उदारवादी
नेतृत्व के आलोचको में इतिहासकार, विद्वत समाज और उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी
सभी शामिल हैं। उदारवादियों के राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्त्व पर बात करने के पहले
हम इनकी आलोचनाओं पर विचार करेंगे।
1.
इन
आलोचनाओं में सबसे पहले तो यह कहा गया कि उनकी कार्य पद्धति बहुत ही ज्यादा नरम और
कमजोर थी। इतना ही नहीं इनके विरोधी यह कहने में भी नहीं हिचकते थे कि वे
अंग्रेजों के साथ मिलीभगत करते थे। साथ ही यह कहा गया कि उनके कार्यविधि में कोई
पैनी धार नहीं थी। लाला लाजपत राय ने एक बार यह कहा था कि अपने 20 सालों के कार्य
के बाद उदारवादियों को रोटी के स्थान पर पत्थर मिला। इस प्रकार उनके काम को कुछ
लोग महत्वहीन मानते हैं।
2.
उनकी
दूसरी आलोचना इस आधार पर की जाती है कि उनके काम करने का तरीका और पद्धति ‘घुटने
टेक’ नीति से चलती थी। क्योंकि वे ज्यादातर याचिका और प्रार्थना पत्रों में
विश्वास करते थे। इसलिए कुछ लोग उन्हें राजनीतिक संन्यासी कहते थे। तिलक ने एक बार
कहा था कि पुराना दल (उदारवादी) अंग्रेजों के पास याचिका भेजने में विश्वास करता
था जो उग्रवादियों के विश्वास के विपरीत था।
3.
उनकी
तीसरी आलोचना इस आधार पर की जाती है उनके सोच विचार में एक मूलभूत विरोधाभास था।
क्योंकि वह विश्वास के स्तर पर तो यह मानते थे कि अंग्रेजी राज के चलते ही भारत
में गरीबी की समस्या आई है, लेकिन उसके अनुरूप वे कार्यशैली अपनाने में
विश्वास नहीं करते थे। उनके विरोधी यह भी कहते थे कि जब उदारवादियों ने स्वराज और
स्व-शासन की बात करनी शुरू भी की तो यह उनके विश्वास की उपज नहीं थीं बल्कि वे उस
समय की राजनीतिक परिस्थिति से प्रभावित होकर ऐसा दिखावे के लिए कर रहे थे। इसके
समर्थन में सूरत विभाजन में उनकी भूमिका की चर्चा होती है। आलोचकों के अनुसार 1907
के सूरत कांग्रेस में उदारवादियों ने ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी कि तिलक और उनके
अन्य साथियों को कांग्रेस से नाता तोड़ना पड़ा। इतना ही नहीं, जब
तिलक, लाला जी आदि को सजा मिली तब भी वह अंग्रेजों के मोर्ले
मिन्टो सुधार के अनुसार काम करने से नहीं हिचके। वह हमेशा संवैधानिक घरौंदे के
अन्दर ही घिरे रहे और उससे निकलकर जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं का निदान खोजने
की कभी कोशिश नहीं की।
4.
उनकी
चौथी आलोचना इस आधार पर की जाती है कि उन्होंने न तो जनआंदोलन संगठित करने की
कोशिश की और न ही वे इसमें सफल हुए। उसकी असफलता के कारण यह थे कि वे मध्य वर्ग के
थे और जनता से उनका लगाव भी कम था। इतना ही नहीं,
वे राष्ट्रीय आंदोलनों की
एकता को बरकरार रखने में भी वे सफल नहीं हुए। वे मुस्लिम जनमानस को प्रभावित कर
पाने में असफल हुए। साथ ही वे उग्रवादियों को भी कांग्रेस के अंदर रख पाने में
पूरी तरह असफल हुए।
5.
अन्त
में यह भी कहा जाता है कि ब्रिटिश शासको को भी उन पर विश्वास नहीं था।
उदाहरणस्वरूप, वायसराय डफरिन,
जो कांग्रेस के जन्म के समय
वायसराय थे, ने कहा था कि किसी दिन कांग्रेस ऐसी मांग उठाएगी जिसकी
पूर्ति करना सरकार के लिए असंभव होगा। इतना ही नहीं,
दूसरे वायसराय लार्ड कर्जन
ने तो यह कसम खा ली थी कि वह किसी दिन कांग्रेस को द़फनाने में सफल होंगे। ब्रिटिश
लोगों ने उदारवादियों का उपयोग राष्ट्रीय आंदोलन को तोड़ने के लिए किया। उन्होंने
हिन्दुओं को मुसलमानों के विरुद्ध तथा उदारवादियों को उग्रवादियों के विरुद्ध
उपयोग किया।
तथापि यह कहना गलत होगा कि वे अंग्रेजों की कठपुतली बन गए।
उनकी अपनी सोच ही नरमपंथी थी। अंग्रेजों ने कभी भी उदारवादियों की मांग का खुले मन
से समर्थन नहीं किया। वे हमेशा उपहार और दंड की दोहरी नीति अपनाते रहे। और इन सभी
कार्यों में ब्रिटिश शासकों ने उदारवादियों को हथकंडों के रूप में उपयोग किया। इन
सारी आलोचनाओं के बावजूद उदारवादियों के समर्थन में कुछ बात कही जा सकती हैं।
1.
पहली, तो
यही कि राजनीतिक और संवैधानिक क्षेत्र में उदारवादियों की भूमिका को नकारा नहीं जा
सकता। चाहे 1892, 1909, 1939,
1935 संवैधानिक अधिनियमों के
माध्यम से प्रजातंत्रीकरण की प्रक्रिया में चाहे कितनी भी कमजोर आयी हो, इनमें
किसी न किसी रूप में उदारवादियों की भूमिका को तो स्वीकार करना ही होगा।
2.
दूसरी
बात कि, भारत के प्रशासन में ऊँचे पदों पर रहकर उन्होंने देश की
सेवा की। इन सारे स्थानों पर उनकी एक अलग पहचान रही। और भारतीय प्रतिभा को सिद्ध
करने में उनकी एक अहम भूमिका थी। इन सारी बातों के चलते। 1947 में राजनीतिक सत्ता
का जो हस्तांतरण हुआ, उनमें किसी न किसी रूप में उदारवादियों की
भूमिका तो माननी ही होगी।
3.
तीसरा
कि, हमें उदारवादियों के समुचित कार्यों का मूल्यांकन करने हेतु सारी सीमाओं और
परिस्थितियों को ध्यान में रखना होगा। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि 1885
में जब उनका उदय हुआ। उसके तीन दशक पहले भारत पूरी तरह समाप्त हो चुका था। इससे
लोगों का हिम्मत पस्त हो चुका था। देश में भय का माहौल था। ऐसे समय में
उदारवादियों ने एक ऐसा राष्ट्रीय मंच खड़ा किया जहाँ देश की समस्याओं को उजागर
किया जा सकता था। यह ठीक है कि उनकी आवाज धीमी थी लेकिन साथ ही हम यह न भूलें कि
वे लोग मार्गदर्शक का कार्य कर रहे थे। उन्होंने जो नींव रखी उसी आधार पर और लोगों
ने आगे काम किया।
4.
एक रूप में वे ‘मील के पत्थर’ थे जिन्होंने
राष्ट्रीय आंदोलन का खाका तैयार किया। तथा कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय संगठन को विकट
परिस्थितियों में खड़ा करना था। हम यह न भूले कि जिस राष्ट्रीय कांग्रेस से
स्वाधीनता मिली उसकी नींव इन्होंने ही 1885 में रखी थी।
5.
हमें
याद रखनी चाहिए कि चाहे उन्होंने बहुत सीमित मांगे रखी हो उसकी परिणति बाद में
स्वराज की मांग में तबदील हो गई। यह भी सही है कि वे खुद बड़े आंदोलन का निर्देशन
नहीं कर सके। लेकिन उन्होंने जो परंपरा बनाई,
वही रास्ता अंत में
‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ की मुकाम तक पहुंचा।
6.
साथ
ही भारत की एकता, धर्मनिरपेक्षता,
अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण, कानून
का राज्य, नागरिक आजादी आदि उनके विश्वास के मूलमंत्र थे। यह अपने
आपमें एक बड़े पुरुषार्थ का काम था।
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