बुधवार, 30 नवंबर 2022

मध्यकालीन भारत में व्यापार

मध्यकालीन भारत में व्यापार में वृद्धि के कारण

1.    दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद आर्थिक गतिविधियों का उत्तेजित होना, आर्थिक संस्थाओं  की स्थापना, कारोबारी कामकाज में वृद्धि

2.    गैरकृषि जनसंख्या में वृद्धि

3.    कृषि अधिशेष

4.    नगद कर

5.    राजगामिता कानून

6.    दरिद्र और निर्भर समूहों की उपस्थिति, पश्चिम से संपर्क 

             मध्यकालीन भारत में आंतरिक व्यापार

व्यापार मार्ग

सड़क मार्ग से व्यापार बैलगाड़ी, ऊंट तथा खच्चर के काफिलों के माध्यम से होता था। नदी के रास्ते व्यापार सस्ता पड़ता था। समुद्री तटों के क्षेत्र में व्यापार बंदरगाहों के माध्यम से होता था। दिल्ली, आगरा, लाहौर तथा मुल्तान सड़क मार्ग पर थे। मार्गों में मार्ग सूचक अटारिया होती थीं। शेरशाह सूरी ने चार प्रमुख सड़कों की मरम्मत करवाई। इसमें बंगाल के सेनार गांव से सिंध तक जाने वाली पंद्रह सौ कोस लंबी सड़क भी थी, जिसे सड़क ए आज़म कहा जाता था। सड़कों के किनारे हर चार मील पर सराय बनवाई गई। इस समय लगभग 700 सरायों का जिक्र मिलता है। जिसकी देखभाल के लिए एक शिकदार होता था। कानूनगो ने इन्हें साम्राज्य रूपी शरीर की धमनियां कहा है। विजयनगर साम्राज्य के कृष्णदेव राय की पुस्तक अमुक्तमाल्यद शासकों के लिए एक व्यापार नीति पर जोर देती है।

प्रमुख सामानों का व्यापार

बंगाल से कोरोमण्डल, गुजरात -  चावल, चीनी, गेहूं

बंगाल, पटना से आगरा - कच्ची सिल्क, चीनी

आगरा से देश के विभिन्न क्षेत्रों में - नील, गेहूं

लाहौर से देश के विभिन्न क्षेत्रों में -  दरी

गुजरात से आगरा -  कपड़ा, नील, शोरा

केरल से देश भर में काली मिर्च

मालवा, अजमेर से गुजरात - गेंहू

पुलिकट से गुजरात, मालाबार - छपा कपड़ा

बीदर से देश भर में - कपड़ा

सिंध से देश भर में - गेंहू, जौ, सूती कपड़े

कश्मीर  से आगरा तथा अन्य जगह - शाल, ऊन, शोरा

मालाबार से विजयनगर तथा देश के अन्य भागों में - नारियल, इलायची, मोम, लोहा, खजूर, चीनी, कीमती पत्थर, काली मिर्च

     मध्यकालीन भारत में विदेश व्यापार

मध्यकालीन भारत विश्व के लिए एक निर्माण कार्यशाला का हैसियत रखता था। इस हैसियत का कारण था - उत्पादनशील कृषि, सिंचाई और कृषि सुधार, कार्यकुशल शिल्पी, उत्पादन की मजबूत परंपरा तथा व्यापारियों और बैंकरों का एक विशेषज्ञता प्राप्त वर्ग। पश्चिम के संपर्क के कारण एशिया ने एक व्यापारिक क्रांति का अनुभव किया।

स्थल - व्यापार

स्थल व्यापार उत्तर-पश्चिम की तरफ होता था। मुल्तान, क्वेटा, खैबर दर्रा प्रमुख मार्ग थे। इन मार्गो से अफगानिस्तान, फारस तथा मध्य एशिया से व्यापार होता था। यहां से आयात होने वाली सामग्रियों में फल, मेवा. अंबर, हींग तथा रूबी प्रमुख थे। निर्यात होने वाली सामग्रियों में वस्त्र, कंबल, चीनी, नील, औषधियां तथा जड़ी बूटियां प्रमुख थी। मंगोल आक्रमण के कारण इस व्यापार में बाधा पड़ी।

समुंद्री व्यापार

पश्चिमी तट

पश्चिमी तट पर स्थित गुजरात के प्रमुख बंदरगाह भड़ौच, काम्बे तथा खंभात थे। पश्चिम में यह फारस की खाड़ी में स्थित बसरा और हरमुज से और लाल सागर में स्थित अदन से जुड़े थे। पूर्व में यह मलक्का, इंडोनेशिया में बेथेम और अचिन से जुड़े थे। युरोपीय यात्री टॉम पायस का कहना था कि खंभात अपने दोनों हाथ फैलाता है वह अपने दाहिने हाथ से अदन पहुंचता है तथा बाएं हाथ से मलक्का पहुंचता है। पश्चिमी तट के अन्य बंदरगाह कालीकट, गोआ, होनावर, लहरी बंदर तथा सूरत थे।

पूर्वी तट

पूर्वी तट के प्रमुख बंदरगाहों में चटगांव, सतगांव, सोनारगांव, ढाका, मसूलीपट्टनम इत्यादि प्रमुख बंदरगाह थे। इन बंदरगाहों से पश्चिम में अदन होते हुए दमिश्क, सिकंदरिया, अफ्रीका फिर यूरोप से व्यापार होता था तथा पूरब में चीन, इंडोनेशिया तथा मलाया से व्यापार होता था।

