मुगलकाल में भू-राजस्व व्यवस्था के क्षेत्र में अधिक सुधार हुए। इसके पीछे दो प्रमुख कारण थे प्रथम, सल्तनत कालीन सुधारों से, कमियों के बारे में भली-भाँति जानकारी प्राप्त हो गई थी। अब उनके निवारण के लिए उपाय सोचना सरल था । द्वितीय, अफगान शासक शेरशाह ने इस संदर्भ में नया प्रयास कर पथ प्रदर्शन कर दिया था। बाबर और हुमायूँ के शासनकाल में भू-राजस्व व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुए थे। तमाम प्रयोगों के बाद अकबर के समय 1570 ई0 में मुजफ्फर खाँ पुनः वित्तमन्त्री बने। उसने प्रत्येक वर्ष भूमि की पैमाइश पैदावार का आंकलन तथा कीमतों की स्थानीय बाजार में स्थिति की जानकारी की व्यवस्था आरम्भ कर दी। इन पर बनी व्यवस्था 'जाब्ती हरसाला' थी। 1580 ई० आईन-ए-दहसाला का निर्माण हुआ। आइन ए दहसाला अर्थात् दस साल का भू-राजस्व बंदोबस्त अथवा ज़ब्ती प्रणाली, जोकि इसके अधिष्ठाता टोडरमल के नाम से प्रसिद्ध हुई, सन् 1582 में प्रचलन में आई। इसे रैयतवाड़ी प्रथा के नाम से भी जाना गया क्योंकि यह प्रत्यक्षतः कृषकों से संबधित थी। आरंभिक तौर पर इस प्रणाली को साम्राज्य के आठ प्रान्तों में शुरू किया गया इलाहबाद, आगरा, अवध, अजमेर, मालवा, दिल्ली, लाहौर व मुल्तान।
राजा
टोडरमल के भू राजस्व प्रणाली में एक व्यापक प्रक्रिया विद्यमान थी जिसमें राज्य के
साथ-साथ किसानों की भी पूर्ण सन्तुष्टि के लिए कृषि समस्या के स्थायी बन्दोबस्त के
लिए पाँच चरण थे-
भूमि का मापन : प्रथम चरण
राष्ट्रीय
नीति के रूप में इस प्रणाली के अंतर्गत पूरे देश के लिए भूमि के मापन संबंधी एक ही
पद्धति अंगीकार की गई। इस उद्देश्य के लिए गाँव को एक मानक प्रशासनिक इकाई के रूप
में अपनाया गया। आरंभ में किसी गाँव की ठीक भू-क्षेत्रीय सीमा का तथा इसके आयामों
के अन्तर्गत आने वाली विभिन्न प्रकार की भूमि का निर्धारण किया गया। प्रत्येक
किसान स्वामी के पास कृषि योग्य भूमि के सही क्षेत्रफल का निर्धारण किया गया। मापन
के उद्देश्य के लिए सुल्तान सिकंदर लोदी के नाम से जाना जाने वाला गज या यार्ड, जो
41 अंको (अंगुल) या 33 इंच की लम्बाई का होता था, राष्ट्रीय
स्तर पर प्रयोग में लाया जाने लगा और 32 अंको वाला शेर शाह के समय का गज प्रचलन से
हटा दिया गया। इससे पहले रस्सी के बने 'जरीब'
को भूमि की मापन के लिए
प्रयुक्त किया जाता था, लेकिन यह तापमान में आने वाले अंतर व इसे
खींचने में कम-ज्यादा बल प्रयोग के कारण सही नाप नहीं दे पाता था। इसका चलन भी
समाप्त कर दिया गया और इसके स्थान पर बांस का एक नया 'जरीब', जिसकी
पतली पट्टियां लोहे के छल्लों से कसकर बंधी होती थी,
प्रयोग में लाया गया।
क्षेत्र की मानक इकाई 'बीघा'
मानी गई, एक
बीघे में 60 गज या 3600 वर्ग गज होते थे।
भूमि का वर्गीकरण : द्वितीय चरण
भूमि
के मापन के बाद दूसरा चरण वर्गीकरण का आता है जो भूमि की गुणवत्ता तथा उसकी
निरन्तरता पर आधारित होता था। फसल की निरंतरता के आधार पर भूमि को चार श्रेणियों में वर्गीकरण किया गया था— पोलज, परती, चाचर
