हुमायूँ को विरासत में मिला सिंहासन फूलों की सेज नहीं था। बाबर के पास व्यावहारिक रूप से अपनी स्थिति को मजबूत करने का समय नहीं था। इससे पहले कि वह पूरे साम्राज्य को स्थिरता प्रदान करता, वह राजनीतिक परिदृश्य से ओझल हो गया। बाबर ने अपने पुत्र को विरासत के रूप में ऐसा राजतंत्र दिया था जो केवल युद्ध में ही जारी रह सकता था, शांति के समय यह राजशाही कमजोर, संरचनाहीन और बिना रीढ़ की हड्डी के थी। वैसे तो हुमायूँ के सामने बहुत सी कठिनाइयाँ थीं लेकिन उनमें से कुछ इस प्रकार थीं:
आंतरिक कठिनाइयाँ
1. खलीफा और अन्य लोगों द्वारा षड्यंत्र:
26 दिसंबर, 1530 ई को बाबर की मृत्यु हो गई, उसी दिन उसके प्रधान मंत्री, निजामुद्दीन अली मुहम्मद खलीफा ने हुमायूँ की जगह सिंहासन पर मीर मेहदी ख्वाजा को बैठाने की कोशिश की । यह साजिश हालांकि ख्वाजा और खलीफा के बीच मतभेद के कारण शायद तीसरे दिन ही समाप्त हो गई। किन्तु हुमायूँ ने न तो विद्रोहियों को कठोर दण्ड दिया और न ही उच्च पदों से हटाया। बाबर ने हुमायूँ को अपने मातहतों के साथ अच्छा व्यवहार करने की सलाह दी थी। हुमायूँ एक दयालु हृदय और कोमल स्वभाव का व्यक्ति था। दरअसल उनके दयालु स्वभाव ने उन्हें मुश्किलों में खींच लिया।
2. अव्यवस्थित प्रशासन:
हुमायूँ एक ऐसे सिंहासन पर बैठा जो उस समय अस्थिर और असुरक्षित था। बाबर ने एक खाली खजाना और एक असंगठित राज्य उसे विरासत में दिया था। बाबर भारत पर केवल 4-5 वर्ष ही शासन कर सका और इसमें भी उसे अधिकतर समय युद्धों में व्यतीत करना पड़ा। अपने साम्राज्य समेकन को पूरा करने से पहले उनकी मृत्यु हो गई। हुमायूँ को एक ऐसा साम्राज्य विरासत में मिला था जो कई कठिनाइयों से घिरा हुआ था। बाबर ने प्रशासन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। साम्राज्य हालांकि विशाल था, फिर भी इसमें सामंजस्य और आंतरिक एकता का अभाव था और इसमें राज्य के अमीरों की छोटी या बड़ी जागीरें शामिल थीं। बाबर ने भूमि व्यवस्था या न्यायिक प्रणाली के संबंध में कोई खास काम नहीं किया था । न ही उसने आम लोगों के कल्याण के संबंध में कोई काम किया। बाबर द्वारा निर्मित अमीर और हुमायूँ के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर रहे थे। निश्चय ही हुमायूँ की इस समस्या के लिए बाबर ही उत्तरदायी था।
3. आर्थिक समस्याएँ:
बाबर ने हुमायूँ के लिए लगभग खाली खजाना छोड़ा था। लेकिन हुमायूँ ने अपनी मूर्खता के कारण अपनी इस आर्थिक समस्याओं को और बढ़ा दिया। उसके पास जो थोड़ा-बहुत धन था, उसे उसने सैन्य गतिविधियों में खर्च कर दिया या अपने अमीरों, सैनिकों और रिश्तेदारों को खुश करने के लिए बांट दिया था। पैसे की कमी के कारण, हुमायूँ न तो अपने शत्रुओं का सामना करने के लिए सैन्य तैयारी कर सका और न ही अपनी प्रजा के कल्याण के कार्यों द्वारा अपने साम्राज्य को मजबूत कर सका।
4. उसके भाई:
हुमायूँ ने अपने भाइयों पर दया करके गलती की। उसने अपने पिता की इच्छा के अनुसार संभल को असकरी और अलवर को हिंदाल को दे दिया। कामरान को उसने काबुल और कंधार के प्रांत दिए। इसके बावजूद कामरान संतुष्ट नहीं हुआ। वह अपने साथ एक बड़ी सेना लेकर गया और उसकी मदद से वह पूरे पंजाब को अपने नियंत्रण में लाने में सफल रहा, हुमायूँ ने कामरान से युद्ध करना उचित नहीं समझा और उसे हिसार फिरोजा का जिला भी दे दिया। हिसार फिरोजा के कब्जे ने कामरान को दिल्ली और पंजाब के बीच की सड़क पर नियंत्रण दिया। पंजाब, काबुल और कंधार का कामरान को सौंपना एक आत्मघाती कदम था।
