अकबर अशिक्षित था किंतु संघर्षों ने उसे राजनीति के श्रेष्ठ गुणों से भर दिया था। वह प्रथम सफल विजेता था जिसने राजपूतों की स्वतंत्रता नष्ट कर उन्हें मुग़ल साम्राज्य का उपयोगी सहायक बना दिया। उसने लोगों को जंजीरों में जकड़ा, किन्तु उनके ऊपर सोने का मुलम्मा चढ़ा दिया जिसकी उन्हें आदत पड़ गई। उसने शक्ति का उपयोग ऐसे किया कि अकीर्तिकर राग-द्वेष के साथ राजपूतों का जातीय अभिमान भी बना रहा।
राजपूत
नीति को प्रेरित करने वाले कारक :
स्वार्थों का महा-मिलन
मुग़ल
हित -
1.
सत्ता
के वैकल्पिक स्रोत की तलाश : अकबर को मुगल,
तुर्क, अफगान
तथा चगताई अमीरों और मिर्जाओं पर विश्वास नहीं था,
क्योंकि वे प्रायः विद्रोह
करके तख्त हड़पने का प्रयास करते थे। ऐसी स्थिति में अकबर को ऐसे नये अमीरों की
आवश्यकता थी, जो अकबर के प्रतिद्वंद्वी न हों, जिनकी
स्वामिभक्ति अटल हो और जिनकी सहायता से अकबर विश्वासघाती तथा विद्रोही मुस्लिम
अमीरों पर नियंत्रण रख सके।
2.
राजपूतों
के प्रति कृतज्ञता तथा हुमायूँ का सुझाव : अकबर का जन्म एक राजपूत राजा के संरक्षण
में तथा उसके महल में हुआ था जबकि अकबर के अपने चाचा ने अकबर के प्राण लेने में
कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। हुमायूँ ने भी फारस के सुल्तान की सलाह को अकबर को दिया
कि अफगानों के विरुद्ध राजपूतों की परवरिश करो।
3.
विस्तृत
सैन्य बाज़ार तक पहुँच : अकबर को अपने उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए एक विशाल
सेना की आवश्यकता थी। उसे भारत में योग्य तथा कुशल सैनिक राजपूताने से ही प्राप्त
हो सकते थे ।
4.
राजपूताने
का भौगोलिक तथा व्यापारिक महत्त्व: राजपूताना दिल्ली तथा आगरा के अत्यन्त निकट
स्थित था। इसलिये राजपूत मुगल साम्राज्य तथा उसकी राजधानी के लिए कभी भी खतरनाक सिद्ध
हो सकते थे। साथ ही समुद्री व्यापार के लिए गुजरात तक पहुँच आवश्यक थी जिसका मार्ग
राजपूताने से होकर जाता था।
5.
सुलह-कुल
की भावना: कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अकबर उस समय के सूफी और भक्ति आन्दोलन
के प्रभाव तथा उदार माहौल के कारण सुलह-कुल की भावना से प्रेरित था। इसलिये वह सुलह-कुल
की नीति के कारण भी राजपूतों को अपना मित्र बनाने का निश्चय किया था।
राजपूत
हित –
(1.)
