उदारवाद कांग्रेस के
आरम्भिक काल का दौर था और उग्र राष्ट्रवाद उसकी प्रतिक्रिया में उत्पन्न भारत की
स्वाभाविक चेतना का प्राकट्य। इस कारण इन दोनों विचारधाराओं में पर्याप्त अंतर थे।
यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि इन दोनों विचार धाराओं के उद्देश्यों में जितना
अधिक अंतर था उतना ही अधिक अंतर उनके साधनों में भी था। इस अंतर को निम्नलिखित
बिंदुओं में स्पष्ट किया जा सकता है-
1.
राजनीतिक उद्देश्यों में
अंतर:
उदारवादियों एवं
उग्रवादियों के राजनीतिक उद्देश्यों में बहुत बड़ा अंतर था। उदारवादी नेता ब्रिटिश
साम्राज्य के अन्तर्गत ही उत्तरदायी सरकार की कल्पना करते थे। वे अँग्रेजों के
रहने में ही भारत का कल्याण समझते थे। एक बार लॉर्ड हार्डिंग ने गोखले से कहा- 'तुम्हें कैसा लगेगा यदि तुम्हें मैं यह कहूँ कि एक माह में ही समस्त
ब्रिटिश अधिकारी और सेना भारत छोड़ देंगे।' इस पर गोखले का
उत्तर था- 'मैं इस समाचार को सुनकर प्रसन्नता अनुभव करूंगा
किन्तु इससे पूर्व कि आप लोग अदन तक पहुँचेगें, हम आपको वापस
आने के लिये तार कर देंगे।' उदारवादियों से ठीक उलट, उग्रवादियों ने देश के लिये स्वराज की मांग की। तिलक का कहना था कि जितनी
जल्दी हो सके अँग्रेजों को भारत से चले जाना चाहिए। इससे भारतीयों को अपार
प्रसन्नता होगी। उग्रवादी नेताओं का मानना था कि विदेशी सुशासन कितना ही अच्छा
क्यों न हो, वह स्वशासन से श्रेष्ठ नहीं हो सकता।
2.
राजनीतिक आंदोलन के तरीके
में अंतर:
उदारवादी नेता, संवैधानिक उपायों, अनुनयों, विनम्र
प्रार्थनाओं, स्मृति पत्रों, ज्ञापनों,
अधिवेशन में परित प्रस्तावों तथा भाषणों के माध्यम से भारतीयों के
राजनीतिक अधिकारों में वृद्धि चाहते थे। वे अपनी सुविधा भोगी जिंदगी में व्यवधान
उत्पन्न करके जेल जाने को तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने पक्ष को मजबूत करने के
लिये साम्राज्यवादियों के देश इंग्लैण्ड में जाकर भी अभियान चलाया तथा सरकार से
सहयोग करने का मार्ग अपनाया। इसके विपरीत उग्र राष्ट्रवादी नेता, अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिये उग्र राष्ट्रीय आंदोलन एवं राजनीतिक
संघर्ष में विश्वास करते थे। वे सड़कों पर लाठियां खाने एवं जेल जाने के लिये तैयार
थे। विदेशी शासन से सहयोग का विचार उन्हें तनिक भी मान्य नहीं था। वे स्वराज्य को
अपना अधिकार मानकर उसे स्वयं प्राप्त करना चाहते थे। उन्हें ब्रिटिश सरकार से
सहानुभूति, भीख एवं उदारता की अपेक्षा नहीं थी। विपिनचन्द्र
पाल का कहना था- 'कोई किसी को स्वराज्य नहीं दे सकता। यदि आज
अँग्रेज उन्हें स्वराज्य देना चाहें तो वह ऐसे स्वराज्य को ठुकरा देंगे क्योंकि
मैं जिस वस्तु को उपार्जित नहीं कर सकता; उसे स्वीकार करने
का भी पात्र नहीं हूँ।'
3.
