बुधवार, 19 अक्तूबर 2022

प्रबोधन का फ्रांस की क्रांति में योगदान


18 वीं शताब्दी की प्रमुख विशेषता यूरोप में बौद्धिक क्रांति का होना था। इस युग में यूरोप में अनेक ऐसे विद्वानों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने अपनी लेखनी का प्रयोग करके तृतीय वर्ग की सोई हुई आत्मा को जागृत किया तथा उन्हें अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। इसने फ्रांस की क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

ज्ञान मीमांसीय मोड़ तथा तत्व मीमांसा की उपेक्षा

प्राकृतिक विज्ञान में हो रही प्रगति ने 18वीं सदी आते आते ज्ञान मीमांसा में एक बड़ा मोड़ ला दिया। अब ज्ञान के एक साधन के तौर पर धार्मिक पुस्तकों तथा व्यक्तित्वों का महत्व जाता रहा। उसके स्थान पर ज्ञान अब अनुभवात्मक हो गया। शुरुआत करते हुए रेने डेकार्ट ने जहां संशयवाद पर जोर दिया वहीं बेकन ने चूहे के बक्से की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि मेरे ज्ञान का स्रोत यह है। दरअसल ज्ञान मीमांसा ने धार्मिक अटकलों, आध्यात्मिक चरणों के बाद प्रत्यक्षवादी स्तर को प्राप्त कर लिया। इस बदलाव के बाद लोगों में तत्व मीमांसा के प्रश्नों अर्थात आत्मा, परमात्मा तथा ईश्वर के प्रति उदासीनता उत्पन्न हुई। कहा गया कि अब प्रकृति के रहस्यों से पर्दा हट गया है कोई ईश्वर प्रकृति को नहीं चलाता बल्कि प्रकृति अपने नियमों से स्वयं चलती है। अब चर्चा और बहस के केंद्र में नए विषय शामिल हो गए। जैसे स्वतंत्रता, समानता, प्रगति, सहिष्णुता, तर्क और बंधुता इत्यादि।

प्रबोधन के मुख्य विचारक

इमैनुअल कांट ने प्रबोधन को परिभाषित करते हुए कहा कि प्रबोधन स्व-आरोपित अपरिपक्वता से मुक्ति का नाम है, यह जानने का साहस है। मनुष्य आलस्य और कायरता के कारण हमेशा अपरिपक्कव बना रहता है। उसने परंपरागत संस्थाओं और व्यवस्थाओं पर निर्भरता की मुखालफत की। रूसो ने अपने "सामाजिक समझौते" के सिद्धांत के द्वारा राज्य और समाज की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत को नकार दिया तथा इसे एक समझौता कहा जिसे तोड़ा भी जा सकता था। नेपोलियन अक्सर कहा करता था कि यदि रूसो न होता तो क्रांति भी नहीं होती। मोंटेसक्यू ने अपनी पुस्तक "कानून की आत्मा" सत्ता के विभाजन का सिद्धांत दिया। वाल्टेयर जिसे फ्रांसीसी क्रांति का सच्चा प्रतिबिंब कहा जाता है उसने कहा कि मैं जानता हूं कि तुम्हारी बात गलत है फिर भी मैं तुम्हारे इस कहने के अधिकार के लिए अपनी जान तक दे दूंगा।

प्रबोधन का सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पक्ष

चूंकि प्राकृतिक विज्ञान ने रहस्य से पर्दा हटा दिया है कि प्रकृति किसी ईश्वर से नहीं चलती बल्कि वह स्वयं अपने नियमों से चलती है तो समाज और राजनीति में भी किसी दैवी व्यक्ति या किसी दैवी सिद्धांत की आवश्यकता नहीं रह गई है। अतः समाज में न किसी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की आवश्यकता है न चर्च की और न ही शासन के लिए किसी दैवी राजा की। एडम स्मिथ के तर्क के बाद अर्थव्यवस्था में भी राज्य के हस्तक्षेप को दरकिनार कर शाश्वत प्राकृतिक नियमों की भांति बाजार के शाश्वत नियमों अर्थात मांग पूर्ति के अदृश्य नियम को मान्यता प्रदान की गई।

प्रबोधन : फ्रांसीसी क्रान्ति का आधार

इस प्रकार यूरोप जो तमाम कारणों से एक सामाजिक आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहा था और इन परिवर्तनों के कारण शक्ति के दो केंद्र उभर आए। पहला निरंकुश राजतंत्र और दूसरा महत्वाकांक्षी मध्य वर्ग। प्रबोधन के तर्कों के कारण मध्य वर्ग में शक्ति और आत्म विश्वास आ चुका था। उसने राजतंत्र पर इस बात के लिए दबाव डाला की वह मध्य वर्ग को भी शक्ति में भागीदारी दे। राजतंत्र मध्यवर्ग की बढ़ती महत्वाकांक्षा से चिंतित हो गया और उसने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कुलीन वर्ग और चर्च के साथ एक बार फिर निकटता स्थापित करने का प्रयास किया अतः मध्यवर्ग के द्वारा राजतंत्र, कुलीन वर्ग और चर्च तीनों पर हमला बोला गया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

History of Urdu Literature

  ·        Controversy regarding origin Scholars have opposing views regarding the origin of Urdu language. Dr. Mahmood Sherani does not a...