शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

औरंगज़ेब का राजत्व सिद्धांत

औरंगजेब ने अपने आप को एक आदर्श मुस्लिम शासक प्रमाणित करने का प्रयास किया। लेकिन सत्रहवीं सदी में न तो पूर्णतया इस्लामी राजत्व-सिद्धांत की स्थापना संभव थी, न औरंगजेब ने की। उसका राजत्व उसके पत्रों में तथा उसकी व्यावहारिक नीतियों में प्रतिबिंबित होता है।

1.   राजत्व :  ईश्वरीय देन

वह भी राजत्व के दैवी सिद्धान्त को मानता था। लेकिन उसने शाहजहाँ को लिखी अपनी बात ट्रस्टीशिप  पर  कितना विश्वास किया, सह संदिग्ध है। क्योंकि अकबर द्वितीय के विद्रोह, तथा चार मौलवियों के फतवों को वह दर किनार करके राजत्व को ईश्वरीय देन माना सत्ता मुगल बादशाहों के ही निश्चित प्रयासों से कितनी सुदृढ़ हो गयी थी। औरंगज़ेब की सफलता भी यही प्रमाणित करती है कि मंसबदार या उमरा का इतना साहस नहीं था कि वह बादशाह  को विस्थापित करके स्वयं सिंहासन पर बैठ जाये। औरंगज़ेब के पश्चात् जब मुगल राजत्व पतनोन्मुख थी और उमरा शक्तिशाली हो गये थे, राजत्त्व मुगलवंश के ही किसी व्यक्ति के चारों तरफ घूमता रहा। औरंगज़ेब अपनी शक्ति के प्रति ईष्यालु था एवं किसी के साथ इसे बाँटने के लिए कदापि तैयार नहीं था। उसने सभी के साथ एक निश्चित दूरी बनायी, क्योंकि, वह भी बलबन की भाँति जानता था कि 'राजत्व बन्धुत्व नहीं मानता'उसने तो इस सिद्धान्त को शत् प्रतिशत् प्रमाणित करके ही सत्ता हथियायी थी। उसने कभी किसी पर भी विश्वास नहीं किया और अन्ततः अपने पुत्रों तक को अविश्वसनीय माना और उसका दुष्परिणाम भी भोगा।

2.  राजा : एक ईश्वरीय उपकरण

औरंगज़ेब हालाँकि अपने आपको पैगम्बर साहब का सेवक कहता रहा, किन्तु वह अपने आपको ईश्वरीय उपकरण  ही मानता रहा, जिसे ईश्वर ने ही बादशाह के रूप में चयनित किया था। चूँकि, मुगल बादशाह एक दैवी संस्था के रूप में मान्य थी, अतः बादशाह के प्रति आज्ञाकारिता एक राजनीतिक एवं धार्मिक अनुष्ठान ही मानी जाने लगी थी। अतः औरंगज़ेब सहित समस्त मुगल बादशाह अपने आपको ईश्वर का चयनित प्रतिनिधि ही मानते रहे, जिसमें परामानव गुण विद्यमान थे एवं जो दैवी कृपा से नेतृत्त्व प्राप्त करने में सफल रहे थे। उनकी यह दृढ़ मान्यता थी, कि, अपनी प्रजा की सुनिश्चित एवं पूर्ण निष्ठा उन्हें ईश्वरीय देन है, न कि उलमा, अथवा उमरा की देन अथवा किसी चुनाव का आधार इसके लिए उत्तरदायी नहीं है।

