मंगलवार, 21 मार्च 2023

Teachings of Martin Luther


Martin Luther's teachings, grounded in his profound belief in the Bible, represented both a continuation of certain medieval traditions and a radical challenge to the Catholic Church's authority and practices. His doctrines emphasized the supremacy of scripture, the need for personal faith, and the rejection of rituals he deemed unnecessary or corrupt. Below is an analytical exploration of his core teachings:

1. Supremacy of the Bible

Luther upheld the Bible as the ultimate authority in religious matters, declaring it the sole source of divine revelation. While critical of Catholic rituals and hierarchy, Luther accepted doctrines not explicitly opposed by scripture. His focus on “divine love” and predestination laid the foundation for Protestant theology, where salvation was framed as God's gift, not the Church's to bestow.

2. The Concept of God

Luther's view of God was deeply influenced by the Jewish tradition, portraying a deity both merciful and wrathful. God was described as omnipotent, capable of punishing sin through natural calamities, plagues, and even human adversaries. His stern warnings about divine justice reflected medieval fears but underscored his belief in God’s ultimate authority over human actions.

3. Belief in Heaven, Hell, and the Devil

Luther accepted the existence of heaven, hell, and a literal devil as active forces in human life. He viewed devils as agents of sin and misfortune, steering people away from salvation.  He believed in the reality of witchcraft and supported its punishment, aligning with medieval Christian duties. He envisioned a paradise with angelic beings and described its joys vividly, merging traditional and personal elements.

4. Reformation of Sacraments

Luther rejected many Catholic sacraments, retaining only Baptism, Penance, and the Holy Eucharist as essential.  This reduced the complexity of rituals, emphasizing personal faith over Church-mediated rites.

5. Transformation of Worship Practices

Luther challenged the Catholic doctrine of "Transubstantiation" in the Eucharist, proposing "Consubstantiation" instead. Bread and wine remained physically unchanged but spiritually symbolized the body and blood of Christ. This rejected the clergy's exclusive power in religious rituals, democratizing worship.

6. Salvation through Faith

Luther argued that salvation could not be purchased through indulgences but was granted by God to those with genuine faith. He denounced the Church’s practice of selling indulgences, asserting that forgiveness could not be commodified. Good deeds, while valuable, were seen as secondary to unwavering trust and devotion to God.

7. Repentance and Atonement

Luther dismissed fasting, pilgrimages, and saint worship as unnecessary for salvation. He emphasized that repentance and salvation stemmed from God’s mercy and devotion, not ritual acts. A central tenet was that serving others was an expression of faith and a path to salvation.

8. Householder Religion

Luther invalidated asceticism, arguing that priests could marry and live ordinary lives.  He asserted that spirituality was compatible with secular responsibilities, bridging the sacred and the mundane.

9. National Church and Vernacular Worship

Luther championed the establishment of national churches to decentralize religious authority.  Worship was transformed by using vernacular languages. He translated the Bible into German, making it accessible to the common people. This fostered a sense of cultural and religious identity while democratizing religious knowledge.

Conclusion

Martin Luther’s teachings were a decisive break from Catholic orthodoxy, focusing on scripture, personal faith, and reforming corrupted practices. While revolutionary in many ways, some aspects, such as his belief in witchcraft, reflected medieval conservatism. His emphasis on individual faith and scripture over institutional authority laid the foundation for the Protestant Reformation and reshaped Christianity in Europe. Luther’s doctrines not only challenged the Catholic Church’s monopoly on spiritual authority but also resonated with the broader societal shifts of the Renaissance, sparking enduring religious and cultural transformations.

