भारत में बाबर के आगमन से राज्य के स्वरूप एवं राजत्व की अवधारणा में राजत्व का तुर्क मंगोल असर दिखने लगता है। हालाँकि इस काल में भी राजत्व दैवीय एवं निरंकुश रूप में ही दृष्टिगोचर होता है। मुगलों का प्रथम कार्य विजित लोगों में अपने प्रति सम्मान एवं प्रशासनिक भय दोनों ही स्थापित करना था और इस कार्य हेतु शासक की सर्वशक्तिशाली मान्यता आवश्यक थी।
1. राजत्व के दैवीय सिद्धान्त की मान्यता
तैमूर
के वंशज होने के नाते भी मुगल बादशाह राजत्व के दैवीय सिद्धान्त को परम्परानुसार
भी मानने के अधिकारी थे। तैमूर स्वयं अपने संस्मरणों में लिखता है कि जब भी
सार्वभौम ईश्वर किसी व्यक्ति को सम्प्रभुता प्रदान करता है, वह
उसे विशेष प्रतिष्ठा एवं विवेक भी प्रदान करता है,
ताकि इस माध्यम से मानव उसके
आज्ञाकारी बने रहें। यह सद्गुण ईश्वरीय प्रताप की एक किरण है, जो
सम्राट पर आलोकित होती है। यह एक न्यायप्रिय ईश्वर की प्रत्छाया मात्र है।
2. पादशाह की उपाधि धारण करना
काबुल
पर विजय हासिल करने के बाद बाबर ने 1508
ई. में पाद शाह की उपाधि धारण की। वह अपनी आत्मकथा में लिखता है कि उस काल तक उसे मिर्ज़ा
सम्बोधित किया जाता था, किन्तु बाद में उसने यह आदेश दिया कि लोग उसे पादशाह
सम्बोधित करें। पादशाह की उपाधि धारण करने के कई कारण थे, पहला फ़रगना खोने की हीनग्रन्थि
से उबरने का प्रयास। दूसरे, वह समस्त तैमूरवंशियों में भी अपनी प्रमुखता
घोषित करना चाह रहा था। तीसरे, वह अपने समकालीन शासकों से अपनी श्रेष्ठता
साबित करना चाह रहा था।
3. सम्राट के वंशानुगत अधिकार में विश्वास
बाबर, सम्राट
के वंशानुगत अधिकार में विश्वास रखता था। बदख़्शाँ के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में
अबुसईद को लिखे गए पत्र में वह वंशानुगत अधिकारों की चर्चा करता है। 1529 ई. में
अपने पुत्र को सुझाव देने वाले पत्र से दोनों बातें साफ़ हो जाती हैं। प्रथम,
वह हुमायूँ को उत्तराधिकारी
के रूप में देख रहा था, अतः इसी उद्देश्य से परामर्श दे रहा था। द्वितीय,
इस पत्र से बाबर के राजत्व
पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
4. बादशाह के लिए सक्रियता और सलाह के महत्त्व पर
जोर
1529
में उसने अपने पुत्र हुमायूँ को एक पत्र लिखा। इस पत्र में उसके राजत्व-सिद्धान्त
सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश पड़ता है। वह लिखता है कि “बादशाही से बढ़कर कोई बन्धन
नहीं है। बादशाहों के लिए एकांतवास या आलसी जीवन उचित नहीं है।” अर्थात् सम्राट को
क्रियाशील होना चाहिए। वह हुमायूँ को परामर्श देता है कि उसे योग्य, अनुभवी
अमीरों एवं अपने हितैषियों से परामर्श कर राजकार्य करना चाहिए। वह हुमायूँ को
सुझाव देता है कि वह अमीरों को आदेश दे कि वे उसके सम्मुख राज्यकार्य हेतु दो बार
उपस्थित हों।
5. राजपद के गौरव के साथ सामाजिक व्यवहार पर जोर
वंशगौरव
एवं राजपद की सर्वोच्चता स्वीकार करने पर भी सामाजिक
व्यवहार में वह अमीरों के साथ खुलकर मिलता था। उसकी आत्मकथा में ऐसे अनेक
अवसरों का उल्लेख है कि जब वह अमीरों के साथ आनन्द-विनोद में लिप्त होकर शराब के
नशे में बेहोश हो जाता था। इससे शासक के गौरव में कमी आना स्वाभाविक था।
6. तैमूर तथा मंगोल प्रथा के प्रभाव में
साम्राज्य का विभाजन
तैमूर तथा मंगोल प्रथा के प्रभाव से बाबर ने
हुमायूँ को अपने बाद साम्राज्य के विभाजन का निर्देश दिया। उसने हुमायूँ तथा कामरान का अनुपात छः
पाँच निश्चित किया किन्तु उसने अपने दो अन्य पुत्रों अस्करी तथा हिन्दाल के सम्बन्ध
में अपनी आत्मकथा में कुछ भी नहीं लिखा है। कदाचित् कामरान के उग्र स्वभाव के कारण
उसने उसका अनुपात निश्चित करना आवश्यक समझा।
7. सहिष्णुता पर जोर
बाबर
द्वारा हुमायूँ को दी गई सलाह गौर करने लायक है। “हिंदुस्तान की सरज़मीं में हर
मज़हब को मानने वाले लोग रहते हैं। अलहम्दोलिल्लाह इस मुल्क की बादशाहत तुम्हें
सौंपी गई है। अपने दिल से भेदभाव दूर कर के इंसाफ़ करो। ख़ास तौर पर तुम गाय की
क़ुर्बानी ना करो। इससे तुम हिंदुस्तान के लोगों का दिल जीत लोगे और लोग बादशाहत
से जुड़ेंगे। सल्तनत में रहने वालों की इबादतगाहों को गिराओ मत। इतना बराबरी का
इंसाफ़ करो कि लोग अपने बादशाह से ख़ुश हों और बादशाह लोगों से। इस्लाम जुल्म की
तलवार से नहीं, नरमी से आगे बढ़ेगा। शीया-सुन्नी झगड़ों की तरफ़ से आँख
मूँद लो वरना इस्लाम कमज़ोर होगा”।
इस
तरह शासक की सर्वोच्चता, वंश-गौरव,
वंशानुगत उत्तराधिकार, पुत्रों
में साम्राज्य विभाजन, उमरा तथा अपने हितैषियों के परामर्श से शासन
करना उसके राजत्व सम्बन्धी प्रमुख विचार थे। आगे चल
कर शेख अबुल फ़ज़ल ने इसे कुछ इस प्रकार से लिखा है- उनमें दुनिया पर हुकूमत करने के
आठों उसूल मुकम्मल तौर पर मौजूद थे। पहला बुलंद तक़दीर दूसरा ऊँची हिम्मत तीसरा
दुनिया जीतने की ताकत चौथा मुल्क संभालने की काबिलियत पाँचवाँ शहरों को बेहतर करने
की कोशिश छठवां दिल में रियाया की भलाई सातवाँ सिपाहियों को खुश रखने की सलाहियत
और आठवां फ़ौज को तबाही फ़ैलाने से रोकने की ताकत।
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