कांग्रेस में रहते
हुए कुछ व्यक्तियों ने यह महसूस किया कि मात्र अनुनय-विनय तथा तर्क-बहस आदि से
हमें आजादी नहीं मिल सकती है। साम्राज्यवाद से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष के मार्ग
पर चलना आवश्यक है। अत: इन विचारों के धरातल पर उग्रवादी मानसिकता का पोषण हुआ। इस
उग्रवादी विचारधारा और उग्रवाद के उदय के निम्नलिखित कारण थे-
1.
साम्राज्यवादिता की
पहचान
1887 के बाद
ही सरकार का घृणित चेहरा लोगों के सामने आने लगा था और दादा भाई नौरोजी ने अपने 'धन के बर्हिगमन' सिद्धान्त द्वारा अंग्रेजों को
बेनकाब कर दिया। कांग्रेस के आरम्भिक 20 वर्षों में 1896-1900 के बीच पड़ने वाले भयंकर अकाल में करीब 95 लाख लोग
मारे गए। परन्तु अंग्रेजी शासन ने अकाल पीड़ित जनता के लिए कुछ नहीं किया। राज
सेवाओं में भर्ती की दोमुही नीति से भारतीय क्षुब्ध हो उठे थे तथा दक्षिण भारत के
दंगों के प्रति भी सरकार ने उदासीन रवैया अपना लिया था। इस तरह से भारतीयों की
परेशानी को शासन द्वारा अनदेखा करना बेहद कष्टकारी था।
2.
कांग्रेस की
उपलब्धियों से असंतोष
कांग्रेस का युवक
वर्ग अपने पुराने नेतृत्वकर्ताओं की उपलब्धियों से संतुष्ट नहीं था। उनकी
अनुनय-विनय की नीति उनके उद्देश्यों को पूरा करने में पूर्णतः असफल रही थी। अतः
युवक वर्ग इस नीति का तीव्र आलोचक बन गया और यह मानने लगा कि कांग्रेस की यह
राजनीतिक भिक्षावृत्ति की नीति स्वतंत्रता प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा है। तिलक ने कांग्रेस के सम्मेलनों को 'चापलूसों के सम्मेलन की संज्ञा' दी तथा कहा कि
कांग्रेस अपने अनुनय-विनय से नहीं बल्कि 'प्रत्यक्ष-क्रिया'
से स्वराज प्राप्त कर सकती है।
3.
शिक्षा का विकास
भारत में शिक्षा के व्यापक प्रचार प्रसार से लोगों में राजनीतिक तथा सामाजिक चेतना का संचार हो उठा था। वे अपने हित में गलत-सही का विभेद करने लगे थे। उन्होंने अपनी शिक्षित बेरोजगारी के लिए विदेशी शासन को दोषी ठहराया और वे इस गुलामी के जुएँ को उतार फेंकने को उद्यत् हो रहे थे। इसके लिए उनका झुकाव उग्रवादियों की तरफ बढ़ रहा था, जो उनके इस भावना को मूर्तरूप दे सकते थे।
4.
भारत में पश्चिमीकरण
के विरुद्ध असंतोष
कांग्रेस के उदारवादी
व्यक्ति भारत में बदलाव हेतु पश्चिमीकरण के समर्थक थे, जिस पर कांग्रेस के उग्रवादी विचारधारा के लोग सहमत नहीं थे। वे भारत के
पश्चिमीकरण के विरोधी थे। वे यह सोचते थे कि इससे भारतीय सभ्यता पाश्चात्य संस्कृति
में विलीन हो जाएगी। अरविन्द घोष ने कहा 'स्वतंत्रता हमारे
जीवन का लक्ष्य है और इसे हिन्दू धर्म ही पूरा करेगा' ऐसे
में दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द तथा बंकिम चन्द्र चटर्जी ने
भारतीयों में पाश्चात्य संस्कृति के विरुद्ध असंतोष को जगाया तथा इन्होंने भारतीय संस्कृति
की समृद्धि, लोगों के सामने लाकर पश्चिमी सभ्यता के कुत्सित
रूप को उजागर कर दिया था।
5.
