मध्यकालीन भारत में उद्योगों के लिए शासकों की ओर से कोई ठोस नीति नहीं थी। असंगठित क्षेत्र इसे चलाते रहे। परंपरागत औद्योगिक दक्षता, जातिगत उद्योग तथा कुटीर उद्योग मध्यकालीन उद्योगों की प्रमुख विशेषतायें थे। कई बातों ने उद्योगों को बढावा दिया।
1.
भारत
का पश्चिमी तथा मध्य एशिया के साथ व्यापार बढ़ा। वह कुछ समय के पश्चात् यूरोप तक
पहुँचा। निर्यात की वस्तुओं के उद्योग चमक उठे।
2.
नगरीकरण
में वृद्धि हुई इससे देशी उपभोक्ताओं की संख्या में और मांग में वृद्धि हुई।
3.
छोटे-छोटे
राज्यों का अन्त होने लगा। केन्द्रकृत सशक्त निरंकुश शासन में सड़कें सरायें अधिक
सुरक्षित हो गई दूर-दूर तक के उद्योग धन्धों का माल बिकने लगा। धीरे-धीरे बड़े
बड़े नगरों में निजी क्षेत्र के बड़े बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान उदित होने लगे
4.
यह
काल बन्दरगाहों वाले शहरों के औद्योगिक उत्थान के लिए भी जाना जाता है।
पारम्परिक
उत्पादन प्रणाली होते हुए भी भारत ने वस्त्र,
मसाले एवं जड़ी बूटियों के
व्यापार में इतना धन कमाया कि व्यापार का सन्तुलन भारत के पक्ष में ही रहा।
उत्पादन के कई प्रमुख केन्द्र प्रसिद्ध थे। कुछ नगर किसी विशेष उत्पादन के लिए
अधिक प्रसिद्ध थे। वस्त्र, धातु निर्मित बर्तन एवं हथियार, औजार, आभूषण, पत्थर
उद्योग, चीनी, नील,
कागज इत्यादि प्रमुख उद्योग
थे। कुटीर उद्योग इनके अलावा अनेकों अन्य उत्पादन भी करते थे जैसे लकड़ी के सामान
मिट्टी के समान चमड़े के सामान इत्यादि।
1.
वस्त्र
उद्योग
वस्त्र
उद्योग मध्यकालीन भारत का सबसे बड़ा उद्योग था । वस्त्र का निर्यात भी अधिक था। नई
तकनिकी और प्रयोग से से इस उद्योग में सुधार हुआ।
1.
चरखा
: चौदहवीं शताब्दी के इतिहासकार ईसामी ने चरखा का उल्लेख किया है। तकली से काते गए
सूत का छः गुना चरखे से काता जाने लगा।
2.
धुनिया
की कमान : रूई धुनने की कमान भी मुसलमानों के साथ ही भारत वर्ष में आयी। इसके पहले
रूई को रेशेदार बनाने के लिए डंडे से धुना जाता था।
3.
करघा
: बुनाई करघा से होती थी। करधा में भी सुधार हुआ।
4.