निर्यात

सल्तनत काल में अनाज और सूती वस्त्र प्रमुख निर्यात सामग्री थी। दरअसल फारस की खाड़ी के कुछ क्षेत्र अपनी खाद्य आवश्यकताओं के लिए। पूर्णतया भारत पर निर्भर थे। मनूची तथा बारथेमा का विवरण बताता है कि भारतीय वस्त्रों की मांग पूरे विश्व में थी तथा इसके निर्यात से भारतीयों को मुनाफा होता था। पश्चिम से संपर्क के बाद भारतीय वस्त्रों के निर्यात में वृद्धि हुई। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जहां 1664 में 750000 थान कपड़े का निर्यात किया वहीं 1664 में 1500000 थान कपड़े का निर्यात किया। इसके अतिरिक्त निर्यात सामग्री में दास, नील, तंबाकू, तिलहन, चीनी, चावल, लौंग, नारियल, शोरा, काली मिर्च, हाथी दांत, कागज, आभूषण, पान, सुपारी प्रमुख थे।

आयात

सल्तनत काल के आयातों की सूची भी लम्बी है। विदेशों से भारत में घोड़े, अस्त्र-शस्त्र, दास दासियाँ, कुछ विशेष प्रकार के वस्त्र, मेवे तथा फल लाए जाते थे। ताँबा, चॉदी सोना, तूतिया, ऊँट, खजूर, शीशा आदि का भी आयात किया जाता था । अभिजात्य वर्ग की विलास सामग्री जैसे रेशम, मखमल, कसीदा कारी वाले परदे आयात में शामिल थे। के०एम० अशरफ ने लिखा है कि 'जरी और रेशम की वस्तुएं सुल्तान मुहम्मद तुगलक के समय अंशतः सिकन्दरिया, ईराक और चीन से आयात की जाती थीं। घोड़ों का आयात बड़ी संख्या में होता था। धोफर, होरमुज, अदन और फारस से अच्छी नस्ल के घोड़े लाए जाते थे। खच्चर भी लाए जाते थे। दिल्ली में विदेशी घोड़ों का अच्छा बाजार था। अजक के लोग छः हजार घोड़ों का झुण्ड एक बार में लाते थे। सत्रहवीं शताब्दी से भारत में यूरोपीय व्यापारियों की संख्या बढ़ने लगी। अभिजात्य वर्ग की विलासिता की विदेशों से आयात में वृद्धि होने लगी। भूटान से कस्तूरी और याक के बाल आते थे।

व्यापारिक वर्ग

भारत के विदेश व्यापार में कई व्यापारिक वर्गो की भूमिका थी। अरब के मूर व्यापारी, विदेशी वर्ग में प्रमुख वर्ग थे। देशी वर्ग में मुल्तानी, गुजराती, राजपूताना के बन्जारे या कारवाँ व्यापारी और दक्षिण भारत के शेट्टी प्रमुख वर्ग थे। इनमें से कुछ तो बहुत धनी थे। निकोली कोण्टी ने (1419–1444) ने एक ऐसे व्यापारी का उल्लेख किया है जिसके पास चालीस जहाजें थी। सत्रहवीं शताब्दी में सूरत के एक धनी व्यापारी वीर जी वोहरा थे। इसी तरह अहमदाबाद के शान्ती दास जवाहरी, मालाबार के हाजी सैय्यद बेग, मनोहरदास और मलय शेट्टी धनी व्यापारी थे। गुजरात और मालाबार के क्षेत्र में व्यापार कार्य मुख्यतः मालाबारी व्यापारियों के हाथ में था।

यूरोपीय हस्तक्षेप

विदेशी व्यापार के संरक्षण के लिए शासकों ने नौ सैनिक कमजोरी के कारण कुछ नहीं किया। पुर्तगालियों के आगमन ने भारतीय मुक्त व्यापार में खलल डाल दिया इसका साधन बना आर्मेडा- कार्टेज व्यवस्था। समुद्री डकैतियों की संख्या बढ़ती गई। उदाहरण के लिए 1695 में सूरत के व्यापारी अब्दुल गफूर का व्यापारिक जहाज फ़तेह मुहम्मदी को लूट किया गया यही नहीं बल्कि औरंगजेब के जहाज गंज-ए-सवाई को भी लूटा गया। एक अंग्रेज अधिकारी सर जोसुआ चाइल्ड ने 1680 में लिखा कि “राजस्व के बिना हम हमेशा व्यापारी बने रहेंगे और हमें कभी भी निकाला जा सकेगा”। बाद में जार्ज ओक्सेडन ने लिखा “अब समय का तकाज़ा है कि आप अपने हाथ में तलवार लेकर व्यापार का प्रबंध करें”। दरअसल 1740 के बाद अंग्रेजों ने भारतीय व्यापारियों के विरुद्ध अनुचित तरीकों का प्रयोग शुरू कर दिया था तथा बुनकरों को अपना माल सस्ते में बेचने के लिए मजबूर करने लगे थे। इस प्रकार यूरोपीय व्यापारिक कम्पनियाँ देश विजय का साधन बन गईं।

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