रविवार, 12 मार्च 2023

थियोसॉफिकल सोसायटी


थियोसॉफिकल सोसायटी भारत का एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक आन्दोलन था जिसने देश के धार्मिक तथा सामाजिक जीवन को प्रभावित किया। थियोसोफी शब्द दो यूनानी शब्दों के योग से मिल कर बना है। यूनान में थियोस ईश्वर को कहते हैं और सोफ़िया का अर्थ ज्ञान है। संस्कृत में इसे ब्रह्म विद्या कहते हैं। थियोसॉफी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग तीसरी शताब्दी में एलेक्जेण्ड्रिया के ग्रीक विद्वान इम्बीकस ने किया था। आधुनिक काल में इस शब्द का प्रयोग थियोसॉफिकल सोसायटी ने किया

रूस की एक महिला जिनका नाम हेलेना पेत्रोवना ब्लेवास्की था,  प्रेत विद्या की जानकार समझी जाती थीं। उन दिनों अमेरिका में भी प्रेत विद्या की चर्चा छिड़ी हुई थी और कर्नल आलकाट नाम के एक सज्जन इस विद्या से गहरी दिलचस्पी रखते थे। ब्लेवास्की न्यूयार्क गईं तब वहां उनका परिचय आलकाट साहब से हुआ और वहीं दोनों ने मिलकर थियोसोफिकल सोसाइटी की नींव 7 सितंबर 1875 को रखी। कहा जाता है कि तिब्बत में कुछ श्रेष्ठ आत्माएं थीं जिनका संपर्क श्रीमती ब्लेवास्की से था। इन्हीं आत्माओं के पथ प्रदर्शन में वह काम करती थीं। इन्हीं पवित्र आत्माओं ने आगे इन्हें यह संदेश दिया कि तुम अपनी संस्था को लेकर भारत आ जाओ। इस आदेश का पालन करते हुए ब्लेवास्की  16 फरवरी 1879 को मुंबई आ पहुंची। यहां आर्य समाज ने उनका भव्य स्वागत किया। आते ही वे लोग ईसाई मिशनरियों के प्रचार को रोकने का उपाय सोचने लगे एवं इस बात पर जोर देने लगे कि भारत की शिक्षा पद्धति में परिवर्तन होना चाहिए तथा यहां संस्कृत विद्या का पठन-पाठन अधिक महत्वपूर्ण ढंग से चलना चाहिए। सन 1882 में थियोसोफी समाज का कार्यालय अडयार मद्रास ले जाया गया। कुछ दिनों के बाद ब्लेवास्की बीमार होकर इंग्लैण्ड चली गई और फिर नहीं लौटीं। इंग्लैण्ड में इनकी पुस्तक सीक्रेट डाक्ट्रिन छपी इसी को पढ़ कर एनी बेसेंट थियोसोफिकल सोसायटी में दीक्षित हुईं।

इस संस्था के उद्देश्य इस प्रकार से थे-

(1.) प्रकृति के नियमों की खोज करना तथा मनुष्य की दैवी शक्तियों का विकास करना

(2.) किसी भी धर्म की कट्टरता को प्रश्रय न देकर समस्त धर्मों में समन्वय स्थापित करना।

(3.) प्राचीन धर्म, दर्शन और विज्ञान जो संसार में कहीं भी पाया जा सकता है, उसके अध्ययन में सहयोग देना।

(4.) विश्व बन्धुत्व अथवा विश्व मान्यता का विकास करना।

(5.) पूर्वी देशों के धर्मों तथा दर्शन का अध्ययन तथा प्रसार करना।

 

