रविवार, 12 मार्च 2023

स्वामी विवेकानन्द के सुधार


स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। इनका जन्म 12 जनवरी 1863 में कलकत्ते में हुआ था। नरेन्द्र कुश्ती, बोक्सिंग, दौड़, घुड़ दौड़ तथा तैराकी में दक्ष थे। वे संगीत के प्रेमी तथा तबला बजने में उस्ताद थे। स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। सन 1893 में अमेरिका के शिकागो में होने वाली धर्म संसद में इन्होने भाग लिया। विवेकानंद ने मई 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की तथा 1 जनवरी 1899 को वेलूर में मिशन का मुख्यालय स्थापित किया। इनके सुधार प्रयासों के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं -

(1.)सभी धर्मों का सम्मान तथा उसकी आवश्यकता पर जोर

विवेकानंद ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा- 'धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है; धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धान्तों में। यह केवल अनुभूति में निवास करता है। मनुष्य सर्वत्र अन्न ही खाता है किन्तु हर देश में अन्न से भोजन तैयार करने की विधियाँ अनेक हैं। इसी प्रकार धर्म मनुष्य की आत्मा का भोजन है और देश-देश में उसके भी अनेक रूप हैं। उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा “हमारी जन्म भूमि का कल्याण तो इसमें है कि उसके दो धर्म, हिंदुत्व और इस्लाम मिलकर एक हो जाएँ, वेदांती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर के संयोग से जो धर्म खड़ा होगा वही भारत की आशा है”।

(2.)निवृति नहीं बल्कि प्रवृति पर जोर 

विवेकानन्द वेदान्त की परम्परागत व्याख्या से सहमत नहीं थे। भारतीय संत, सांसारिक जीवन से विमुख होकर ध्यान-समाधि द्वारा ब्रह्म से साक्षात्कार का उपदेश देते थे किन्तु विवेकानन्द ने कहा कि ब्रह्म से साक्षात्कार करने के लिए सांसारिक जीवन से विमुख होना अनुचित है। सच्ची ईश्वरोपासना यह है कि हम अपने मानव बन्धुओं की सेवा में अपने आपको लगा दें। उन्होंने दीन-दुखी तथा दरिद्र मानव को ईश्वर का रूप बताया और उसके लिए दरिद्रनारायण शब्द का प्रयोग किया। जब पड़ौसी भूखा हो तब मन्दिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं, अपितु पाप है।

(3.) मानवमात्र की सेवा को प्राथमिकता:

स्वामी विवेकानंद ने अपने उपदेशों में मानव मात्र की सेवा को सबसे महत्त्वपूर्ण बताया। वे शिक्षा, स्त्री-पुनरुद्धार तथा आर्थिक प्रगति के पक्षधर थे। उन्होंने रूढ़िवाद, अन्धविश्वास और अशिक्षा की आलोचना की तथा कहा- 'जब तक करोड़ों व्यक्ति भूख और अज्ञानी हैं, तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जो उन्हीं के खर्च पर शिक्षा प्राप्त करता है किन्तु उनकी परवाह बिल्कुल नहीं थी कि सन्यासी में मानव मात्र के प्रति सेवा-भाव का लक्ष्य होना चाहिये’।

(4.) भौतिक प्रगति पर जोर :

स्वामी विवेकानंद की मान्यता थी कि देश की गरीबी को दूर करना आवश्यक है। उन्होंने ईसाई धर्म के अनुयायियों को स्पष्ट किया कि भारत में ईसाई धर्म के प्रचार से उतना लाभ नहीं हो सकता जितना पश्चिमी औद्योगिक तकनीकी तथा आर्थिक ज्ञान से हो सकता है। कहते हैं कि एक बार कोई नवयुवक उनके पास गया और बोला कि स्वामी जी मुझे गीता समझा दीजिये। स्वामी जी ने सच्चे मन से कहा कि गीता समझने का वास्तविक क्षेत्र फ़ुटबाल का मैदान है, घंटे भर खेलो गीता तुम स्वयं सीख जाओगे।

