रविवार, 12 मार्च 2023

दयानंद सरस्वती तथा आर्य समाज

स्वामी दयानंद सरस्वती आधुनिक भारत के समाज सुधारक तथा विचारक थे जो भारतीय समाज को उसके जड़ता और अंधविश्वास से मुक्त करके उसे उसका प्राचीन गौरव लौट आना चाहते थे।

इनके बचपन का नाम मूल शंकर था जिन्हें बाद में दयानंद के नाम से जाना जाने लगा।  इनका जन्म 1824 में गुजरात के मोरवी रियासत के निवासी एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता जो स्वयं वेदों के महान विद्वान थे, उन्होंने इन्हें वैदिक वांग्मय तथा न्याय दर्शन इत्यादि पढ़ाया। दयानंद की जिज्ञासा ने उन्हें योगाभ्यास इत्यादि करने पर बाध्य किया तथा उन्होंने गृह त्याग कर दिया। योग के अध्ययन के लिए दयानंद पर 15 वर्षों तक पूरे भारत में एक तपस्वी की भांति भटकते रहे। 1860 ईस्वी में वे मथुरा पहुंचे और स्वामी विरजानंद जी से वेदों के शुद्ध अर्थ तथा वैदिक धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा प्राप्त की। 1863 में उन्होंने झूठे धर्मों का खंडन करने के लिए पाखंड खण्डनी पताका लहराई। 1874 में लोगों के मार्गदर्शन के लिए उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश की रचना की।

दयानंद ने औपचारिक रूप से 1875 में आर्य समाज की पहली शाखा बंबई में संगठित की। कुछ साल बाद 1877 में आर्य समाज की अन्य शाखा लाहौर में स्थापित की गई। स्वामी दयानंद का उद्देश्य था कि भारत को धार्मिक सामाजिक तथा राष्ट्रीय रूप से एक कर दिया जाए उनकी इच्छा थी कि आर्य धर्म ही देश का समान धर्म हो। आर्य समाज के सिद्धांत तथा नियम सबसे पहले मुंबई में गठित किए गए पुनः उन्हें उनको लाहौर में 1877 में संपादित किया गया।

आर्य समाज में दस सिद्धांतों का एक निश्चित रूप दिया गया जो आज तक परिवर्तित नहीं हुए हैं।

(1.) ईश्वर एक है तथा निराकार है। वह सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, निर्विकार, सर्वव्यापक, अजर, अमर, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। अतः उसकी उपासना करने योग्य है।

(2.) वेद ही सच्चे ज्ञान के स्त्रोत हैं। अतः वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना समस्त आर्यों का परम धर्म है।

(3.) प्रत्येक व्यक्ति को सदा सत्य ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिए तैयार रहना चाहिये।

(4.) समस्त कार्य धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिये।

(5.) संसार का उपकार करना, अर्थात् सबकी शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना मानव समाज का मुख्य कर्त्तव्य है।

(6.) प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये। अपितु सब लोगों की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये ।

(7.) समस्त ज्ञान का निमित्त कारण और उसके माध्यम से समस्त बोध ईश्वर है।

(8.) प्रत्येक व्यक्ति को अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।

(9.) समस्त लोगों से धर्मानुसार, प्रीतिपूर्वक एवं यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।

(10.) व्यक्तिगत हितकारी विषयों में प्रत्येक व्यक्ति को आचरण की स्वतन्त्रता है परन्तु सामाजिक भलाई से सम्बन्धित विषयों में सब मतभेदों को भुला देना चाहिए ।

 

                        दयानंद सरस्वती तथा आर्य समाज के सुधार

(1.) अंधविश्वासों का विरोध:

स्वामी दयानन्द ने पौराणिक रूढ़ियों एवं मान्यताओं की निन्दा की। उन्होंने मूर्ति-पूजा, कर्मकाण्ड, अनेकेश्वरवाद, अवतारवाद, बलि प्रथा, स्वर्ग और नरक तथा भाग्य के सर्वोपरि होने में विश्वास रखने का विरोध किया।