मंगलवार, 14 मार्च 2023

मार्टिन लूथर की शिक्षायें

लूथर की शिक्षा बाइबिल पर विश्वास के साथ जुड़ी हुई है साथ ही अनजाने में ही सही लेकिन उसकी व्याख्याएं मध्यकालीन परम्परों के साथ जुड़ी हुई थी। इसका विद्रोह कैथोलिक संगठन और कर्मकांड के विरुद्ध था न कि कैथोलिक सिद्धांत के विरुद्ध था।

(1)      बाइबिल के मूल सिद्धांतों के साथ सहमति

लूथर के सिद्धान्त पवित्र वाइविल के नवीन संस्करण पर आधारित थे। उसने अनेक ऐसे नियम स्वीकार किए जो प्रत्यक्षतः पवित्र ग्रंथ द्वारा निषिद्ध नहीं थे। लूथर के सिद्धान्त 'ईश्वरीय प्रेम' पर आधारित थे उसने धर्म-शास्त्र की सत्ता को सर्वोच्च घोषित किया। उसने पूर्व-निश्चित भाग्य पर अधिक वल दिया।

(2)     ईश्वर की यहूदी धारणा पर ज़ोर

लूथर ईश्वर की यहूदी अवधारणा में विश्वास करता था। उसका ईश्वर दया और अनुग्रह की वाक्पटुता के साथ के साथ बदला लेने वाले के रूप में थी, उसका मानना था कि नाराज़ परमेश्वर ने लगभग सभी मानव जाति को बाढ़ में डुबो दिया था, और अपने क्रोध की सांस और अपने हाथ की लहर से भूमि, लोगों और साम्राज्यों को नष्ट कर दिया था। भगवान ने पुरुषों को उनके पापों के लिए दंडित करने के लिए जंगली जानवरों, कीड़े और दुष्ट महिलाओं को नियुक्त किया था। जब एक परेशान युवा धर्मशास्त्री ने उनसे पूछा कि दुनिया के निर्माण से पहले भगवान कहाँ थे, तो उत्तर दिया: "वह आपके जैसे अभिमानी, फड़फड़ाने वाले और जिज्ञासु आत्माओं के लिए नरक का निर्माण कर रहा था।"

(3)     स्वर्ग नर्क तथा शैतान की धारणा में विश्वास

यह स्वर्ग और नर्क में विश्वास करता था। उसने सुखों के स्वर्ग का वर्णन किया, जिसमें पालतू कुत्ते भी शामिल हैं, "कीमती पत्थरों की तरह चमकते हुए सुनहरे बालों के साथ"। उसने एक्विनास की तरह आत्मविश्वास के साथ देवदूतों के बारे में बात की जो शरीरहीन होते थे। उसने पृथ्वी पर भटकने वाले शैतानों की मध्य कालीन अवधारणा को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया, जो मनुष्यों के लिए प्रलोभन, पाप और दुर्भाग्य लाते हैं, और मनुष्य के लिए नरक में रास्ता आसान करते हैं। इसने जादू टोना को वास्तविकताओं के रूप में स्वीकार किया, और चुड़ैलों को जलाना एक साधारण ईसाई कर्तव्य समझा।

(4)     संस्कार पद्धति में संशोधन

मार्टिन लूथर ने कैथोलिक चर्च की संस्कार पद्धति की आलोचना करते हुए केवल जन्म (Baptism), प्रायश्चित (Penance) एवं पवित्र प्रसाद (Holy Eucharist) के संस्कारों को ही आवश्यक बताया।

(5)     पूजा पद्धति में परिवर्तन

 उसने पूजा की विधि में भी परिवर्तन करने का प्रयास किया। उस समय 'तत्वान्तरण'  विधि प्रचलित थी जिसमें रोटी पर शराव छिड़की जाती थी और ऐसा समझा जाता था कि धर्माचार्यों की विशेष शक्ति के कारण यह रोटी और शराब का ईसामसीह के शरीर और रक्त में परिवर्तन हो जाता है। लूथर ने इसका विरोध किया तथा एक दूसरे सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसे 'द्वितत्ववाद' का नाम दिया गया। इसके अनुसार रोटी और शराब ईसामसीह के शरीर और रक्त में परिवर्तित नहीं होती वरन् उसमें एक अन्य तत्व मिश्रित हो जाता है। उसने कहा कि इस संस्कार-विधि में धर्म-गुरुओं की शक्ति का कोई प्रभाव नहीं होता ।

