उग्रवादियों
की सारी त्याग तपस्या के बावजूद उनकें आलोचकों की कमी नहीं रही। कई बातों के आधार
पर उनकी आलोचना हुई। उनकी प्रमुख आलोचनाएँ इस प्रकार हैं -
1.
एक
तो यही की उग्रवादियों ने राष्ट्रवाद की जो नई अवधारणा प्रचारित की जिसमें धार्मिक
भावना का घालमेल हुआ और जिसके चलते देश के सामने कई समस्याएँ उभर कर सामने आईं।
इसका एक सीधा नतीज़ा तो हिन्दू-मुसलमान के मध्य बढ़ती दूरी के रूप में आया। कहा यह
जाता है कि 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना महज़ एक ऐतिहासिक घटना नहीं थी बल्कि
यही युग था जब देश की राजनीति में उग्रवादी राजनीति अपने शिखर पर थी। इस प्रकार
शायद मुस्लिम समाज में एक नई उपराष्ट्रीयता की बात उभर कर आई।
2.
उग्रवादियों
के विरुद्ध दूसरी बात यह कही जाती है कि अपने त्याग तपस्या के बावजूद उग्रवादी लोग
बड़े पैमाने पर जन आंदोलन पैदा नहीं कर सके। सिर्फ बंग-भंग के विरुद्ध एक बड़ा
आंदोलन हुआ। इस स्थापना के पक्ष में यह तर्क भी दिया जाता है जब 1907 के बाद सरकार
ने अपना दमन चक्र बड़े पैमाने पर चलाया तो उग्रवादी राजनीति तितर-बितर हो गई और
सरकार का सामना वे बड़े पैमाने पर नहीं कर सके।
3.
तीसरी
बात यह है कि वे हिंसा, अहिंसा के प्रश्न पर स्पष्ट दृष्टि नहीं अपना
सके। अरविन्द तो यह मानते ही थे कि ज़रूरत पड़ने पर हिंसा का प्रयोग भी त्याज्य
नहीं है। तिलक भी इस मुद्दे पर बहुत स्पष्ट नीति नहीं अपनाते थे। जब कुछ लोग हिंसा
के माध्यम से अंग्रेजी राज का विरोध करते थे वे अप्रत्यक्ष रूप से ही सही वे उनका
समर्थन करते थे। इस क्रम में याद रखने की बात है कि 1908 में बंगाल क्रांतिकारियों
के समर्थन के कारण ही उनको छः साल की सजा हुई।
4.
इस
प्रकार कुछ लोग यह मानते हैं कि उग्रवादियों के कारण देश में सशस्त्र आंदोलन का
उदय हुआ और वे ही इसके जनक थे।
लेकिन इन सारे तर्को के विपक्ष में भी बहुत बातें कही जा
सकती हैं। एक तो यही कि उनको मुस्लिम विरोधी कहना गलत होगा। क्योंकि 1916 में लखनऊ
पैक्ट में तिलक की अहम भूमिका थी। उनके द्वारा बड़ा जन आन्दोलन न संचालित होने की
जहाँ तक बात है, हमें यह याद रखना है कि बंग-भंग और होम रूल आंदोलन के चलते
राष्ट्रहित के लिए काम करने वालो की फौज तैयार हो गई थी, जिसका
फायदा गांधी जी को अपने आंदोलन में मिला। इस प्रकार यह कहना पूर्णतया सत्य नहीं है
कि तिलक एवं अन्य उग्रवादी जन आंदोलन खड़ा करने में सक्षम नहीं थे। उसी तरह अहिंसा, हिंसा
के सवाल पर भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। तिलक की मुख्य मान्यता थी कि हिंसा अहिंसा
की बात हमारे हाथ में नहीं है, बल्कि सरकार आंदोलनकारियों के साथ कैसा
व्यवहार करती है उसी से निर्णय होगा कि लोग आज़ादी की लड़ाई किस रास्ते से लड़ेंगे।
उग्रवादियों
का राष्ट्रीय आंदोलन में योगदान
इन सारे तर्को के बावजूद इतना तो कहा ही जा सकता है कि
राष्ट्रीय आंदोलन में उग्रवादियों की अहम भूमिका रही।
1.
पहली
बात तो यही कि वैचारिक स्तर पर उनका योगदान अपने-आप में बहुत महत्त्वपूर्ण रहा।
उन्होंने राष्ट्रवाद की एक नई अवधारणा दी। हमें याद रखना चाहिए कि उदारवादी लोग
मुख्यतः यूरोप के राष्ट्रवाद से प्रभावित थे जिसमें लोगों में भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक
एकता पर ही जोर था। इस प्रकार एक पंथ निरपेक्ष राज्य की परिकल्पना ही उसमें मुख्य
बात थी।
2.