(2.) श्राद्ध एवं पाखण्ड का विरोध:

आर्य समाज ने मृतकों के श्राद्ध का विरोध किया। उसका कहना था कि ब्राह्मणों अथवा अन्य लोगों को भोजन खिलाकर अथवा दान देकर मृतक व्यक्तियों को परलोक में सब कुछ पहुँचाने की कल्पना मूर्खतापूर्ण है। स्वामी दयानन्द किसी धर्म से घृणा नहीं करते थे किन्तु पाखण्ड, ढोंग, असत्य, दम्भ और आडम्बर का जमकर विरोध करते थे ।

(3.) वेदों के महत्त्व की पुनर्स्थापनाः

दयानंद ने वेदों की व्याख्या इस प्रकार की जिससे वेद वैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सिद्धान्तों के स्रोत माने जा सकें। आर्य समाज का दृढ़ विश्वास था कि कोई भी ऐसा ज्ञान नहीं है, जो वेदों से नहीं लिया जा सकता। हमें इस्लाम, ईसाई धर्म तथा पाश्चात्य सभ्यता की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। वेदों की श्रेष्ठता के आधार पर आर्य समाज ने हिन्दू धर्म को इस्लाम और ईसाई धर्म के आक्रमणों से बचाने में सफलता प्राप्त की।

(4.) वैदिक कर्मों का प्रचारः

आर्य समाज ने वेदों के आधार पर यज्ञ-हवन, मत्रोच्चारण, कर्म आदि पर बल दिया। उनका मानना था कि ईश्वर निराकार है, अतः मूर्ति-पूजा निरर्थक है। उन्होंने हिन्दुओं की मोक्ष सम्बन्धी अवधारणा का समर्थन करते हुए कहा कि ईश्वर की उपासना, अच्छे कर्म और ब्रह्मचर्य व्रत के पालन से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।

(5.) जाति प्रथा का विरोध:

भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था से प्रसूत जाति प्रथा, शताब्दियों से प्रचलित थी। इस प्रथा ने सदियों तक हिन्दू धर्म की रक्षा की किंतु मुसलमानों के आने के बाद इसने जो संकुचित स्वरूप ग्रहण किया उससे हिन्दू समाज संकीर्ण होता चला गया। इस कारण हिन्दुओं की सामाजिक एकता भंग हो गई। स्वामी दयानन्द ने जाति प्रथा की कटु आलोचना की। उनके अनुसार समाज में किसी व्यक्ति को जन्म के आधार पर उच्च स्थान पर पहुंचने से वंचित नहीं किया जाना चाहिये। उन्होंने छुआछूत तथा समुद्र- यात्रा-निषेध के विरुद्ध आवाज उठाई तथा प्राचीन वर्ण-व्यवस्था को उचित ठहराते हुए जाति-प्रथा का विरोध किया ।

(6.) स्त्रियों की दशा में सुधार:

बहु-विवाह, बाल-विवाह, पर्दा प्रथा, अशिक्षा, सती प्रथा तथा कन्या-वध जैसी कुरीतियों के कारण हिन्दू समाज में स्त्रियों की दशा अत्यन्त ही शोचनीय थी। आर्य समाज ने स्त्रियों को समाज में उच्च स्थान दिलाने तथा स्त्री-शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया। आर्य समाज ने बाल विवाह, बहु-विवाह तथा पर्दा प्रथा का घोर विरोध किया तथा विधवा-विवाह एवं स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया। दयानंद ने 16 वर्ष से कम आयु की लड़कियों का विवाह बन्द करने का आह्वान किया, सती-प्रथा को पाप बताया और स्त्री-पुरुष की समानता पर बल दिया। स्वामी दयानन्द ने कहा कि स्त्रियों को वेदों का अध्ययन करने तथा यज्ञोपवीत धारण का उतना ही अधिकार है जितना पुरुषों को।