(6)     मोक्ष का साधन

ईश्वर ने उन ईसाइयों को जिन्हें अपने कार्यों के लिए सच्चा पश्चाताप होता है पहले ही क्षमा-दान दे देता है तथा उन्हें उन 'क्षमापत्रों'  को खरीदने की आवश्यकता नहीं है जो उन्हें लौकिक दण्डों से मुक्त कर सकते हैं। इस प्रकार उसने पोप तथा चर्च-संगठन का विरोध किया और यह कहा कि पोप को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। लूथर ने मोक्ष प्राप्ति के विषय में कहा कि यह 'सत्कर्म' द्वारा नहीं अपितु ईश्वर में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। सत्कर्म केवल इस ओर बढ़ने की सीढ़ी मात्र है। ईश्वर पर श्रद्धा रखकर ही कोई व्यक्ति वास्तविक ईसाई-जीवन व्यतीत कर सकता है।

(7)     पाप मुक्ति के लिए पश्चाताप

 उसने व्रत, तीर्थयात्रा और सन्तों की पूजा को अनावश्यक बताया उसने कहा कि मोक्ष केवल ईश्वर की दया पर निर्भर है जो ईश्वर की भक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। लूथर ने सेवा-धर्म को भी एक आवश्यक सिद्धान्त वताया। उसने कहा कि ईश्वर की कृपा पर विश्वास करते हुए अपने पड़ोसियो की सेवा करने से मोक्ष मिल सकता है।

(8)     वैराग्य की जगह गृहस्थ धर्म

लूथर ने वैराग्य को अमान्य घोषित करते हुए यह कहा कि धर्माचार्य भी विवाह कर जीवन व्यतीत कर सकते हैं। उसने स्वयं भी विवाह किया। मार्टिन लूथर ने कहा कि यह संसार भी ईश्वर का उतना ही है जितना कि स्वर्ग। इसलिए दैनिक कार्यों को करते हुए भी मनुष्य द्वारा आध्यात्मिक चिन्तन किया जा सकता है।

(9)     राष्ट्रीय चर्च की स्थापना पर जोर

उसने एक राष्ट्रीय-चर्च की स्थापना पर अधिक वल दिया। उसने पूजा-पाठ की विधियों की भाषा में भी परिवर्तन किया। पूजा-पाठ की भाषा लैटिन के स्थान पर अव जर्मन कर दी गयी तथा वाइविल का भी जर्मन भाषा में अनुवाद किया गया।

इस प्रकार लूथर के इन सिद्धान्तों की व्याख्या करते हुए निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उसने मुख्यतः कैथोलिक चर्च से भ्रष्टाचार और अनाचार को दूर करने और बाइबिल की प्रमाणिकता को स्थापित करने करने के लिए ही उपर्युक्त सिद्धान्तों की व्याख्या की तथा 'क्षमापत्रों' की बिक्री का विरोध आरम्भ किया। हालांकि कुछ अवसरों पर लूथर पुनर्जागरण कालीन अन्य आलोचकों के समक्ष पश्चगामी नज़र आता है।

रविवार, 12 मार्च 2023

Religious reformation movement and its causes

In the Middle Ages, the Roman Catholic Church was established for the purpose of protecting Europe from the invasions of barbarian tribes and to make religious life excellent. This church did commendable work for the spread of civilization in the Middle Ages, but by the early years of the sixteenth century there was a serious change in the situation in Europe. By the end of the Middle Ages, many defects had arisen in the Church. Churches were now becoming places of corruption and luxury. In this way, the movement that took place in Europe in the sixteenth century against the evils prevalent in the Church and Pope, is known as religious reformation.

 Causes of the religious reformation movement

The immediate acceptance of the doctrine established by Luther, by the contemporary European society, is a direct proof that the Reformation had many causes, because it is impossible for any one doctrine to receive such a powerful support suddenly for the attainment of a single cause or purpose.  The reasons for the religious reform movement are as follows-

1. Evils in the Church

Now the churches had become centers of corruption and luxury. The king could not prosecute them in any way, even if they had committed any crime. Another evil prevailing in the Church of that time was the practice of pluralities, by which a priest could preside over several churches and hold several positions. Due to this custom, the arrangement of the churches could not be proper and due to the high income of the priests, their luxury increased.

2. The Evils of the Pope

The Pope was considered the unofficial emperor of Christendom and considered himself to be the representative of God. The Pope was the protector of all Christian states and in each country he appointed his representatives, Ligate and Nuncious, who were not ready to accept orders from anyone other than the Pope. To make his powers more autocratic, the Pope had two privileges, using which he used to prove his autocracy from time to time. One of these privileges was the right to interdict by which he could order the closure of one or all churches in any country. This was an important right because due to the closure of the churches, all religious functions on the occasions of birth, marriage, death etc. in that country would have been banned and thus the public would have to face immense difficulties. The second privilege was called 'ex-communication'. Using this right, he could dethrone the king of any country from Christianity and thus remove him from his position because the king of any other religion could not be the ruler of a Christian country, due to these privileges every Christian king and the people of the country were afraid of the Pope and could not dare to oppose him. The Pope exercised these rights on King Henry II of England.

3. Fall in respect for the Pope

In 1309 AD, the Pope made Ayugnen his capital in place of Rome. It was situated on the border of France. Ayugnen remained the capital of the Pope till 1378 AD, but this period of about seventy years had a wide impact on the religious and political situation of that time. The influence of the King of France on the Pope increased due to the stay of the Pope, due to which the Christian nations of Europe, who were enemies of France, became angry with the Pope and started hating him. For this reason, the ruler of England, Edward III, tried to reduce the authority of the Pope and the churches in England. In 1378 AD, the honor of the Pope suffered a serious blow because at that time there were two Popes and they started calling each other atheists. This situation remained till 1417 AD, due to which the self-respect of the Pope decreased in Europe and the signs of decline in his power began to appear.

4. Powerful despotic monarchies in Europe and their wishes

The property of the churches, the land was increasing rapidly, so the rulers of Europe kept an eye on the property of the churches and the Pope and they wanted to take over it, because the kings of medieval European countries were in great need of money. So they were waiting for the opportunity. Ramsey Mure has also considered the irregularities prevalent in the church and the desire of the kings of the nations of Europe to take over the property of the churches, among the main reasons for the religious movement.

5. Development of nationalism among the people

Due to the influence of the Pope, people had to accept the orders of the Pope instead of the rule of their country. With the rise of the modern era, national sentiment was born in every country and the public was beginning to wake up to the feeling that the Pope was a foreigner, so it became the duty of every country to eliminate the influence of the Pope. People wanted to be loyal to their country. The public had started considering the country more important than religion and churches.

6. Renaissance effect

People became rational because of renaissance. Therefore, they were not ready to accept any theory or thing in the absence of sufficient evidence. Due to Renaissance humanism and secularism, there was a serious impact in the religious field. The Bible was translated into national languages, and the invention of the printing press made it easier to read the Bible. Many religious reformers of Europe went to Italy and after returning to their country informed the public about the evils prevailing in the Pope and religion. In this way Renaissance showed the way to the religious reform movement.

7. Opposition to the Pope by Courageous Reformers

From time to time, there were many religious reformers in Europe who put the evils prevalent in the  Pope and churches in front of the public. Wycliffe is a famous name among these religious reformers. Wycliffe was a professor at Oxford University in England. At the time of Edward III, he raised his voice against the churches and put before the public the political influence of religion and its ill-effects. Wycliffe translated the Bible into English so that people could understand its real meaning and avoid being misled by the clergy. Wycliffe told the king that money was the reason for the corruption prevailing in the churches and suggested him to take possession of their money and property to make the churches and religion sacred again. The second major religious reformer in Bohemia. Hus was a professor at the University of Prague. He propagated new ideas, as a result of which he was burnt alive in 1415 AD. Although Jan Hus died, his principles lived on. The third religious reformer Savonarola took place in Italy, he was also sentenced to death.

8. Immediate Cause

To earn extra money, the Pope received from each Christian nation a portion of his annual income, called anets or first fruits, and various posts were sold in churches. In this way the Pope and the various churches had accumulated immense wealth. But to meet his rising expenses, the Pope had also found a way to earn money. He started giving Indulgence. Anyone could obtain a Indulgence from the Pope by paying money to free himself. This broke the faith of the Christians and they started protesting against the actions of the Pope. Martin Luther led this protest. Martin Luther began to educate people that no one could be absolved of his sins by purchasing indulgences. Money was not the way to attain salvation. It was necessary for man to repent for his past sins.

In short, the sale of Indulgence was the immediate cause of the Reformation. Martin Luther condemned this practice in his Ninety-five Theses and thus started a movement against sin. However, other reasons also cannot be ruled out.

धर्म-सुधार आन्दोलन तथा उसका कारण

 

मध्ययुग में यूरोप की बर्बर जातियों के आक्रमणों से सुरक्षा करने के उद्देश्य के निमित्त तथा धार्मिक जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए रोमन कैथोलिक चर्च की स्थापना की गयी थी। इस चर्च ने मध्ययुग में सभ्यता के प्रसार के लिए सराहनीय कार्य किए, किन्तु सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों तक यूरोप की स्थिति में गम्भीर परिवर्तन हुआ। मध्यकाल के अन्त तक चर्च में अनेक दोष उत्पन्न हो गए थे। गिरजाघर अब भ्रष्टाचार तथा विलासिता के स्थान बनने लगे थे। इस प्रकार तत्कालीन चर्च एवं पोप में व्याप्त बुराइयों के विरोध में सोलहवीं शताब्दी में यूरोप में जो आन्दोलन हुआ, उसे धर्म-सुधार के नाम से जाना जाता है।

                     धर्म-सुधार आन्दोलन के कारण

तत्कालीन यूरोपीय समाज द्वारा, लूथर के द्वारा स्थापित मत को, तुरन्त स्वीकार कर लेना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि धर्म-सुधार के अनेक कारण थे क्योंकि किसी एक कारण अथवा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किसी मत को एकाएक इतना शक्तिशाली समर्थन प्राप्त होना असम्भव है। धर्म-सुधार आन्दोलन के कारण इस प्रकार है-

1.   चर्च में व्याप्त बुराइयां

अब चर्च भ्रष्टाचार एवं विलासिता के केन्द्र बन गए थे। उन पर राजा किसी प्रकार से भी मुकदमा नहीं चला सकता था चाहे उन्होंने कोई भी अपराध क्यों न किया हो। तत्कालीन चर्च में व्याप्त एक अन्य बुराई प्लूरेलिटीज की रीति थी, जिसके द्वारा एक पादरी अनेक गिरजाघरों का अध्यक्ष तथा अनेक पदों पर कार्य कर सकता था। इस रीति के कारण गिरजाघरों की व्यवस्था उचित नहीं हो पाती थी तथा पादरियों की अधिक आय होने के कारण उनकी विलासिता में वृद्धि होती थी।

2.  पोप में व्याप्त बुराइयां

पोप ईसाई जगत् का अनधिकृत सम्राट समझा जाता था तथा वह स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि समझता था। पोप समस्त ईसाई राज्यों का संरक्षक होता था तथा प्रत्येक देश में उसने अपने प्रतिनिधि लिगेट एवं ननसियस नियुक्त किए थे जो पोप के अतिरिक्त किसी की आज्ञा को स्वीकार करने को तैयार न थे। अपनी शक्तियों को और अधिक निरंकुश बनाने के लिए पोप के पास दो विशेषाधिकार थे, जिनका प्रयोग कर वह समय-समय पर अपनी निरंकुशवादिता को प्रमाणित करता रहता था। इन विशेषाधिकारों में से एक अधिकार इण्टरडिक्ट  था जिसके द्वारा वह किसी भी देश के एक अथवा समस्त गिरजाघरों को बन्द करने का आदेश दे सकता था। ये एक महत्वपूर्ण अधिकार था क्योंकि गिरजाघरों के बन्द हो जाने से उस देश में जन्म, विवाह, मृत्यु आदि के अवसरों पर होने वाले समस्त धार्मिक कार्यों पर प्रतिबन्ध लग जाता और जनता को इस प्रकार अपार कठिनाइयों का सामना करना पड़ता। दूसरा विशेषाधिकार 'एक्सकम्यूनिकेशन' कहलाता था। इस अधिकार के प्रयोग से वह किसी भी देश के राजा को ईसाई धर्म से च्युत कर सकता था और इस प्रकार उसे उसके पद से हटा सकता था क्योंकि किसी अन्य धर्म का राजा ईसाई देश का शासक नहीं हो सकता था, इन विशेषाधिकारों के कारण प्रत्येक ईसाई देश का राजा तथा जनता, पोप से भयभीत रहती थी तथा उसका विरोध करने का साहस नहीं कर पाती थी। पोप ने इन अधिकारों का प्रयोग इंग्लैण्ड के राजा हेनरी द्वितीय पर किया था।

3.  पोप के सम्मान में गिरावट

1309 ई. में पोप ने अपनी राजधानी रोम के स्थान पर एयुग्नेन बनायी। यह एयुग्नेन फ्रांस की सीमा पर स्थित था। एयुग्नेन, पोप की राजधानी 1378 ई. तक रही, किन्तु इस लगभग सत्तर वर्ष के समय का तत्कालीन धार्मिक एवं राजनीतिक स्थिति पर व्यापक प्रभाव पड़ा। पोप के एयुग्नेन रहने से पोप पर फ्रांस के राजा का प्रभाव बढ़ गया जिससे यूरोप के ईसाई राष्ट्र जो फ्रांस के शत्रु थे पोप से नाराज हो गए तथा उससे घृणा करने लगे। इसी कारणवश इंग्लैण्ड के शासक एडवर्ड तृतीय ने पोप एवं गिरजाघरों के अधिकारों को इंग्लैण्ड में कम करने का प्रयत्न किया। 1378 ई. में पोप के सम्मान को गम्भीर आघात लगा क्योंकि उस समय दो पोप हो गए तथा एक-दूसरे को नास्तिक कहने लगे। यह स्थिति 1417 ई. तक रही, जिससे पोप का आत्मसम्मान यूरोप में कम हो गया तथा उसकी शक्ति में पतन होने के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे।

4.   यूरोप में शक्तिशाली निरंकुश राजतन्त्र और उनकी कामना   

गिरजाघरों की सम्पत्ति, भूमि तेजी से बढ़ रही थी अतः यूरोप के शासकों की गिरजाघरों एवं पोप की सम्पत्ति पर नजर लगी हुई थी तथा उस पर वे अधिकार करना चाहते थे, क्योंकि मध्यकालीन यूरोप के राष्ट्रों के राजाओं को धन की भारी आवश्यकता रहती थी। अतः वे अवसर की प्रतीक्षा में थे। रैम्जे म्योर ने भी धार्मिक आन्दोलन के प्रमुख कारणों में, चर्च में व्याप्त अनियमितताएं तथा यूरोप के राष्ट्रों के राजाओं की गिरजाघरों की सम्पत्ति पर अधिकार करने की लालसा को ही माना है।

5.  जनता में राष्ट्रीय भावना का विकास  

पोप के प्रभाव के कारण लोगों को अपने देश के नियम के स्थान पर पोप के आदेशों को स्वीकार करना पड़ता था। आधुनिक युग के उदय के साथ ही प्रत्येक देश में राष्ट्रीय भावना का जन्म हुआ और जनता यह भावना जाग्रत होने लगी थी कि पोप एक विदेशी था, अतः पोप के प्रभाव को समाप्त करने का प्रत्येक देश का कर्तव्य हो गया। जनता अपने देश के प्रति वफादार रहना चाहती थी। जनता देश को धर्म एवं गिरजाघरों से अधिक महत्वपूर्ण समझने लगी थी।

6.   पुनर्जागरण का प्रभाव

पुनर्जागरण के कारण लोग तर्कवादी हो गए थे। अतः वे पर्याप्त प्रमाण के अभाव में किसी सिद्धान्त अथवा बात को स्वीकार करने के लिए तैयार न थे। पुनर्जागरण कालीन मानवतावाद तथा सेकुलरिज्म के कारण धार्मिक क्षेत्र में गम्भीर प्रभाव पड़ा। बाइबिल का अनुवाद राष्ट्रीय भाषाओं में किया गया तथा छापेखाने के आविष्कार के कारण बाइबिल का पढ़ना सुगम हो गया। यूरोप के अनेक धर्म-सुधारक इटली गए तथा अपनेदेश लौटकर पोप एवं धर्म में व्याप्त बुराइयों से जनता को अवगत कराया। इस प्रकार पुनर्जागरण ने धर्म-सुधार आन्दोलन को रास्ता दिखाया।