भारतीय संस्कृति से लगाव में
अंतर:
उदारवादी नेता
पाश्चात्य शिक्षा एवं जीवन शैली से प्रभावित थे। वे अँग्रेजों की न्यायप्रियता एवं
परोपकारिता में विश्वास करते थे। इस कारण वे भारत के पश्चिमीकरण के समर्थक थे।
गोपालकृष्ण गोखले का विचार था कि भारतीय परम्पराएं भारत के धर्मनिरपेक्ष तथा
प्रजातान्त्रिक आधुनिक राष्ट्र बनने के मार्ग में बाधक हैं। जबकि उग्रवादी नेता, भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति में विश्वास करते थे और हिन्दू
राष्ट्रवाद से अत्यधिक प्रभावित थे। उग्रवादियों का राष्ट्रवाद भारत के गौरवपूर्ण
प्राचीन महत्त्व पर आधारित था। तिलक तथा अन्य उग्रवादी नेताओं ने हिन्दू संस्कृति
के पुनरुत्थान का प्रचार किया। तिलक ने महाराष्ट्र में शिवाजी उत्सव तथा गणपति
पूजा को पुनर्जीवित किया तथा विपिनचन्द्र पाल ने कलकत्ता में विराट स्तर पर काली
पूजा की परम्परा आरम्भ की। लाला लाजपतराय ने आर्य समाज की गतिविधियों को बल प्रदान
किया। गणपति पूजा के उत्सव में हिन्दुओं के साथ-साथ शिया और सुन्नी भी भाग लेते
थे।
4.
स्वदेशी आन्दोलन सम्बन्धी
नीति में अंतर:
कांग्रेस के मंच से
1891 ई. में विदेशी वस्तुओं की जगह स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने का नारा दिया गया था
परन्तु इस दिशा में कभी गम्भीर प्रयास नहीं किया गया था। उदारवादी नेतृत्व में
स्वदेशी का विचार भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन देने तक ही सीमित था जबकि
उग्रवादी नेतृत्व ने बंग-भंग आन्दोलन के दौरान स्वदेशी अपनाने के नारे को ब्रिटिश
साम्राज्यवाद के विरुद्ध शक्तिशाली हथियार बना लिया। उग्रवादी नेतृत्व ने स्वदेशी
के विचार को प्रत्येक भारतीय वस्तु के साथ गहन अनुराग का स्वरूप प्रदान किया।
5.
विदेशी विचारों एवं वस्तुओं
के बॉयकाट सम्बन्धी नीति में अंतर:
उदारवादी नेता विदेशी
वस्तुओं एवं विचारों के बहिष्कार के घोर-विरोधी थे। उनका मानना था कि ऐसा करना
अव्यावहारिक है तथा जनता की सेवा के लिए उपलब्ध सुनहरे अवसरों का परित्याग है।
जबकि उग्रवादी नेता, विदेशी वस्तुओं के साथ-साथ
विदेशी विचारों के बहिष्कार के भी समर्थक थे। उनकी दृष्टि में बहिष्कार का अर्थ
केवल विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार नहीं था अपितु विदेशी शासन से असहयोग, सरकारी नौकरियों तथा उपाधियों का बहिष्कार तथा विदेशी सामान खरीदने-बेचने
वालों का बहिष्कार भी सम्मिलित था।
6.
शिक्षा सम्बन्धी विचारों में
अंतर:
ब्रिटिश शासन ने भारत
की शिक्षा नीति पर पूर्ण रूपेण शिकंजा कस रखा था। इस पर भी उदारवादी नेता
पाश्चात्य शिक्षा को भारतीयों के लिए अच्छा मानते थे। बंग-भंग आन्दोलन आरम्भ होने
पर सरकार द्वारा सरकारी शिक्षा विभाग का उपयोग, छात्रों और
शिक्षकों को बॉयकाट तथा स्वदेशी आन्दोलन से दूर रखने के लिए किया गया। शिक्षा के
सम्बन्ध में उग्रवादी नेताओं के विचार, उदारवादी नेताओं की
नीति से बिल्कुल विपरीत थे। उग्रवादी नेता पाश्चात्य शिक्षा के स्थान पर राष्ट्रीय
शिक्षा चाहते थे तथा शिक्षा नीति पर विदेशी शासकों का अंकुश नहीं चाहते थे। महाराष्ट्र
में तिलक और पंजाब में लाजपतराय आदि नेताओं ने राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार कार्य
को आगे बढ़ाया ताकि नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना का संचार हो सके।
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