 (7.) शुद्धि आंदोलन:

आर्य समाज ने शुद्धि आन्दोलन को जन्म दिया। हिन्दू धर्म छोड़कर ईसाई एवं मुसलमान हो चुके लोगों को शुद्धि संस्कार के द्वारा पुनः हिन्दू धर्म में स्वीकार किया जाने लगा। आर्य समाज के प्रयत्नों से लाखों हिन्दुओं को जो मुसलमान और ईसाई बन गये थे, शुद्ध करके पुनः हिन्दू धर्म में बुला लिया गया। आर्य समाज ने हिन्दू समाज के सुप्त आत्म गौरव, संगठन की भावना एवं शुद्ध धार्मिक संस्कारों को फिर से जगाया।

(8.) साहित्यिक एवं शैक्षणिक सुधार

स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थ हिन्दी में लिखकर राष्ट्र-भाषा के विकास में योगदान दिया। उन्होंने संस्कृत के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए उसके अध्ययन और अध्यापन पर बल दिया।

(9.) शैक्षणिक सुधार

आर्यसमाजी लाला हंसराज जो पाश्चात्य शिक्षा के समर्थक थे उनके प्रयत्नों से स्थान- स्थान पर पाश्चात्य मानकों पर डी.ए.वी. स्कूल एवं कॉलेज स्थापित किये गए। ये शिक्षण संस्थाएँ सरकारी पद्धति से सम्बद्ध थीं। जबकि महात्मा मुन्शीराम जो भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति को पुनः प्रचलित करना चाहते थे। अतः उन्होंने ने गुरुकुल संस्थाएँ स्थापित कीं।

(10.) राष्ट्रीय सुधार

आर्य समाज ने भारत के प्राचीन गौरव की चर्चा करते हुए स्वावलम्बन के विकास को प्रोत्साहन दिया। वास्तव में वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया। वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना तथा स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करना सिखाया। वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया। स्वामीजी ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि अच्छे-से-अच्छा विदेशी राज्य, स्वदेश की तुलना नहीं कर सकता। इन्होने नमस्ते शब्द को लोकप्रिय बनाया

मूल्यांकन

कुछ आधुनिक विद्वानों की धारणा है कि आर्य समाज का कार्य हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना तक सीमित था। इसलिये इसने राष्ट्रीयता का विकास नहीं किया। इन विद्वानों का आरोप है कि आर्य समाज ने हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान करके साम्प्रदायिक भावना को पुष्ट किया। कुछ अँग्रेज लेखकों, अधिकारियों एवं ईसाई धर्म प्रचारकों ने आर्य समाज के सम्बन्ध में इसी प्रकार के उल्टे-सीधे प्रचार किये। वेलेण्टाइन शिरोल ने लिखा है- 'आर्य समाज का उद्देश्य समाज सुधार की अपेक्षा हिन्दू धर्म को विदेशी प्रभाव से मुक्त करना था।' शिरोल ने आर्य समाज को भारतीय अशांति का जनक कहा। शिरोल के इन आरोपों का प्रत्युत्तर लाला लाजपतराय ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ आर्य समाज में बड़े प्रभावशाली ढंग से दिया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि आर्य समाज के चिंतन का आधार हजारों साल पुराने वेद हैं जिनसे प्रेरणा प्राप्त करना भारतीय समाज की मुख्य धारा को फिर से जीवित करना है इसलिये आर्य समाज को साम्प्रदायिक आन्दोलन की संज्ञा किसी भी प्रकार नहीं दी जा सकती। अपितु जो लोग आर्य समाज पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाते हैं, वस्तुतः वे स्वयं साम्प्रदायिक सोच रखते हैं तथा भारत की मूल सांस्कृतिक धारा के प्रवाह को निरुद्ध करना चाहते हैं।

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