उत्तरी भारत में जब से दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई, भू-राजस्व प्रशासन के क्षेत्र में धीरे-धीरे व्यापक परिवर्तन हुआ। इसकी शुरुआत इक्ता व्यवस्था से होती है। मुस्लिम विचारधारा के अनुसार भूमि को सुलही, उस्री और खिराजी में बांटा गया था। 'सुलही' भारत में नहीं थी। उस्री भूमि सैद्धान्तिक रूप से मुस्लिम कृषकों के लिए थी। खिराजी भूमि से खराज़ नामक भूमि कर वसूल किया जाता था। लगातार वंश परिवर्तन के कारण भू-राजस्व प्रशासन में एकरूपता नहीं थी बल्कि उसमें लगातार परिवर्तन होता रहा। अल्लाउद्दीन खिलजी के समय से पूर्व भू-राजस्व व्यवस्था में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ वह अपने पुराने रूप में पुराने लोगों द्वारा ही चलता रहा।
अलाउद्दीन
अलाउद्दीन
पहला सुल्तान था जिसने गाँवों में केन्द्र की सरकार का हस्तक्षेप बढ़ाया।
भू-राजस्व सुधारों के पीछे उसके उद्देश्य
थे –
1.
राज्य
की आमदनी में वृद्धि करना
2.
आर्थिक
रूप से लोगों को पंगु बनाकर उनकी विद्रोह करने की शक्ति को तोड़ना
3.
सेना
का खर्च चलाने के लिए राजस्व बढ़ाना था
4.
ऐसी
व्यवस्था करना कि धनी लोगों का बोझ गरीबों पर न पड़े
इसके
लिए उसने कुछ कानून बनाए –
1.
जो
व्यक्ति खेती करे, नाप और प्रति बिस्वा उपज के आधार पर आधी उपज कर के रूप में
दे
2.
गाँव
के सभी लोग समान दर से लगान दें
3.
खूत, मुकद्दम
या चौधरी भी साधारण कृषक (बलाहार) की तरह अपना पूरा लगान दें
अपनी
योजना को अल्लाउद्दीन ने तीन चरणों में पूरा किया।
प्रथम
चरण
सबसे
पहले उसने भूमि अनुदानों अर्थात मिल्क, इनाम, वक्फ को रद्द करके सभी भूमियों को
खालिस भूमि में बदल दिया तथा अधिकारियों को नगद वेतन देना शुरू कर दिया। हालाँकि
सीमित मात्रा में अनुदान चलते रहे।
द्वितीय
चरण
इसके
बाद उसने भूमि की माप कराई तथा भूमि की वास्तविक आय पर राजस्व निश्चित किया।
मध्यस्थों अर्थात खुत, मुकद्दम और चौधरी के राजस्व विशेषाधिकारों हूकुके
खोती(राज्य से प्राप्त) तथा किस्मते खोती( किसानों से प्राप्त) को समाप्त कर दिया।
तृतीय
चरण
कर
को औसत उत्पादन के आधार पर लगाया गया तथा उसको बढ़ा कर पच्चास प्रतिशत कर दिया गया।
इन कानूनों से सरकार का किसानों से पहली बार सीधा सम्बन्ध स्थापित हुआ। सरकारी कर्मचारी अब गाँव-गाँव पहुँचे। ये थे मुहस्सिल (खिराज वसूल करने वाले), आमिल (कर संग्रह करने वाले) गुमाश्ता (प्रतिनिधि), मुतसर्रिफ ( हिसाब की जाँच करने वाले), ओहदा दाराने दफातिर (कार्यालय के अध्यक्ष), और नवीसिन्दा (लिपिक)। ये जिला स्तर पर कार्य करते थे लेकिन इनकी पहुँच गाँवों तक थी। कृषकों के लिए अब कृषि लाभदायक नहीं रह गई। यह लगान व्यवस्था बहुत कृषक - विरोधी थी। पचास प्रतिशत भू-राजस्व तथा चराई, घरी, जजिया का भार कृषक की कमर तोड़ने वाला था। अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद इतनी सख्ती फिर कभी नहीं हुई।
गयासुद्दीन तुगलक ने शासन व्यवस्था के पुनर्गठन में मध्यम मार्ग
अपनाया। उसने खूतों के विशेषाधिकार तथा भत्ते बहाल कर दिए। कृषकों से उतना ही कर
लिया कि वे 'भिखारी न बनें क्योंकि उस परिस्थिति में वे खेती करना छोड़
देंगे। उसने भूमि नापने (हुक्मे मसाहत) तथा प्रति बिस्वा उपज का नियम रद्द कर
दिया। उसके स्थान पर बँटाई (हुक्मे हासिल) की प्रणाली पूर्ववत् बहाल कर दी। इसमें
किसानों के साथ अधिक न्याय होता था। जितनी फसल हुई उसी की बँटाई होती थी। यदि फसल
खराब हो जाती तो कृषक की तरह राज्य का भी नुकसान होता था। कर के बारे में बरनी ने
लिखा है कि : सुल्तान ने आज्ञा दी कि एक बार में दसवें या ग्यारहवें भाग से अधिक
कर वृद्धि न की जाय। उसने मध्यवर्ती जमीदारों,
विशेषत: मुकद्दम और खुतों को