सुरक्षा
और सम्मान की आशा : अकबर से राजपूत मैत्री के युग का आरम्भ राजा भारमल द्वारा अपनी
पुत्री का विवाह अकबर के साथ करने के बाद हुआ था। भारमल को छोटे-बड़े शत्रुओं से
छुटकारा मिल गया तथा उसका राज्य सुरक्षित हो गया। उसके पुत्र तथा पौत्र को मुगल
सेना में उच्च पद मिल गये। अन्य राजपूतों ने भी भारमल के इस कदम का अनुकरण करना ही
ठीक समझा।
(2.) वतन जागीर : अकबर ने समस्त विजित मुसलमान
राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया किंतु एक भी बड़े राजपूत राज्य को
मुगल साम्राज्य में नहीं मिलाया। बल्कि उनका राज्य वतन जागीर के तौर पर उन्हें
पुनः लौटा दिया साथ ही अधीनता स्वीकार करने वाले राजपूत शासकों को भी अकबर ने अन्य
स्थान पर भी जागीर दिया।
(3.) आतंरिक स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप नहीं : अकबर
ने राजपूतों को यह विश्वास दिला दिया कि अकबर केवल इतना ही चाहता था कि समस्त
राजपूत राज्य उसकी अधीनता स्वीकार कर लें और मुगल साम्राज्य के निर्माण में सहयोग
प्रदान करें। अकबर ने उन राजपूत राज्यों के आन्तरिक शासन में किसी भी प्रकार का
हस्तक्षेप नहीं किया। उसने उन राज्यों की केवल विदेश नीति पर नियंत्रण स्थापित
किया।
(4.) जीवन के शत्रु और सम्मान के मित्र : अखिल
भारतीय प्रतिष्ठा : अकबर ने राजपूतों के सम्मान का विशेष ध्यान रखा साथ ही राजपूतों
को मुगल साम्राज्य में अपनी सामरिक तथा प्रशासनिक प्रतिभा के प्रदर्शन का पूर्ण
अवसर प्राप्त था, जिससे वे अपनी भुजाओं का जौहर दिखा सकते थे।
(5.) धर्म की जगह कुल के गौरव पर जोर : राजपूत
शासकों में कुल के अहंकार की भावना इतनी अधिक थी कि उनमें परस्पर भाईचारा स्थापित
होना संभव नहीं था। वे सदैव किसी न किसी
बात पर अपने पड़ोसी राज्यों से लड़ते रहते
थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने स्व-धर्मी राजपूत शासक से परास्त होकर अथवा उसकी अधीनता
स्वीकार करके रहने की बजाय गैर-धर्मी शक्ति के सहायक होकर रहना अधिक पसंद किया।
राजपूत
नीति का क्रियात्मक स्वरूप
1.
खराज़
की एक निश्चित रकम देना
2.
विदेश
नीति सम्राट के अधीन होना
3.
सैन्य
संसाधन उपलब्ध कराना
4.
अपने
को साम्राज्य का अभिन्न अंग मानना
5.
उत्तराधिकार
का शहंशाह द्वारा अनुमोदन
निरंतरता
और परिवर्तन के तत्व
प्रशासन
में हिन्दुओं की सहभागिता तथा विवाह सम्बन्ध अकबर की निजी देन नहीं थी। लोदियों के
काल में भी हिन्दुओं को महत्वपूर्ण पद प्रदान किये गए थे।
अल्लाउद्दीन ने देवगिरी के शासक की पुत्री झत्यपाली से विवाह किया था साथ ही
विजयनगर तथा बहमनी के बीच भी वैवाहिक संबंधों का जिक्र मिलता है। लेकिन वतन जागीर
की धारणा तथा आतंरिक स्वतंत्रता का एक भिन्न स्वरूप अकबर की देन थी।
राजपूत
नीति में परिपक्वता का विकास
प्रथम
चरण (1556- 1572): विश्वास बहाली के उपाय - राजपूत एक वफादार मित्र के रूप में
Ø हुमायूँ की सलाह कि राजपूतों की परवरिश करो