                      एनी बेसेंट के कार्य

श्रीमती एनी बेसेण्ट उच्च शिक्षा प्राप्त, कुलीनवंशी, आयरिश महिला थीं। 16 नवम्बर 1873 को 46 वर्ष की आयु में वह भारत आईं और भारत के सांस्कृतिक आन्दोलन में सक्रिय हो गईं। उन्होंने थियोसॉफिकल सोसायटी के कार्य को फैलाने में बड़ा योगदान दिया। वे जन्म से आयरिश थीं किन्तु उन्होंने भारत को अपनी मातृभूमि मान लिया। उन्हें भारतीयता, हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज से अगाध प्रेम था। उनकी मान्यता थी कि भारत का भविष्य हिन्दू धर्म और संस्कृति से जुड़ा हुआ है। अनेक विद्वान् और नेता, उनके महान् व्यक्तित्व से प्रभावित होकर थियोसॉफिकल सोसायटी में सम्मिलित हो गये।

1.    भारत को घर बना लिया

एनी बेसेण्ट की मान्यता थी कि वे पूर्व जन्म में हिन्दू थीं इसलिए उन्होंने भारत आते ही स्वयं को पूर्ण रूप से हिन्दुत्व के रंग में रंग लिया तथा भारतीय वेश-भूषा और खानपान को अपना लिया। वे हिन्दू तीर्थों में घूमती रहती थीं। उन्होंने अपना अधिकांश समय काशी में व्यतीत किया जहाँ उन्होंने सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना की जो आगे चल कर हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ। काशी के पंडितों ने इन्हें सर्व-शुक्ला-सरस्वती की उपाधि दी।  

2.   भारतीय संस्कृति की सेवा

बनारस में रहते हुए उन्होंने रामायण और महाभारत की कथाएँ लिखीं और गीता का अनुवाद किया। उन्होंने हिन्दू धर्म और संस्कृति के पक्ष में ओजस्वी भाषण दिये। श्रीमती एनीबीसेण्ट द्वारा हिन्दू धर्म की सेवा श्रीमती एनीबीसेण्ट का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य हिन्दू धर्म की सेवा था। राजा राममोहन राय एवं स्वामी दयानन्द ने निराकार ईश्वर की उपासना पर बल दिया तथा मूर्तिपूजा, अवतारवाद, तीर्थ, व्रत-अनुष्ठान एवं पौराणिक बातों का खण्डन किया किंतु एनीबीसेण्ट ने वेद और उपनिषदों के महत्त्व को मान्यता देते हुए मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, योग, पुनर्जन्म, कर्मवाद, तीर्थ, व्रत, गीता, स्मृति, पुराण, धर्मशास्त्र और महाकाव्य आदि के द्वारा हिन्दुत्व के समग्र रूप का तर्कपूर्ण एवं वैज्ञानिक ढंग से समर्थन किया।

3.   हिंदुत्व भारत का भविष्य

वे अपने भाषणों में प्रायः यह बात कहती थीं- 'हिन्दुत्व ही भारत का प्राण है, हिन्दुत्व वह मिट्टी है जिसमें भारत का मूल गड़ा हुआ है। यदि वह मिट्टी हटा ली गई तो भारत रूपी वृक्ष सूख जायेगाहिन्दुत्व के बिना भारत के सामने कोई भविष्य नहीं है। हिन्दुत्व की रक्षा भारतवासी और हिन्दू ही कर सकते हैं। भारत में प्रश्रय पाने वाले अनेक धर्म हैं, अनेक जातियाँ हैं किन्तु इनमें किसी की भी शिरा भारत के अतीत तक नहीं पहुँची है। इनमें से किसी में भी यह दम नहीं कि भारत को एक राष्ट्र के रूप में जीवित रख सके। इनमें से प्रत्येक भारत से लोप हो जाये तब भी भारत, भारत ही रहेगा किन्तु यदि हिन्दुत्व लोप हो गया तो शेष कुछ भी नहीं बचेगा। हिन्दुत्व के जागरण से ही विश्व का कल्याण हो सकता है।'