व बंजर। पोलज वह भूमि होती थी जिसमें एक साल में दो फसले उगाई जाती थी। परती वह
होती थी जो दो फसलों के बाद अधिकार लगभग एक वर्ष के लिए खाली छोड़ दी जाती थी
जिससे कि वह फिर से उपजाऊ हो सके। चाचर वह भूमि होती है जो अनुपजाऊ होती थी या
मुश्किल से तीन चार वर्षो में उसमें एक फसल की जा सकती थी, बंजर
भूमि वह भूमि होती थी जो पूर्णतया अनुपजाऊ होती थी और उस पर खेती करना बिल्कुल
मुश्किल होता था। उपरोक्त तीनों श्रेणियों को भी उनकी उर्वरकता के आधार पर पुनः
तीन श्रेणियों-अच्छी, औसत दर्जे व खराब में बाँटा जाता था ताकि भू
राजस्व भुगतान करते समय किसानों के साथ किसी प्रकार का अन्याय न हो सकें।
भू राजस्व का आकलन : तृतीय चरण
भू-राजस्व
की वसूली तहसील या परगना स्तर पर होती थी और भूमि की सभी श्रेणियों के लिए फसल
उत्पादन का आकलन बीघा के आधार पर किया जाता था। इस प्रकार प्रत्येक मुख्य फसल का
प्रति बीघा उत्पाद दस वर्ष के औसत उत्पाद के आधार पर परगना स्तर पर निकाला जाता
था। शुरूआत के लिए सन् 1570-71 से 1580-81 तक की उपलब्ध सूचना के आधार पर विस्तृत
अनुसूचियां तैयार की गई थीं। अबुल फजल ने लिखा है कि इन सूचियों को तैयार करने में
वास्तविक तथ्य आंकड़े 1575-76 से 1580-81 तक की अवधि से ग्रहीत किए गए हैं, जबकि
1570-71 से 1574-75 तक की सूचनाएं जांच पड़ताल से जुड़े
निष्ठावान अधिकारियों के आधार पर संकलित की गई थीं। अच्छी फसलों को प्रत्येक वर्ष
आकलित किया जाता था और प्रचूर मात्रा में हुई फसल वाले वर्ष को स्वीकार लिया जाता
था। विभिन्न श्रेणी की भूमि पर उत्पादित होने वाली प्रति बीघा औसत फसल का एक तिहाई
उत्पाद राज्य माँग के रूप में नियत कर दिया जाता था। यह भू-राजस्व कृषक बिना किसी
परिवर्तन के दस साल तक अदा करता रहता था । इस बीच सरकारी तन्त्र प्रत्येक श्रेणी
की जोत भूमि में होने वाली प्रत्येक फसल के सही उत्पादन का परगना या तहसील स्तर पर
वर्ष दर वर्ष हिसाब लगाती रहती थी,
जिससे अगले दस वर्ष समाप्त
होने के बाद उत्पादों व सरकारी मांगों की एक परिशोधित सूची प्रस्तुत की जा सके।
राजस्व मांग का नगदीकरण तथा लघुकरण : चतुर्थ चरण
प्रस्तुत
भू-राजस्व का आकलन करने के बाद इसे क्षेत्रीय स्तर पर विभिन्न खाद्य फसलों की कीमत
सूचियों की सहायता से नकदी में बदल दिया जाता था। इस कार्य के लिए समूचे साम्राज्य
को कई क्षेत्रोंमें बाँट दिया गया था ‘दस्तूर'
के नाम से सुपरिचित इन
क्षेत्रों का बंटवारा अपरिवर्तनीय जलवायु,
सामाजिक तथ्यों तथा कृषकों
को ध्यान में रखकर इस कुछ इस प्रकार किया जाता था कि दशकों तक खाद्य फसलों की
कीमतों में उचित सीमा से अधिक उतार चढ़ाव न आए। प्रत्येक 'दस्तूर
में प्रत्येक खाद्य फसल के लिए प्रति ‘मन'
औसत कीमत उसके पहले के दस
वर्षों की कीमत, जैसे 1570-71 से 1580-81 को ध्यान में रखते हुए निकाली जाती थी।
उत्पादों व कीमतों की सूची तैयार करने में भी यही पद्धति अपनाई जाती थी अन्तर इतना
अवश्य था कि उत्पादों, की सूची परगना स्तर पर तथा कीमतों की सूची
दस्तूर स्तर पर तैयार की जाती थी। आमतौर पर एक दस्तूर में कई तहसीलें होती थी.
