कांग्रेस ने अपनी स्थापना के प्रारम्भिक बीस वर्षों में
वार्षिक अधिवेशनों में विभिन्न प्रस्ताव पारित करके ब्रिटिश सरकार का ध्यान भारतीय
जनता की समस्याओं की ओर आकर्षित किया तथा नागरिक प्रशासन में विभिन्न प्रकार के
सुधार करने की मांग की। उनकी विभिन्न मांगे इस प्रकार से थीं-
1.
राजनीतिक
मांगें
प्रारम्भिक राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा भारत की गोरी सरकार
से भारतीयों के लिये अनेक राजनीतिक अधिकारों की मांगें की गईं- 1. प्रशासन
व्यवस्था में भारतीयों की अधिक से अधिक भागीदारी हो। 2. विधायी
परिषदों में सुधार हो। 3. केन्द्रीय तथा प्रान्तीय कौंसिलों का विस्तार
हो तथा उनमें सरकार द्वारा नामित सरकारी सदस्यों की संख्या में कमी करके निर्वाचित
और गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों की संख्या में वृद्धि की जाये। 4. कार्यपालिका
और न्यायपालिका का पृथक्करण हो तथा मुकदमों की सुनवाई में जूरी प्रथा को मान्यता
दी जाये। 5. वित्तीय व्यवस्था का पुनर्गठन करके करों का बोझ कम किया
जाये। 6. अँग्रेजी साम्राज्य की सुरक्षा और विस्तार के व्यय में
ब्रिटिश सरकार भी भागीदारी निभाये। 7.
सरकार के सैनिक व्यय में कमी
की जाये।
2.
नागरिक
अधिकारों की मांगें
उदारवादी नेता नागरिकों के लिये भाषण और प्रेस की
स्वतन्त्रता का अधिकार, संगठन बनाने की स्वतन्त्रता का अधिकार जैसे
नागरिक अधिकारों की मांग उठाते थे। जब कभी सरकार इन अधिकारों को सीमित करने का
प्रयास करती थी, तब उदारवादी नेता इन अधिकारों के समर्थन में दलीलें देते
थे। 1878 ई. में पारित प्रेस अधिनियम का उदारवादियों ने तब तक
विरोध किया जब तक कि सरकार ने इस अधिनियम को निरस्त नहीं कर दिया। इसी प्रकार, 1880-90
ई. में जब सरकार ने समाचार पत्रों के आलोचना करने के अधिकार को समाप्त करने का
प्रयास किया, तब उदारवादियों ने सरकारी प्रयासों का विरोध किया।
3.
सांविधानिक
सुधार और स्वशासी सरकार की मांग
उदारवादी नेता एक स्वशासी सरकार की स्थापना चाहते थे
परन्तु इस दिशा में उन्होंने जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाया। प्रारम्भ में
उन्होंने विधान परिषदों के विस्तार और विभिन्न सुधारों के माध्यम से भारतीय जनता
को सरकार में अधिक हिस्सा देने की मांग की। इसके बाद उन्होंने विधान परिषदों के
अधिकारों में वृद्धि की मांग की ताकि बजट पर बहस की जा सके और प्रशासन के कार्यों
की समीक्षा करने का अवसर मिल सके। 1905 ई. तक इस विषय में प्रस्ताव पारित किये जाते
रहे।
4.
नागरिक
सेवाओं के भारतीयकरण की मांग
उदारवादियों का मानना था कि विभिन्न प्रशासकीय एवं वित्तीय
बुराइयों को तब तक दूर नहीं किया जा सकता जब तक कि अधिक-से अधिक भारतीयों को सिविल
सेवाओं में भरती नहीं किया जायेगा। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण
में उमेशचन्द्र बनर्जी ने कहा- 'मैं समझता हूँ कि यूरोप की तरह की शासन पद्धति
की आकांक्षा रखना, कदापि राजद्रोह नहीं है। हमारी आकांक्षा केवल इतनी है कि
शासन का आधार अधिक व्यापक हो और उसमें देशवासियों को समुचित तथा न्यायपूर्ण भाग
मिले।' उन्होंने यह भी मांग की कि न्यायिक कार्य केवल उन्हीं
व्यक्तियों को दिया जाये जो कानून के विशेषज्ञ हों।
5.