3.  शासक : राज्य का ट्रस्टी

उत्तराधिकार के युद्ध के बाद जब शाहजहाँ ने राजकोष पर औरंगज़ेब के नियंत्रण को अवैध घोषित किया तो वह मुगल राजत्व के सिद्धान्त को ही रेखांकित करके उसे 'राजद्रोही' घोषित कर रहा था। किन्तु, औरंगज़ेब ने अपने उत्तर में अपने राजत् सिद्धान्त सुपरिभाषित करते हुए लिखा कि राज्य की सम्पत्ति एवं कोष समुदाय के लाभ के लिए ही होते हैं। वह अपने आपको समुदाय का 'ट्रस्टी' या संरक्षक के रूप में कोष पर नियंत्रण करने का अधिकारी घोषित कर रहा था। वह अपने पिता को लिखता है कि दूसरे की सम्पत्ति पर अधिकार करना मुस्लिम मान्यता के विरुद्ध आचरण है। राजसी सम्पत्ति एवं कोष लोगों की भलाई के लिए ही होते हैं राज्य कोई आनुवंशिक व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होती है। उसका कहना था कि जैसे परमपिता समस्त मानव जगत का संरक्षक है, वैसे ही शासक भी उसके प्रतिनिधि के रूप में मात्र संरक्षक (ट्रस्टी) के रूप में 'प्रजा पालक' ही है।

4.  राजकीय नीति : जवाबित पर जोर

शरीअत के आधार पर राज्य का संचालन कर औरंगजेब अपने को एक आदर्श मुस्लिम शासक प्रमाणित करना चाहता था, किन्तु राजत्व की शक्ति एवं अक्षुण्णता से उसने समझौता नहीं किया। उसने ख़लीफ़ा या किसी अन्य शासक की अधीनता स्वीकार नहीं की। राजनीतिक कारणों से उसने मुसलमानों शासकों को भी दण्डित किया। अपनी राजनीतिक शक्ति के प्रसारण हेतु उसने दक्षिण के मुसलमानों से उसी तरह युद्ध किया जिस तरह मराठों से। इन युद्धों में हिन्दू तथा मुसलमान सैनिकों ने मिलकर युद्ध किया।  औरंगज़ेब के धार्मिक विश्वासों पर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है किन्तु, यह भी सत्य है कि, औरंगज़ेब ने जितना महत्त्व शरियत या मुस्लिम विधि को दिया, उतना ही ज़वाबित को भी दिया उसने उलमा को नियंत्रित रखा एवं राजत्व की शक्ति एवं अक्षुणता से कभी कोई समझौता नहीं किया। वह भी शेष मुगल बादशाहों की भाँति निष्पक्ष न्याय का आग्रही था

5.  महापहेली : विनष्ट अवसर : जिन्दा पीर : मामूली कलर्क

औरंगजेब का चरित्र एक महा पहेली है। उसे जिंदा पीर कहा गया क्योंकि वह इतना बड़ा नमाज़ी था कि बीच युद्ध में भी नमाज़ पढ़ना नहीं भूला। उसने अपने व्यक्तिगत खर्चे के लिए पैसे टोपी सिलकर और कुरआन की नक़ल करके खुद कमाए, मृत्यु से पूर्व इसके पास टोपी सिलने के चार रुपये दो आने थे जबकि कुरआन की प्रतिलिपि से प्राप्त तीन सौ पांच रूपये थे। औरंगजेब की जीवन शैली किसी संत के लिए तो ठीक हो सकती है लेकिन उसके लिए नहीं जिसे राजनीतिक फैसले लेने होते हों। औरंगजेब को अनथक रूप से एक कठोर प्रशासक कहा गया है, जो न अपने साथ मुरौवत करता था न अपने नजदीकियों के साथ। लेकिन औरंगजेब का यह अध्यव्यवासीपन यूरोप के फिलिप द्वितीय के मानस को प्रतिबिंबित करता है जो निश्चित तौर पर बहुत मेहनती था लेकिन पुराने तालों को ठीक करने में। औरंगजेब ने न सिर्फ समय नष्ट किया बल्कि साम्राज्य की सुख और शांति भी नष्ट किया। वह व्यावहारिक रूप से राजपूत नीति, दक्षिण नीति तथा धार्मिक नीति में अच्छा निर्णय नहीं ले सका।

जो भी हो इस महान बादशाह के अन्तिम दिनों में उसका राज्य पतनशील हो गया था एवं उसके उत्तराधिकारी, जो उसके जैसे योग्य नहीं थे इस पतनशील प्रवृत्ति को नियंत्रित करने में पूर्णतया असफल रहे।

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