Ø 1557 हाथी बिदका पर भारमल की टुकड़ी डटी रही
Ø 1562 भारमल की पुत्री हरखा बाई से अकबर का
विवाह
Ø 1562 गुलाम बनाने की मनाही
Ø 1563 तीर्थ यात्रा कर समाप्त
Ø 1564 ज़ज़िया कर समाप्त
Ø उज़बेक विद्रोह में राजा भारमल का बेटा अकबर के
साथ में
Ø 1569 कछवाहा कन्या से सलीम का जन्म
Ø दानियाल का पालन आम्बेर में
Ø 1572 गुजरात अभियान के दौरान राजधानी भारमल के
अधीन
द्वितीय
चरण (1572- 1578): राजपूत बाजू की तलवार के रूप में
Ø शेर खां फुलादी का पीछा करने के लिए मानसिंह
को भेजा गया तथा उसकी सराहना
Ø इब्राहिम हुसैन के विद्रोह के समय मानसिंह
अग्रिम मोर्चे पर
Ø युद्ध के समय भगवान सिंह हमेशा अकबर के बगल
में
Ø भगवान सिंह का बेटा भूपत राय युद्ध में शहीद,
अकबर ने इसे व्यक्तिगत छाती मानी तथा भगवान दास की बहन को शोक मनाने के लिए आम्बेर
भेजा
तृतीय
चरण ( 1578 से ) : साम्राज्य में हिस्सेदार के रूप में
Ø कश्मीर अभियान का नेतृत्व भगवान सिंह तथा
मानसिंह को
Ø अकबर ने अपने आप को रुढ़िवादी मुल्लाओं के
चंगुल से मुक्त कर लिया
Ø राजपूतों को राज्य में हिस्सेदारी
Ø तूरानी अमीरों के मुकाबले राजपूतों को तरजीह
Ø सौतेले भाई मिर्जा हकीम के विरुद्ध राजपूतों
को लगाया
Ø जगत गोसाईं का विवाह सलीम से
Ø सामरिक महत्त्व के क़ाबुल, लाहौर, आगरा, अजमेर
में चार राजपूत सूबेदार नियुक्त
राजपूत
नीति की विशेषताएं
1.
आतंरिक
स्वतंत्रता तथा वाह्य परतंत्रता : गृह नीति तथा विदेश नीति
2.
स्नेह
तथा दंड की नीति : भिन्न प्रकार के राजपूत से अलग अलग व्यवहार
3.
संघर्ष
के वास्तविक क्षेत्र की पहचान : मुज़ाहिदाने इस्लाम की जगह मुज़ाहिदाने इकबाल
4.
वैवाहिक
सम्बन्ध
5.
उभय-पक्षीय
हित
6.
समिश्र
शासक वर्ग
राजपूत
नीति के परिणाम
1.
मुगलों
को बहादुर योद्धाओं की सेवाएं प्राप्त
2.
राजपूतों
को अखिल भारतीय पहचान मिली
3.
वतन
जागीर
4.
मुगलों
की विदेशी छवि क्षीण
5.
धार्मिक
स्वतंत्रता
6.
समिश्र
संस्कृति का विकास
7.
कहावत
चरितार्थ कि दो मस्तिष्क एक मस्तिष्क से बेहतर कार्य करते हैं
राजपूत
नीति की सीमाएं : स्थायित्व का अभाव
1.
आधार
चरम स्वार्थ पर अतः पूरा नहीं होने पर बिखर गया
2.
उत्तराधिकार
के प्रश्न पर विवाद और विद्रोह
3.
अकबर
ने राजपूतों में फूट को प्रोत्साहित किया
4.
विरोधी
राजपूतों के सदात उदारता का व्यवहार न करके कुचला गया
5.
सूफी
आन्दोलन का प्रतिक्रियावादी चरण – नक्शबंदी सिलसिले का प्रभाव
निष्कर्ष
जो
भी हो उसकी विजय श्री किसी भी अपवित्रीकरण अथवा धार्मिक उत्पीड़न से धूमिल नहीं हो
पाई थी और उसने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे उसके राजपूत शत्रुओं की भावनाओं को
ठेस पहुंचे। हैसियत की दृष्टि से राजपूतों को मुसलमानों के समकक्ष रखे जाने के
कारण उसे राजपूतों की निष्ठा सहज ही प्राप्त हो गई और उन्होंने साम्राज्य की सेवा
में दूरस्थ से दूरस्थ तथा भयानक स्थानों पर अपने जीवन का खून बहाया।
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