शेर खाँ हुमायूँ का सबसे प्रबल शत्रु सिद्ध हुआ। वह अफगानों का नेता था। उसने उत्तर भारत में हुमायूँ की अनुपस्थिति का लाभ उठा कर दक्षिण बिहार पर अधिकार स्थापित करके चुनार का दुर्ग भी जीत लिया। यह दुर्ग आगरा से पूर्व की ओर जाने वाले स्थल तथा नदी के मार्ग में पड़ता था। इस कारण उसे पूर्वी भारत का फाटक कहा जाता था तथा सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण था।
शेर खां के प्रति आरंभिक चिंता : हिन्दू बेग की रिपोर्ट
तथा आमोद प्रमोद
हुमायूँ
ने हिन्दू बेग को जौनपुर में नियुक्त करने के बाद उसे अतिरिक्त दायित्व यह दिया कि
वह शेर खां पर नज़र रखे। हिन्दू बेग ने जो रिपोर्ट प्रस्तुत की उसके अनुसार शेर खां
निष्ठावान था, वह हज़रत बादशाह का नाम ख़ुत्बे में पढता था, उसके साम्राज्य विस्तार
का क्षेत्र पूर्व में था, उसने खुद का सिक्का नहीं चलाया था। इस रिपोर्ट के अनुसार
हुमायूँ भ्रम में पड़ गया तथा आमोद प्रमोद में लग गया। जिसका लाभ उठा कर शेर खां
बंगाल में अपनी स्थिति मजबूत करता रहा।
हुमायूँ का बंगाल अभियान : शेर खां का प्रतिवाद
बाद
में हुमायूँ को जैसे ही शेर खां की गतिविधियों की सूचना मिली उसने राजधानी का
प्रबंध करके पूरे लाव लश्कर के साथ 27 जुलाई 1537 को बंगाल की तरफ रवाना हो गया।
यह खबर मिलते ही शेर खां ने हुमायूँ को कहलवा भेजा कि वह अभी भी हुमायूँ का सेवक
है तथा उसने मुगल क्षेत्र पर हमला नहीं किया है, अतः उसे यह करने की जरूरत नहीं है।
हुमायूँ द्वारा चुनार का घेरा : शेर खां का गौड़ और रोहतास
पर कब्ज़ा
नवम्बर
1537 में जब हुमायूँ चुनार का घेरा डाले
था उसी समय शेर खां भी गौड़ का घेरा डाले हुए था। दरअसल यहाँ हुमायूँ के खेमे में
दो पक्ष थे पहले पक्ष का मानना था कि शेरशाह गौड़ पर कब्ज़ा करे उससे पहले हमें गौड़
पर हमला करके उसे हासिल कर लेना चाहिए क्योंकि वहां पर बंगाल का कोष है। दूसरे
पक्ष का मानना था कि पहले चुनार को जीत लिया जाए इसे पीछे छोड़ना ठीक नहीं है।
हुमायूँ ने खान खाना युसूफ खेल से राय पूछी, जवाब मिला कि नौजवानों कि राय है कि
चुनार जीता जाए जबकि वृद्धों की राय है कि गौड़ की तरफ प्रस्थान किया जाए। हुमायूँ
ने कहा कि मैं नौजवान हूँ। लेकिन अगले छः महीने तक हुमायूँ चुनार जीत नहीं पाया और
उधर शेरखां ने गौड़ पर कब्ज़ा कर लिया। हुमायूँ जब तक चुनार को जीता तबतक शेर खां ने
धोखे से रोहतास का किला भी प्राप्त कर लिया।
हुमायूँ की बनारस विजय, संधि प्रस्ताव का असफल होना तथा
बंगाल में प्रवेश, फंसना और
वापसी
चुनार
के बाद हुमायूँ ने बनारस पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद हुमायूँ और शेर खां के बीच
में संधि वार्ता चली जो शीघ्र ही टूट भी गई। मई 1538 ई. में वह तेलियागढ़ी पहुँचा।
यहाँ उसे पता लगा कि शेरखाँ के पुत्र जलालखाँ ने गौड़ जाने वाली सड़क बन्द कर दी है।