उग्रवादियों
ने राष्ट्रवाद की इस अवधारणा में कई नए आयाम जोड़ दिए। उन्होने राष्ट्रवाद में
मातृत्व का प्रतीक जोड़कर एक बहुत ही भावनात्मक विचार धारा को जन्म दिया। उन्होंने
राष्ट्र और लोगों के बीच अभूतपूर्व भावनात्मक संबंध बनाने की कोशिश की। आर्य समाज
ने भी इसमें अपनी भूमिका निभाई और उन्होंने वैदिक समाज एवं वैदिक विचारधारा को
पुनर्जीवित कर एक उग्र राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न की। लाला लाजपत राय ने स्पष्ट
शब्दों में कहा था कि हमारा उद्देश्य एक नए ढंग की देश भक्ति की भावना को पैदा
करना है। वह एक धार्मिक भावना के रूप में प्रसारित हो ताकि लोग उसके लिए जी सके और
जरूरत पड़ने पर मर सके। लेकिन बंगाल में इससे भी आगे बढ़कर बंकिम चन्द्र ने देश को
एक मां के रूप में चित्रित किया जिसके बच्चों का प्रमुख कर्त्तव्य उसकी मुक्ति के
लिए काम करना है। अरविंद घोष ने इसको एक जीवंत प्रतीक बना दिया। उन्होंने साफ
शब्दों में कहा कि राष्ट्रवाद एक राजनीतिक कार्यक्रम न होकर भगवान द्वारा प्रदत्त
एक धार्मिक कृत्य है। देश के युवकों का आह्वान करते हुए उन्होंने यह कहा कि देश
सेवा हम सब को अपने शरीर से, अपनी बुद्धि से,
अपने धन से, अपनी
उपासना से करनी है। यह मातृ-पुत्र का रिश्ता इतना भावनात्मक बना कि बंगाल में यह
लोक मानस तक पहुँच गया।
3.
उग्रवादियों
का तीसरा योगदान स्वराज्य की अवधारणा थी। पहली बार अरविन्द ने पूर्ण आज़ादी की बात
कही। दूसरे उग्रवादी जैसे तिलक भी स्वराज्य की ही बात कर रहे थे। तिलक के स्वराज
और अरविन्द के पूर्ण स्वराज्य में कोई विशेष फर्क नहीं था। आम लोगों के लिए
स्वराज्य का अर्थ आज़ादी ही थी। इस प्रकार उग्रवादियों ने राष्ट्रीय आंदोलन को ऊँचे
बिन्दु तक पहुँचाया जो अपने आप में उनका बड़ा योगदान था। अरविन्द ने साफ शब्दों
में कहा ‘बहुत लोग है जो स्वतंत्रता’ की बात करने से डरते है, लेकिन
मैं अपने देश की आज़ादी की पूर्ण कामना करता हूँ। इसी बात का आगे बढ़ाते हुए वे
कहते हैं : ‘‘हम वैसा स्वराज्य चाहते हैं जिसमें किसी तरह का विदेशी नियंत्रण न
हो। हमारा यह पूर्ण विश्वास है कि हर देश के लोगों का यह अधिकार है कि वे अपने
आदर्श और स्वभाव के अनुकूल अपने राष्ट्रीय जीवन को संचालित करें।’’
4.
उग्रवादियों
का चौथा योगदान यह रहा कि उन्होंने अपने त्याग तपस्या का व्यक्तिगत उदाहरण स्थापित
कर लोगों में आदर्शवादिता की एक नई लहर पैदा की। लोकमान्य तिलक ने निर्भीक होकर
अंगे्रजी राज्य का खुला विरोध किया और उसके लिए उन्हें सजा भी मिली। कांग्रेस के
लिए यह पहला खुला विरोध था और लोक जन मानस में वे इतने प्रतिष्ठित हुए कि लोगों ने
उन्हे ‘लोकमान्य’ की उपाधि दी। वे एक राष्ट्रीय नायक के रूप में स्थापित हुए।
लेकिन तिलक इसमें अकेले नहीं थे। लाला लाजपत राय और अरविन्द घोष आदि सभी लोगों ने
देश के सामने त्याग तपस्या की मिसाल स्थापित की जिसका असर जन मानस पर पड़ा।
5.
इनका
पाँचवा योगदान अपने विचारों को कारगर ढंग से कार्यान्वित करने की मंशा में प्रकट
हुआ। वस्तुतः उनके राजनीतिक उद्देश्य से अधिक अपने उग्रवादी राजनीतिक तरीकों के
चलते उन्हें उग्रवादी होने का गौरव प्राप्त हुआ। 1906 के कलकत्ता कांग्रेस में
तिलक ने साफ शब्दों में कहा कि बहिष्कार ही हमारा राजनीतिक अधिकार है। हम भारत के
बाहर की लड़ाई में अंग्रेजों का साथ नहीं देंगे जिसमें हमारा बहुत संसाधन बरबाद
होता रहा है। हम उनको देश के प्रशासन में भी सहयोग नहीं करेंगे। हम अपना न्यायालय
बनाएंगे और जरूरत पड़ी तो हम कर देने से भी मना कर देंगे। अगर हम ऐसा कर पाएँ तो
कल ही हम स्वतंत्र हो जाएंगे। अरविन्द घोष ने भी बहिष्कार की महत्ता स्थापित की।
वस्तुतः गांधी जी का सत्याग्रह बहिष्कार का ही एक परिष्कृत रूप था। अंत में यह
कहना गलत नहीं होगा कि उग्रवादियों ने राष्ट्रीय आंदोलन के उद्देश्य और उसके
प्राप्त करने के कारगर तरीके में अपना विशिष्ट योगदान दिया। उन्होंने स्वराज्य, स्वदेशी, बहिष्कार
और सशस्त्र विद्रोह की बात भी लोगों के सामने रखी।
इस प्रकार उनके विचारो से जहाँ एक तरफ गांधीवादी राजनीति
की धारा निकली, वहीं दूसरी तरफ सशस्त्र कांतिकारियों की धारा भी उनसे
प्रेरणा पाती रही। अगर एक शब्द में कहें तो देश के नाजुक मोड़ पर उग्रवादियों ने
अहम भूमिका निभाई।
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