5. अविश्वसनीय सेना:
हुमायूँ, अपने पिता से विरासत में मिली सेना पर भरोसा नहीं कर सकता था। यह सेना राष्ट्रीय भावना और उत्साह से प्रेरित नहीं थी। उनकी सेना में मुगल, उजबेग, अफगान, भारतीय मुसलमान, तुर्क, हिंदू और फारसी शामिल थे। सेनाओं के सेनापति एक दूसरे से ईर्ष्या करते थे। उनकी आंतरिक फूट और प्रतिद्वंद्विता ने मुगल सेना की शक्ति को गैर-भरोसेमंद बना दिया। वास्तव में इनमें से अधिकांश सैनिक स्वार्थी थे और सम्राट को धोखा देने के लिए तैयार थे।
6. हुमायूँ की व्यक्तिगत कमजोरियाँ
हुमायूँ की कठिनाइयों में से एक उसका अपना स्वभाव और चरित्र था। हालांकि वह एक बहादुर सैनिक था, लेकिन एक कमजोर प्रशासक था। वह शराब और अफीम का आदी था। वह बहुत सुखप्रिय था। स्वभाव से वह इतना दयालु था कि सही समय पर भी वे अपने शत्रुओं और विरोधियों को कठोर दंड नहीं दे सका। लेन-पूले लिखते है, "उनमें चरित्र और संकल्प की कमी थी। वह जीत के पल के बाद निरंतर प्रयासों में असमर्थ था और अपने हरम में स्वयं में व्यस्त हो जाता था और अफीम खा कर स्वर्ग का सपना देखता था, जबकि उसके दुश्मन उसके दरवाजे पर गरज रहे थे।
बाहरी कठिनाइयाँ
1. अफगान प्रतिद्वंद्वी:
हुमायूँ के लिए सबसे बड़ी कठिनाइयाँ अफगानों द्वारा प्रस्तुत की गई थीं। बेशक पानीपत और घाघरा के युद्ध में बाबर ने अफगानों को पराजित किया था, फिर भी उनकी शक्ति का दमन नहीं हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि हुमायूँ के राज्याभिषेक पर वे पहले की तरह अपने कार्यों में निडर हो गए। वे मुगलों को भारत से खदेड़ने की आशा पाल रहे थे। पूरब में उनकी स्थिति बंगाल और बिहार के अफगान प्रमुखों द्वारा मजबूत की जा रही थी। महमूद लोदी अफ़गानों को दिल्ली की गद्दी वापस दिलाने का प्रयास कर रहा था। आलम खान जिसने कभी बाबर को भारत पर विजय प्राप्त करने के लिए आमंत्रित किया था, अब खुद को शासक बनाने की आशाओं का पोषण कर रहा था। अन्य सभी अफगान प्रमुखों की तुलना में अधिक खतरनाक शेरशाह सूरी सिद्ध हुआ ।
2. गुजरात का बहादुर शाह:
हुमायूँ को गुजरात के बहादुर शाह में एक महान प्रतिद्वंद्वी मिला, जिसने मालवा और गुजरात के प्रांतों को एकजुट किया था और पूरे राजपुताना को जीतने की सोच रहा था। इसके पास बड़ी सेना तथा अच्छा तोपखाना था तथा यह भारत पर अधिपत्य का लक्ष्य रखता था।
यह सच है कि हुमायूँ को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, लेकिन इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि अगर उसके पास चातुर्य और मजबूत इच्छा शक्ति होती तो वह उन पर काबू पा सकता था। दुर्भाग्य से, उनके पास ऐसा चरित्र नहीं था। लेन-पूल के अनुसार, "वह निरंतर प्रयास करने में असमर्थ था और विजय के एक पल के बाद अपने हरम में खुद को व्यस्त कर लेता था और अफीम खाकर स्वर्ग का सपना देखता था, जबकि उसके दुश्मन दरवाजे पर गरज रहे थे। निजी जीवन में, वह एक रमणीय साथी और पक्का मित्र हो सकता था; और उनका पूरा जीवन एक सज्जन व्यक्ति का था। लेकिन एक राजा के रूप में वह असफल रहा। उनके नाम का अर्थ है भाग्य और इससे अधिक बदकिस्मत शासक कभी नहीं हुआ ।
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