अन्तर्राष्ट्रीय
प्रभाव
इस समय की
अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं ने भी भारत में उम्र राष्ट्रवाद को उभारने में मदद की। 1868 में जापान का एक महाशक्ति बन जाना, तथा 1896 में इथोपिया द्वारा इटली की सेनाओं की पराजय, जापान
द्वारा रूस की पराजय ऐसी घटनाएँ थीं, जिसने भारतीयों के
मन-मस्तिष्क को उद्वेलित किया और उन्हें स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए उकसाया
क्योंकि इन घटनाओं ने अंग्रेजों की अजेयता का मिथक तोड़ डाला था। ‘गैरेट' ने लिखा है कि इटली की इथोपिया जैसे राष्ट्र
से हार के बाद तिलक के आन्दोलन को काफी बल मिला। अतः भारतीय इस सच्चाई को जान चुके
थे कि एशिया महाद्वीप के देश बिना किसी बाहरी सहयोग से उन्नति कर सकते हैं।
6.
भारत का तीव्र शोषण
19वीं शताब्दी
में पड़े भयंकर अकाल के बावजूद लगान वसूली जारी रखना तथा ब्रिटेन से आयातित माल पर
कर न लगाना जबकि निर्यातित मालपर ब्रिटेन में भारतीय उत्पादों पर आयात कर लगाना यह
अंग्रेजों की भारतीय आर्थिक शोषण की नीति थी, जिसकी घोर
निन्दा की गई। दक्षिण में दंगे तथा उत्तर पश्चिम में प्लेग जैसे महामारियों में भी
भारतीय जनता का शोषण करना तथा उन्हें बेइज्जत करना वास्तव में कष्टप्रद था। तिलक
ने प्लेग के अधिकारियों के विषय में कहा कि "ये प्लेग अधिकारी प्लेग से भी
ज्यादा खतरनाक हैं।"
7.
आत्म विश्वास तथा
आत्म सम्मान का विकास
कांग्रेस के प्रमुख
उग्रवादी नेता 'लाल, बाल, पाल' अर्थात् लाला लाजपत राय, बाल
गंगाधर तिलक तथा विपिन चन्द्र पाल ने भारतीयों को स्वाभिमान का पाठ पढ़ाया। इनका
कहना था कि विदेशी शासन से अच्छा स्वदेशी जुल्म ही ठीक है। तिलक ने कहा
"स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है। मैं इसे लेकर रहूँगा।" इन्होंने
जनता से अपील की कि वे अपनी शक्तियों को पहचानें तथा अपने स्वाभिमान को जगाएँ। तिलक
ने महाराष्ट्र में अपने गणेश उत्सव तथा शिवाजी महोत्सव के द्वारा यह काम बखूबी
किया था।
8.
कर्जन की
प्रतिक्रियावादी नीति
लार्ड कर्जन का शासन
काल (1899-1905)
अपने भूलों तथा आयोगों के लिए प्रसिद्ध है। इसके बंगाल विभाजन जैसे
घिनौने कार्य की देश भर में तीव्र भर्त्सना हुई। कर्जन ने भारत को एक राष्ट्र
मानने से इन्कार कर दिया था। वह यह समझता था कि भारत के लोग जाति सम्प्रदाय के
आधार पर भिन्न हैं। उसने कांग्रेस की कटु आलोचना की तथा कहा "यह मन की भड़ास
निकालने वाली एक संस्था मात्र है।" वह भारतीयों को झूठा तथा मक्कार समझता था।
उसकी भारत के प्रति प्रतिक्रियावादी नीति 1905 में बंगाल
विभाजन के समय अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। वह भारत को साम्प्रदायिक आधार पर बाँट
देना चाहता था। उसके इस कार्य से ब्रिटिश सरकार की मंशा स्पष्ट हो गयी थी।
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