रेशम
के कीड़े पालना : रेशम के कीड़े पालने का उद्योग सलतनत काल में प्रचलित हुआ। अब
रेशम का उत्पादन बढ़ गया।
गुणवत्ता :
वस्त्रों की रंगाई, छपाई, कढ़ाई सोने के धागों की कढाई कुछ गिने चुने
बड़े बड़े नगरों में होती थी। भारतीय वस्त्रों की गुणवत्ता विश्वविख्यात थी ।
एडवर्ट टेरी देश के सुन्दर और गहरे रंगे हुए कपड़ो को देखकर बहुत प्रभावित हुआ था।
बंगाल और गुजरात से विदेशों में इनका निर्यात किया जाता था।
सूती वस्त्र
: सूती वस्त्र के प्रमुख केंद्र बंगाल, गुजरात, बनारस, उड़ीसा, मालवा, सूरत, काम्बे,
पटना, बुरहानपुर थे, बाद में आगे चल कर दिल्ली, आगरा, लाहौर और मुल्तान बड़े केंद्र
बन गए। महत्वपूर्ण सूती कपड़ों में छींट, बैरामी, शान-ए-बफ तथा कतने रूमी बहुत प्रसिद्ध
थे। मलमल के कपड़ों में ढाका की मलमल, देवगिरी की मलमल तथा सोनारगांव की मलमल
प्रसिद्ध थी। इसके आलावा बरबकाबाद का गंगाजल, बिहार बंगाल का अम्बरती, गुजरात का
बाफ्ता, बंगाल का खासा, लखनऊ का दरियाबंदी तथा मरकूल प्रसिद्ध थे। केलिंको, ताफ्ता,
जरतरी तथा कमीन भी कपड़ों के प्रमुख प्रकार
थे।
रेशमी वस्त्र :
रेशमी वस्त्रों के प्रमुख केन्द्र भी देश के कोने कोने में फैले हुए थे। कासिम
बाजार, मालदा, मुर्शिदाबाद,
पटना, कश्मीर, और
बनारस की विशेष पहचान रेशमी कपड़ों के लिए थी। गुजरात में रेशमी कपड़ों की बुनाई
का उद्योग विस्तृत था। काम्बे की सिल्क मशहूर थी। सूरत का नाम रेशमी वस्त्र उद्योग
में सर्वोपरि था। वहाँ रेशमी दरियां बनती थी। उन पर सोने और चॉदी के धागों की
कसीदाकारी रहती थी। असम रेशमी कपड़ों का प्रमुख केन्द्र था। कोयम्बटूर का रेशम
दक्षिण भारत में ही नहीं दूर दूर तक प्रसिद्ध था।
ऊनी वस्त्र :
ऊनी वस्त्रों के प्रमुख केन्द्र काबुल,
कश्मीर, पश्चिमी, राजस्थान
में थे। तिब्बत का ऊन बहुत बढ़िया होता था। कश्मीर की शाल का कोई जवाब नहीं था।
शाल बनाने के अन्य प्रमुख केन्द्र थे लाहोर,
पटना, आगरा
फतेहपुर सीकरी । उड़ीसा का तुस्सार नामक कपड़ा बहुत मशहूर था। यह देखने में रेशम
जैसा था लेकिन बनता घास से था ।
रंगाई- छपाई :
मध्यकाल में कपड़ों की रंगाई, छपाई के उद्योग प्रचलित थे। लाहोर से लेकर अवध
तक नील का उत्पादन होता था। बयाना की नील सर्वोत्तम मानी जाती थी। गुजरात में
सरखेज की नील सर्वोत्तम मानी जाती थी। गोलकुण्डा में भी नील होती थी । वस्त्रों की
रंगाई-छपाई के प्रमुख केन्द्र दिल्ली,
आगरा, अहमदाबाद, मसुलीपटम, ढाका, कासिम
बाजार, आदि थे।
2.