लेकिन कुछ मामले ऐसे भी थे जहाँ एक तहसील में एक या एक से अधिक दस्तूर होते थे
लेकिन ऐसा तभी होता था जब असामान्य भौगोलिक तथ्यों या अन्य तथ्यों के कारण खाद्य
फसलों की कीमतें बेतहाशा रूप से बढ़ जाती थी।
भू-राजस्व का संग्रहण : पंचम चरण
अकबर
ने भू-राजस्व संग्रहण की सराहनीय व्यवस्था की थी। उसने राजस्व संग्रहण की दृष्टि
से प्रांत को सरकारों या जिलों में तथा जिलों को तहसीलों या परगनाओं में बांट रखा
था। जैसाकि हम जानते हैं जिला स्तर पर राजस्व स्थापना संबंधी प्रभावी
अधिकारी अमलगुजार होता था जबकि तहसील स्तर पर इस कार्य से संबंधित अधिकारी को आमिल
कहा जाता था। इस राजस्व संबंधी स्थापना में असंख्य पटवारी, कानूनगो, राजस्व
समाहर्ता, कोषपाल, लिपिक (क्लर्क) आदि शामिल होते थे। शासन की
तरफ से तहसील स्तर पर 'दस्तूर-उल-अमल'
अथवा सामान्य आचरण संहिता दी
जाती थी, जिसमें भू राजस्व को भुगतान पद्धति की व्याख्या की गई थी ।
प्रत्येक किसान को एक पट्टा या रूक्का दिया जाता था और उसे एक कबूलियत या करारनामा
पर हस्ताक्षर करने होते थे; इसी करारनामे के अनुसार वह अपनी राजस्व अदायगी
करता था। पट्टा बहुत ही महत्वूपर्ण वैधानिक प्रलेख माना जाता था जिसमें किसान की
भूमि के मालिकाना संबंधी छोटी से छोटी बातों का विवरण भी दिया रहता था और इसे
पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित भी किया जा सकता था। भू-राजस्व वर्ष में दो बार वस्तु
के रूप में या नगद देय था अर्थात क्रमशः रबी और खरीफ की फसल कटने के पश्चात्। सूखे
अथवा अकाल के समय भू राजस्व को माफ किया जाता था तथा इसके अतिरिक्त किसानों को
पर्याप्त राहत भी दी जाती थी। कठिनाईयों से मुकाबला करने के लिए 'तकावी' ऋण
भी दिए जाते थे।
आईन-ए-दहसाला
अकबर के काल में साम्राज्य के केन्द्रीय भाग में लागू किया गया था। सब जगह उसे
नहीं लागू किया जा सका। सिन्ध, काबूल,
कंधार और कश्मीर में बंटाई
प्रथा चलती रही। बंगाल, गुजरात और काठियावाड़ में नस्क ( कनकूट )
प्रथा चलती रही। जहाँगीर ने बंगाल और गुजरात में भी दहसाला प्रबंध को लागू करने का
प्रयास किया। शाहजहाँ के समय दक्षिण में औरंगजेब की दूसरी सूबेदारी के समय मुर्शीद
कुली खाँ के द्वारा भू-राजस्व के संबंध में काफी सुधार किए गए। जहाँगीर के समय से
ही प्रशासनिक शिथिलता के कारण कमियाँ दिखाई पड़ने लगी थीं। शाहजहाँ के समय से
इजारादारी प्रथा जोर पकड़ने लगी। शाहजहाँ के समय 70 प्रतिशत भूमि जागीरों में
आवंटित थी। औरंगजेब के समय तक आते-आते मुगल भू-राजस्व प्रणाली अत्यन्त त्रुटि
पूर्ण हो गई। राज्य का यह एकमात्र प्रमुख आय का स्रोत सूखने की कगार पर पहुंच गया।
राज्य दिवालियापन की स्थिति में पहुंच गया। सैनिकों को वेतन चुकाना मुश्किल हो
गया। जागीरों की कमी हो गई। जागीरों पर एक से अधिक प्रतिद्वन्द्वी कब्जे के लिए संघर्ष
करने लगे। पूरी भू-राजस्व प्रणाली अस्तव्यस्त हो गई। मुगल साम्राज्य के पतन में
इसका भी योगदान था। जागीरदारों ने कृषकों का भरपूर शोषण किया। कृषि के विस्तार
के लिए सुविधाएं बढ़ाने की कोशिश करने वाला अब कोई नहीं था।
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