(5.) अस्पर्श्यता का विरोध:

स्वामीजी छुआछूत के घोर विरोधी थे तथा जन्म पर आधारित वर्ण-भेद को नहीं मानते थे। उन्होंने अन्ध-विश्वासी और छुआछूत में विश्वास करने वाले सन्यासियों और ब्राह्मणों की तीव्र आलोचना की। वे थियोसॉफिकल सोसायटी से भिन्न विचार रखते थे, क्योंकि थियोसॉफिकल सोसायटी अन्ध-विश्वासों और तन्त्र-विद्या को प्रोत्साहन दे रही थी।

(6.) आध्यात्मिकता से आत्म-निर्माण:

स्वामी विवेकानंद सामाजिक सुधारों में विश्वास नहीं करते थे। उनका कहना था कि आध्यात्मिकता से आत्म-निर्माण होता है जिससे देश की सामाजिक और आर्थिक प्रगति सम्भव है। आध्यात्मिक उन्नति के माध्यम से वे मनुष्य को मनुष्य बनाना चाहते थे और उसी को प्रगति मानते थे ।

(7.) संगठित प्रयत्नों पर बलः

स्वामी विवेकानंद ने जन-कल्याण के लिये संगठित प्रयत्नों पर बल दिया तथा इस कार्य के लिये रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जहाँ दीन-दुखियों की सहायतार्थ विभिन्न जातियाँ, वर्ग और धर्म मिल सकते थे। उनका कहना था कि गरीबो की सहायता करना ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में एक यज्ञ होगा। विवेकानन्द की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि उन्होंने सन्यासियों के समक्ष व्यक्ति-निष्ठ मोक्ष की अपेक्षा समाज सेवा का आदर्श प्रस्तुत किया।

(8.) भारतीयों में आत्म सम्मान की उत्पत्ति:

स्वामी विवेकानंद ने पश्चिमी देशों में हिन्दुओं की आध्यात्मिक उपलब्धियों की चर्चा करके हिन्दुओं की हीन भावना को समाप्त करने का प्रयास किया। भारतीयों में आत्म-विश्वास और आत्म-सम्मान की भावना उत्पन्न करना स्वामीजी की महान् देन है।

(9.) राष्ट्रीयता का निर्माण

स्वामी विवेकानन्द ने राष्ट्रीयता के निर्माण में विपुल योगदान दिया। उन्होंने हिन्दू धर्म और आध्यात्मवाद की श्रेष्ठता को स्थापित करके हिन्दुओं में आत्मगौरव और देश-प्रेम उत्पन्न किया। उन्होंने वेदान्त की व्याख्याओं के माध्यम से यह सिद्ध किया कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में ईश्वर की ज्योति देख सकता है।

इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने देश में सांस्कृतिक चेतना की जो धारा प्रवाहित की, उस पर भारतीय राष्ट्रीयता का भव्य भवन खड़ा किया जा सका। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिकता के बल से विश्व पर सांस्कृतिक विजय प्राप्त की जा सकती है किन्तु जब तक भारत दासता की बेड़ियों से जकड़ा हुआ है, वह इस महत्त्वपूर्ण भूमिका को नहीं निभा सकता। उनकी मान्यता थी कि भारत की राजनैतिक स्वतन्त्रता विश्व मानवता के उद्धार के लिये अनिवार्य है । उन्होंने भारतीयों में राजनीतिक स्वाधीनता की भावना जागृत की। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है- 'यदि कोई भारत को समझना चाहता है तो उसे विवेकानंद को पढ़ना चाहिए।' जिस स्वप्न के कवि विवेकानंद थे, गांधी और नेहरु उसके इंजिनियर हुए।

कोई टिप्पणी नहीं:

व्यावसायिक क्रांति का महत्त्व

व्यावसायिक क्रांति, जो 11वीं से 18वीं शताब्दी तक फैली थी, यूरोप और पूरी दुनिया के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में अत्यंत म...