धातु
उद्योग
मध्यकालीन
धातु उद्योग लोहा, कॉसा, चॉदी,
जस्ता, माइका
इत्यादि की विभिन्न वस्तुएं बनाने में कुशलता प्राप्त कर चुका था। इसका निर्यात
व्यापार इसकी गुणवत्ता का स्वतः प्रमाण है। भारत निर्मित तलवारों और भालों की माँग
अरब तथा फारस में भी थी। लोहे की प्राप्ति अनेक खानों से होती थी जिनका विस्तार
दूर-दूर तक था। गोदावरी क्षेत्र में लोहे की खानें थी। कालिंजर, ग्वालियर, कुमायूँ
क्षेत्र में लोहे की खानें थी। अजमेर क्षेत्र मे भी लोहे की खानें थीं। तलवार
बनाने का उद्योग ग्यारहवीं शताब्दी में भी उन्नत था। कुछ जगहों की तलवारें
प्रसिद्ध थी जैसे सोमनाथ, बनारस,
आगरा और कालिंजर। मध्यकाल
में तलवार बनाने के उद्योग अनेक स्थानों में स्थापित हुए। कई नए क्षेत्र इस उद्योग
में प्रसिद्धि प्राप्त कर लिए जैसे लाहोर,
सियालकोट, मुल्तान।
गुजरात और गोलकुण्डा भी इस उद्योग में अग्रणी थे। मुगलकाल में तोप के गोले भी बनाए
जाते थे। बन्दूकें भी बनती थी । तात्पर्य यह है कि सैन्य हथियारों की आवश्यकता ने
लोहा, इस्पात उद्योग को बहुत बढ़ावा दिया। कृषीय आवश्कता के
यन्त्र भी बनते थे। घरेलू इस्तेमाल के बर्तन व आभूषण, बनते
थे। प्रशासन की टकसालें मुद्रा निर्माण करती थी। बहुमूल्य हीरे जवाहरात पर आधारित
उद्योग भी थे। शीशा उद्योग भी उन्नत था। सुन्दर चूड़ियाँ, कटोरे, दर्पण, बोतल, रकाबियॉ, फूलदान, चश्मे
आदि बनाये जाते थे।
3.
जहाज
उद्योग
मध्यकालीन
भारत में जहाज बनाने का उद्योग उत्तरोत्तर बढ़ता गया। मुगलकाल में सत्रहवी शताब्दी
के आते-आते यह उद्योग भलीभाँति विकसित हो चुका था। कुछ जहाजें सौ टन या उससे भी
अधिक वजन की थी। 1612 ई0 में रहीमी नामक जहाज का वजन डेढ़ सौ टन था।
काम्बे, गोवा तथा दक्षिणी भारत के तटीय क्षेत्र जहाजों के आवागमन
से भरे रहते थे। जहाज उद्योग के केन्द्र सूरत,
गोवा, दमन, ड्यू, ढाका, चिट्टगॉग, आगरा, लाहोर, मुल्तान, इलाहाबाद
इत्यादि थे।
4.
काष्ठ
उद्योग
अनेक
स्थानों पर काष्ठ उद्योग थे। घरेलू उपयोग के खिड़की,
दरवाजे फर्नीचर खूब बनते थे।
पालकी, रथ, बैलगाड़ी भी बनते थे। लकड़ी के खिलौने भी बनते
थे। गाँव में इसे दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण समझा
जाता था। मकानों के लिए लकड़ी की कड़ियां,
दरवाजे, खिड़कियाँ
इत्यादि की आपूर्ति काष्ठ उद्योग की व्यापकता पर ही निर्भर थी। मंहगी लकड़ी की
कलात्मक वस्तुएँ कुछ विशेष नगरों में बनती थी ।
5.
मिट्टी उद्योग
इस
वर्ग में खपड़ा उद्योग महत्वपूर्ण था । पकी हुई मिट्टी के घड़े, प्याले, मूतियाँ, खिलौने
इत्यादि बनते थे। कुटीर उद्योग की तरह गाँव के कुम्भकारों के द्वारा पीढ़ियों से
इस व्यवसाय को अपनाया जाता रहा है।
6.
ईंट-पत्थर
उद्योग
पत्थर
काटने, तराशने एवं इससे इमारतें तथा किले बनाने का कार्य मध्यकाल
में अधिक हुआ। ईंट पाथने का उद्योग बहुत विस्तृत था। राजस्थान में मकराना का
संगमरमर बहुत प्रसिद्ध था । लाल पत्थर के किले भी बनते थे।
7.