वहाँ उसे युद्ध करना पड़ा और जलाल खाँ वापिस चला गया। अगस्त, 1538
ई. में हुमायूँ गौड़ पहुँचा। यहाँ फिर हुमायूँ ने रंगरेलियाँ मनाने में लगभग 8
महीने नष्ट कर दिए। इस समय में उसने युद्ध की पूर्णतया उपेक्षा कर दी और इसी अवकाश
में शेरखाँ ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर लिया तथा दिल्ली और बंगाल के मध्य यातायात
के साधनों को नष्ट कर दिया। उसने कारा,
कन्नौज और सम्भल को भी अपने
अधीन कर लिया और जनवरी, 1539 ई. तक कोसी और गंगा के मध्य का समस्त
प्रदेश शेरखाँ के हाथों में आ गया। हिन्दाल बिहार छोड़ कर आगरा चला गया। जब हुमायूँ
ने अपने को ऐसी भयंकर स्थिति में पाया तो उसने तुरन्त आगरा लौटने का निश्चय किया।
और मार्च 1539 ई. में पुनरागमन की यात्रा प्रारम्भ की।
चौसा का युद्ध सन् 1539 ई.
शेरखाँ
ने आगरा जाने वाली सड़क को रोक दिया क्योंकि शेरखाँ पर एक निश्चित विजय ही हुमायूँ
को आगरा पहुँचाने में सहायता दे सकती थी। हुमायूँ और शेरखाँ की सेनाएँ तीन महीने
तक अप्रैल 1539 ई. से जून 1539 ई. तक एक दूसरे के सम्मुख डटी रहीं, किन्तु
किसी ने भी युद्ध प्रारम्भ नहीं किया। यह विलम्ब शेरखाँ के हित में है, इस
विषय पर हुमायूँ ने विचार नहीं किया। फलस्वरूप तीन महीने पश्चात् वर्षा प्रारम्भ
हो गई, मुगल शिविर में जल भर गया,
इससे हुमायूँ की सेनाओं में
गड़बड़ी फैल गई। शेरखाँ को अच्छा अवसर हाथ लगा और 26 जून, सन्
1539 ई. को चौसा का युद्ध हुआ। हुमायूँ पराजित हुआ और एक भिश्ती की सहायता
से उसने अपना जीवन कठिनता से बचाया। उसे अपनी पत्नियाँ भी खोनी पड़ीं।
कन्नौज का युद्ध सन् 1540 ई.
चौसा
की पराजय के पश्चात् हुमायूँ आगरा पहुँचा यहाँ उसने अपने सभी भाइयों को मंत्रणा के
लिये बुलाया। कामरान ने 20,000 सैनिकों के साथ शेरखाँ के विरुद्ध युद्ध करने का
प्रस्ताव किया किन्तु हुमायूँ ने इसको अस्वीकार कर दिया क्योंकि उसे अपने भाई पर
विश्वास नहीं था। उसने यह प्रस्ताव रखा कि यदि कामरान उसे अपनी सेना की सहायता दे
तो वह सहायता स्वीकार कर लेगा। दोनों भाइयों का परस्पर मतभेद मिट न सका और कामरान
अपनी सेना सहित लाहौर वापिस चला गया। किसी प्रकार से हुमायूँ एक सेना बनाने में
सफल हुआ। मुगल सैनिकों की युद्ध करने वाली इस सेना की संख्या लगभग 40,000 थी। मई
1540 ई. में कन्नौज का युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुगल तोपखाना युद्ध में न लाये
जाने के कारण व्यर्थ सिद्ध हुआ। कन्नौज में भी हुमायूँ ने पूरे एक महीने तक आक्रमण
प्रारम्भ नहीं किया। कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ पुनः पराजित हुआ। हुमायूँ एक
भगोड़ा बन गया और शेरखाँ आगरा और दिल्ली का स्वामी बन गया।
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