4.   भारतीयों में आत्म गौरव का रोपण

जिस समय एनीबीसेण्ट भारत आईं, उस समय अँग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों का, हिन्दू धर्म तथा संस्कृति से विश्वास उठने लगा था। ऐसे समय में एनीबीसेण्ट ने भारतीय आदर्शों को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया। एनीबीसेण्ट ने स्वयं हिन्दू तीर्थों की यात्रा की। उन्होंने नंगे पैर अमरनाथ की यात्रा की और वहाँ शीतल जल से स्नान करके मन्दिर में प्रवेश किया। एक अँग्रेजी महिला को ऐसा करते देखकर हिन्दुओं के मस्तिष्क में यह बात बैठ गई कि उनका धर्म अन्य धर्मों से हीन नहीं अपितु श्रेष्ठ है। एनीबीसेण्ट ने काशी में रहकर गीता का अनुवाद किया, रामायण तथा महाभारत पर संक्षिप्त भाष्य लिखे। यूरोप और अमरीका के लोगों के सामने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की महत्ता और गौरवगान किया। जब भारत के अँग्रेजी पढ़े लिखे लोगों ने एक अँग्रेज महिला के मुँह से हिन्दू धर्म और संस्कृति का गौरवगान सुना तो उन्हें अपने धर्म में पुनः आस्था जागृत होने लगी। एनीबीसेण्ट के भाषणों से भारतीयों में आत्मसम्मान की भावना उत्पन्न हुई।

5.   धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या

थियोसॉफिकल सोसायटी एकेश्वरवाद में विश्वास रखती है। इसके अनुसार- 'मानव जाति के विकास का आधार, विकास की ईश्वरीय योजना है, और समस्त धर्म इसी योजना के विभिन्न रूप हैं। इसलिए उनमें परस्पर विरोध नहीं हो सकता। धर्म और विज्ञान में काई विरोध नहीं है।' इस संस्था के अनुयायी कर्मफल और पुनर्जन्म को मानते हैं। उसके अनुसार मृत्यु के बाद कर्मों के अनुसार जीव का पुनर्जन्म होता है और वह अपने पूर्व-कर्मों का फल भोगता है। उनका उद्देश्य विश्व के समस्त वर्गों में भ्रातृत्व का विकास करना है।

6.   भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप

एनीबीसेण्ट ने 1914 ई. में अपना क्षेत्र धर्म से बदलकर राजनीति कर लिया। वे लोकमान्य तिलक द्वारा चलाये गये होमरूल आन्दोलन में सम्मिलित हो गईं। 1917 ई. में मद्रास सरकार ने एनीबीसेण्ट को नजरबन्द कर दिया किन्तु प्रबल जन-आन्दोलन के कारण सरकार ने उन्हें तत्काल मुक्त कर दिया। वे भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के सभापति पद पर चुन ली गईं। काँग्रेस की सक्रिय सदस्य के रूप में उन्होंने भारत में राजनीतिक चेतना जागृत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। थियोसॉफिकल सोसायटी ने अनेक स्थानों पर स्कूल, कॉलेज और छात्रावास स्थापित किये। इस संस्था ने बाल विवाह, कन्या-वर-विक्रय, छुआछूत आदि कुरीतियों का विरोध कर समाज सुधार के कार्य किये।

मूल्यांकन

सोसायटी के कार्यों से न केवल धर्म एवं समाज सुधार आन्दोलन को बल प्राप्त हुआ, अपितु राष्ट्रीय आन्दोलन में भी नई जान आई। श्रीमती एनीबीसेण्ट ने हिन्दू जागरण के लिए जितना कार्य किया, किसी हिन्दू ने भी उतना काम नहीं किया। गाँधीजी ने उनके बारे में लिखा है- 'जब तक भारत वर्ष जीवित है, एनीबीसेण्ट की सेवाएं भी जीवित रहेंगी। उन्होंने भारत को अपनी जन्मभूमि मान लिया था। उनके पास देने योग्य जो कुछ भी था, उन्होंने भारत के चरणों में अर्पित कर दिया। इसलिए भारतवासियों की दृष्टि में वे इतनी प्यारी और श्रद्धेय हो गई हैं।'

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