चर्म
उद्योग
चर्म
की अनेक वस्तुएं बनाई जाती थी। दिल्ली,
गुजरात आदि क्षेत्रों में
चमड़े की काठी, लगाम, म्यान,
जूते, मशक
आदि मंहगी वस्तुएं बनाने के उद्योग चलते थे। गाँव में यह ग्रामीण आवश्यकता की
पूर्ति के लिए आवश्यक उद्योग था। इसे पुश्तैनी रूप से एक वर्ग विशेष अपनी आजीविका
का साधन मानता था ।
8.
कागज उद्योग
चौदहवीं
शताब्दी में अमीर खुसरो तथा माहुओं के साक्ष्य से यह ज्ञात होता है कि उत्तम किस्म
का रेशमी जैसा चिकना कागज पेड़ की लुगदी से बनाया जाता था। दिल्ली, पटना, अहमदाबाद, कश्मीर
आदि के कागज बहुत अच्छे होते थे। अच्छे कागज के कुछ नाम बड़े प्रसिद्ध थे जैसे
मानसिंही, जहाँगीरी।
9.
चीनी
उद्योग
चीनी, गुड़,
शीरा बनाने के उद्योग थे।
कृषि से कच्चा माल प्राप्त होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र इसके मुख्य केन्द्र थे।
बढ़िया चीनी पटना, बरार, लाहोर,
दिल्ली, बयाना, काल्पी
और आगरा में बनती थी। पटना की चीनी का निर्यात बंगाल होकर किया जाता था।
शासकीय प्रयास
फ़िरोज तुगलक के समय शाही कारखानों का अच्छा उल्लेख मिलता है। फिरोज शाह तुगलक ने छत्तीस कारखानों को स्थापित
किया था। उन पर प्रति वर्ष पचास लाख रूपया व्यय किया जाता था। दिल्ली सल्तनत काल
में तुगलक काल के कारखानों का विवरण अफीफ ने भी दिया है। कारखाने दो प्रकार के थे-
रातिबी और गैर- रातिबी । रातिबी कारखानों में पीलखाना, पायगाह, आबदार
खाना, शराब खाना,
शुतुरखाना आदि थे। इनमें
निश्चित वेतन पर श्रमिक काम करते थे। उनके लिए वार्षिक अनुदान की राशि निश्चित
रहती थी। गैर रातिबी कारखानों में जामदार खाना,
अलमखाना, फर्राशखाना, रिकाबखाना
आदि थे। इसमें श्रमिकों का वेतन निश्चित नहीं था। प्रति वर्ष नये सामानों की
आवश्यकता के अनुसार गैर रातिबी कारखानों का व्यय घटता बढ़ता रहता था। प्रत्येक
कारखाना एक मलिक या खान के अन्तर्गत रखा जाता था। कारखाना का यह अधिकारी मुतशर्रिफ
कहलाता था। प्रधान मुतशर्रिफ सभी कारखानों के हिसाब की जॉच करता था।
बाबर
ने लिखा है कि हिन्दुस्तान में सभी प्रकार की शिल्प कलाओं को जानने वाले असंख्य
कारीगर हैं। प्रत्येक कार्य के लिए एक जाति है। मुगलकालीन राज्य व्यवसाय के बारे
में डॉ० जे०एन० सरकार कृत 'मुगल शासन पद्धति' का
यह उद्धरण उल्लेखनीय है, कि लगभग प्रत्येक वांछित वस्तु की पूर्ति के
लिए मुगल शासन उत्पादक होने को विवश था। अकबर के शासन काल में राज्य द्वारा
स्थापित कारखानों की वृद्धि हुई। अबुल फजल ने लिखा हैं कि, "इलाही
संवत् के उनतालीसवें वर्ष में (1595 ई0)
शाही महल में सौ से अधिक
कार्यालय और कारखाने थे। इनमें से प्रत्येक एक शहर अथवा एक छोटे से साम्राज्य की भाँति
प्रतीत होता था।" बर्नियर ने इन कारखानों को साठ वर्ष बाद देखा था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें