शनिवार, 25 मार्च 2023

उदार राष्ट्रवादियों की नीतियाँ

 


1.   भारत की एकता

उदारवादियों की मनोवृत्ति का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू था- भारतीयों में एकता की भावना का बोध कराना। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कहना था कि एकता के अभाव में भारत अपनी महानता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए हमें सर्वप्रथम पूरे भारत को स्नेह के बंधन में बांधना होगा। दादाभाई नौरोजी ने भी इस बात पर जोर दिया कि विभिन्न धर्मों को मानने वाली जनता में एकता तथा सहानुभूति होनी चाहिए। उदारवादी नेताओं के प्रचार से भारत के बुद्धिजीवी वर्ग में एकता की भावना का विकास हुआ तथा विभिन्न धर्मों एवं व्यवसायों में लगे लोग राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित होने लगे।

2.  ब्रिटिश शासन के प्रति भक्ति भावना

उनका मानना था कि ब्रिटिश शासन ने ही भारत को आधुनिक सभ्यता के मार्ग पर अग्रसर किया, स्वतन्त्रता की भावना उत्पन्न की, राष्ट्रीय चेतना को जन्म दिया और देश की जनता को एकसूत्र में बांधने का काम किया। जस्टिस रानाडे का मानना था कि भारत में अँग्रेजी शासन भारतीयों को नागरिक एवं सार्वजनिक गतिविधियों का राजनैतिक शिक्षण देने की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध हुआ था। उनका कहना था- 'हिन्दुओं एवं मुसलमानों में वैज्ञानिक क्रियाकलाप, नवीन शिक्षण तथा व्यसायिक दृष्टिकोण की कमी होने के कारण प्रगति शिथिल होती गयी। अँग्रेजों के आगमन ने यह स्थिति बदल दी। भारत को एक नवीन ज्योति दिखाई दी। आधुनिकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ। दादाभाई नौरोजी की धारणा थी कि अँग्रेजों का शासन भारत के चहुँमुखी विकास के लिए दैविक वरदान का कार्य करेगा।

3.  क्रमिक सुधारों के पक्ष में

उदारवादी नेता देश की शासन व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तनों के विरोधी थे। उनका मानना था कि भारत में सुधार कार्य एक साथ सम्भव नहीं है, इसलिए क्रमिक सुधार होने चाहिये। वे राजनीतिक एवं प्रशासकीय क्षेत्र में धीरे-धीरे सुधार लाना चाहते थे। वे सरकार में जनता की समुचित भागीदारी चाहते थे। आर. जी. प्रधान ने लिखा है- 'कांग्रेस के प्रारम्भिक दिनों के प्रस्तावों से पता चलता है कि उनकी मांगें अत्यन्त साधारण थीं। कांग्रेस के नेता आदर्शवादी नहीं थे। वे हवाई किला नहीं बनाते थे। वे व्यवहारिक सुधारक थे तथा आजादी, क्रमशः कदम-कदम करके हासिल करना चाहते थे।'

4.  ब्रिटेन से स्थायी सम्बन्धों की स्थापना

उदारवादी नेता, पाश्चात्य सभ्यता एवं विचारों के पोषक थे। उनकी मान्यता थी कि भारतीयों के लिए, भारत का ब्रिटेन से सम्बन्ध होना एक वरदान है। गोपालकृष्ण गोखले का कहना था- 'हमारा भाग्य अँग्रेजों के साथ जुड़ा हुआ है। चाहे वह अच्छे के लिए हो अथवा बुरे के लिए।' इसी प्रकार दादाभाई नौरोजी का कहना था- 'कांग्रेस ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने वाली संस्था नहीं है, अपितु वह तो ब्रिटिश सरकार की नींव को दृढ़ करना चाहती है।'

5.  अँग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास

उदारवादियों का विश्वास था कि अँग्रेज, संसार के सर्वाधिक ईमानदार, शक्ति सम्पन्न और प्रजातन्त्रवादी लोग हैं। वे भारत में भी प्रजातान्त्रिक संस्थाओं का विकास करेंगे। यदि ब्रिटिश संसद और जनता को भारतीय समस्याओं से अवगत कराया जाए तो वे निश्चित रूप से सुधार के कदम उठायेंगे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कहना था- 'अँग्रेजों के न्याय, बुद्धि और दया भावना में हमारी दृढ़ आस्था है। संसार की इस महानतम प्रतिनिधि सभा, संसदों की जननी ब्रिटिश कॉमन सभा के प्रति हमारे हृदय में असीम श्रद्धा है; अँग्रेज स्वेच्छा से भारत से चले जायेंगे।'

6.  ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन

कांग्रेस के उदारवादी नेता ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन चाहते थे। कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा- 'स्वशासन एक प्राकृतिक देन है, ईश्वरीय शक्ति की कामना है। प्रत्येक राष्ट्र को स्वयं अपने भाग्य का निर्णय करने का अधिकार होना चाहिए, यही प्रकृति का नियम है।' ब्रिटिश साम्राज्य से सम्बन्ध विच्छेद की तो वे स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकते थे। इसलिए पूर्ण स्वतन्त्रता की बात उनके मस्तिष्क में नहीं थी। वे तो ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन प्राप्त करना चाहते थे।

7.  वैधानिक उपायों में विश्वास

चूँकि उदारवादी नेताओं को अँग्रेजों की न्यायप्रियता में अटूट विश्वास था, अतः वे क्रान्तिकारी उपायों को अपनाने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने सरकार के साथ संघर्ष करने की बात कभी नहीं की। उनका पूर्ण विश्वास वैधानिक संघर्ष में था। वे अपने कार्यों से सरकार को असन्तुष्ट नहीं करना चाहते थे। हिंसात्मक एवं क्रान्तिकारी उपाय उनके मस्तिष्क में कभी नहीं आये। उन्होंने प्रार्थनाओं, प्रार्थना-पत्रों, याचिकाओं, स्मरण-पत्रों और प्रतिनिधि-मण्डलों द्वारा सरकार से अपनी न्यायोचित मांगों को मानने का आग्रह किया। अनेक विद्वानों का मानना है कि इस समय कांग्रेस की नीति प्रार्थना करने की थी, अपनी मांगों के लिए संघर्ष करने की नहीं।

इस रीति-नीति को कुछ लोगों ने राजनीतिक भिक्षावृत्ति कहा। अन्य विद्वानों का मत है कि उदारवादियों ने अँग्रेजी शासन का इसलिए विरोध नहीं किया क्योंकि उन्हें आंशका थी कि यदि उन्होंने ऐसा किया तो अँग्रेज सरकार कांग्रेस को ही समाप्त कर देगी। संभवतः उनका ऐसा सोचना सही था। अभी कांग्रेस अपनी जड़ें मजबूत नहीं कर पाई थी। इसलिए उन्होंने जनता की इच्छाओं तथा भावनाओं को अपने प्रस्तावों तथा अन्य वैधानिक उपायों द्वारा सरकार के सामने बड़े विनम्र रूप में प्रस्तुत किया।

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