भारत
से धन निष्कासन रोकने की मांग
दादाभाई नौरोजी भारत में व्याप्त निर्धनता के लिए आवाज
उठाने वाले प्रथम व्यक्ति थे। उन्होंने दो पुस्तकें- (1.) पावर्टी
इन इण्डिया तथा (2.) पावर्टी ऐन अनब्रिटिश रूल इन इण्डिया लिखीं। उन्होंने भारत
की निर्धनता के लिए अन्य विचारकों एवं आलोचकों द्वारा प्रस्तुत किये गये तर्कों को, जिनमें
भारत की निर्धनता के लिए भारत की बढ़ती हुई आबादी को दोषी ठहराया था, अमान्य
सिद्ध किया। भारत की निर्धनता के लिए उन्होंने भारत की बढ़ती आबादी के स्थान पर
अँग्रेजों की क्रूर आर्थिक शोषण की नीति को उत्तरदायी ठहराया। धन निर्गम सिद्धान्त
में उन्होंने लिखा कि विशेष रूप से चार मदों में इस देश की विपुल धन राशि ब्रिटिश
हुकूमत की नहर प्रणाली से इंग्लिश चैनल तक पहुंच रही है- (1.) ब्रिटिश
अधिकारियों की पेंशन, (2.) भारत में सेना के व्यय के लिये ब्रिटेन के
युद्ध विभाग को भुगतान (3.) भारत सरकार का ब्रिटेन में व्यय और (4.) भारत
स्थित ब्रिटिश व्यावसायिक वर्ग द्वारा स्वदेश भेजी गई अपनी कमाई। भारत
से जो पूँजी इंग्लैण्ड जाती थी उसके बदले में भारत को कुछ भी प्राप्त नहीं होता
था। भारत से इंग्लैण्ड भेजा गया धन सार्वजनिक ऋण के रूप में पुनः भारत आता था जिसे
चुकाने के लिए ब्याज देना पड़ता था। उदारवादियों ने मांग की कि देश का उत्पादन देश
में ही रहे तथा भारत से धन-निष्कासन रोका जाये।
6.
भारतीय उद्योगों को संरक्षण की मांग
उदारवादियों
का मानना था कि भारत के तीव्र औद्योगीकरण में कई बाधाएँ हैं। जैसे- 1. स्वदेशी
उद्योगों का ह्रास, 2. पूंजी की कमी,
3. तकनीकी शिक्षा का अभाव, 4. भारतीयों
में उद्यम भावना की कमी और 5. मुक्त व्यापार की नीति। उदारवादी नेताओं ने इन
बाधाओं को दूर करने तथा भारतीय उद्योगों को सरकारी प्रोत्साहन एवं सरंक्षण देने की
मांग की। क्योंकि सरकारी सहायता के बिना भारत का औद्योगिक विकास सम्भव नहीं था और
बिना औद्योगिक विकास के आर्थिक समृद्धि की कल्पना करना निरर्थक था। जस्टिस महादेव
गोविन्द रानाडे का कहना था- 'भारत की गिरती हुई आर्थिक स्थिति का वास्तविक
कारण भारत के घरेलू उद्योग-धन्धों का ह्रास तथा भारत की कृषि पर अत्यधिक निर्भरता
है।'
7.
श्रमिकों की दशा सुधारने की मांग
उदारवादी
नेताओं ने श्रमिकों की स्थिति सुधारने की मांग की परन्तु इस विषय में अधिक उत्साह
नहीं दिखाया। रानाडे, दादाभाई नौरोजी,
जी. वी. जोशी, आर.
सी. दत्त जैसे नेताओं ने भी श्रमिकों के प्रति कोई विशेष सहानुभूति प्रकट नहीं की।
कांग्रेस के अधिवेशनों में भी श्रमिकों से सम्बन्धित प्रस्ताव पारित नहीं किये गये
जबकि इस युग में भारतीय श्रमिकों की दशा शोचनीय थी। आगे चलकर लाला लाजपतराय ने इस
विषय को पूरी शक्ति के साथ उठाया।
8.
कृषि एवं कृषकों की दशा सुधारने की मांग
ब्रिटिश
शासन के अन्तर्गत कृषि एवं कृषक दोनों की दशा खराब होती जा रही थी। उदारवादी
नेताओं का मानना था कि कठोरतापूर्वक किया गया कर निर्धारण और कर की ऊँची दर के
कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है। उन्होंने सरकार से भूमि कर में कमी करने तथा
किसानों की स्थिति सुधारने के लिए पुराने ऋण माफ करने की मांग की। उन्होंने
जमींदारों के अधिकारों में कमी करने तथा किसानों को स्वतंत्र बनाने का सुझाव दिया
ताकि किसान अपनी जमीन पर जी-तोड़ परिश्रम करके उत्पादन को बढ़ा सके।
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