7.  साहसी धर्म-सुधारकों द्वारा पोप का विरोध

यूरोप में समय-समय पर अनेक धर्म-सुधारक हुए जिन्होंने तत्कालीन पोप एवं गिरजाघरों में व्याप्त बुराइयों को जनता के समक्ष रखा। इन धर्म-सुधारकों में एक प्रसिद्ध नाम वाइक्लिफ का है। वाइक्लिफ इंग्लैण्ड में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था। एडवर्ड तृतीय के समय उसने गिरजाघरों के विरुद्ध आवाज उठाई तथा जनता के समक्ष धर्म पर व्याप्त राजनीतिक प्रभाव तथा उसके दुष्परिणाम रखे। वाइक्लिफ ने बाइबिल का अंग्रेजी में अनुवाद किया, जिससे लोग उसका वास्तविक अर्थ समझ सके तथा पादरियों द्वारा गुमराह होने से बच गये। वाइक्लिफ ने राजा को गिरजाघरों में व्याप्त भ्रष्टाचार का कारण धन बताया तथा उसे सुझाव दिया कि गिरजाघरों एवं धर्म को पुनः पवित्र बनाने के लिए उनके धन एवं सम्पत्ति पर अधिकार कर ले। दूसरा प्रमुख धर्म-सुधारक बोहेमिया में जान हुस हुआ। हुस, प्राग विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था। उसने नवीन विचारों का प्रचार किया, जिसके परिणामस्वरूप 1415 ई. में उसे जीवित जला दिया गया। यद्यपि जान हुस की मृत्यु हो गयी, किन्तु उसके सिद्धान्त जीवित रहे। तीसरा धर्म-सुधारक सेवोनैरोला इटली में हुआ, उसे भी मृत्यु-दण्ड दिया गया।

8. तत्कालीन कारण 

अतिरिक्त धन अर्जित करने के लिए पोप प्रत्येक ईसाई राष्ट्र से उसकी वार्षिक आय का एक अंशजिसे ऐनेट्स या फर्स्ट फ्रूट कहते थेप्राप्त करता था तथा गिरजाघरों में विभिन्न पदों को बेचा जाता था। इस प्रकार पोप ने तथा विभिन्न गिरजाघरों ने अपार सम्पत्ति एकत्रित कर ली थी। लेकिन अपने बढ़ते खर्चे को पूरा करने के लिए पोप ने  धन अर्जित करने का भी उपाय ढूंढ़ निकाला था। उसने क्षमा-पत्र देने प्रारम्भ किए। कोई भी व्यक्ति अपने आप मुक्त होने के लिए धन देकर पोप से क्षमा-पत्र प्राप्त कर सकता था। इसने ईसाइयों के विश्वास को तोड़ दिया और वे पोप के कृत्यों का विरोध करने लगे। मार्टिन लूथर ने इस विरोध का नेतृत्व किया। मार्टिन लूथर ने लोगों को शिक्षित करना शुरू किया कि कोई भी व्यक्ति भोग खरीदकर अपने पापों से छुटकारा नहीं पा सकता है। धन मोक्ष प्राप्त करने का तरीका नहीं था। मनुष्य के लिए यह आवश्यक था कि वह अपने पिछले पापों के लिए पश्चाताप करे। 

संक्षेप में कहें तो  पाप मोचक पत्रों  की बिक्री सुधार का तत्काल कारण थी। मार्टिन लूथर ने अपने पंचानवे सिद्धांतों में इस प्रथा की निंदा की और इस तरह पाप के खिलाफ एक आंदोलन शुरू किया। हालांकि अन्य कारणों को भी नकारा नहीं जा सकता।

Importance of the Commercial Revolution

The Commercial Revolution, spanning from the 11th to the 18th century, fundamentally transformed the economic, social, and political landsca...