उनके 'हक्क
ए खोती' के पुराने अधिकार लौटा दिए,
उनके खेतों और चरागाहों को
कर मुक्त कर दिया, किन्तु उन्हें 'किस्मत एक खोती'
का अधिकार नहीं दिया।
मुहम्मद बिन तुगलक के काल में कर बढ़ते ही विद्रोह शुरू हो गया
अकाल ने स्थिति को और भयानक बना दिया। बाद के वर्षों में सुल्तान ने कृषि को
सामान्य बनाने के लिए प्रयास किया। ऊसर भूमि पर खेती करने का उसका प्रयास विफल
रहा। इब्न बतूता ने लिखा है कि अकाल के वर्षों में सुल्तान ने राजधानी के बाहर
कुएं खोदने तथा वहाँ खेती करने का आदेश दिया था । इसके लिए उसने किसानों को बीज
एवं धन भी दिया था। बरनी ने लिखा है कि कृषि की उन्नति के लिए 'दीवाने
अमीर कोही'. (कृषि विभाग ) का गठन किया। दो वर्षों में राज्य ने सत्तर
लाख टंके खर्च कर दिए। बंजर पर खेती नहीं हो सकी। उसने किसानों के लिए सोनधर नामक
कृषि ऋण का भी प्रबंध किया।
सुल्तान फीरोजशाह तुगलक ने भू-राजस्व नीति में सुधार करके बहुत
प्रसिद्धि प्राप्त किया। उसके समय कृषि में वृद्धि,
सिंचाई के साधनों में वृद्धि
तथा अनाज के मूल्य में कमी रही। जो तकाबी पहले के सुल्तान ने बांटी थी, कृषक
उसे चुकाने में असमर्थ थे। फीरोज ने पूरी तकाबी माफ कर कृषकों को खुश कर दिया। ऋण
पंजिकाएं नष्ट कर दी गईं। वजीर खाने जहां मकबूल शिक्षित न होते हुए भी अत्यन्त
बुद्धिमान था । उसने राजस्व विभाग को पूर्ण रूप से व्यवस्थित किया।
अफीफ
ने लिखा है कि राज्य की आय पर विचार किया गया। ख्वाजा हुसामुद्दीन जुनैद को इसका
ब्यौरा जुटाने का कार्य सौंपा गया। कार्य कठिन था । इसमें छः वर्ष लग गए। उसने सभी
प्रान्तों में निरीक्षण के उपरान्त वहाँ की आय ज्ञात किया। अन्ततः सम्पूर्ण राज्य
की आय छः करोड़ पचहत्तर लाख टंका ज्ञात हुई। फीरोजशाह ने जागीरों की संख्या में
वृद्धि कर दिया। यह कृषकों के लिए आगे चलकर अहितकर हुआ। वेतन के बदले बड़ी-बड़ी
जागीरें देना उसकी नीति थी। अफीफ ने लिखा है कि जीवन वृत्ति के लिए उदारतापूर्वक
जागीरें दी गईं। राजस्व में ठेकेदारी की प्रथा लागू की गई जो कृषकों के लिए हितकर
नहीं होती है। फीरोजशाह तुगलक ने नहरें बनवाई। तारीखे मुबारकशाही में नहरों के
बारे में विस्तृत विवरण दिया गया है। मुख्य नहर शासन के खर्च से बनवाई जाती थी।
छोटी नहरें या उसकी पतली शाखाएं जो खेतों तक पहुंचती थीं, जागीरदारों
के माध्यम से कृषकों के व्यय से बनती थीं। इसके लिए एक सिंचाई कर लिया जाता था।
सिंचाई कर (हक्के शुर्ब) कुल उपज का 1/10 निश्चित था। नहरों से दो लाख टका वार्षिक आय
होने लगी ।
फीरोजशाह
ने 24 करों (आबवाबों) को समाप्त कर दिया। ये भू-राजस्व के अलावा
थे। ये स्थानीय स्तर पर सभी पर लगते थे चाहे वे कृषक हों या न हों। व्यापारी तथा
घरेलू उद्योगों में लगे लोग भी इनकी चपेट में थे। इन करों की माफी से लोगों को
बहुत राहत महसूस हुई।
पूरा
भू राजस्व प्रशासन वजीर के नियन्त्रण में रहता था। उसकी सहायता के लिए नायब वजीर
होता था। मुस्तौफी-ए-मुमालिक (महालेखा परीक्षक) तथा मुशरिफे ममालिक (सम्पूर्ण
राज्य के कर वसूल करने वाला), ये दोनों वजीर के अधीन होते थे। अनेकों
गुमाश्ता, सरहंग, नवीसंद भी होते थे आमिल जिलास्तरीय एक प्रमुख
अधिकारी होता था। पटवारी गाँव में रहने वाला वंशानुगत पदाधिकारी था। नकद भुगतान
कृषक के लिए हमेशा कष्टदायक होता था। इसके लिए वह अपनी फसल सस्ते मूल्य पर कटाई के
मौसम में ही बेचने को मजबूर था। सेठ साहूकार से कर्ज भी लेना पड़ता था। कृषकों एवं
अन्य ग्रामीणों पर साहूकारों का आर्थिक शोषण चलता रहा। इससे ग्रामीण कर्जदारी एवं
गरीबी बढ़ी। मध्ययुगीन ग्रामीण अर्थव्यवस्था की यह एक बहुत बड़ी त्रासदी थी।
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