उग्रवादी गुट का
प्रादुर्भाव, उदारवादी नेताओं की कार्यशैली के विरुद्ध
प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। अतः स्वाभाविक था कि उग्रवादी नेताओं की कार्यशैली
उदारवादियों से बिल्कुल भिन्न थी। उग्रवादियों की कार्यशैली में निम्नलिखित मुख्य
तत्व सम्मिलित थे-
1.
आवेदन-निवेदन की नीति में
अविश्वास:
उदारवादी नेता
ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त भारत की कल्पना नहीं करते थे इसलिये वे सरकार से सहयोग
एवं अनुनय का मार्ग अपनाने पर जोर देते थे जबकि उग्रवादी नेता आवेदन-निवेदन और
याचना की नीति में विश्वास नहीं करते थे। वे भारतीयों द्वारा अँग्रेजी साम्राज्य
से सहयोग करने की नीति को भी उचित नहीं समझते थे।
2.
राष्ट्रव्यापी आंदोलन की
आवश्यकता में विश्वास:
उग्रवादी नेता
भारतीयों के लिये स्वराज्य चाहते थे तथा स्वराज्य की प्राप्ति के लिए
राष्ट्रव्यापी आन्दोलन की आवश्यकता अनुभव करते थे। वे जन साधारण में राष्ट्र-प्रेम
एवं बलिदान की अटूट भावना विकसित करना चाहते थे जिससे घबराकर गोरी सरकार भारत से
चली जाये। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार और राष्ट्रीय शिक्षा पर बल देते थे।
3.
जन साधारण को संगठित करने
हेतु धार्मिक समारोहों का प्रयोग:
इस काल में भारत का
सम्पन्न वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग एवं मध्यम वर्ग पश्चिमी
शिक्षा एवं जीवन शैली के आकर्षण में फंसे हुए थे। इन लोगों में राष्ट्रीयता की
भावना उत्पन्न करने के लिए उनके समक्ष भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक
श्रेष्ठता को स्थापित करना आवश्यक था। इसी उद्देश्य से तिलक ने महाराष्ट्र में जन
साधारण के स्तर पर गणेश पूजन तथा शिवाजी उत्सव मनाने की परम्परा आरम्भ की। अरविन्द
घोष ने बंगाल में एक माह तक चलने वाली काली पूजा आरम्भ की। लाला लाजपतराय ने पंजाब
में आर्य समाज आन्दोलन को सशक्त बनाने का काम किया। इस प्रकार इन उग्रवादी नेताओं
ने इन धार्मिक एवं सामाजिक समारोहों को व्यापक रूप देकर उन्हें राष्ट्रीय एकता एवं
सामाजिक चेतना उत्पन्न करने का प्रभावी माध्यम बना दिया।
4.
प्रचार के लिए धार्मिक
प्रतीकों का प्रयोग :
राष्ट्रवादी नेताओं
ने जनसाधरण को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उठ खड़े होने एवं उनमें एकता की भावना
उत्पन्न करने के लिये व्यापक स्तर पर सामाजिक एवं धार्मिक समारोहों को आरम्भ किया
था किंतु अँग्रेजों ने इन समारोहों की आड़ में मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध
उकसाया तथा कट्टर मुस्लिम नेताओं को पृथकतावादी आन्दोलन आरम्भ करने हेतु प्रोत्साहित
किया। सरकार द्वारा उग्र राष्ट्रवाद को मुस्लिम-विरोधी बताकर उसे असफल करने के
प्रयास किये गये। इस कारण भारत में द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धान्त का विकास हुआ। इस
सिद्धांत के अनुसार भारत में एक राष्ट्र नहीं होकर दो राष्ट्र बसते हैं- पहला
हिन्दू राष्ट्र और दूसरा मुस्लिम राष्ट्र। इस विचार से प्रभावित होकर अनेक
मुसलमानों ने स्वयं को राष्ट्रीय आन्दोलन से दूर कर लिया तथा 1906 ई. में मुस्लिम लीग की स्थापना की।
5.
राष्ट्रवादी शिक्षा के विकास
की आवश्यकता:
उग्रवादी नेता भारत
में ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति स्थापित करना चाहते थे जो देशभक्त नागरिक तैयार
कर सके। उनका मानना था कि अँग्रेजी शिक्षा पद्धति से मानसिक गुलाम तैयार किये जा
रहे हैं। यदि भारतीय नौजवानों में स्वतंत्र चिंतन की योग्यता उत्पन्न हो जाये तो
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को स्वतः गति प्राप्त हो जायेगी। इस विचार से प्रेरित
होकर उग्रवादी नेताओं ने देश भर में थियोसॉफिकल स्कूल और कॉलेज, डी. ए. वी. स्कूल, हिन्दू कॉलेज, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आदि स्थापित किये। इन संस्थाओं ने राष्ट्रीयता
के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस पर अँग्रेजों ने मुसलमानों तथा अन्य
धर्मावलम्बियों को भी अपनी अलग शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने के लिये उकसाया
जिनमें उन धर्मों, मतों एवं पंथों की धार्मिक शिक्षा दी जाने
लगी।
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