काफिरों की सहायता की तो उसे कयामत के समय उत्तरदायी होना पड़ेगा, राजपूतों
की कोई सहायता नहीं की। इसका परिणाम यह हुआ कि चित्तौड़ पर बहादुरशाह का अधिकार
स्थापित हो गया और उसकी शक्ति में बड़ी वृद्धि हो गई। उसने चित्तौड़ को खूब लूटा तथा
अपार धन सम्पत्ति प्राप्त की।
बहादुरशाह
पर आक्रमण:
अब
हुमायूँ की भी आँखें खुलीं और वह बहादुरशाह पर आक्रमण करने के लिए वह आगे बढ़ा।
बहादुरशाह ने हुमायूँ का मार्ग रोकने के लिये मन्दसौर में चारों ओर से खाइयाँ
खुदवा कर मोर्चा बांधा। उसने अपने तोपखाने को सामने करके अपनी सेना उसके पीछे छिपा
दी। हुमायूँ को इसका पता लग गया। इसलिये हुमायूँ के अश्वारोहियों ने दूर से ही
बहादुरशाह की सेना पर बाण वर्षा आरम्भ की तथा बहादुरशाह के तोपखाने को बेकार कर
दिया। हुमायूँ ने उसके रसद मार्ग को भी काट दिया। इस पर बहादुरशाह मन्दसौर से भाग
कर माण्डू चला गया। मुगल सेना ने तेजी से बहादुरशाह का पीछा किया। बहादुरशाह केवल
पाँच स्वामिभक्त अनुयायियों के साथ चम्पानेर भाग गया। माण्डू के दुर्ग पर मुगलों
का अधिकार हो गया। चम्पानेर पहुँचने पर बहादुरशाह ने अपने हरम की स्त्रियों तथा
अपने खजाने को ड्यू भेज दिया जो पुर्तगालियों के अधिकार में था। इसके बाद
बहादुरशाह ने चम्पानेर में आग लगवा दी जिससे शत्रु कोई लाभ नहीं उठा सके। इसके बाद
बहादुरशाह खम्भात भाग गया। हुमायूँ ने एक हजार अश्वारोहियों के साथ उसका पीछा
किया। बहादुरशाह भयभीत होकर ड्यू भाग गया और उसने पुर्तगालियों के यहाँ शरण ली।
हुमायूँ भी खम्भात पहुँच गया तथा उसे लूटकर जलवा दिया। हुमायूँ ने खम्भात में रहकर
पुर्तगालियों के साथ मैत्री स्थापित करने का प्रयत्न किया परन्तु वह सफल नहीं हो
सका। पुर्तगालियों ने बहादुरशाह के साथ गठबन्धन कर लिया और उसकी सहायता करने का
वचन दिया।
हुमायूँ
का गुजरात पर अधिकार:
हुमायूँ
खम्भात से चम्पानेर लौट आया। उसने चम्पानेर दुर्ग पर अधिकार कर लिया जहाँ से उसे
अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई। हुमायूँ ने इस सम्पत्ति को भोग-विलास में व्यय कर
दिया। थोड़े ही दिनों बाद हुमायूँ चम्पानेर से अहमदाबाद की ओर बढ़ा और गुजरात पर
अधिकार कर लिया। हुमायूँ ने अस्करी मिर्जा को गुजरात का शासक नियुक्त किया। गुजरात
की व्यवस्था करने के उपरान्त हुमायूँ ड्यू की ओर बढ़ा परन्तु इसी समय उसे उत्तरी
भारत में विद्रोह होने की सूचना मिली। इसलिये उसने आगरा के लिए प्रस्थान किया।
बहादुरशाह
की मृत्यु:
हुमायूँ
के लौटते ही बहादुरशाह तथा उसके समर्थकों ने मुगलों को गुजरात से खदेड़ना आरम्भ कर
दिया। अस्करी ने चम्पानेर के शासक तार्दी बेग से सहायता मांगी किंतु तार्दीबेग ने
अस्करी की सहायता करने से मना कर दिया। हुमायूँ भी अस्करी की सहायता के लिये सेना
नहीं भेज सका। इसलिये बहादुरशाह ने गुजरात तथा मालवा पर फिर से अधिकार कर लिया
किंतु वह इस विजय का बहुत दिनों तक उपभोग नहीं कर सका। फरवरी 1537
में जब वह ड्यू के पुर्तगाली गवर्नर से मिलने गया,
तब समुद्र में डूब कर मर गया।
जिस
तरह मुग़लों ने गुजरात पर आसानी से अधिकार किया था,
ठीक उसी तरह वह उनके हाथ से
निकल गया। इसके निम्नलिखित कारण थे :
1. किसी भी विदेशी भू-भाग पर राज्य करने के लिए यह आवश्यक है कि वहाँ की जनता यह अनुभव करे कि विदेशी शासन इसके पूर्व के शासन से अधिक अच्छा है। मुग़लों के लिए यह आवश्यक था कि वे गुजरातियों का हृदय जीतने का प्रयत्न करते और एक ऐसे शासन की स्थापना करते जिससे गुजरात के निवासी संतुष्ट तथा प्रसन्न हो जाते लेकिन मांडू तथा चंपानीर के हत्याकांड द्वारा गुजरात को भयभीत कर दिया। मुग़लों ने गुजरात में संगठित और सुव्यवस्थित शासन की स्थापना करने का भी कोई प्रयत्न नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप गुजरात के निवासियों को बहादुर शाह तथा उसके शासन की बराबर याद आती रहती थी।
2.
अस्करी ने अपनी दावतों तथा व्यवहार से नई
परिस्थिति में अपने को अयोग्य साबित कर दिया। मुगल सरदारों में पारस्परिक वैमनस्य
था तथा सद्भावना का नितांत अभाव था। एक साथ मिलकर मुग़ल शक्ति के हित में कार्य
करने में वे असमर्थ थे। हुमायूँ ने गुजरात में नियुक्तियाँ करते समय अस्करी तथा
उसके अन्य अमीरों का संबंध निश्चित नहीं किया था। इसी कारण वे सब एक मत से अस्करी
को समर्थन देने को तैयार नहीं थे।
3. बहादुर शाह बहुत ही जनप्रिय शासक था और गुजरात की जनता उसके लिए कुछ भी करने को तैयार थी। बहादुर शाह के समर्थन का आंदोलन गुजरात का जन आंदोलन था जिसका सामना करना सरल नहीं था।
4. हुमायूँ ने इतनी लापरवाही दिखाई कि उसने चंपानीर के दुर्ग में प्राप्त संपूर्ण कोष भी नहीं हटाया। तरदी बेग जितना कोष ले जा सकता था ले गया। बाकी पुनः बहादुर शाह को प्राप्त हो गया।" बुद्धिमानी तो यह थी कि संपूर्ण कोष आगरा या दिल्ली भेज दिया गया होता।
5. ऐसा प्रतीत होता है कि मुग़लों का गुप्तचर विभाग सजग तथा योग्य नहीं था। इस कारण हुमायूँ को अस्करी तथा गुजरात के भिन्न-भिन्न भागों का पूर्ण ज्ञान न प्राप्त हो सका। अन्त में उसे परिस्थितियों के भीषण होने के पश्चात् उसकी सूचना मिली।
6. हुमायूँ, जो गुजरात के बहुत ही निकट था, शांति से बैठा रहा । वह अपनी सुस्ती तथा अफ़ीम के नशे में इतना व्यस्त था कि उसने इसकी ओर तनिक भी दृष्टिपात नहीं किया । यदि यह मान भी लिया जाए कि उसके पास गुजरात भेजने के लिए अधिक सेना नहीं थी, इस कारण उसने सहायता नहीं भेजी अथवा उससे सैनिक सहायता माँगी ही नहीं गई तो भी यह बताना कठिन है कि इन विद्रोहों के समय उसने वहाँ शांति स्थापित करने के लिए परामर्श क्यों नहीं दिया। उसने इस तरह विरक्ति क्यों अपना ली? स्पष्ट है कि हुमायूँ की लापरवाही मुग़लों के गुजरात पलायन का एक प्रमुख कारण बनी। जो भी हो लेकिन लेनपूल का मानना है कि मालवा और गुजरात पके फल की भांति हुमायूँ के हाथ से गिर पड़े। कोई भी विजय इतनी सरल नहीं थी और कोई भी विजय इतनी लापरवाही से नष्ट नहीं की गई।
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